Thursday, March 25, 2010

भर्तृहरि नीति शतक-जीवन में आत्मबल को होना आवश्यक (jivan aur atmabal-hindu dharma sandesh)

नाऽस्ति मेघसमं तोयं नाऽस्ति चात्मसमं बलम्।
नाऽस्ति चक्षुःसमं तेजो नाऽस्ति धन्यसमं प्रियम।।
हिन्दी में भावार्थ-
बादलों के जल के अलावा कोई दूसरा जल नहीं है। उसी तरह आत्मबल के अलावा कोई दूसरा बल नहीं है। आंख जैसी कोई अन्य शक्तिशाली इंद्रिय नहीं है और अन्न के अलावा अन्य कोई वस्तु प्रिय नहीं है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय-महाराज भर्तृहरि के इस श्लोक में ज्ञान और विज्ञान दोनों ही तत्व शामिल है। मनुष्य अपनी भौतिक उपलब्धियों के लिये इतनी उछलकूद करता है पर उसकी मूलभूत आवश्यकतायें अत्यंत तुच्छ वस्तुओं से ही पूर्ण होती हैं। तुच्छ इस मायने में कि मनुष्य यही समझता है वरना तो वह वस्तुऐं जीवन का आधार होती हैं। सिख गुरु श्री गोविंद सिंह भी कहते हैं कि आदमी के लिये धन जरूरी चीज है पर उसकी भूख तो दो रोटी में ही शांत होती हैं। उनका अभिप्राय यही है कि धन के लिये इंसान व्यर्थ ही मारामारी करता है जबकि उसके लिये परमात्मा ने आवश्यकता पूर्ति के लिये रोटी का इंतजाम कर दिया है।
मनुष्य अपना सारा जीवन ही धन संपदा जुटाने की भागदौड़ में समाप्त कर देता है और उसे अपने अंदर चरित्र और विचार निर्माण का अवसर ही उसे नहीं मिल पाता। एकांत साधना न करने से मनुष्य आत्मिक रूप से कमजोर हो जाता है जबकि जीवन में सहजता के लिये उसमें आत्मिक बल होना आवश्यक है। यह तभी प्राप्त हो सकता है जब मनुष्य कुछ समय भगवान भक्ति और ध्यान साधना में लगाये। इससे जो आत्मबल मिलता है वह बहुत लाभदायी होता है और फिर ऐसी उपलब्धियां स्वतः प्राप्त होने पर भी तुच्छ लगती हैं जिनको पहले हम बहुत बड़ी समझते हैं।
आजकल लोग अपनी आंखें टीवी पर फोड़ रहे हैं उनको यह आभास ही नहीं है कि यही इंद्रिय हमारी सबसे अधिक शक्तिशाली है और इसके क्षीण होने पर हम शक्तिहीन और निराश्रित हो जाते हैं। इन सब बातों को देखते हुए यही लगता है कि आधुनिक और अमीर दिखने की दौड़े में भागने की बजाय अध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने में भी रुचि ली जानी चाहिए।
संकलक,लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://anant-shabd.blogspot.com
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