Tuesday, September 30, 2008

विदुर नीति:काम निकल जाए तो फिर कौन पूछता है

1.निरोग रहना, ऋणी न होना, विदेश में रहना, अच्छे लोगों के साथ मेल होना, अपनी वृत्ति से जीविका चलाना और निर्भय होना ये किसी मनुष्य के लिए लिये इस लोक में छह सुख हैं।
2. ईष्र्या करने वाला, घृणा करने वाला, मन में असंतोष रखने वाला, क्रोधी, सदैव संशय में रहने वाला और दूसरों के भाग्य पर जीवन पर निर्भर रहने वाला छह लोग सदा दुखी रहते है।
3. शिक्षा समाप्त कर चुका शिष्य अपने गुरु का, विवाहित पुत्र अपनी मां का, काम भावना शांत होने पर पुरुष स्त्री का, कार्य संपन्न होने पर मनुष्य अपने सहायक का, नदी की धारा पार कर लेने वाला पुरुष नाव का तथा रोग मुक्त हुआ रोगी अपने चिकित्सक का सदा अपने अनादर करते हैं
4.स्त्रियों के विषय में आसक्त रहना, जुआ, शिकार, मद्यपान, कठोर वाणी बोलना, अत्यंत कठोर दंड देना और अपने धन का दुरुपयोग करना यह सात दुर्गुण त्याग देना में ही भलाई है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय- अक्सर जीवन में ऐसा समय आता है जब हम किसी का काम करते हैं तो यह अपेक्षा करते हैं कि वह हमेशा ही हमारा सम्मान करेगा पर ऐसा होता नहीं । काम निकल गया तो कौन पूछता है? मगर हम दूसरों के लिये कहते हैं स्वयं भी यही करते हैं। कोई हमारा काम कर देता है तो फिर हम भी उसको कितना भाव देते हैं। यह एक सामान्य मानवीय स्वभाव है। जीवन में हर कोई किसी न किसी का काम करता है पर अपेक्षाओं का भाव आदमी को निराश कर देता है। सोचता है कि अमुक का काम किया पर अब वह मान नहीं देता पर अपनी तरफ आदमी नहीं देखता कि उसका किसी ने काम किया तो उसे वह कितना मान दे रहा है।

नौकरी पेशा लोगों को इस बात का अनुभव होता होगा कि जब बोस को काम कराना होता है तो कितना मीठा बोलता है और जब निकल जाता है तो फिर अपने रुतबा दिखाने लगता हैं यह सहज व्यवहार है। लोग अपने अंदर ऐसे व्यवहार को लेकर व्यर्थ ही तनाव पालते हैं। इसलिये जब बोस कभी अगर मीठा बोल रहा हो तो अब उससे प्रभावित न हों । यह मानकर चलो कि जब काम हो जायेगा तब वह आपको वैसा नहीं पूछेगा। इससे और कुछ नहीं होगा पर आप बाद में उसकी उपेक्षा से अपने अंदर तनाव अनुभव नहीं करेंगे।

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Monday, September 29, 2008

संत कबीर सन्देश:शब्द का सार जाने बिना कोई सिद्ध नहीं हो सकता

जंत्र मंत्र झूठ है, मति भरमो जग कोय
सार शब्द जानै बिना, कागा हंस न होय


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि यंत्र और मंत्र एकदम बेकार है और इसके भ्रम में कभी मत पड़ो। जब तक परम सत्य और शब्द को नहीं जानेगा तब तक वह सिद्ध नहीं हो सकता। कौवा कभी हंस नहीं हो सकता।

जिहि शब्दे दुख ना लगे, सोईं शब्द उचार
तपत मिटी सीतल भया, सोई शब्द ततसार


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि अपने मुख से ऐसे शब्द बोलना चाहिए जिससे दूसरा प्रसन्न हो जाये। अगर दूसरा व्यक्ति हमारे बोलने से प्रसन्न होता है तो हमें स्वाभाविक रूप से आत्मिक सुख की प्राप्ति होती है।

संपादकीय व्याख्या-कहते हैं कि शिक्षा व्यक्ति को जागरूक बनाती है पर कुछ हमारे देश में कुछ लोग ऐसे है जो शिक्षित होने के बावजूद टोने टोटके वालों के पास जाकर अपनी समस्याओं का हल ढूंढते हैं या कथित ढोंगी साधुओं की दरबार में उपस्थित होकर उनका आशीर्वाद लेते हैं। यह यंत्र-मंत्र और टोना टोटका कई लोगों के लिये व्यापार बना हुआ है। कहीं पैसा लेकर यज्ञ हो रहा है तो कही तावीज आदि बेचा जाता है। किसी के हाथ में कोई सिद्धि नहीं है पर सिद्ध कहलाने वाले बहुत लोग मिल जायेंगे। सच तो यह है जीवन का पहिया घूमता है तो कई काम स्वतः बनते हैं तो कई आदमी के बनाने के बावजूद बिगड़ जाते हैं। ऐसे में अंधविश्वासों की सहायता लेना अपने आपको धोखा देना है।
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Saturday, September 27, 2008

संत कबीर संदेशः सिंह समूह में नहीं चलते, हंस कभी कतार नहीं बनाते

चतुराई हरि ना मिलै, ए बातां की बात
एक निस प्रेही निराधार का गाहक गोपीनात

कबीरदास जी का कथन है कि चतुराई से परमात्मा को प्राप्त करने की बात तो व्यर्थ है। जो भक्त उनको निस्पृह और निराधार भाव से स्मरण करता है उसी को गोपीनाथ के दर्शन होते हैं।

सिहों के लेहैंड नहीं, हंसों की नहीं पांत
लालों की नहीं बोरियां, साथ चलै न जमात


संत शिरोमणि कबीर दास जी के कथन के अनुसार सिंहों के झुंड बनाकर नहीं चलते और हंस कभी कतार में नहीं खड़े होते। हीरों को कोई कभी बोरी में नहीं भरता। उसी तरह जो सच्चे भक्त हैं वह कभी को समूह लेकर अपने साथ नहीं चलते।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-लोगों ने तीर्थ स्थानों को एक तरह से पर्यटन मान लिया है। प्रसिद्ध स्थानों पर लोग छुट्टियां बिताने जाते हैं और कहते हैं कि दर्शन करने जा रहे हैं। परिणाम यह है कि वहां पंक्तियां लग जाती हैंं। कई स्थानों ंपर तो पहले दर्शन कराने के लिये बाकायदा शुल्क तय है। दर्शन के नाम पर लोग समूह बनाकर घर से ऐसे निकलते हैं जैसे कहीं पार्टी में जा रहे हों। धर्म के नाम पर यह पाखंड हास्याप्रद है। जिनके हृदय में वास्तव में भक्ति का भाव है वह कभी इस तरह के दिखावे में नहीं पड़ते।
वह न तो इस समूहों में जाते हैं और न कतारों के खड़े होना उनको पसंद होता है। जहां तहां वह भगवान के दर्शन कर लेते हैं क्योंकि उनके मन में तो उसके प्रति निष्काम भक्ति का भाव होता है।

सच तो यह है कि मन में भक्ति भाव किसी को दिखाने का विषय नहीं हैं। हालत यह है कि प्रसिद्ध तीर्थ स्थानों पर किसी सच्चे भक्त का मन जाने की इच्छा भी करे तो उसे इन समूहों में जाना या पंक्ति में खड़े होना पसंद नहीं होता। अनेक स्थानों पर पंक्ति के नाम पर पूर्व दर्शन कराने का जो प्रावधान हुआ है वह एक तरह से पाखंड है और जहां माया के सहारे भक्ति होती हो वहां तो जाना ही अपने आपको धोखा देना है। इस तरह के ढोंग ने ही धर्म को बदनाम किया है और लोग उसे स्वयं ही प्रश्रय दे रहे हैं। सच तो यह है कि निरंकार की निष्काम उपासना ही भक्ति का सच्चा स्वरूप है और उसी से ही परमात्मा के अस्तित्व का आभास किया जा सकता है। पैसा खर्च कर चतुराई से दर्शन करने वालों को कोई लाभ नहीं होता।
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Friday, September 26, 2008

भृतहरि शतकः आकाँक्षाओं की पूर्ति के लिये करना पड़ता है नृत्य

खलालापाः सोढाः कथमपि तदाराधनपरैर्निगृह्यह्यान्तर्वाष्पं हसितमपि शून्येन मनसा।
कृतश्चित्तस्तम्भः प्रहसितधियाम´्जलिरपित्वमाशे मोघाशे किमपरमतो नर्तयसि माम्

हिंदी में भावार्थ-भृतहरि जी कहते हैं कि दुष्ट लोगों की सेवा करते हुए उनके अनेक व्यंग्यात्मक कथन सुनने पड़े। दुःख के कारण अंदर के आंसुओं को किसी तरह बाहर आने से रोका और उनको प्रसन्न करने के लिये जबरन चेहरे पर हंसी लाने का प्रयास किया। अपने मन को समझाकर उन्हें प्रसन्न करने के लिये उनके सामने अनेक बार हाथ जोड़े। अपने अंदर जो आशायें और आकांक्षायें हैं वह पता नहीं कितना नचायेंगी

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-आदमी के मन में अनेक प्रकार की आशायें, आकांक्षायें और इच्छायें होती हैं जो उनको उनको अपने स्वामी या उच्च पदस्थ व्यक्ति की जीहुजूरी के लिये बाध्य करती हैं। जो सोने का चम्मच मूंह में लेकर पैदा हुए हैं वह निरीह लोगों के मन की बात को नहीं समझ सकते। धन, पद और बाहूबल से संपन्न लोगों के सामने अनेक प्रकार के लोग हाथ जोड़े खड़े रहते हैं पर वह मन से कभी उनके नहीं होते। अपनी आशाओं और आशाओं की पूर्ति के लिये उनके सामने उनकी प्रशंसा और पीठ पीछे निंदा कर अपने मन हल्का करते हैं। संसार में माया का प्रभाव है और वह अनेक प्रकार से मनुष्य को उलझाये रहती हैं। अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिये एक मनुष्य को माया दूसरे का गुलाम बना देती हैं।
कई बार गुलामी और नौकरी से ऊबा आदमी व्यथित हो जाता है पर वह अपनी जगह से हट नहीं सकता क्योंकि उसे अपनी आशाओं और आकांक्षाओं की पूर्ति के लिये माया की जरूरत होती है और वह इसलिये नाचता रहता है और सोचता भी है कि कब वह इससे मुक्ति पाये पर वह कभी आजाद नहीं हो पाता। उसका मन ही उसको उकसाता है और वही उसको पिंजरे में रहने को भी बाध्य करता है।
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Thursday, September 25, 2008

रहीम सन्देश: घमंड करना है लघुता का प्रतीक

बड़े पेट के भरन को, है रहीम देख बाढि
यातें हाथी हहरि कै, दया दांत द्वे काढि

कविवर रहीम कहते हैं कि जो आदमी बड़ा है वह अपना दुख अधिक दिन तक नहीं छिपा सकता क्योंकि उसकी संपन्नता लोगों ने देखी होती है जब उसके रहन सहन में गिरावट आ जाती है तब लोगों को उसके दुख का पता लग जाता है। हाथी के दो दांत इसलिये बाहर निकल आये क्योंकि वह अपनी भूख सहन नहीं कर पाया।

बड़े बड़ाई नहिं तजैं, लघु रहीम इतराइ
राइ करौंदा होत है, कटहर होत न राइ

कविवर रहीम कहते हैं कि बड़े आदमी कभी अपने मुख से स्वयं अपनी बड़ाई नहीं करते जबकि छोटे लोग अहंकार दिखाते है। करौंदा पहले राई की तरह छोटा दिखाई देता है परंतु कटहल कभी भी राई के समान छोटा नजर नहीं आता।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-कहा जाता है कि धनाढ्य व्यक्ति इतना अहंकार नहीं दिखाता जितना नव धनाढ्य दिखाते हैं। होता यह है कि जो पहले से ही धनाढ्य हैं उनको स्वाभाविक रूप से समाज में सम्मान प्राप्त होता है जबकि नव धनाढ्य उससे वंचित होते हैं इसलिये वह अपना बखान कर अपनी प्रभुता का बखान करते हैं और अपनी संपत्ति को उपयोग इस तरह करते हैं जैसे कि किसी अन्य के पास न हो।

वैसे बड़ा आदमी तो उसी को ही माना जाता है कि जिसका आचरण समाज के हित श्रेयस्कर हो। इसके अलावा वह दूसरों की सहायता करता हो। लोग हृदय से उसी का सम्मान करते हैं जो उनके काम आता है पर धन, पद और बाहुबल से संपन्न लोगों को दिखावटी सम्मान भी मिल जाता है और वह उसे पाकर अहंकार में आ जाते हैं। आज तो सभी जगह यह हालत है कि धन और समाज के शिखर पर जो लोग बैठे हैं वह बौने चरित्र के हैं। वह इस योग्य नहीं है कि उस मायावी शिखर पर बैठें पर जब उस पर विराजमान होते हैं तो अपनी शक्ति का अहंकार उन्हें हो ही जाता है। जिन लोगों का चरित्र और व्यवसाय ईमानदारी का है वह कहीं भी पहुंच जायें उनको अहंकार नहीं आता क्योंकि उनको अपने गुणों के कारण वैसे भी सब जगह सम्मान मिलता है।
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Sunday, September 21, 2008

संत कबीर वाणी: दूसरे की पीड़ा को अपनी समझे वही सच्चा पीर

कबीर तेई पीर हैं, जे जानैं पर पीर
जे पर पीर न जानहीं, ते काफिर बे पीर


संत कबीर शिरोमणि कबीरदास जी के इस दोहे का आशय यह है है कि वास्तव में वही गुरु या पीर सच्चा है जो आदमी दूसरे की पीड़ा को अपनी ही समझते हैं। जिनके पास दूसरे की पीड़ा की समझ नहीं हैं वह बेरहम इंसान हैं। उनको तो दुष्ट ही समझा जाना चाहिये।

कहता हूं कहि जात हूं, कहा जू मान हमार
जाका गला तुम काटि हो, सो फिर काटि तुम्हार


संत कबीरदास जी ने जीव हिंसा को अनुचित ठहराते हुए कहा कि जिसका गला तुम आज काट रहे हो वह अगले जन्म में तुम्हारा गला काटेगा।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हिंसा का अंत प्रतिहिंसा से ही होता है। संत कबीरदास जी ने कहा है कि जिसका गला तुम काट रहे हो वह तुम्हारा भी काटेगा। इस पर कुछ लोग कह सकते हैं कि जिसका गला कट गया वह तेा मर गया अब क्या गला काटेगा। जहां तक अगले जन्म का प्रश्न है तो वह किसने देखा है?

ऐसा सोचना भ्रम मात्र है। जब कोई व्यक्ति हिंसा करता है तो दूसरों पर उसकी प्रतिक्रिया हेाती है और कई लोग तो क्रोधित भी होते हैं भले ही हिंसा उनके साथ नहीं हो रही हो। हिंसक व्यक्ति की समाज में छबि खराब होती है और फलस्वरूप दूसरे हिंसक व्यक्ति उस पर दृष्टिपात किये रहते हैं और अवसर आने पर वही वार करते हैं। यह जरूरी नहीं है कि हिंसा करने वाले ने जिसकी गर्दन काटी हो वह जन्म लेकर गर्दन काटने आये पर हिंसा के मार्ग पर चलने पर व्यक्ति को कभी न कभी दूसरे की हिंसा का शिकार भी होना पड़ता है। अतः चाहे आदमी हो या पशु उसके प्रति हिंसा का तो क्या उसके भाव का भी त्याग करना चाहिये।
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Saturday, September 20, 2008

रहीम के दोहे:जहाँ इज्जत घटती देखें वहां से चले जाएँ

रहिमन जा डर निसि परै, ता दिन डर सब कोय
पल पल करके लागते, देखु कहां धौ होय

कविवर रहीम कहते हैं भारी संकट झेलने वाला व्यक्ति न तो रात को चैन से सो पाता है और न दिन में जाग पाता है। उसके हर अपने सामने संकट आता दिखता है। तमाम तरह की आशंकायें और भय उसके मन में समा जाते हैं।
रहिमन ठठरी धूर की, रही पवन ते पूरि
,गांठ युक्ति की खुलि गई, अन्त धूरि की धूरि

कविवर रहीम कहते हैं कि यह देह एक धूल की भरी हुई गठरी है जिसमें पांचो तत्व समाहित है। जब वह सब बिखर कर अलग हो जाते हैं तब यह अस्थि पंजर पड़ा रहता है और उसी धूल में मिल जाता है जहां से उत्पन्न हुआ था।
रहिमन तब लगि ठहरिये, दान, मान, सम्मान
घटत मान देखिए जबहि, तुरतहि करिय पयान

कविवर रहीम कहते हैं कि किसी भी स्थान पर तब तक ठहरिये आपको मान और सम्मान के साथ कुछ मिलता है। जब अपना मान सम्मान वहां कम होते देखें तो वहां से पलायन कर जाईये।
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Friday, September 19, 2008

संत कबीर वाणी:कर्म कांडों का सिर पर बोझ उठाये आदमी अहंकार में फूलता है

‘कबीर’ मन फूल्या फिरै, करता हूं मैं ध्रंम
कोटि क्रम सिरि ले चल्या, चेत न देखै भ्रम

संत शिरोमणि कबीर दास जी कहते हैं कि आदमी अपने सिर पर कर्मकांडों का बोझ ढोते हुए फूलता है कि वह धर्म का निर्वाह कर रहा है। वह कभी अपने विवेक का उपयोग करते हुए इस बात का विचार नहीं करता कि यह उसका एक भ्रम है।
त्रिज्ञणा सींची ना बुझै, दिन दिन बधती जाइ
जवासा के रूष ज्यूं, घण मेहां कुमिलाइ


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि मन में जो त्रृष्णा की अग्नि कभी बुझती नहीं है जैसे उस पर पानी डालो वैसे ही बढ़ती जाती है। जैसे जवासे का पौधा भारी वर्षा होने पर भी कुम्हला जाता है पर फिर हरा भरा हो जाता है।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-संत कबीरदास जी ने अपने समाज के अंधविश्वासों और कुरीतियों पर जमकर प्रहार किये हैं। कितने आश्चर्य की बात है कि अनेक संत और साधु उनके संदेशों को ग्रहण करने का उपदेश तो देते हैं पर समाज में फैले अंधविश्वास और कर्मकांडों पर खामोश रहते हैं। आदमी के जन्म से लेकर मृत्यु तक ढेर सारे ऐसे कर्मकांडों का प्रतिपादन किया गया है जिनका कोई वैज्ञानिक तथा तार्किक आधार नहीं है। इसके बावजूद बिना किसी तर्क के लोग उनका निर्वहन कर यह भ्रम पालते हैं कि वह धर्म का निर्वाह कर रहे हैं। किसी कर्मकांड को न करने पर अन्य लोग नरक का भय दिखाते हैं यह फिर धर्म भ्रष्ट घोषित कर देते हैं। इसीलिये कुछ आदमी अनचाहे तो कुछ लोग भ्रम में पड़कर ऐसा बोझा ढो रहे हैं जो उनके दैहिक जीवन को नरक बनाकर रख देता है। कोई भी स्वयं ज्ञान धारण नहीं करता बल्कि दूसरे की बात सुनकर अंधविश्वासों और रूढि़यों का भार अपने सिर पर सभी उसे ढोते जा रहे हैं। इस आर्थिक युग में कई लोग तो ऋण लेकर ऐसी परंपराओं को निभाते हैं और फिर उसके बोझ तले आजीवन परेशान रहते हैं। इससे तो अच्छा है कि हम अपने अंदर भगवान के प्रति भक्ति का भाव रखते हुए केवल उसी कार्य को करें जो आवश्यक हो। अपना जीवन अपने विवेक से ही जीना चाहिए।

Thursday, September 18, 2008

संत कबीर वाणीः अज्ञानी लोग दूसरे की पीड़ा नहीं समझते

पीर सबन को एकसी, मूरख जाने नांहि
अपना गला कटाय के, भिस्त बसै क्यों नांहि

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि सभी जीवों की पीड़ा एक जैसी होती है पर मूरख लोग इसको नहीं जानते वरना हिंसक प्रवृत्ति के लोग अपना गला कटवाकर स्वयं स्वर्ग क्यों नहीं जाते जबकि दूसरे को इसके लिये प्रेरित करते हैं।
काटा कूटी जो करै, तै पाखंड को भेष
निश्चय राम न जानहीं, कहैं कबीर संदेस


संत शिरोमणि कबीरदास जी के अनुसार जो धर्म के नाम पर बलि देने के लिये पशुओं का वध करते हैं वह केवल पाखंड है। ऐसे लोग भगवान राम का नाम नहीं जानते।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-संत शिरोमणि कबीरदास जी ने भारतीय समाज में धर्म के नाम पशु बलि देने वालों को मूर्ख बताया है। एक तरफ हमारे अध्यात्म मे कहा जाता है कि सभी जीवों में परमात्मा का वास ही है और फिर तमाम तरह के देवताओं के नाम पर पशुओं की बलि देने की मूर्खतापूर्ण परंपरा का पालन भी किया जाता है। जिन लोगों के पास धन है वह लोग समाज को दिखाने के लिये ही ऐसे पशुओं की बलि देते हैं ताकि उनको भक्त समझा जाये। कई लोग तो यह भी कहते हैं कि बलि दिया गया पशु मुक्ति पाया गया उसे स्वर्ग मिलेगा। यह बेकार की बात है। ऐसे लोग भगवान के संदेश को नहीं समझते और घोर अज्ञानी हैं। अपने देश में तो कई ऐसे भी धार्मिक स्थान बनाये गये हैं जहां शराब चढ़ाई जाती है। दरअसल इस तरह के धार्मिक कुरीतियों के कारण ही भारतीय समाज बदनाम हुआ है पर फिर भी अनेक अज्ञानी लोग इसे समझते ही नहीं है।

भगवान की भक्ति तो एकांत में होती है और उससे न केवल हमारे मन में शुद्धता आती है बल्कि आसपास का वातावरण भी शुद्ध होता है। इस तरह शोर शराबे कर पशुबलि देना या शराब चढ़ाना विकृत मानसिकता का परिचायक है। मनुष्य हो या पशु उनमें परमात्मा का वास है और इसी कारण सभी की पीड़ा होती है। यह कैसे हो सकता है कि काटे जाने पर आदमी को पीड़ हो पर पशु को नहीं।
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Wednesday, September 17, 2008

भृतहरि शतकः बड़े लोगों की चाटुकारिता से कोई लाभ नहीं

दुरारध्याश्चामी तुरचलचित्ताः क्षितिभुजो वयं
तु स्थूलेच्छाः सुमहति बद्धमनसः
जरा देहं मृत्युरति दयितं जीवितमिदं
सखे नानयच्छ्रेयो जगति विदुषेऽन्यत्र तपसः


हिंदी में भावार्थ- जिन राजाओं का मन घोड़े की तरह दौड़ता है उनको कोई कब तक प्रसन्न रख सकता है। हमारी अभिलाषायें और आकांक्षायें की तो कोई सीमा ही नहीं है। सभी के मन में बड़ा पद पाने की लालसा है। इधर शरीर बुढ़ापे की तरह बढ़ रहा होता है। मृत्यु पीछे पड़ी हुई है। इन सभी को देखते हुए तो यही कहा जा सकता है कि भक्ति और तप के अलावा को अन्य मार्ग ऐसा नहीं है जो हमारा कल्याण कर सके।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-लोगों के मन में धन पाने की लालसा बहुत होती है और इसलिये वह धनिकों, उच्च पदस्थ एवं बाहुबली लोगों की और ताकते रहते हैं और उनकी चमचागिरी करने के लिये तैयार रहते हैं। उनकी चाटुकारिता में कोई कमी नहीं करते। चाटुकार लोगांें को यह आशा रहती है कि कथित ऊंचा आदमी उन पर रहम कर उनका कल्याण करेगा। यह केवल भ्रम है। जिनके पास वैभव है उनका मन भी हमारी तरह चंचल है और वह अपना काम निकालकर भूल जाते हैं या अगर कुछ देेते हैं तो केवल चाटुकारित के कारण नहीं बल्कि कोई सेवा करा कर। वह भी जो प्रतिफल देते हैं तो वह भी न के बराबर।

सच तो यह है कि आदमी का जीवन इसी तरह गुलामी करते हुए व्यर्थ चला जाता हैं। जो धनी है वह अहंकार में है और जो गरीब है वह केवल बड़े लोगों की ओर ताकता हुआ जीवन गुंजारता है। जिन लोगों का इस बात का ज्ञान है वह भक्ति और तप के पथ पर चलते हैं क्योंकि वही कल्याण का मार्ग है।
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Tuesday, September 16, 2008

संत कबीर वाणी: हथियार चलाने में नहीं बल्कि धन मिल बाँट कर खाने में होती है साहस की आवश्यकता

कबीर तो सांचै मतै, सहै जू सनमुख वार
कायर अनी चुभाय के, पीछे झखै अपार


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहत हैं कि सच्चा वीर तो वह है जो सामने आकर लड़ता है पर जो कायर है वर पीठ पीछे से वार करता है।

तीर तुपक सों जो लड़ैं, सो तो सूरा नाहिं
सूरा सोइ सराहिये, बांटि बांटि धन खांहि

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जो अस्त्र शस्त्र से लड़ते है। उनको वीर नहीं कहा जा सकता है। सच्चे शूरवीर तो हैं जो आपस में मिल बैठकर खाते हैं। वह जो भी कमाते हैं उसे समान रूप से आपस में बांटते हैं।

वर्तमान सन्दर्भ में संपादकीय व्याख्या-शूरवीर हमेशा उसे ही माना जाता है जो अस्त्र शस्त्र का उपयोग करता है। उनमें भी वही वीर है जो सामने से वार करता है पर जो कायर हैं वह पीठ पीछे वार करते हैं। वैसे अस्त्र शस्त्र से लड़ने में भी साहस की आवश्यकता कहां होती है। अगर अस्त्र शस्त्र हाथ में हों तो वेसे भी मनुष्य के मन में दुस्साहस आ ही जाता है और कोई भी उपयोग कर सकता है। कुछ लोग कहते हैं कि हथियार रखने से क्या होता है उसे चलाने के लिये साहस भी होना चाहिये-विशेषज्ञ मानते हैं कि अगर लोहे से बना कोई हथियार मनुष्य के हाथ में हो तो उसमें आक्रामता आ ही जाती है।

असली साहस तो अपने कमाये धन का दूसरे के साथ बांटकर खाने में दिखाना चाहिये। आदमी जब धन कमाता है तो उसके प्रति उसका मोह इतना हो जाता है कि वह उसे किसी को थोड़ा देने में भी हिचकता है। मिलकर बांटने की बात तो छोडि़ये अपनी रोटी का छोटा टुकड़ा देने में भी आदमी की जान जाती है।

हमारे प्राचीन मनीषियों ने दान की महिमा को इसलिये प्रतिपादित किया कि समाज में सामाजिक समरसता का भाव रहे। हमारे अध्यात्म में इतना तक कहा गया है कि किसी को दान देते हुए आंखें नीची करना चाहिये ताकि दूसरे को हमारा अहंकार नहीं दिखाई दे और उसके अंदर अपने प्रति कुंठा भाव न उत्पन्न हो। मगर अब तो समाज कल्याण की बात राज्य के भरोसे छोड़ दी गयी है और वही लोग जन कल्याण के लिये मैदान में उतर रहे हैं जिनको उससे कुछ आर्थिक फायदा है। यह लोग कायर होते हैं क्योंकि दान और कल्याण क लिये प्राप्त धन का वह हरण करते हैं।

कलुषित तरीके से प्राप्त धन का भी वह दान करने का साहस नहीं कर पाते। अपने धन देने में सभी का हृदय कांपने लगता है। सच है कि जो दानी है वही सच्चा शूरवीर है। वह भी सच्चा वीर है जो अस्त्र शस्त्र लेकर कहकर सामने से प्रहार करता है पर आजकल तो कायरों की पूरी फौज है जो पीठ पीछे से वार करती है। चोर और डकैतों द्वारा किये गये और अपराध और निरंतर बम धमाकों की बढ़ती घटनायें इस बात का प्रमाण हैं।
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Monday, September 15, 2008

रहीम के दोहे:जिसने हृदय में स्थान बना लिया उससे सुख दु:ख क्या कहना

जेहि रहीम तन मन लियो, कियों हिए बिच भीन
तासों दुख सुख कहन की, रही बात अब कौन


कवि रहीम का कथन है कि जिस व्यक्ति ने तन मन पर अधिकार कर लिया है, उसने हृदय में स्थान बना लिया है, ऐसे प्रेमी से दुख, सुख कहने की अब कौन सी बात शेष रह गयी।

निज कर क्रिया रहीम कहीं, सुधि भावी के हाथ
पाँसे अपने हाथ में, दांव न अपने हाथ

कवि रहीम कहते हैं कि अपने हाथ में तो कर्म करना है परिणाम भविष्य के गर्भ में है जैसे जुआरी के हाथ में खेल के पाँसे कौडी तो अपने हाथ में होते हैं, परन्तु दाव अपने वश में नहीं होता।
वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-यह सच भी है कि जिससे हम हृदय से प्रेम करते हैं उससे सुख दुःख की क्या कहना? वह तो स्वयं ही सब पढ़ सकता है। फिर उसके पास होने से सुख दुःख का विचार ही कहां आता है। जिससे प्रेम है वह पास होता है तो सुख की अनुभूति होती है उसका वर्णन उसके सामने करने से क्या लाभ? जब वह दूर होता है तो दुःख की अनुभूति होती है पर अगर हम उस तक अपनी यह भावना पहुंचायेंगे तो वह वह दुःखी होगा। समय के अनुसार मिलना बिछड़ना तो होता ही है।

जीवन में कर्म करना अपने हाथ में है पर परिणाम के लिये कुछ कहना कठिन है। हम कोई कार्य शुरू करते हैं तो उससे अनेक तरह के फल की आशायें करते हैं पर वह प्राप्त न होने पर निराशा घेर लेती है। सच तो यह है परमात्मा ने कर्म करने के लिये हाथ दिये हैं पर उनसे अपना भाग्य नहीं लिखा जाता। वह तो सब समयानुसार प्राप्त होता है। इसलिये अपने हाथों से हमेशा ही अच्छे कर्म करने के लिये तत्पर रहना चाहिये और परिणाम की आशा परमात्मा की इच्छा पर ही छोड़ देना चाहिये।

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Sunday, September 14, 2008

रहीम के दोहे:कलश का गुण प्रशंसनीय

रहिमन रीति सराहिए, जो घाट सुन सम होय
भांति आप पै डारी के, सबै पियावै तोय

कविवर रहीम कहते हैं कि कलश के सदगुण के समान परोपकार की प्रशंसा करनी चाहिए घडा अपने पर पर्दा डालकर सबको मीठा जल पिलाता है.

रहिमन लाख भली करो, अगुनी अगुन न जाय
राग सुनत पथ पिअत हूँ, सांप सहज धरि खाय

कविवर रहीम कहते हैं कि असंख्य भलाई करे, परन्तु गुणहीन व्यक्ति का अवगुण नष्ट नहीं होता. जैसे--संगीत सुनते हुए और दूध पीते हुए भी सर्प सहज भाव से व्यक्ति को काट लेता है.
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय-कहा जाता है कि दान हमेशा नीची आंखें कर देना चाहिये ताकि अपने दातार होने का अहंकार मन में न आये। मिट्टी का घड़े को कपड़े से ढका जाता है और लोग उससे पानी पीते हैं। इसी तरह आदमी को अपने दान और परमार्थ का काम छिप कर करना चाहिये। हांलांकि आजकल तो लोग अपने परमार्थ के काम का प्रचार अधिक करते हैं या केवल प्रचार के लिये परमार्थ करते देखते हैं।
यही कारण है कि अब समाज में जल कल्याण का भाव दिखावे के लिये रह गया है।
अनेक जगह तो यह स्थिति भी बन गयी है कि लोग अपने व्यवसाय को भी परमार्थ से जोड़ते हैं। कहींं भाषा तो कहीं लोगों के स्वास्थ्य तो कहीं महिलाओं के लिये कल्याण के कार्यक्रम चलाने वाले अपने स्वार्थ के कारण जुटे हैं पर नाम परमार्थ का लेते हैं। ऐसे ढोंगी यह सोचते हैं कि कोई उनको देख नहीं रहा जो कि उनका भ्रम है।


सच्चा परमार्थी तो केवल अपना काम करता है और उसके लिये वह कोई ढोंग नहीं करता। जो ढोंग करते हैं उनको भी समझाना कठिन है क्योंकि यही उनका व्यवसाय है।

Saturday, September 13, 2008

रहीम के दोहे:अपना दर्द दूसरे को नहीं सुनाओ, मजाक बन जायेगा

रहिमन निज मन की बिधा, मन ही राखो गोय
सुनि अठिलैहैं लोग सब, बांटि न लैहैं कोय


कविवर रहीम कहते है अपने मन के दुःख दर्द किसी से मत करो। लोग उसे सुनकर उपहास करेंगे। कोई भी उसे बांटने वाला नहीं मिलेगा।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जीवन में दुख दर्द तो सभी को होता है पर जो उसे दूसरों को सुनाकर उसे हल्का करने का प्रयास करते हैं उन्हें समाज में उपहास का पात्र बनना पड़ता है। अब तो वैसे भी लोगों की पीड़ाएं इतनी हो गयीं हैं कि कोई किसी की पीड़ा क्या सुनेगा? सब अपनी कह रहे हैं पर कोई किसी की सुनता नहीं है। अमीर हो या गरीब सब अपने तनाव से जूझ रहे हैं। ऐसे में बस सबके पास हंसने का बस एक ही रास्ता है वह यह कि दूसरा अपनी पीड़ा कहे तो दिल को संतोष हो कि कोई अन्य व्यक्ति भी दुखी है। उसकी पीड़ा का मजाक उड़ाओ ‘‘देख हम भी झेल रहे हैं पर भला किसी से कह रहे हैं‘।

कई चालाक लोग अपने दुख को कहते नहीं है पर अपनी पीड़ा को हल्का करने के लिये दूसरों की पीड़ा को सबके सामने सुनाकर उसे मजाक का निशाना बनाते हैं। ऐसे लोगों को अपनी थोड़ी पीड़ा बताना भी मूर्खता है। वह सार्वजनिक रूप से उसकी चर्चा कर उपहास बनाते है। ऐसे में अपना दर्द कम होने की बजाय बढ़ और जाता है। अपने दुःख दर्द जब हमें खुद ही झेलने हैं तब दूसरों को वह बताकर क्या मिलने वाला है? जब हमारे दर्द को कोई इलाज करने वाला नहीं है उसकी दवा हमें ढूंढनी है तो फिर क्योंकर उसे सार्वजनिक चर्चा का विषय बनाएं। उसका हल हो न हो पर लोग पूछते फिरेंगे-‘‘क्या हुआ उसका?’’

हम अपनी उस पीड़ा को भूल गये हों पर लोग उसे याद कर बढ़ा देते हैं। ऐसे में कुछ अन्य विषय पर सोच रहे हों तो उससे ध्यान हटकर अपनी उसी समस्या की तरफ चला जाता है। बेहतर है अपने दर्द अपने मन में रखें। जिस तरह लोगों का रहन सहन अब है उसमें लोगों का शारीरिक और मानसिक सामथर््य कम हो गया हैं। लोग अपनी श्रेष्ठता दिखाने के लिये अच्छा काम करने की बजाय दूसरे को नीचा दिखाने का प्रयास करते हैं इससे ही उनको आनंद प्राप्त होता है। ऐसे में हम अगर किसी को अपना दर्द या परेशानी बताते हैं तो उसे हमारे पीछे उसका उपहास उड़ाने का अवसर प्रदान करते हैं।
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Thursday, September 11, 2008

रहीम के दोहे:परमार्थ करने वाले भेद नहीं करते

रहिमन पर उपकार के, करत न यारी बीच
मांस दियो शिवि भूप ने, दीन्हो हाड़ दधीच

कविवर रहीम कहते हैं कि जिस मनुष्य का परोपकार करना है वह जरा भी नहीं हिचकता। वह परोपकार करते हुए यारी दोस्ती का विचार नहीं करते। राजा शिवि ने ने प्रसन्न मुद्रा में अपने शरीर का मांस काट कर दिया तो महर्षि दधीचि ने अपने शरीर की हड्डियां दान में दीं।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-विश्व का हर बड़ा आदमी परोपकार करने का दावा करता है पर फिर भी किसी का कार्य सिद्ध नहीं होता। अभिनेता, कलाकार, संत, साहुकार तथा अन्य प्रसिद्ध लोग अनेक तरह के परोपकार के दावों के विज्ञापन करते हैं पर उनका अर्थ केवल आत्मप्रचार करना होता है। आजकल गरीबों, अपंगों,बच्चों,बीमारों और वृद्धों की सेवा करने का नारा सभी जगह सुनाई देता है और इसके लिये चंदा एकत्रित करने वाली ढेर सारी संस्थायें बन गयी हैं पर उनके पदाधिकारी अपने कर्मों के कारण संदेह के घेरे में रहते हैं। टीवी चैनल वाले अनेक कार्यक्रम कथित कल्याण के लिये करते हैं और अखबार भी तमाम तरह के विज्ञापन छापते हैं पर जमीन की सच्चाई यह है कि जो परोपकार भी एक तरह से व्यापार हो गया है और इसके माध्यम से प्रचार और आय अर्जित करने की योजनाओं को पूरा किण जाता है।

जिन लोगों को परोपकार करना है वह किसी की परवाह नहीं करते। न तो वह प्रचार करते हैं और न ही इसमें अपने पराये का भेद करते हैं। उनके लिये परोपकार करना एक नशे की तरह होता है। सच तो यह है कि यह मानव जाति अगर आज भी चैन की सांस ले रही है तो वह ऐसे लोगों की वजह से ले रही हैं. ऐसे लोग न केवल बेसहारा की मदद करते हैं बल्कि पर्यावरण और शिक्षा के लिये भी निरंतर प्रयत्नशील होते हैं। वरना तो जिनके पास पद, पैसे और प्रतिष्ठा की शक्ति है वह इस धरती पर मौजूद समस्त साधनों का दोहन करते हैं पर परोपकारी लोग निष्काम भाव से उन्हीं संसाधनों में श्रीवृद्धि करते है। जिनको परोपकार करने का संकल्प लेना है उन्हें यह तय कर लेना चाहिए कि वह प्रचार और पाखंड से दूर रहेंगे।
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Wednesday, September 10, 2008

रहीम के दोहेः मांगने वाला कभी बड़ा आदमी नहीं बन सकता

रहिमन चाक कुम्हार को, मांगे दिया ना देह
छेद में डंडा डारि कै, चहै नांद लै लेइ


कविवर रहीम कह्ते हैं कि कुम्हार का चाक याचना करने से दीपक नहीं बंना देता। चाक में छेद में डंडा डालकर घुमाने से दीपक तो क्या पूरी नांद (मिट्टी का बडा पात्र) का पात्र बना जाता है।
भावार्थ- आजकल सहजता से कोई काम नही होता। कई बार ऐसे अवसर आते हैं जब हमें कठोर होना पड्ता। हालांकि ऐसा हमेशा नहीं होता और कई बार सह्जता से काम भी होते हैं, पर कुछ लोगों का यह स्वभाव होता है कि वह कठोर होने पर ही आपकी बात
मानते हैं।

रहिमन खोटी आदि की, सो परिनाम लखाय
जैसे दीपक तम भखै, कज्जल वमन कराय


कविवर रहीम कहते हैं कि बुराई होने पर उसका फ़ल अवश्य दिखाई देता है। जैसे दीपक अंधकार को दूर कर देता है, परंतु शीघ्र ही कालिमा उगलने लगता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अक्सर लोग सोचते हैं कि दूसरे से वस्तुऐं मांग कर अपना काम चलायें। ऐसे लोगों में आत्म सम्मान नहीं होता और जिनमें आत्म सम्मान नहीं है वह मनुष्य नहीं बल्कि पशु समान होता है। अक्सर ऐसे लोग हैं जो अपने काम के लिये वस्तु या धन मांगने में संकोच नहीं करते। उनके पास अपना पैसा होता है पर वह उसको बचाने के चक्कर में दूसरे से वस्तुऐं उधार मांग कर काम चलाते हैं। उद्देश्य यही रहता है कि पैसा बचे। ऐसे कंजूस लोग जिंदगी भर पैसा बचाते हैं पर अंततः वह साथ कुछ भी नहीं ले जाते। कोई आदमी कितना भी बड़ा क्यों न हो जब किसी से कोई चीज मांगता है तो वह छोटा हो जाता है और अगर छोटा हो तो उसे भिखारी समझा जाता है। सच बात तो यह है कि मांगने से कोई बड़ा आदमी नहीं बनता बल्कि दान देने से समाज में सम्मान मिलता है।
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Tuesday, September 9, 2008

विदुर नीतिः विद्वानों के प्रति आक्रोश प्रकट नहीं करना चाहिए

1.पांच विषयों की तरफ आकर्षित होने वाली अपनी पांच इंद्रियों को जो वश में नहीं करता तो वह उसकी शत्रु हो जाती हैं और मनुष्य चारों तरफ से संकट में घिर जाता है।
2.गुणों में दोष न देखना, हृदय में सहज भाव, आचरण में पवित्रता, संतोष, मधुर वाणी, आत्म निंयत्रण, सत्य बोलना, तथा विचारों में स्थिरता ये कभी भी मूर्ख और दुरात्मा व्यक्ति में नहीं होते।
3.आत्मज्ञान, खिन्नता का अभाव, सहनशीलता, धर्मपरायणता, अपने वचन का निर्वाह तथा दान करने जैसे गुर्ण अधम पुरुष में नहीं होते।
4. विद्वानों के लिये अभद्र शब्द प्रयोग करते हुए उनकी अज्ञानी लोग निंदा करते हैं। विद्वान लोगों से अभद्र और आक्रोशित व्यवहार करने वाला मनुष्य पाप का भागी होता है और क्षमा करने वाला व्यक्ति पाप से मुक्त हो जाता है।
5.दुष्ट लोगों को त्याग न कर उनके साथ होने पर निरपराध होने पर भी सज्जन को दंड भोगना पड़ता है, जैसे सूखी लकड़ी में मिल जाने पर गीली लकड़ी भी जल जाती है। इसलिये दुष्ट लोगों की संगत कभी नहीं करना चाहिए।

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Monday, September 8, 2008

भृतहरि शतक: मित्र के गुप्त रहस्य प्रकट न करें

पापान्निवारयति योजयते हिताय
गुह्मं निगूहति गुणान्प्रकटीकरोति।
आपद्गतं च न जहाति ददाति काले
सन्मित्रलक्षणमिदं प्रवदन्ति सन्तः


हिन्दी में भावार्थ- अपने मित्र को अधर्म और पाप से बचाना, उसके हित में संलग्न रहते हुए उसके गुप्त रहस्य किसी अन्य व्यक्ति के सामने प्रकट न करना, विपत्ति काल में भी उसके साथ रहना और आवश्यकता पड़े तो उसकी तन, मन और धन से सहायता करना यही मित्रता का लक्षण है।

संक्षिप्त व्याख्या-अक्सर हम लोग कहते है कि अमुक हमारा मित्र है और यह दावा करते हैं कि समय आने पर वह हमारे काम आयेगा। आजकल यह दावा करना मिथ्या है। देखा जाये तो लोग अपने मित्रों पर इसी विश्वास के कारण संकट में आते हैं। सभी परिचित लोगों को मित्र मानने की प्रवृत्ति संकट का कारण बनती है। कई बार हम लोग अपने गुप्त रहस्य किसी को बिना जांचे-परखे मित्र मानकर बता देते हैं बाद में पता लगता है कि उसका वह रहस्य हजम नहीं हुए और सभी को बताता फिर रहा है। वर्तमान में युवा वर्ग को अपने मित्र ही अधिक भ्रम और अपराध के रास्ते पर ले जाते हैं।

आजकल सच्चे और खरे मित्र मिलना कठिन है इसलिये सोच समझकर ही लोगों को अपना मित्र मानना चाहिए। वैसे कहना तो पड़ता ही है कि‘अमुक हमारा मित्र है’ पर वह उस मित्रता की कसौटी पर वह खरा उतरता है कि नहीं यह भी देख लेना चाहिए। भले जुबान से कहते रहे पर अपने मन में किसी को मित्र मान लेने की बात बिना परखे नहीं धारण करना चाहिए।
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Sunday, September 7, 2008

संत कबीर वाणी:शिक्षित होकर भी पिंजरे में बंद रहने से क्या लाभ

पढ़ते गुनते जनम गया, आसा लागी हेत
बोया बीजहिं कुमतिन, गया जू निर्मल खेत


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि पढ़ते-लिखते जीवन व्यर्थ चला गया और हमेशा ही इच्छाओं और आशाओं के दास बने रहे। अपने अंदर कुमति का बीज बोया और इससे जीवन का पूरा खेत ही नष्ट हो गया।

चतुराई पोपट पढ़ी, पडि़ सो पिंजर मांहि
फिर परमोधे और को, आपन समुझै नांहि


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि तोते तो दुनियां भर की चतुराई सीख लेता है पर उससे क्या फायदा जो पिंजरे में ही पड़ा रहता है। वह दूसरों को तो उपदेश देता है पर स्वयं कुछ नहीं समझता।

संक्षिप्त संपादकीय व्याख्या-लोग पढ़लिख कर अपने को ज्ञानी समझते हैं पर वह भक्ति और जीवन के ज्ञान से परे होते हैं। वह किताबों से पढ़े हुए ज्ञान का प्रचार करते हुए लोगों को मोह माया से दूर रहने का उपदेश देते हैं पर वह स्वयं जीवन के बंधनों में पड़े हुए हैं। तनाव जीवन में अनेक बीमारियों का कारण है आधुनिक शिक्षा प्राप्त करने वाले सभी लोग जानते हैं पर भला कोई उससे मुक्त हो पाया। यह जीवन माया है और चिंता करने का कोई कारण नहीं है पर क्या लोग उसे छोड़ पाते हैं। जिन्होंने आधुनिक शिक्षा प्राप्त की है वह और अधिक दिखावे के मोह में स्वयं को फंसा देते हैं। वह कहते हैं कि हम आधुनिक हैं पर उनका आचरण फिर भी पुरानी रुढि़यों और कुप्रथाओं से स्वतंत्र नहीं दिखता। भारत में दहेज प्रथा इसका सबसे अच्छा उदाहरण है। जितना अधिक शिक्षित दूल्हा उतना ही अधिक दहेज मांग जाता है। देश में इतनी शिक्षा बढ़ गयी है पर फिर भी पुरानी कुप्रथाओं और रूढि़यों को लोग छोड़ने के लिये तैयार नहीं हैं। ऐसे मेंे लगता है कि इस शिक्षा का कोई लाभ नहीं है। कबीरदास जी सहित अनेक अपढ़ संतों ने अपने तपस्या से जो ज्ञान अर्जित किया और उसे सारे संसार को दिया। उन्होंने ऐसी कुरीतियों और कुप्रथाओं के साथ भक्ति के नाम पर ढोंग का जमकर विरोध किया पर आधुनिक शिक्षा में उनके संदेशों को पढ़कर बड़ी बड़ी उपाधियां लेने वाले फिर भी अपने अंदर सुधार नहीं लाते।
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Saturday, September 6, 2008

भृतहरि शतकः विद्वानों की सभा में मिलता है अपनी अज्ञानता का प्रमाण

वरं पर्वतदुर्गेषु भ्रान्तं वनचरैः सह
न मूर्खजनसम्पर्कः सुरेन्द्रभवनेष्वपि

हिंदी में अर्थ- बियावान जंगल और पर्वतों के बीच खूंखार जानवरों के साथ रहना अच्छा है किंतु अगर मूर्ख के साथ इंद्र की सभा में भी बैठने का अवसर मिले तो भी उसे स्वीकार नहीं करना चाहिए।
यदा किंचिज्ज्ञोऽहं द्विप इव मदान्धः समभवम्
तदा सर्वज्ञोऽस्मीत्यभवदवलिपतं मम मनः
यदा किञ्चित्किाञ्चिद् बुधजनसकाशादवगतम्
तदा मूर्खोऽस्मीति जवन इव मदो में व्यपगतः

हिंदी में अर्थ-जब मुझे कुछ ज्ञान हुआ तो मैं हाथी की तरह मदांध होकर उस पर गर्व करने लगा और अपने को विद्वान समझने लगा पर जब विद्वानों की संगत में बैठा और यथार्थ का ज्ञान हुआ तो वह अहंकार ज्वर की तरह उतर गया तब अनुभव हुआ कि मेरे समान तो कोई मूर्ख ही नहीं है।
संपादकीय व्याख्या-आदमी को अपने ज्ञान का अहंकार बहुत होता है पर जब वह आत्म मंथन करता है तब उसे पता लगता है कि वह तो अभी संपूर्ण ज्ञान से बहुत परे है। कई विषयों पर हमारे पास काम चलाऊ ज्ञान होता है और यह सोचकर इतराते हैं कि हम तो श्रेष्ठ हैं पर यह भ्रम तब टूट जाता है जब अपने से बड़ा ज्ञानी मिल जाता है। अपनी अज्ञानता के वश ही हम ऐसे अल्पज्ञानी या अज्ञानी लोगों की संगत करते हैं जिनके बारे में यह भ्रम हो जाता है वह सिद्ध हैं। ऐसे लोगों की संगत का परिणाम कभी दुखदाई भी होता है। क्योंकि वह अपने अज्ञान या अल्पज्ञान से हमें अपने मार्ग से भटका भी सकते हैं
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Friday, September 5, 2008

रहीम के दोहे: समय कभी एक जैसा नहीं रहता

समय लाभ सम लाभ नहिं, समय चूक सम चूक
चतुरन चित रहिमन लगी, समय चूक की हूक

कविवर रहीम कहते हैं कि समय ही लाभ है तथा समय ही हानि भी है। चतुर लोग समय का लाभ उठा लेते हैं और अगर चूक जाते हैं तो उनके मन में त्रास हमेशा ही बना रहता है।

समय पाय फल होत है, समय पाय झरि जात
सदा रहै नहीं एक सी, का रहीम पछतात


कविवर रहीम कहते हैं कि समय के अनुसार अपने निश्चित समय पर ही पेड़ पर फल लगता है और समय के अनुसार ही झड़ जाता है। समय कभी एक जैसा नहीं रहता इसलिये कभी अपने बुरे समय को देखकर परेशान नहीं होना चाहिये।

वतंमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-समय चक्र घूमता रहता है और मनुष्य की जीवन धारा भी उसी के अनुसार बहती जाती है। अपने जीवन से असंतुष्ट लोग अक्सर कहते हैं कि ‘मैंने अमुक की बात मान ली होती तो आज मैं कुछ और होता‘,या मैंने अमुक काम किया होता तो धनाढ्य होता‘। समय और सृष्टि का यह नियम होता है कि एक बार आदमी को इस संसार में उपलब्धि प्राप्त कराने के लिये अवसर अवश्य आता है बस उसे पहचान कर उसका उपयोग करने की बुद्धि होना चाहिए। कई लोग जो दूसरों की बुद्धि के अनुसार चलने के आदी हैं वह ऐसी शिकायतें करते हैं हमने अमुक की बात मानकर गलती की थी। यह सब अपनी गलतियां और बौद्धिक आलस्य की कमी छिपाने का बहाना है। जो लोग अपने कर्तव्य पथ पर चलने के लिये दृढ़संकल्पित होते हैं वह बिना किसी की परवाह किये चलते जाते हैं और अपने लक्ष्य का चरम शिखर प्राप्त करते हैं।
समय का पहिया ऊपर नीचे घूमता है और राजा हो या रंक उसके लिये अच्छा बुरा समय आता रहता है। ज्ञानी लोग इस रहस्य को जानते हैं और इसलिये विचलित नहीं होते।
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Tuesday, September 2, 2008

संत कबीर वाणीःसत्य शब्द की खोज कर मन पर नियंत्रण कर लें

शब्द गुरु का शब्द है, काया का गुंरु काय
भक्ति करै नित शब्द सतगुरु यौं समुझाय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं सत्य के शब्द का ज्ञान कराने वाला गुरु तो शब्द ही है और देह का ज्ञान कराने वाली तो देह ही है। नित्य शब्द के उच्चारण और भगवान का स्मरण करने से ही सच्चा ज्ञान प्राप्त कर सकता है।

एक शब्द सुख खानि है, एक शब्द दुख रासि
एक शब्द बन्धन कटै, एक शब्द गल फांसि

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि एक शब्द ऐसा होता है जो अपने साथ दूसरों के भी सुख प्रदान करता है और एक ऐसा हो दुख ही देता है।
एक शब्द ऐसा होता है जिससे अपने सारे बंधन कट जाते हैं और एक ऐसा होता है जो गले की फांसी बन जाती है।

शब्द खोजि मन बस कर, सहज जोग है येह
सत्त शब्द निज सार है, यह तो झूठी देह

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि हर मनुष्य को सत्य का ज्ञान होना चाहिए तभी उसका मन बस में रहता है। सत्य ही जीवन का सार है और यह देह तो झूठी है जो धीरे धीरे नष्ट होने की तरफ बढ़ती जाती है।
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