Wednesday, March 26, 2014

संगत की रंगत से बचना संभव नही-विदुर नीति के आधार पर चिंत्तन लेख(sangat ki rangat se bachna sambhav nahin-hindu religion thought based on vidur neeti)



      आमतौर से लोग एक दूसरे के प्रति सद्भाव दिखाते ही है। कोई अनावश्यक विवाद नहीं चाहता इसलिये परस्पर मैत्री भाव दिखाना बुरा नहीं है पर दूसरे के कर्म में दोष होने पर उसे न टोकना एक तरह से उसे धोखा देना ही है। संग रहने वाले व्यक्ति का यह दायित्व है कि वह मित्र को उसके कर्म के प्रति सचेत करे पर कोई इसके लिये करने को तैयार नहीं होता।  हालांकि आजकल लोगों की सहनशीलता भी कम हो गयी। कोई अपनी आलोचना को सहजता से नहीं लेता। यदि किसी मित्र ने आलोचना कर दी तो लोग मित्रता तक दांव पर लगाकर उससे मुंह फेर लेते हैं। जिस व्यक्ति में सहनशीलता या वफादारी का भाव नहीं है उससे वैसे भी संपर्क रखना गलत है। यह  सोचना ठीक नहीं है कि असहज या असज्जन व्यक्ति का हम पर प्रभाव नहीं पड़ेगा।
विदुरनीति में कहा गया है कि

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यदि सन्तं सेवति वद्यसंन्तं तपस्विनं यदि वा स्तेनमेव।

वासी था रङ्गबशं प्रयानि तथा स तेषां वशमभ्यूवैति।।

     हिन्दी में भावार्थ-यदि कोई सज्जन, दुर्जन, तपस्वी अथवा चोर की संगत करता है तो वह उसके वश में ही हो जाता है। संगत का रंग चढ़ने से कोई बच नहीं सकता।
      एक बात निश्चित है कि हम जैसे लोगों के बीच उठेंगे और बैठेंगे उनका रंग चढ़ेगा जरूर चाहे उससे बचने का प्रयास कितना भी किया जाये।  किसी से मित्रता करें या किसी की सेवा करें उसके साथ रहते हुए उसके हाव भाव तथा वाणी की शैली का हम पर प्रभाव अवश्य पड़ता है। कई बार हमने देखा होगा कि कुछ लोग अपने संपर्क वाले व्यक्तियों की बोलने चालने की नकल कर  सुनाते हैं। अनेकों के हावभाव और चाल की नकल कर भी दिखाई जाती है। इससे यह बात समझी जा सकती है कि संगत का असर तो होता ही है। यह अलग बात है कि कुछ लोग अपने संगी या मित्र की पीठ पीछे नकल कर मजाक उड़ाते हैं पर सच यह है कि अपने सामान्य व्यवहार में भी उसकी नकल उनसे ही हो जाती है।
      अगर हम चाहते हैं कि हमारी छवि धवल रहे और हम हास्य का पात्र न बने तो सबसे पहले अपनी संगत पर दृष्टिपात करना चाहिये। जीवन में सहजता पूर्वक समय निकालने के लिये यह एक बढ़िया उपाय है कि अपनी निरंतर भलाई का क्रम बनाये रखने के लिये हम ऐसे लोगों से दूर हो जायें जिनसे हमारे आसपास वातावरण विषाक्त होता है।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Saturday, March 22, 2014

गलत लोगों को मशहूर करने की आदत से बचेें-विदुर नीति(galat logon ko mashahau kanre ki aadat se bachen-vidur neeti)



      योग साधक तथा ज्ञानार्थी लोग  इस बात के विरुद्ध  होते  है कि कोई ज्ञानी अपने धर्म पर किसी दूसरे विचाराधारा के व्यक्ति की टिप्पणी पर उत्तेजित होकर अपना संयम गंवायें। साथ ही किसी ज्ञानी को दूसरे धार्मिक विचाराधारा पर टिप्पणी करने की बजाय अपनी मान्यता के श्रेष्ठ तत्वों का प्रचार करना चाहिये। जबकि देखा जा रहा है कि लोग एक दूसरे की धार्मिक विचाराधारा का मजाक उड़ाकर सामाजिक संघर्ष की स्थिति निर्मित करते हैं।
      अभी हाल ही में एक गैर हिन्दू विचाराधारा की लेखिका के भारतीय धर्म का मजाक उड़ाती हुए एक पुस्तक पर विवाद हुआ। यह पुस्तक छपे चार साल हो गये हैं और इसे भारत में पुरस्कृत भी किया गया।  किसी को यह खबर पता नहीं थी।  जब विवाद उठा तब पता चला कि ऐसी कोई पुस्तक छपी भी थी।  दरअसल इस पुस्तक की वापसी के लिये कहीं किसी अदालत में समझौता हुआ है।  तब जाकर प्रचार माध्यमों में इसकी चर्चा हुई। एक विद्वान ने इस पर चर्चा में कहा कि इस तरह उस लेखिका को प्रचार मिल रहा है। इतना ही नहीं अब तो वह लेखिका भी बेबाक बयान दे रही है। संभव है इस तरह उसकी पुस्तकों की बिक्री बढ़ गयी हो। ऐसे में सभव है कि कहीं उसी लेखिका या प्रकाशक ने उस पुस्तक की प्रसिद्धि तथा बिक्री बढ़ाने के लिये इस तरह का विवाद प्रायोजित किया हो।

विदुर नीति में कहा गया है कि

असन्तोऽभ्यर्थिताः सिद्भः क्वचित्कार्य कदाचन।

मन्यन्ते सन्तमात्मानमसन्तामपि विश्रुत्तम्।।

     हिन्दी में भावार्थ-यदि किसी दुष्ट मनुष्य सेे सज्जन किसी विषय पर प्रार्थना करते हैं तो वह दुष्ट प्रसिद्ध के भ्रम में स्वयं को भी सज्जन मानने लगता है।

      हमारा मानना है कि धर्म चर्चा का नहीं वरन् आचरण का विषय है। किसी भी धार्मिक विचाराधारा में चंद  ठेकेदार यह दावा करते हैं कि वह उसे पूरी तरह समझते हैं। चूंकि हमारे समाज ने भी यह मान रखा है कि ज्ञान का अर्जन तो केवल बौद्धिक रूप से संपन्न लोग ही कर सकते हैं इसलिये कोई अपने प्राचीन ग्रंथों का अध्ययन नहीं करता जिससे  उसमें से रट्टा लगाकर ज्ञान बेचने वाले लोगों को अपनी श्रेष्ठ छवि बनाने का अवसर मिलता है। दूसरी बात यह भी है कि यह कथित रूप से प्रचार किया जाता है कि बिन गुरु के गति नहीं है।  जबकि हमारे महापुरुष कहते हैं कि अगर योग्य गुरु नहीं मिलता तो परमात्मा को ही सत्गुरु मानकर हृदय में धारण करें। इससे ज्ञान स्वतः ही  मस्तिष्क में स्थापित हो जाता है।  दूसरी बात यह कि धर्म की रक्षा विवाद से नहीं वरन् ज्ञान के आचरण से ही हो सकती है।  दूसरी बात यह कि कुछ लोगों को अपनी प्रसिद्धि पाने की इच्छा पथभ्रष्ट कर देती है और तब वह जनमानस को उत्तेजित करने का प्रयास करते हैं। जब सज्जन लोग उनसे शांति की याचना करते हैं तो उन्हेें लगता है कि वह समाज के श्रेष्ठ तथा अति सज्जन आदमी है। इसलिये अपनी आस्था तथा इष्ट पर की गयी प्रतिकूल टिप्पणियों पर अपना मन खराब नहीं करना चाहिये।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Friday, March 14, 2014

संत कबीर दर्शन-वार्तालाप में अभद्र शब्द प्रयोग करने से बचें (sant kabir darshan-abhadra shabd prayog karne se bachen)



      हमारे देश में समाज ने  शिक्षा, रहन सहन, तथा चल चलन में पाश्चात्य शैली अपनायी है पर वार्तालाप की शैली वही पुरानी रही है। उस दिन हमने देखा चार शिक्षित युवा कुछ अंग्रेजी और कुछ हिन्दी में बात कर रहे थे।  बीच बीच में अनावश्यक रूप से गालियां भी उपयोग कर वह यह साबित करने का प्रयास भी कर रहे थे कि उनकी बात दमदार है। हमने  देखे और सुने के आधार पर यही  समझा कि वहां वार्तालाप में अनुपस्थित किसी अन्य मित्र के लिये वह गालियां देकर उसकी निंदा कर रहे हैं।  उनके हाथ में मोबाइल भी थे जिस पर बातचीत करते हुए  वह गालियों का धड़ल्ले से उपयोग कर रहे थे। कभी कभी तो वह अपना वार्तालाप पूरी तरह अंग्रेजी में करते थे पर उसमें भी वही हिन्दी में गालियां देते जा रहे थे।  हमें यह जानकर हैरानी हुई कि अंग्रेजी और हिन्दी से मिश्रित बनी इस तोतली भाषा में गालियां इस तरह उपयोग हो रही थी जैसे कि यह सब वार्तालाप शैली का कोई नया रूप हो।

संत  कबीर कहते हैं कि

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गारी ही से ऊपजे कष्ट और मीच।

हारि चले सो सन्त है, लागि मरै सो नीच।।

      सामान्य हिन्दी में भावार्थ-गाली से कलह, कष्ट और झंगडे होते हैं। गाली देने पर जो उत्तेजित न हो वही संत है और जो पलट कर प्रहार करता है वह नीच ही कहा जा सकता है।

आवत गारी एक है, उलटत होय अनेक।

कहें कबीर नहि उलटियो, वही एक की एक।।

     सामान्य हिन्दी में भावार्थ-जब कोई गाली देता है तो वह एक ही रहती है पर जब उसे जवाब में गाली दी जाये तो वह अनेक हो जाती हैं। इसलिये गाली देने पर किसी का उत्तर न दें यही अच्छा है।

      कई बार हमने यह भी देखा है कि युवाओं के बीच केवल इस तरह की गालियों के कारण ही भारी विवाद हो जाता है। अनेक जगह हिंसक वारदातें केवल इसलिये हो जाती हैं क्योंकि उनके बीच बातचीत के दौरान गालियों का उपयोग होता है। जहां आपसी विवादों का निपटारा सामान्य वार्तालाप से हो सकता है वह गालियों का संबोधन अनेक बार दर्दनाक दृश्य उपस्थित कर देता है।
      एक महत्वपूर्ण बात यह कि अनेक बार कुछ युवा वार्तालाप में गालियों का उपयोग अनावश्यक रूप से यह सोचकर करते हैं कि उनकी बात दमदार हो जायेगी।  यह उनका भ्रम है। बल्कि इसका विपरीत परिणाम यह होता है कि जब किसी का ध्यान गाली से ध्वस्त हो तब वह बाकी बात धारण नहीं कर पाता।  यह भी एक मनोवैज्ञानिक सत्य है वार्तालाप क्रम टूटने से बातचीत का विषय अपना महत्व खो देता है और गालियों के उपयोग से यही होता है। इसलिये जहां अपनी बात प्रभावशाली रूप से कहनी हो वहां शब्दिक सौंदर्य और उसके प्रभाव का अध्ययन कर बोलना चाहिये। अच्छे वक्ता हमेशा वही कहलाते हैं जो अपनी बात निर्बाध रूप से कहते हैं तो श्रोता भी उनकी सुनते हैं। गालियों का उपयोग वार्तालाप का ने केवल सौंदर्य समाप्त करता है वरन उसे निष्प्रभावी बना देता है।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Saturday, March 8, 2014

संत कबीर दर्शन-गालियाँ देने से बचना ही ठीक(gaaliyan dene se bachana hee theek-sant kabir darshan)



      हमारे देश में समाज ने  शिक्षा, रहन सहन, तथा चल चलन में पाश्चात्य शैली अपनायी है पर वार्तालाप की शैली वही पुरानी रही है। उस दिन हमने देखा चार शिक्षित युवा कुछ अंग्रेजी और कुछ हिन्दी में बात कर रहे थे।  बीच बीच में अनावश्यक रूप से गालियां भी उपयोग कर वह यह साबित करने का प्रयास भी कर रहे थे कि उनकी बात दमदार है। हमने  देखे और सुने के आधार पर यही  समझा कि वहां वार्तालाप में अनुपस्थित किसी अन्य मित्र के लिये वह गालियां देकर उसकी निंदा कर रहे हैं।  उनके हाथ में मोबाइल भी थे जिस पर बातचीत करते हुए  वह गालियों का धड़ल्ले से उपयोग कर रहे थे। कभी कभी तो वह अपना वार्तालाप पूरी तरह अंग्रेजी में करते थे पर उसमें भी वही हिन्दी में गालियां देते जा रहे थे।  हमें यह जानकर हैरानी हुई कि अंग्रेजी और हिन्दी से मिश्रित बनी इस तोतली भाषा में गालियां इस तरह उपयोग हो रही थी जैसे कि यह सब वार्तालाप शैली का कोई नया रूप हो।
संत  कबीर कहते हैं कि

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गारी ही से ऊपजे कष्ट और मीच।

हारि चले सो सन्त है, लागि मरै सो नीच।।

      सामान्य हिन्दी में भावार्थ-गाली से कलह, कष्ट और झंगडे होते हैं। गाली देने पर जो उत्तेजित न हो वही संत है और जो पलट कर प्रहार करता है वह नीच ही कहा जा सकता है।

आवत गारी एक है, उलटत होय अनेक।

कहें कबीर नहि उलटियो, वही एक की एक।।

     सामान्य हिन्दी में भावार्थ-जब कोई गाली देता है तो वह एक ही रहती है पर जब उसे जवाब में गाली दी जाये तो वह अनेक हो जाती हैं। इसलिये गाली देने पर किसी का उत्तर न दें यही अच्छा है।

      कई बार हमने यह भी देखा है कि युवाओं के बीच केवल इस तरह की गालियों के कारण ही भारी विवाद हो जाता है। अनेक जगह हिंसक वारदातें केवल इसलिये हो जाती हैं क्योंकि उनके बीच बातचीत के दौरान गालियों का उपयोग होता है। जहां आपसी विवादों का निपटारा सामान्य वार्तालाप से हो सकता है वह गालियों का संबोधन अनेक बार दर्दनाक दृश्य उपस्थित कर देता है।
      एक महत्वपूर्ण बात यह कि अनेक बार कुछ युवा वार्तालाप में गालियों का उपयोग अनावश्यक रूप से यह सोचकर करते हैं कि उनकी बात दमदार हो जायेगी।  यह उनका भ्रम है। बल्कि इसका विपरीत परिणाम यह होता है कि जब किसी का ध्यान गाली से ध्वस्त हो तब वह बाकी बात धारण नहीं कर पाता।  यह भी एक मनोवैज्ञानिक सत्य है वार्तालाप क्रम टूटने से बातचीत का विषय अपना महत्व खो देता है और गालियों के उपयोग से यही होता है। इसलिये जहां अपनी बात प्रभावशाली रूप से कहनी हो वहां शब्दिक सौंदर्य और उसके प्रभाव का अध्ययन कर बोलना चाहिये। अच्छे वक्ता हमेशा वही कहलाते हैं जो अपनी बात निर्बाध रूप से कहते हैं तो श्रोता भी उनकी सुनते हैं। गालियों का उपयोग वार्तालाप का ने केवल सौंदर्य समाप्त करता है वरन उसे निष्प्रभावी बना देता है।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Sunday, March 2, 2014

रहीम दर्शन-अपनी सच्चाई के साथ जीना चाहिए(rahim darshan-apne sachchai sa sath jeena chahiye)



      आधुनिक युग में मनुष्य की जीवन को न केवल अस्थिर किया है बल्कि उसकी मानसिकता को भी अन्मयस्क कर दिया है। लोग अपने खानपान, रहनसहन तथा विचारों को लेकर इतने अस्थिर तथा अन्मयस्क हो गये हैं कि उन्हें यह समझ में ही नहीं आता कि क्या रें या क्या न करें? इसलिये प्रकृत्ति से दूर हटकर जीवन जी रहे लोगों को दैहिक तथा मानसिक रोग घेर लेते हैं।
      अपने लिये उत्कृष्ट रोजगार की लालसा में शहर और प्रदेश ही नहीं लोग देश भी छोड़ने को तैयार है। हम अक्सर यह शिकायत करते हैं कि हमारे यहां से प्रतिभाशाली लोग पलायन कर विदेश चले जाते हैं।  हम यह भी देख रहे हैं कि अनेक लोगों ने विदेश में जाकर भारी सम्मान पाया है। वैसे भी कहा जाता है कि अपने व्यक्तिगत विकास के लिये मूल स्थान से बिछड़ना ही पड़ता है। हालांकि अपने मूल शहर, प्रदेश अथवा देश को छोड़कर गये लोगों के हृदय में कहीं न कहीं इस बात का अफसोस होता है कि उन्हें अपने जन्मस्थान से दूर जाना पड़ा। यह स्वाभाविक भी है क्योंकि आप अपने मूल स्थान से जाकर कितना भी विकास करें आपको अपने कार्यस्थल पर बाहरी ही माना जाता है।  उसी तरह मूल स्थान में रहने वाले लोग भी पराया मानने लगते हैं। कहा जाता है कि जो चूल के निकट है वही दिल के भी निकट है।

कविवर रहीम कहते हैं कि

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धनि रहीमगति मीन की, जल बिछुरत जिय जाय।

जिअत कंज तलि अनत बसि, कहा भौंर को भाय।।

     सामान्य हिन्दी में भावार्थ-मछली का जीवन धन्य है जो जल से बिछड़ते ही जीवन त्याग देती है। कमल अगर कीचड़ से प्रथक कहीं दूसरे स्थान पर जीना चाहता है तो भौंरे को उसकी यह बात पसंद नहीं आती।

      एक बात निश्चित है कि मनुष्य अगर संतोषी भाव का हो तो वह  अपने मूल स्थान पर ही बना रहता है यह अलग बात है कि उसे तब वह शनैः शनैः ही विकास की धारा में शामिल हो पाता है। भौतिक विकास को धन्य मानने वाले अपने जीवन का अर्थ तथा प्रकृति को नहीं समझते।  मनुष्य में कमाने वाले को उसके निकटस्थ  लोगों का दिमागी रूप से सम्मान मिलता है पर त्याग करने वाले को पूरा समाज हार्दिक प्रेम करता है।  इस संसार में हर जीव अपना पेट भर लेता है और कोई मनुष्य अगर पेट से ज्यादा कमाकर धन जमा करता है तो कोई तीर नहीं मार  लेता।  मनुष्य की पहचान कमजोर पर परोपकार और बेबस पर दया करने से ही होती है। अगर मनुष्य इन गुणों से हटकर अगर स्वार्थी जीवन जाता है तो उसे यह समझ लेना चाहिये कि उसे हार्दिक सम्मान कभी नहीं मिल सकता है।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

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