Saturday, April 26, 2014

गुणी लोग ही सुख भोगते हैं-कौटिल्य के अर्थशास्त्र के आधार पर चिंत्तन लेख(guni log hi sukhg bhogte hain-kautilya ka arthshastra)



            अनेक कथित धार्मिक गुरु यह तो कहते हैं कि मोह, माया, अहंकार तथा क्रोध का त्याग करें पर न तो वह स्वयं उनके प्रभाव से मुक्त हैं न वह अपने शिष्यों को कोई विधि बता पाते हैं। सत्य और माया के बीच केवल अध्यात्मिक ज्ञानी और साधक ही समन्वय बना पाते हैं। एक बात तय है कि सत्य के ज्ञान का विस्तार नहीं है पर माया का ज्ञान अत्यंत विस्तृत है।  कोई ऐसा बुरा काम नहीं करना चाहिये दूसरे को पीड़ा यह सत्य का ज्ञान है यह सभी जानते हैं पर माया के पीछे जाते हुए अनेक ऐसे काम करने पड़ते हैं जिनके उचित या अनुचित होने ज्ञान सभी को नहीं होता।  माया के अनेक रूप हैं सत्य का कोई रूप नहीं है। अनेक रूप होने के कारण धन, संपदा तथा उच्च के पद की प्राप्ति के लिये अनेक प्रकार के मार्ग हैं।  हर मार्ग का ज्ञान अलग है। स्थिति यह है कि लोग धन और संपत्ति प्राप्त करने के मार्ग बताने वालों को ही धार्मिक गुरु मान लेते हैं। मजे की बात तो यह है कि ऐसे गुरु श्रीमद्भागवत गीता से निष्काम कर्म तथा निष्प्रयोजन का संदेश नारे के रूप में देते देते ही मायावी संसार का ज्ञान देने लगते हैं।  इस संसार में माया की संगत जरूरी है पर सत्य का ज्ञान हो तो माया दासी होकर सेवा करते हैं वरना स्वामिनी होकर नचाने लगती है।
कौटिल्य महाराज ने अपने अर्थशास्त्र में कहा है कि

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वे शूरा येऽपि विद्वांतो ये च सेवाविपिश्चितः।

तेषा मेव विकाशिन्यों भोग्या नृपतिसम्भवः।।

            हिन्दी में भावार्थ-जिस मनुष्य में वीरता, विद्वता और सेवा करने का गुण है वही भोग के लिये  सम्पत्ति प्राप्त करता है।

कुलं वृत्तञ् शौर्य्यञ्च सर्वमेतन्ना गभ्यते।

दुवृतेऽश्न्यकुलीनेऽप जनो दातरि रज्यते।।

            हिन्दी में भावार्थ-कुल, चरित्र और वीरता को भी कोई ऐसे नहीं सराहता। दुष्ट तथा अकुलीन भी अगर दातार हो तो सामान्य जन उसमें अनुराग रखते हैं।

            अध्यात्मिक ज्ञानी मानते हैं कि मनुष्य अगर अपने अंदर ज्ञान साधना कर सत्य समझ ले तो उसमें वीरता और पराक्रम के गुण स्वतः आ जाते हैं और तब वह इस संसार में माया का स्वामी बनता है पर उसे अपनी स्वामिनी बनकर नचाने का अवसर नहीं देता।  दूसरी बात यह है कि ज्ञानी आदमी धन का व्यय इस तरह करता है कि उसके आसपास के लोग भी प्रसन्न रहें। वह दान और सहायता के रूप में ऐसे लोगों को धन या वस्तुऐं देता है जो उसके लिये सुपात्र हों। जिन लोगों के पास अध्यात्म ज्ञान नहीं है वह पैसा, पद और प्रतिष्ठा के मद में दूसरों को छोटा समझकर उनकी उपेक्षा कर देते हैं जिससे उनके प्रति समाज में विद्रोह का भाव निर्माण होता है।


दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 


Monday, April 21, 2014

संकट आने की आशंकायें हृदय में न धारण करें-पतंजलि योग साहित्य पर आधारित चिंत्तन(sankat aane ki aashankaen hridya mein n paalen-patanjlai yoga sahitya)



      मनुष्य का मस्तिष्क सोते समय भी सक्रिय रहता है जिस कारण वह अनेक तरह के अच्छे और बुरे सपने देखता है। उसी तरह दिन में भी वह काम करते समय भी अनेक प्रकार की चिंतायें और आशंकायें पालता है। मनुष्य का मन ही उसका वास्तविक स्वामी है। कभी वह प्रफुल्लित होता है कभी आत्मग्लानि को बोध से ग्रस्त होकर शांत बैठ जाता है। कभी आर्थिक, सामाजिक या रचना के क्षेत्र में अपनी भारी सफलता का सपने देखता है।  यही मन मनुष्य को भौतिक संपदा के संचय में इसलिये भी फंसाये रहता है कि कभी विपत्ति आ जाये तो उसका सामना माया की शक्ति से किया जाये।  हमारा अध्यात्मिक दर्शन कहता है कि खाने धन जरूरी है पर खाने के लिये बस दो रोटी चाहिये।  मनुष्य का मन भूख, बीमारी तथा दूसरे के आक्रमण को लेकर हमेशा चिंतित रहता है।  उसे लगता है कि पता नहीं कब कहां से दुःख आ जाये। इस तरह मन की यात्रा चलती है पर सामान्य मनुष्य इसे समझ नहीं पाता। संसार में सुख और दुःख आता जाता है पर मनुष्य का मानस हमेशा ही उसे संभावित आशंकाओं भयभीत रखता है।
महर्षि पतंजलि के योगशास्त्र में कहा गया है कि

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हेयं दुःखमनागतम्।।

हिन्दी में भावार्थ-जो दुःख आया नहीं है, वह हेय है।
      योग साधक और अध्यात्मिक ज्ञान के छात्र इस मन पर नियंत्रण करने की कला जानते हैं।  योग तथा ज्ञान साधक हमेशा ही सामने आने पर ही समस्या का निवारण करने के लिये तैयार रहते हैं। देह, मन तथा विचारों पर उनका नियंत्रण रहता है इसलिये वह संभावित दुःखों से दूर होकर अपनी जीवन यात्रा करते हैं।  देखा जाये तो अनेक लोग तो भविष्य की चिंताओं में अपनी देह, विचार तथा मन में बुढ़ापा लाते हैं।  एक बात तो यह है कि लोग अपने  अध्यात्मिक दर्शन का यह संदेश अपने मस्तिष्क में धारण नहीं करते कि समय कभी एक जैसा नहीं रहता।  दूसरी बात यह कि भगवान उठाता जरूर भूखा  है पर सुलाता नहीं है।  इसके बावजूद लोग यह भावना अपने मन में धारण किये रहते हैं कि कभी उनके सामने रोटी का संकट न आये इसलिये जमकर धन का संचय किया जाये।
      योग दर्शन की दृष्टि से जो दुःख आया नहीं है उसकी परवाह नहीं करना चाहिये।  धन या अन्न का संग्रह उतना ही करना जितना आवश्यक हो पर उसे देखकर मन में यह भाव भी नहीं लाना चाहिये कि वह भविष्य के किसी संकट के निवारण का साथी है। हमारे पास भंडार है यह सोच जहां आत्मविश्वास बढ़ाती है वहीं भविष्य की आशंका उससे अधिक तो देह का खून जलाती है।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Saturday, April 19, 2014

भर्तृहरि नीति शतकः राजनीति तो होती है बहुरूपिया

भर्तृहरि नीति शतक में कहा गया है कि
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सत्याऽनृता च परुषा प्रियवादिनी च
हिंस्त्रा दयालुरपि चार्थपरा वदान्या |
नित्यव्यया प्रचुरनित्य धनागमा च
वारांगनेव नृपनीतिनेक रूपा ||
     हिंदी में भावार्थ-राज्यकर्म में लिप्त राजाओं को राजनीति करते हुए बहुरुपिया बनना ही पडता है। कभी सत्य तो कभी झूठ, कभी दया तो कभी हिंसा, कभी कटु तो कभी मधुर कभी, धन व्यय करने में उदार तो कभी धनलोलुप, कभी अपव्यय तो कभी धनसंचय की नीति अपनानी पड़ती है क्योंकि राजनीति तो बहुरुपिया पुरुष और स्त्री की तरह होती है।
      वर्तमान संदर्भ में संपादकीय-यह एक ध्रुव सत्य है कि राजनीति करने वाले को अनेक तरह के रंग दिखाने ही पड़ते हैं। जो अपना जीवन शांति, भक्ति और अध्यात्म ज्ञान के साथ बिताना चाहते हैं उनके लिये राजनीति करना संभव नहीं है। ज्ञानी लोग इसलिये राजनीति से समाज में परिवर्तन की आशा नहीं करते बल्कि वह तो समाज और पारिवारिक संबंधों में राज्य के हस्तक्षेप का कड़ा विरोध भी करते हैं।  सामान्य भाषा में राजनीति का सीधा आशय राज्य प्राप्त करने और उसे चलाने के कार्य करने के लिये अपनायी जाने वाली नीति से है। बहुरंगी और आकर्षक होने के कारण अधिकतर लोगों को यही करना रास आता है। अन्य की बात तो छोडि़ये धार्मिक किताब पढ़कर फिर उसका ज्ञान लोगों को सुनाकर पहले उनके दिल में स्थान बनाने वाले कई कथित गुरु राजनीति को स्वच्छ बनाने के लिये उसमें घुस जाते हैं-यह लोकतंत्र व्यवस्था होने के कारण हुआ है क्योंकि लोग राजनीति विजय को प्रतिष्ठा का अंतिम चरम मानते हैं। लेखक, पत्रकार, अभिनेता-अभिनेत्रियां तथा अन्य व्यवसायों मं प्रतिष्ठत लोग राजनीति के अखाड़े को पसंद करते हैं। इतना ही नहीं अन्य क्षेत्रों में प्रसिद्ध लोग राजनीति में शीर्ष स्थान पर बैठे लोगों की दरबार में हाजिरी देते हैं तो वह भी उनका उपयोग करते हैं। लोकतंत्र में आम आदमी के दिलो दिमाग में स्थापित लोगों का उपयोग अनिवार्य आवश्यकता बन गया है। कोई व्यक्ति अपने लेखन, कला और कौशल की वजह से कितना भी लोकप्रिय क्यों न हो वह उससे सतुष्ट नहीं होता वरन उसे   लगता है कि स्वयं को चुनावी राजनीति में आकार कोई प्रतिष्टित किये  स्थापित किये बिना वह अधूरा है।
      यहाँ हम बता दें कि राजनीति से हमारा आशय आधुनिक चुनावी राजनीति  से है| व्यापक रूप से इस शब्द का अर्थ विस्तृत है|  राजसी कर्म हर व्यक्ति को करने होते हैं और उसे उसके लिए नीतिगत ढंग चलना ही होता है| यानी अपने अर्थकर्म के लिए रजा हो या रंक सभी को राजनीति करनी ही होती है|
      राजनीति तो बहुरुपिये की तरह रंग बदलने का नाम है। लोकप्रियता के साथ कभी अलोकप्रिय भी होना पड़ता है। हमेशा मृद भाषा से काम नहीं चलता बल्कि कभी कठोर वचन भी बोलने पड़ते हैं। हमेशा धन कमाने से काम नहीं चलता कभी व्यय भी करना पड़ता है-लोकतांत्रिक व्यवस्था में तो भारी धन का व्यय करने का अवसर भी आता है तो फिर उसके लिये धन संग्रह भी करना पड़ता है। कभी किसी को प्यार करने के लिये किसी के साथ घृणा भी करना पड़ती है।
      यही कारण है कि अनेक लेखक,कलाकार और प्रसिद्ध संत चुनावी  राजनीति से परे रहते हैं। हालांकि उनके प्रशंसक और अनुयायी उन पर दबाव डालते हैं पर वह फिर भी नहीं आते क्योंकि राजनीति में हमेशा सत्य नहीं चल सकता। अगर हम अपने एतिहासिक और प्रसिद्ध संतों और लेखकों की रचनाओं को देखें तो उन्होंने राजनीति पर कोई अधिक विचार इसलिये नहीं रखा क्योंकि वह जानते थे कि राजनीति में पूर्ण शुद्धता तो कोई अपना ही नहीं सकता। आज भी अनेक लेखक, कलाकर और संत हैं जो राजनीति से दूर रहकर अपना कार्य करते हैं। यह अलग बात है कि उनको वैसी लोकप्रियता नहीं मिलती जैसे राजनीति से जुड़े लोगों को मिलती है पर कालांतर में उनका रचना कर्म और संदेश ही स्थाई बनता है। राजनीति विषयों पर लिखने वाले लेखक भी बहुत लोकप्रिय होते है पर अंततः सामाजिक और अध्यात्मिक विषयों पर लिखने वालों का ही समाज का पथप्रदर्शक बनता है।
      राजनीति के बहुरूपों के साथ बदलता हुआ आदमी अपना मौलिक स्वरूप खो बैठता है और इसलिये जो लेखक, कलाकर और संत राजनीति में आये वह फिर अपने मूल क्षेत्र के साथ वैसा न ही जुड़ सके जैसा पहले जुडे थे। इतना ही नहीं उनके प्रशंसक और अनुयायी भी उनको वैसा सम्मान नहीं दे पाते जैसा पहले देते थे। सब जानते हैं कि राजनीति तो काजल  की कोठरी है जहां से बिना दाग के कोई बाहर नहीं आ पाता। वैसे यह वह क्षेत्र से बाहर आना पसंद नहीं करता। हां, अपने पारिवारिक वारिस को अपना राजनीतिक स्थान देने का मसला आये तो कुछ लोग तैयार हो जाते हैं।

      आखिर किसी को तो राजनीति करनी है और उसे उसके हर रूप से सामना करना है जो वह सामने लेकर आती है।ं सच तो यह है कि राजनीति करना भी हरेक के बूते का नहीं है इसलिये जो कर रहे हैं उनकी आलोचना कभी ज्ञानी लोग नहीं करते। इसमें कई बार अपना मन मारना पड़ता है। कभी किसी पर दया करनी पड़ती है तो किसी के विरुद्ध हिंसक रूप भी दिखाना पड़ता है। आखिर अपने समाज और क्षेत्र के विरुद्ध हथियार उठाने वालों को कोई राज्य प्रमुख कैसे छोड़ सकता है? अहिंसा का संदेश आम आदमी के लिये ठीक है पर राजनीति करने वालों को कभी कभी अपने देश और लोगों पर आक्रमण करने वालों से कठोर व्यवहार करना ही पड़ता हैं। राज्य की रक्षा के लिये उन्हें कभी ईमानदार तो कभी शठ भी बनना पड़ता है। अतः जिन लोगों को अपने अंदर राजनीति के विभिन्न रूपों से सामना करने की शक्ति अनुभव हो वही उसे अपनाते हैं। जो लोग राजनेताओं की आलोचना करते हैं वह राजनीति के ऐसे रूपों से वाकिफ नहीं होते। यही कारण है कि अध्यात्मिक और सामाजिक ज्ञानी राजनीति से दूर ही रहते हैं न वह इसकी आलोचना करते हैं न प्रशंसा। अनेक लेखक और रचनाकार राजनीतिक विषयों पर इसलिये भी नहीं लिखते क्योंकि उनका विषय तो रंग बदल देता है पर उनका लिखा रंग नहीं बदल सकता।
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्दलेख पत्रिका
2.‘शब्दलेख सारथी’
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संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

Monday, April 14, 2014

समाज में व्याप्त असंतोष से आँखें फेरना थी नहीं-तुलसीदास दर्शन पर आधारित चिंत्तन लेख(samaj mein vyapta asantosh se aankhen ferna theek nahin-tulsidas darshan par adharit chintta lekh)



      भारत में लोकसभा के चुनाव 2014 में होने हैं।  इसके लिये देश में प्रचार अभियान जोरों पर है।  एक तरफ सत्ता पक्ष दावा करता है कि उसने देश के विकास का काम जमकर किया है दूसरी तरफ विपक्ष जमकर यह प्रचार कर रहा है कि सत्ता पक्ष ने कुछ काम नहीं किया।  इस बहस का निष्कर्ष तो चुनाव परिणाम आने पर ही पता लगेगा पर एक बात तय है कि आर्थिक उदारीकरण की कथित प्रणाली देश के समाज को आंदोलित कर दिया है।  जहां हम यह देख रहे हैं कि भौतिक साधनों का उपभोग बड़ा है जिसे विकास कहा जाता है तो वहीं आर्थिक असमानता ने देश में एक भारी कलह की स्थिति भी पैदा की है। मुदा्रस्फीति की दर के साथ ही महंगाई भी बढ़ी है जिसने मध्यम वर्गीय परिवारों को निम्न वर्ग में लाकर खड़ा कर दिया है। मजे की बात यह है कि जहां से धन लेना है वहां तो मध्यम वर्गीय लोग गरीब कहलाने के लिये तैयार हैं पर जहां उपभोग का प्रश्न आये तो वहां सभी एक दूसरे से होड़ करना चाहते हैं।  बैंक या बाज़ार से कर्ज लेकर स्वयं को सभ्य कहलाने के लिये उनके यह प्रयास अच्छे लगते हैं पर जब उसे चुकाने की बात आती है तो उनकी हवा निकल जाती है।

संत तुलसीदास कहते हैं कि

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कलह न जानब छोट करि, कलह कठिन परिनाम।

गत अगिनि लघु नीच गृह, जरत धनिक धन धाम।।

     सामान्य हिन्दी में भावार्थ-कलह को कभी छोटा विषय नहीं मानना चाहिये। कलह का परिणाम अत्यंत भयानक होता है। एक छोटे आदमी के घर में लगी आग धनिकों के महल तक नष्ट कर देती है।

      आर्थिक विशेषज्ञ भले ही देश के विकसित होने की बात करते हों पर सामाजिक विशेषज्ञों की दृष्टि से देश में इस कारण जो जातीय, भाषाई, क्षेत्रीय, धार्मिक तथा आर्थिक आधार पर जो कलह या वैमनस्य का वातावरण बन गया है वह अत्यंत चिंताजनक है।  दूसरी बात यह भी है कि जिन लोगों ने धन का प्रचुर मात्रा में संग्रह किया है उन्होंने अपने आसपास आर्थिक विपन्नता की उपस्थिति से मुंह फेर लिया है।  इससे अल्प धनिक लोगों के मन में संपन्न लोगो के प्रति जो निराशा तथा वैमनस्य  का भाव है उसका अनुमान सामाजिक विशेषज्ञ ही कर सकते हैं।  हमारे देश में अनेक समाज सेवक उस कलह को रेखांकित करते हैं जो अंततः अपराध को जन्म देती है।  यह अपराध चाहे स्वयं के प्रति हो या दूसरे के प्रति अंततः उसका परिणाम समाज को ही भोगना होता है।  प्रचार  माध्यमों में इस विषय पर चर्चा या बहस होती तो है पर उसका स्तर सतही रहता है।  सच बात तो यह है कि देश में सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक, भाषाई तथा क्षेत्रीय कलह को निपटाने का गंभीर प्रयास होना चाहिये तभी देश में खुशहाली लायी जा सकती है।


दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Wednesday, April 9, 2014

विदुर नीति के आधार चिंत्तन लेख-दुर्जन की संगत में सज्जन भी बिगड़ जाता है(vidur neeti-durjan ki sangat mein sajjan bhi bigad jaata hai)



      अक्सर देखा गया है कि लोग अपने संगी साथियों की छवि तथा आचरण को लेकर यह सोचते हुए उदासीन रहते हैं कि इससे उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। उनको शायद इस बात का ज्ञान नहीं होता कि अंततः मनुष्य पर उसकी संगत का प्रभाव पड़ता ही है।आमतौर से लोग एक दूसरे के प्रति सद्भाव दिखाते ही है। कोई अनावश्यक विवाद नहीं चाहता इसलिये परस्पर मैत्री भाव दिखाना बुरा नहीं है पर दूसरे के कर्म में दोष होने पर उसे न टोकना एक तरह से उसे धोखा देना ही है। संग रहने वाले व्यक्ति का यह दायित्व है कि वह मित्र को उसके कर्म के प्रति सचेत करे पर कोई इसके लिये करने को तैयार नहीं होता।  हालांकि आजकल लोगों की सहनशीलता भी कम हो गयी। कोई अपनी आलोचना को सहजता से नहीं लेता। यदि किसी मित्र ने आलोचना कर दी तो लोग मित्रता तक दांव पर लगाकर उससे मुंह फेर लेते हैं। जिस व्यक्ति में सहनशीलता या वफादारी का भाव नहीं है उससे वैसे भी संपर्क रखना गलत है। यह  सोचना ठीक नहीं है कि असहज या असज्जन व्यक्ति का हम पर प्रभाव नहीं पड़ेगा।
विदुरनीति में कहा गया है कि

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यदि सन्तं सेवति वद्यसंन्तं तपस्विनं यदि वा स्तेनमेव।

वासी था रङ्गबशं प्रयानि तथा स तेषां वशमभ्यूवैति।।

     हिन्दी में भावार्थ-यदि कोई सज्जन, दुर्जन, तपस्वी अथवा चोर की संगत करता है तो वह उसके वश में ही हो जाता है। संगत का रंग चढ़ने से कोई बच नहीं सकता।
      एक बात निश्चित है कि हम जैसे लोगों के बीच उठेंगे और बैठेंगे उनका रंग चढ़ेगा जरूर चाहे उससे बचने का प्रयास कितना भी किया जाये।  किसी से मित्रता करें या किसी की सेवा करें उसके साथ रहते हुए उसके हाव भाव तथा वाणी की शैली का हम पर प्रभाव अवश्य पड़ता है। कई बार हमने देखा होगा कि कुछ लोग अपने संपर्क वाले व्यक्तियों की बोलने चालने की नकल कर  सुनाते हैं। अनेकों के हावभाव और चाल की नकल कर भी दिखाई जाती है। इससे यह बात समझी जा सकती है कि संगत का असर तो होता ही है। यह अलग बात है कि कुछ लोग अपने संगी या मित्र की पीठ पीछे नकल कर मजाक उड़ाते हैं पर सच यह है कि अपने सामान्य व्यवहार में भी उसकी नकल उनसे ही हो जाती है।
      अगर हम चाहते हैं कि हमारी छवि धवल रहे और हम हास्य का पात्र न बने तो सबसे पहले अपनी संगत पर दृष्टिपात करना चाहिये। जीवन में सहजता पूर्वक समय निकालने के लिये यह एक बढ़िया उपाय है कि अपनी निरंतर भलाई का क्रम बनाये रखने के लिये हम ऐसे लोगों से दूर हो जायें जिनसे हमारे आसपास वातावरण विषाक्त होता है।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Tuesday, April 1, 2014

संत कबीर दर्शन-गाली का उत्तर में मौन धारण करें(sant kabir darshan-gali ka uttar mein maun dharan karen)



      हमारे देश में समाज ने  शिक्षा, रहन सहन, तथा चल चलन में पाश्चात्य शैली अपनायी है पर वार्तालाप की शैली वही पुरानी रही है। उस दिन हमने देखा चार शिक्षित युवा कुछ अंग्रेजी और कुछ हिन्दी में बात कर रहे थे।  बीच बीच में अनावश्यक रूप से गालियां भी उपयोग कर वह यह साबित करने का प्रयास भी कर रहे थे कि उनकी बात दमदार है। हमने  देखे और सुने के आधार पर यही  समझा कि वहां वार्तालाप में अनुपस्थित किसी अन्य मित्र के लिये वह गालियां देकर उसकी निंदा कर रहे हैं।  उनके हाथ में मोबाइल भी थे जिस पर बातचीत करते हुए  वह गालियों का धड़ल्ले से उपयोग कर रहे थे। कभी कभी तो वह अपना वार्तालाप पूरी तरह अंग्रेजी में करते थे पर उसमें भी वही हिन्दी में गालियां देते जा रहे थे।  हमें यह जानकर हैरानी हुई कि अंग्रेजी और हिन्दी से मिश्रित बनी इस तोतली भाषा में गालियां इस तरह उपयोग हो रही थी जैसे कि यह सब वार्तालाप शैली का कोई नया रूप हो।
संत  कबीर कहते हैं कि

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गारी ही से ऊपजे कष्ट और मीच।

हारि चले सो सन्त है, लागि मरै सो नीच।।

      सामान्य हिन्दी में भावार्थ-गाली से कलह, कष्ट और झंगडे होते हैं। गाली देने पर जो उत्तेजित न हो वही संत है और जो पलट कर प्रहार करता है वह नीच ही कहा जा सकता है।

आवत गारी एक है, उलटत होय अनेक।

कहें कबीर नहि उलटियो, वही एक की एक।।

     सामान्य हिन्दी में भावार्थ-जब कोई गाली देता है तो वह एक ही रहती है पर जब उसे जवाब में गाली दी जाये तो वह अनेक हो जाती हैं। इसलिये गाली देने पर किसी का उत्तर न दें यही अच्छा है।
      कई बार हमने यह भी देखा है कि युवाओं के बीच केवल इस तरह की गालियों के कारण ही भारी विवाद हो जाता है। अनेक जगह हिंसक वारदातें केवल इसलिये हो जाती हैं क्योंकि उनके बीच बातचीत के दौरान गालियों का उपयोग होता है। जहां आपसी विवादों का निपटारा सामान्य वार्तालाप से हो सकता है वह गालियों का संबोधन अनेक बार दर्दनाक दृश्य उपस्थित कर देता है।
      एक महत्वपूर्ण बात यह कि अनेक बार कुछ युवा वार्तालाप में गालियों का उपयोग अनावश्यक रूप से यह सोचकर करते हैं कि उनकी बात दमदार हो जायेगी।  यह उनका भ्रम है। बल्कि इसका विपरीत परिणाम यह होता है कि जब किसी का ध्यान गाली से ध्वस्त हो तब वह बाकी बात धारण नहीं कर पाता।  यह भी एक मनोवैज्ञानिक सत्य है वार्तालाप क्रम टूटने से बातचीत का विषय अपना महत्व खो देता है और गालियों के उपयोग से यही होता है। इसलिये जहां अपनी बात प्रभावशाली रूप से कहनी हो वहां शब्दिक सौंदर्य और उसके प्रभाव का अध्ययन कर बोलना चाहिये। अच्छे वक्ता हमेशा वही कहलाते हैं जो अपनी बात निर्बाध रूप से कहते हैं तो श्रोता भी उनकी सुनते हैं। गालियों का उपयोग वार्तालाप का ने केवल सौंदर्य समाप्त करता है वरन उसे निष्प्रभावी बना देता है।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
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