Monday, April 14, 2014

समाज में व्याप्त असंतोष से आँखें फेरना थी नहीं-तुलसीदास दर्शन पर आधारित चिंत्तन लेख(samaj mein vyapta asantosh se aankhen ferna theek nahin-tulsidas darshan par adharit chintta lekh)



      भारत में लोकसभा के चुनाव 2014 में होने हैं।  इसके लिये देश में प्रचार अभियान जोरों पर है।  एक तरफ सत्ता पक्ष दावा करता है कि उसने देश के विकास का काम जमकर किया है दूसरी तरफ विपक्ष जमकर यह प्रचार कर रहा है कि सत्ता पक्ष ने कुछ काम नहीं किया।  इस बहस का निष्कर्ष तो चुनाव परिणाम आने पर ही पता लगेगा पर एक बात तय है कि आर्थिक उदारीकरण की कथित प्रणाली देश के समाज को आंदोलित कर दिया है।  जहां हम यह देख रहे हैं कि भौतिक साधनों का उपभोग बड़ा है जिसे विकास कहा जाता है तो वहीं आर्थिक असमानता ने देश में एक भारी कलह की स्थिति भी पैदा की है। मुदा्रस्फीति की दर के साथ ही महंगाई भी बढ़ी है जिसने मध्यम वर्गीय परिवारों को निम्न वर्ग में लाकर खड़ा कर दिया है। मजे की बात यह है कि जहां से धन लेना है वहां तो मध्यम वर्गीय लोग गरीब कहलाने के लिये तैयार हैं पर जहां उपभोग का प्रश्न आये तो वहां सभी एक दूसरे से होड़ करना चाहते हैं।  बैंक या बाज़ार से कर्ज लेकर स्वयं को सभ्य कहलाने के लिये उनके यह प्रयास अच्छे लगते हैं पर जब उसे चुकाने की बात आती है तो उनकी हवा निकल जाती है।

संत तुलसीदास कहते हैं कि

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कलह न जानब छोट करि, कलह कठिन परिनाम।

गत अगिनि लघु नीच गृह, जरत धनिक धन धाम।।

     सामान्य हिन्दी में भावार्थ-कलह को कभी छोटा विषय नहीं मानना चाहिये। कलह का परिणाम अत्यंत भयानक होता है। एक छोटे आदमी के घर में लगी आग धनिकों के महल तक नष्ट कर देती है।

      आर्थिक विशेषज्ञ भले ही देश के विकसित होने की बात करते हों पर सामाजिक विशेषज्ञों की दृष्टि से देश में इस कारण जो जातीय, भाषाई, क्षेत्रीय, धार्मिक तथा आर्थिक आधार पर जो कलह या वैमनस्य का वातावरण बन गया है वह अत्यंत चिंताजनक है।  दूसरी बात यह भी है कि जिन लोगों ने धन का प्रचुर मात्रा में संग्रह किया है उन्होंने अपने आसपास आर्थिक विपन्नता की उपस्थिति से मुंह फेर लिया है।  इससे अल्प धनिक लोगों के मन में संपन्न लोगो के प्रति जो निराशा तथा वैमनस्य  का भाव है उसका अनुमान सामाजिक विशेषज्ञ ही कर सकते हैं।  हमारे देश में अनेक समाज सेवक उस कलह को रेखांकित करते हैं जो अंततः अपराध को जन्म देती है।  यह अपराध चाहे स्वयं के प्रति हो या दूसरे के प्रति अंततः उसका परिणाम समाज को ही भोगना होता है।  प्रचार  माध्यमों में इस विषय पर चर्चा या बहस होती तो है पर उसका स्तर सतही रहता है।  सच बात तो यह है कि देश में सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक, भाषाई तथा क्षेत्रीय कलह को निपटाने का गंभीर प्रयास होना चाहिये तभी देश में खुशहाली लायी जा सकती है।


दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

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