भक्तगणों को बिन मांगे हमारी राय है कि जवानों की शिकायतों पर प्रतिकूल टिप्पणियां कर अपने इष्ट के प्रति उनके ही सद्भाव को समाप्त न करें। भक्तों को बता दें कि जवानों की यह शिकायतों का दौर अब इसलिये प्रारंभ हो गया है कि वह भक्तों के इष्ट को अपना समझते हैं-मतलब जो पहले उनकी जगह थे उनसे दर्द झेल रहे जवान आशा नहीं करते थे। समस्या दूसरी भी है कि भक्त यह समझें कि भ्रष्टाचार के विरुद्ध उनके इष्ट का रवैया शाब्दिक रूप से आक्रामक रहा है पर भूतल पर वह दिखाई नहीं दिया। भ्रष्टाचारियों में अब उनके इष्ट का भय नहीं रहा इसलिये वह अपने कारमाने जारी रखे हुए हैं। जवानों का दर्द भक्तों के इष्ट की वजह से नही वरन् भ्रष्टाचारियों की बेदर्दी से उपजा है। जब तक भ्रष्टाचारियों में भक्तों के इष्ट का खौफ दोबारा नहीं आयेगा तब यह समस्या यथावत रहेगी। भक्त यह समझें कि उनके इष्ट की छवि ने जो देवता की छवि बनायी है उसी वजह से जवान अपनी समस्या उन तक पहुुंचाने के लिये आतुर हैं। जवानों की शिकायतों पर आक्षेप कर भक्तगण अपने ही इष्ट की छवि से उनके मन में पैदा हुई आशा पर प्रहार न करें।
देश में सुरक्षा तथा गोपनीयता के नाम सरकारी कर्मचारियों को अपनी व्यथा कथा सार्वजनिक रूप से कहने पर अघोषित प्रतिबंध है। सीमा सुरक्षा बल के जवान तेजबहादुर ने अपने खाने पीने में दाल या घी न होने की शिकायत की है-यकीनन उसने सुरक्षा बलों में उच्च स्तर पर व्याप्त भ्रष्टाचार को सोशल मीडिया पर लाकर अपने लिये ही चुनौती मोल ली है-उच्च अधिकारी उसे अब प्रताडि़त करने का कोई अवसर नहीं छोड़ेंगे। अतः केंद्रीय राजकीय नागरिक कर्मचारी संगठनों के राष्ट्रवादी नेताओं को चाहिये कि वह सेना तथा सीमासुरक्षा बल के जवानों की समस्याओं को पुरजोर ढंग से उठायें। सेना तथा पुलिस के जवान अनुशासन के कारण अपनी बात नहीं कहते इसलिये नागरिक कर्मचारी संगठनों को उनकी व्यथा सरकार तक पहुंचाना चाहिये। प्रगतिशील और जनवादी मजदूर नेताओं ने जबरन कर्मचारी तथा मजदूरों संगठनों की समन्वित संस्थाओं पर कब्जा कर रखा है। यह लोग केवल फिक्सिंग करते हैं। अतः राष्ट्रवादी मजदूर तथा कर्मचारी नेताओं को इन समन्वित संस्थाओं पर बनाना चाहिये।
हम पुस्तक मेला 2017 देखने दिल्ली आना चाहते हैं। दिल्ली कई बार आये हैं पर ज्यादा घूमे नहीं है। प्रगति मैदान तक कैसे जायें कैसे आयें-इस पर भी जानकारी ले रहे हैं। क्या सुबह घर से निकलकर शाम तक वहां पहुंच पायेंगे। फिर रात को वहां से ग्वालियर लौट आयें-ऐसा कार्यक्रम बनाना पड़ेगा। इधर रेलों का भी कुहरे के कारण भरोसा कम रह गया है। दिल्ली में हम अगर रुकें तो कहां? यह सवाल भी आता है। पुस्तक मेला है तो कोई साथी भी चलने के लिये नहीं मिलेगा-आज जब मोबाइल युग है कौन इस तरह बेगार का साथी बनेगा। मतलब पूरा सफर अकेले मौन से मित्रता कर बिताना पड़ेगा।
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पैतालीस साल पहले 1972 में हम एक बार अपने पापा के साथ प्रगति मैदान विज्ञान मेला देखने आये थे जो भारत पाक युद्ध के बाद लगा था। तब बहुत छोटे थे तब हमारे साथ ताऊ और चाचा के लड़के भी थे। वहां से खरीद कुछ नहीं पाये थे क्योंकि उस समय निम्न मध्यम वर्गीय परिवारें की स्थिति इस तरह की नहीं थी कि महंगे कैमरे या अन्य वस्तुऐं खरीद सकें-देखना भी धन्य माना जाता था। अब अगर आये तो पुस्तकें तो जरूर खरीदेंगे। देखें आगे क्या विचार बनता है।