Friday, May 23, 2008

संत कबीर वाणी:देह सराय और मन पहरेदार है

मैं मेरी तू जनि करै, मेरी मूल विनासि
मेरी पग का पैखड़ा, मेरी गल की फांसि

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते है कि इस संसार में मनुष्य देह पाकर अहंकार के जाल में मत फंसा क्योंकि यह तो पांव की फांस है जो भक्ति मार्ग पर चलने नहीं देती। बाद में यही गले की फांसी भी बन जाती है।

तन सराय मन पाहरु, मनसा उतरी आय
को काहू का है नहीं, देखा ठोंकि बजाय


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि यह देह धर्मशाला की तरह है और इसका पहरेदार हमारा मन है। इस देह में इच्छाएं और कामनाएं अतिथि के रूप में आकर ठहर जाती हैं। एक का काम पूरा होता है तो दूसरी वहां रहने चली आती है। यहां कोई किसी का सगा नहीं है यह ठोक बजाकर देख लिया।

इत पर घर उत है घरा बनिजन आये हाट
करम करीना बेचि के, उठि करि चालो बाट

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि इस संसार में देह धारण करने का आशय यह समझना चाहिए कि हम व्यापारी की तरह हाट में आये है। इसलिये हमें सत्कर्मों का व्यापार करना चाहिए। अतः यहां जाने से पहले अपना समय भगवान भक्ति और परमार्थ करते रहना चाहिए। आखिर फिर अपने घर वापस भी तो जाना है।

व्याख्या-हमेशा कहा जाता है कि हमारा आत्मा परमात्मा से बिछड़ कर यहां आया है इसलिये उनका घर ही हमारा घर है। यही कबीरदास जी का आशय है। इसलिये वह यह कहते हैं कि यह देह धारण करना मतलब बाजार में आना है।

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