Friday, November 5, 2010

विदुर नीति-दुर्गुण देखने वाले किसी के गुण नहीं देखते (vidur darshan-gun aur avgun)

न तथेच्छन्ति कल्याणम् परेवां वेदितुं गुणम्।
यथैवां ज्ञातुमिच्छन्ति नैगुण्यं पापचेतसः।।
हिन्दी में भावार्थ-
महात्मा विदुर कहते हैं कि जिनका मन पाप में लिप्त है वे लोग दूसरों के कल्याणमय गुणों को जानने की वैसी ही इच्छा नहीं करते जितनी उत्सुकता उनके दुर्गुणों में रहती है।
अर्थसिद्धि परामिच्छन् धर्ममेवादितश्यचरेत्।
न हि धर्मादपैत्यर्थः स्वर्गलोकविदवामृतम्।
हिन्दी में भावार्थ-
जो पूर्ण से भौतिक उपलब्धि प्राप्त करना चाहते हैं उसे धर्म के अनुसार ही आचरण करना चाहिए। जिस प्रकार स्वर्ग से अमृत दूर नहीं होता उसी तरह धर्म के पास ही अर्थ रहता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या -आजकल टीवी चैनलों, रेडियो और समाचार पत्र पत्रिकाओं में दुर्घटनाओं, दुव्यर्वहार तथा दुष्टतापूर्ण बयानों से सनसनी फैलती इसलिये ही नज़र आ रही है क्योंकि व्यवसायिक मनोरंजनकर्ता यह जानते हैं कि मनुष्य के हृदय में दूसरों के दोष देखने की स्वाभाविक प्रवृत्ति है। तमाम मंचों पर धर्म, अर्थ और समाज के विषयों पर बहसें होती हैं तब एक निंदक और प्रशंसक बिठाया जाता है ताकि लोग दोषों को सुनकर आनंद लें। कत्ल, लूट, अपहरण दुर्घटनाओं की खबरें प्रमुखता से छपती हैं और निष्प्रयोजन दया, निष्काम कर्म तथा धर्म के काम में लगे रचनाकारों की चर्चा नगण्य ही हो पाती है। देवी देवताओं की नग्न तस्वीरों पर प्रयोजित रूप से हाय हाय कर चित्रकारों को प्रसिद्धि दिलाई जाती है परन्तु जो तमिलनाडु के शिवकाशी में बैठे लोग सौम्य तस्वीरो बनाते हैं उनकी चर्चा कोई नहीं करता। हम यहां प्रसारणों और प्रकाशनों की प्रवृत्ति की नहीं बल्कि आम जनों की चर्चा कर रहे हैं जिनमें यह प्रवृत्ति होती है कि विध्वंस, दोष तथा व्यसन उनको आसानी से अपनी तरफ आकर्षित करते हैं। दरअसल उनमें ही किसी का गुण देखने की इच्छा नहीं है जिसका लाभ व्यवसायिक मनोरंजन कर्ता अपनी कमाई के लिये उठाते हैं।
एक बात याद रखें कि मायावी संसार का विस्तार होता है हालांकि वह अत्यंत कमजोर ढांचे पर टिका होता है जबकि सत्य अत्यंत सूक्ष्म है पर शक्तिशाली है। इस सूक्ष्म को तत्वज्ञान से ही जाना जा सकता है। सत्य बीभत्स दिखता है पर उसका प्रभाव अत्यंत सुंदर है जबकि माया आकर्षक है पर अत्यंत उसमें लोभ पालना दुःख का हेतु बनता है। हम देख रहे हैं कि अधर्म अपनी चरम पर पहुंच चुका है। इसके लिये खास या आम लोगों दोनों ही जिम्मेदार हैं। धर्म का पालन करने में एक्शन या सक्रियता नज़र नहीं आती जबकि अधर्म में वह सब है जो दूसरों को आकर्षित करता है। यही कारण है कि समाज में किसी भी तरह धन, प्रतिष्ठा तथा पद पाने की लालसा बढ़ रही है जिसमें लोग आत्मा, आचरण तथा अपने लोगों को ही दांव लगा देते हैं। ऐसा नहीं है कि समाज में भले लोगों की कमी है पर मुश्किल यह है कि उनका आकर्षण विस्तारित रूप नहीं लेता जिससे दूसरों पर प्रभाव पड़े। इसे यूं भी कहना चाहिए कि वह प्रचार नहीं करते इसलिये उनसे कोई प्रेरणा नहीं लेता। यह अलग बात है कि धर्म के ज्ञानी लोग इस तथ्य का जानते हुए अपने काम में लगे रहते हैं।
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संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

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