Saturday, May 31, 2008

संत कबीर वाणी:क्रोध और अंहकार की अग्नि में जल रहा है संसार

जगत मांहि धोखा घना, अहं क्रोध अरु काल
पोरि पहुंचा मारिये, ऐसा जम का जाल

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं मनुष्य अहंकार, क्रोध तथा कपोल कल्पना में अधिक धोखा खाते हैं। यह यम का एक ऐसा जंजाल है जिसे मन में आते ही मार डालना चाहिए।

दसौं दिसा से क्रोध की, उठी अमरबल आग
सीतल संगत साध की, तहां ऊबरिये भाग

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि दसों दिशाओं में क्रोध की आग लगी हुई है। जहां साधु और संतों की छांव हैं वहीं शांति है। इसलिये भागकर वहीं जाओं तभी शांति मिलेगी।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-पूरे विश्व में शांति के लिए प्रयास हो रहे हैं क्योंकि सभी जगह क्रोध और अहंकार की अग्नि प्रज्जवलित है। अगर यह अग्नि नहीं होती तो फिर शांति के लिए प्रयास ही नहीं होते और फिर कुछ लोगों की रोजी रोटी कैसे चलती? वह समाज के शिखर पर बैठ कर शासन कैसे करते। यह शांति प्रयास केवल एक दिखावा भर है। यह मनुष्य के अंदर स्थित क्रोध और अहंकार की प्रवृत्ति का दोहन करने के लिऐ है। पहले कुछ मनुष्यों को समक्ष उन्हें उत्तेजित करने वाले विषय प्रस्तुत कर दो और वह क्रोध और अहंकार के वशीभूत होकर असामाजिक गतिविधियों में लिप्त होकर दूसरे मनुष्यों में भय उत्पन्न करें और फिर उनको सांत्वना देने के लिये शांति प्रयास किये जायें-यही कर रहे हैं पेशेवर समाज सेवक।

अपने आसपास हो रहे घटनाक्रमों को देखिए। एक क्रोधग्नि के वशीभूत आंखें तरेर रहा है दूसरी तरफ शांति के मसीहा उनसे वार्ता कर रहे हैं। दोनो का काम चल रहा है। कभी कोई विषय समाप्त ही नहीं होता। दोनों की समाज के सामने प्रस्तुत होकर अपनी छबि बनाये हुए हैं। जाति, भाषा, धर्म और वर्गों के आधार पर समाज के लोगों को बांटकर कुछ लोग शासन कर रहे हैं। यह विभाजन एकदम भ्रम है पर लोग हैं कि अपनी कपोल कल्पनाओं में उनको वास्तविकता समझते हैंं। इसका लाभ उठाते हैं पेशेवर समाज सेवक जिनका उद्देश्य ऐसे झगड़ों से आर्थिक लाभ उठाने के साथ समाज में प्रतिष्ठा अर्जित करना भी होता है। अगर हम चाहते हैं कि हमारे आसपास शांति रहे तो भगवान भक्ति और सत्संग में व्यस्त होना चाहिए। अगर हम ऐसे विवादों में आयेंगे तो फिर चर्चा भी ऐसी ही करेंगे और इससे हमारे अंदर ही विकृतियां पैदा होंगी। इसलिये ऐसी चर्चाओं का त्याग कर अपने मन में ध्यान और स्मरण से शुद्धता लाना चाहिए। तब दूसरे लोगों की क्रोध और अहंकार की अग्नि हमें कष्ट नहीं पहंुंचा सकती।

याद रखिये हमारे मन में दूसरों की प्रेरणो से ही क्रोध और अहंकार की अग्नि प्रज्जवलित होती है और अगर हम सत्संग में व्यस्त रहेंगे तो कोई हमें उत्तेजित नहीं कर पायेगा।

Friday, May 30, 2008

भृतहरि शतक:कुपात्र को दान देने और प्रमाद से धन नष्ट हो जाता है

दौर्मन्त्र्यान्नृपतिर्विनष्यति यतिः सङगात्सुतालालनात् विप्रोऽन्ध्ययनात्कुलं कुतनयाच्छीलं खलोपासनात्
ह्यीर्मद्यादनवेक्षणादपि कृषिः स्नेहः प्रवासाश्रयान्मैत्री चाप्रणयात्सृद्धिरनयात् त्यागपमादाद्धनम्


हिंदी में भावार्थ-कुमित्रता से राजा, विषयासक्ति और कामना योगी, अधिक स्नेह से पुत्र, स्वाध्याय के अभाव से विद्वान, दुष्टों की संगत से सदाचार, मद्यपान से लज्जा, रक्षा के अभाव से कृषि, परदेस में मित्रता, अनैतिक आचरण से ऐश्वर्य, कुपात्र को दान देने वह प्रमाद से धन नष्ट हो जाता है।

Thursday, May 29, 2008

भृतहरि शतक:आदमी को नचाती हैं इच्छा और आशा

खलालापाः सोढा कथमपि तदाराश्र्चनपरैर्निगुह्मान्तर्वाष्पं हस्तिमपि शून्येन मनसा
कृतश्चियत्तस्तम्भः प्रहसितश्रिचयामञ्जलिरपि त्वमाशे मोघाशे किममपरमतो नर्तयसि माम्

हिंदी में भावार्थ-दुष्टजनों की सेवा करते हुए उनके ताने और व्यंग्य सुने। दुख के कारण हृदय में उमड्ने वाले आंसुओं को रोक और उनका मन रखने के लिए उनक सामने हंसने का दिखावा किया। मन को समझाकर उन्हें प्रसन्न करने के लिए उनके समक्ष हाथ भी जोड़े। हे आशा क्या अभी और नचायेगीं।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-यह गंभीर प्रसंग हैं। हम अपने जीवन के दूसरों के सामने हंसने का प्रयास करते हैं, कई लोगों के व्यंग्य बाण और आलोचना को झेलते हैं। कई बार ऐसा अवसर आता है कि आंखों से आंसु निकलने वाले होते हैं पर हम उन्हें रोक लेते हैं। दुनियां में सबका यही हाल है। आजकल तो सारी माया ही ऐसे लोगों के हाथों में जो जिनके कर्म खोटे हैं। उनके यहां कई लोग सेवा में रहते हैं। वह उनके इशारे पर हंसते और चिल्लाते हैं। दूसरों पर अपने मालिक की तरफ से ताने और फब्तियां कसते हैं। मगर सच यही है कि वह भी वक्त के मारें हैं। हर बार सोचते हैं कि यह हमारा काम हो जाये तो मुक्ति हो जायेगी। ऐसा होता नहीं है। एक कामना पूरी होती है तो दूसरी शुरू हो जाती है। ऐसे में आदमी सोचता ही रह जाता है कि हम उनका साथ छोड़ें जिनके साथ रहने में मन को रंज होता है।

Wednesday, May 28, 2008

संत कबीर वाणी:इस संसार में मनुष्य एक पथिक है

हम जाने थे खायंगे, बहुत जिमीं बहु माल
ज्यों का त्यों ही रहि गया, पकडि ले गया काल

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते है कि हम तो इसी विचार में रहते हैं कि इस दुनियां में रहकर बहुत सारे माल जमाकर उसका उपभोग करेंगे पर जब काल पकड़ कर ले जाता है तो सब यहीं रखा रहा जाता है।

पंथी उभा पंथ सिर, बगुचा बांधा पूंठ
मरना मुंह आगे खड़ा, जीवन का सब झूठ

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि मनुष्य इस संसार में एक पथिक की तरह होता है जो अपने सिर पर अपनी चिंताओं का बोझ लिये चला जाता है। उसके सामने हमेशा काल खड़ा रहता है और वह झूठ के सहारे चलते हुए थका हुआ लगता है।

Tuesday, May 27, 2008

भृतहरि शतक:आलस्य शत्रु और पुरुषार्थ मित्र होता है

आलस्यं हिं मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः
नास्त्यद्यम समो बन्धु कुर्वाणे नावसीदति


हिंदी में अर्थ मनुष्य के शरीर में रहने वाला आलस्य ही उसका सबसे प्रबल शत्रू है, वही पुरुषार्थ के समान उसका कोई मित्र नहीं है, जिसके करते रहने से मनुष्य कभी भी कष्ट नहीं पाता।

संपादकीय व्याख्या-हम अपने जीवन में जितना आलस्य करते हैं उसे कभी स्वयं भी अनुभव नहीं कर पाते। वैज्ञानिक कहते हैं कि एक सामान्य मनुष्य अपने जीवन में अपने दिमाग का केवल दस प्रतिशत ही उपयोग करता है और जो एक प्रतिशत भी इससे अधिक करता है वह श्रेष्ठ लोगो में गिना जाता है। इसक कारण यह है कि हम कई बार ऐसे काम करते हैं जो हमारे लिए केवल मनोरंजन का प्रबंध करते हैं और जो सकारात्मक और लाभ देने वाले है उनसे पीठ फेरना अच्छा लगता क्योंकि उसमें मेहनत होती है। मेरे विचार से आलस्य का आशय यह नहीं है कि हम केवल अनावश्यक रूप से बिस्तर पर सोते हैं बल्कि चलते फिरते अपने मस्तिष्क को वैचारिक क्रिया से दूर रखना भी एक प्रकार का आलस्य है। हम सोचते हैं कि हमारे मस्तिष्क में तनाव पैदा न हो इसलिये ऐसे काम नहीं करते जिनमे सोचना पड़ता है। इस प्रकार मानसिक आलस्य भी एक प्रकार का कष्ट प्रदान करने वाला होता है। जो लोग इस बात की परवाह किये बिना अपना काम करते हैं वही जीवन में सफल होते हैं।

Sunday, May 25, 2008

संत कबीर वाणी:प्रेम का घर दूर है, उसे पाना आसान नहीं

जब लग मरने से डरैं, तब लगि प्रेमी नाहिं
बड़ी दूर है प्रेम घर, समझ लेहू मग माहिं

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जब तक मृत्यु का भय है तब तक प्रेम हो नहीं सकता हैं प्रेम का घर तो बहुत दूर है और उसे पाना आसान नहीं है।

प्रीति बहुत संसार में, नाना विधि की सोय
उत्तम प्रीति सो जानिए, सतगुरू से जो होय


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि इस संसार में प्रेम करने वाले बहुत हैं और प्रेम करने के अनेक तरीक और विधियां भीं हैं पर सच्चा प्रेम तो वही है जो परमात्मा से किया जाये।

संपादकीय व्याख्या-हमारे जन जीवन में फिल्मों का प्रभाव अधिक हो गया है जिसमें प्रेम का आशय केवल स्त्री पुरुष के आपस संबंध तक ही सीमित हैं। सच तो यह है कि अब कोई पिता अपनी बेटीे से और भाई अपनी बहिन से यह कहने में भी झिझकता है कि ‘मैं तुमसे प्रेम करता हूं’ क्योंकि फिल्मी में नायक-नायिका के प्रेम प्रसंग लोगों के मस्तिष्क में इस तरह छाये हुए हैं कि उससे आगे कोई सोच ही नहीं पाता। किसी से कहा जाये कि मैं तुमसे प्रेम करता हूं तो उसके दिमाग में यह आता है कि शायद यह फिल्मी डायलाग बोल रहा हैं। वैसे इस संसार में प्रेम को तमाम तरह की विधियां हैं पर सच्चा प्रेम वह है जो भगवान भक्ति और स्मरण के रूप में किया जाये। प्रेम करो-ऐसा संदेश देने वाले अनेक लोग मिल जाते हैं पर किया कैसे किया जाये कोई नहीं बता सकता। प्रेम करने की नहीं बल्कि हृदय में धारण किया जाने वाला भाव है। उसे धारण तभी किया जा सकता है जब मन में निर्मलता, ज्ञान और पवित्रता हो। स्वार्थ पूर्ति की अपेक्षा में किया जाने वाला प्रेम नहीं होता यह बात एकदम स्पष्ट है।

Saturday, May 24, 2008

भृतहरि शतक: परिवर्तन तो संसार का नियम है

परिवर्तिनि संसारे मृतः को वा न जायते
स जातो येन जातेन याति वंशः समुन्नतिम्

हिंदी में भावार्थ-परिवर्तन होते रहना संसार का नियम। जो पैदा हुआ है उसकी मृत्यु होना निश्चित है। जन्म लेना उसका ही सार्थक है जो अपने कुल की प्रतिष्ठा में वृद्धि करता है अर्थात समस्त समाज के लिये ऐसे काम करता है जिससे सभी का हित होता है।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-अगर आदमी को किसी से भय लगता है तो वह अपने आसपास परिवर्तन आने के भय से। कहीं भाषा तो कहीं धर्म और कहीं क्षेत्र के विवाद आदमी के हृदय में व्याप्त इसी भय की भावना का दोहन करने की दृष्टि से उनके मुखिया उपयोग करते हैं।कई लोगों के हृदय में ऐसे भाव आते है जैसे- अगर पास का मकान बिक गया तो लगता है कि पता नहीं कौन लोग वहां रहने आयेंगे और हमसे संबंध अच्छे रखेंगे कि नहीं। उसी तरह कई लोग स्थान परिवर्तन करते हुए भय से ग्रस्त होते हैं कि पता नहीं कि वहां किस तरह के लोग मिलेंगे। जाति के आधार पर किसी दूसरे जाति वाले का भय पैदा किया जाता है कि अमुक जाति का व्यक्ति अगर यहां आ गया तो हमारे लिए विपत्ति खड़ी कर सकता है। अपने क्षेत्र में दूसरे क्षेत्र से आये व्यक्ति का भय पैदा किया जाता है कि अगर वह यहंा जम गया तो हमारा अस्तित्व खत्म कर देगा।

ऐसे भाव लाने का कोई औचित्य नहीं है। यह मान लेना चाहिए कि परिवर्तन आयेगा। आज हम जहां हैं वहां कल कोई अन्य व्यक्ति आयेगा। जहां हम आज हैं वह पहले कोई अन्य था। कई परिवर्तनों की अनुभूति तो हमें हो ही नहीं पाती। बचपन के मित्र युवावस्था में नहीं होते। युवावस्था के मित्र नौकरी में साथ नहीं होते। इस संसार में समय का चक्र घूमता है और उसमें परिवर्तन तो होते ही रहना है और हमें उनको दृष्टा होकर देखना चाहिए।

Friday, May 23, 2008

संत कबीर वाणी:देह सराय और मन पहरेदार है

मैं मेरी तू जनि करै, मेरी मूल विनासि
मेरी पग का पैखड़ा, मेरी गल की फांसि

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते है कि इस संसार में मनुष्य देह पाकर अहंकार के जाल में मत फंसा क्योंकि यह तो पांव की फांस है जो भक्ति मार्ग पर चलने नहीं देती। बाद में यही गले की फांसी भी बन जाती है।

तन सराय मन पाहरु, मनसा उतरी आय
को काहू का है नहीं, देखा ठोंकि बजाय


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि यह देह धर्मशाला की तरह है और इसका पहरेदार हमारा मन है। इस देह में इच्छाएं और कामनाएं अतिथि के रूप में आकर ठहर जाती हैं। एक का काम पूरा होता है तो दूसरी वहां रहने चली आती है। यहां कोई किसी का सगा नहीं है यह ठोक बजाकर देख लिया।

इत पर घर उत है घरा बनिजन आये हाट
करम करीना बेचि के, उठि करि चालो बाट

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि इस संसार में देह धारण करने का आशय यह समझना चाहिए कि हम व्यापारी की तरह हाट में आये है। इसलिये हमें सत्कर्मों का व्यापार करना चाहिए। अतः यहां जाने से पहले अपना समय भगवान भक्ति और परमार्थ करते रहना चाहिए। आखिर फिर अपने घर वापस भी तो जाना है।

व्याख्या-हमेशा कहा जाता है कि हमारा आत्मा परमात्मा से बिछड़ कर यहां आया है इसलिये उनका घर ही हमारा घर है। यही कबीरदास जी का आशय है। इसलिये वह यह कहते हैं कि यह देह धारण करना मतलब बाजार में आना है।

Thursday, May 22, 2008

भृतहरि शतक:तृष्णा रुपी लहरें ऊपर उठतीं रहतीं हैं

आशा नाम नदी मनोरथजला तृष्णातरङगाकुला
रामग्राहवती वितर्कविहगा धैर्यद्रुमध्वंसिनी
मोहावर्तसुदुस्तराऽतिगहना प्रोत्तुङगचिन्तातटी
तस्याः पारगता विशुद्धमनसो नन्दन्ति योगश्वराः


आशा एक नदी की भांति इसमे हमारी कामनाओं के रूप में जल भरा रहता है और तृष्णा रूपी लहरें ऊपर उठतीं है। यह नदी राग और अनुराग जैसे भयावह मगरमच्छों से भरी हुई हैं। तर्क वितर्क रूपी पंछी इस पर डेरा डाले रहते हैं। इसकी एक ही लहर मनुष्य के धैर्य रूपी वृक्ष को उखाड़ फैंकती है। मोह माया व्यक्ति को अज्ञान के रसातल में खींच ले जाती हैं, जहा चिंता रूपी चट्टानों से टकराता हैं। इस जीवन रूपी नदी को कोई शुद्ध हृदय वाला कोई योगी तपस्या, साधना और ध्यान से शक्ति अर्जित कर परमात्मा से संपर्क जोड़कर ही सहजता से पार कर पाता है।

Tuesday, May 20, 2008

मनुस्मृति:गाली का उत्तर गाली से नहीं देना चाहिए

अति वादांस्तितिक्षेत नावमन्येत कञ्चन्
न चेमं देहमाश्रित्य वैरं कुर्वीत केनचित्
क्रुद्धयन्तं न प्रतिक्रुध्येदाक्रृष्टः कुशलं वदेत्
साप्तद्वाराऽवकीर्णां च न वाचमनृतां वदेत्

सन्यासी और श्रेष्ठ पुरुषों को दूसरे लोगों द्वारा कहे कटु वचनों को सहन करना चाहिए। कटु शब्द (गाली) का उत्तर वैसे ही शब्द से नहीं दिया जाना चाहिए और न किसी का अपमान करना चाहिए। इस नश्वर शरीर के लिये सन्यासी और श्रेष्ठ पुरुष को किसी से शत्रुता नहीं करना चाहिए।

सन्यासी एवं श्रेष्ठ पुरुषों को कभी भी क्रोध करने वाले के प्रत्युत्तर में क्रोध का भाव व्यक्त नहीं करना चाहिए। अपने निंदक के प्रति भी सद्भाव रखना चाहिए। अपनी देह के सातों द्वारों -पांचों ज्ञानेंद्रियों नाक, कान, आंख, हाथ वाणी और विचार, मन तथा बुद्धि-से सद्व्यवहार करते हुए कभी भी झूठ नहीं बोलना चाहिए।

Saturday, May 17, 2008

संत कबीर वाणी:प्रीती अपने समान व्यक्ति से करना चाहिए

यह तत वह तत एक है, एक प्रान दुइ गात
अपने जिये से जानिये, मेरे जिय की बात

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि सभी लोगों की देह में जीव तत्व एक ही है। आपस में प्रेम करने वालों में कोई भेद नहीं होता क्योंकि दोनो के प्राण एक ही होता है। इस गूढ रहस्य को वे ही जानते हैं जो वास्तव में प्रेमी होते हैं

प्रीति ताहि सो कीजिये, जो आप समाना होय
कबहुक जो अवगुन पडै+, गुन ही लहै समोय


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि प्रीति उसी से करना चाहिए, जो अपने समान ही हृदय में प्रेम धारण करने वाले हों। यह प्रेम इस तरह का होना चाहिए कि समय-असमय किसी से भूल हो जाये तो उसे प्रेमी क्षमा कर भूल जायें।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-प्रेम किया नहीं हो जाता है यह फिल्मों द्वारा संदेश इस देश में प्रचारित किया जाता है। सच तो यह है कि ऐसा प्रेम केवल देह में स्थित काम भावना की वजह से किया जाता है। प्रेम हमेशा उस व्यक्ति के साथ किया जाना चाहिए जो वैचारिक सांस्कारिक स्तर पर अपने समान हो। जिनका हृदय भगवान भक्ति में रहता है उनको सांसरिक विषयों की चर्चा करने वाले लोग विष के समान प्रतीत होते हैं। यहां दिन में अनेक लोग मिलते है पर सभी प्रेमी नहीं हो जाते। कुछ लोग छल कपट के भाव से मिलते हैं तो कुछ लोग स्वार्थ के भाव से अपना संपर्क बढ़ाते हैं। भवावेश में आकर किसी को अपना सहृदय मानना ठीक नहीं है। जो भक्ति भाव में रहकर निष्काम से जीवन व्यतीत करता है उनसे संपर्क रखने से अपने आपको सुख की अनुभूति मिलती है।

Tuesday, May 13, 2008

चाणक्य नीति:शास्त्रों की निंदा करने वाले अल्पज्ञानी


1.आकाश में बैठकर किसी से वार्तालाप नहीं हो सकता, वहां कोई किसी का संदेश वाहक न जा सकता है और न वहां से आ सकता है जिससे कि एक दूसरे के यहां के रहस्यों जाना जा सकें। अंतरिक्ष के बारे में सामान्य मनुष्यों को कोई ज्ञान नहंी रहता पर फिर भी विद्वान लोगों ने सूर्यग्रहण और चंद्रग्रहण के बारे में ज्ञान कर लिया। ऐसे विद्वान प्रतिभाशाली और दिव्य दृष्टि वाले होते हैं।

2.वेद के ज्ञान की गहराई न समझकर वेद की निंदा करने वाले वेद की महानता को कम नहीं कर सकते। शस्त्र निहित आचार-व्यवहार को कार्य बताने वाले अल्पज्ञ लोग शास्त्रों की मर्यादा को नष्ट नहीं कर सकते।

3.बुद्धिमान मनुष्य को कौवे से पांच बातें सीखनी चाहिए। छिपकर मैथुन करना, चारों और दृष्टि रखना अर्थात चैकन्ना रहना, कभी आलस्य न करना, तथा किसी पर विश्वास न करना।


संपादकीय व्याख्या-कई लोग भारतीय वेद शास्त्रों के बारे में दुष्प्रचार में लगे हैं। इनमें तो कई अन्य धर्मों के विद्वान भी हैं। उन्होंने इधर-उधर से कुछ श्लोक सुन लिये और अब वेदों के विरुद्ध विषवमन करते हैं। उनके बारे में वह कुछ नहीं जानते। लाखों श्लोकों में से दो चार श्लोक पढ़कर उन पर टिप्पणियां करना अल्पज्ञान का ही प्रतीक है। इन वेदों के अध्ययन से ऐसा लगता है कि आज अप्रासंगिक लगने वाले कुछ संदेश अपने समय में उपयुक्त रहे होंगे। भारतीय वेदों ने ही इस विश्व में सभ्यता स्थापित की है। वेदों मेें यह कहीं नहीं लिखा हुआ है कि समय के साथ अपने अंदर परिवर्तन नहीं लाओ।

आधुनिक विज्ञान में पश्चिम का गुणगान करने वालों को यह पता होना चहिए कि सूर्य ग्रहण और चंद्रग्रहण के बारे मेें भारतीय विद्वान बहुत पहले से ही जानते थे। भारत के अनेक पश्चिम को ही आधुनिक विज्ञान को सर्वोपरि मानता है जो आज भी पूर्ण नहीं है और प्रयोगों के दौर से गुजर रहा है।

Saturday, May 10, 2008

रहीम के दोहे:जो सुलगे वह बुझ गए, जो बुझे वह सुलगे नहीं

जे रहीम विधि बड़ किए, को कहि दूषण काढि
चंद्र दूबरो कूबरो, तऊ नखत तें बाढि
कविवर रहीम कहते हैं कि परमात्मा ने जिन्हें महान बनाया है, उनके दोष कोई नहीं देखता। जैसे चंद्रमा दुर्बल और कुबड़ा होने पर भी आकाश में नक्षत्रों से आगे बढ़ जाता है।

जे सुलगे ते बुझि गए, बुझे ते सुलगे नाहिं
रहिमन दोहे प्रेम के, बुझि बुझि कै सुलगाहिं


कविवर रहीम कहते है कि जो सुलगे वह बुझे जो बुझे वह फिर नहीं सुलगे। रहीम के दोहे बुझ बुझ के सुलगा देते हैं।

वर्र्तमान संदर्भ में व्याख्या-कविवर रहीम कहते हैं कि जो अनेक व्यक्ति यहां महानता को प्राप्त हुए पर वह भी नष्ट हो गये जो तुच्छ थे वह भी अपना प्रभाव दिखाये बिना समाप्त हो गये पर उनके दोह तो प्रज्जवलित अग्नि की तरह हैं जो लोगों में चेतना जाग्रत करते रहते हैं। यहां उन्होंने रचनाकर्म का प्रधानता दी है। सामान्य व्यक्ति अपने परिवार और कुल के लिये अनेक प्रकार की संपत्तियों का संचय यह सोचकर करते हैं कि वह हमारे बाद हमारे नाम को चलायेंगे। जब उनके जीवन का अंत होता है तो फिर उनका कोई नाम लेवा भी नहीं होता। उसी तरह राजा लोग अपने राज्य के विस्तार में यह सोचकर लगे रहते हैं कि उनके बाद प्रजा उनको याद करेगी। उनके स्वर्ग सिधारने के बाद प्रजा भी उनको भुला देती हैं। जो लोग अपने जीवन के अनुभव और अनुभूतियों लोगों को बांटने के लिये शब्दों में सृजन करते हैं वह प्रज्जवलित र्अिग्न के समान सदैव लोगों में चर्चा का विषय बने रहते हैं। कितनी अजीब बात है कि रहीम आज देह के साथ हमारे बीच नहीं है पर उनके दोह रह रहकर लोगों की जुबान पर आते हैं। अंतर्जाल पर अनेक लोग आज उन पर लिखते और पढ़ते है।

इससे संदेश यही मिलता है कि हमें अपने जीवन के सामान्य कर्मों के साथ ऐसा रचनाकर्म भी करना चाहिए जिससे हमारे बाद भी उसका अस्तित्व बना रहे।

Thursday, May 8, 2008

चाणक्य नीति:मुर्गे से चार गुण ग्रहण करें

प्रत्युत्थानं च युद्ध्र च संविभागं च बन्धुषु
स्वयमाक्रभ्य भुक्तं च शिक्षेेच्चात्वारि कुक्कुटात्

आचार्य चाणक्य कहते हैं कि मनुष्य को अपने जीवन में चार गुण मुर्गे से ग्रहण करना चाहिए, समय पर जागना, युद्ध की ललकार पर उसके लिए तैयार हो जाना, अपने परिवार के साथ मिलकर खाना और अपने खाने के खोज स्वयं करना।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-जितना ही जीवन में आधुनिक सुविधाओं का समावेश होता जा रहा है लोगों के उठने बैठने और सोने जागने की क्रियाओं पर उसका दुष्प्रभाव हुआ है। सुबह देर से उठने से शरीर में भारीपन रहता है और इसी कारण आदमी कई कामों में आलस करता है। कुछ विद्वान कहते हैं कि सुबह जल्दी उठने से दिमाग में फुर्ती रहती है जो कि जीवन में विकास के लिये आवश्यक होती है। देर से उठने से जो आलस होता है उससे आदमी अपने जीवन में चुनौतियों से भागता है और उससे उसके आत्मविश्वास में कमी आती है। इसलिये समय पर उठने और सोने के नियम बनाना चाहिए। अपने भोजन के मामले में स्वावलंबी होना चाहिए और भोजन परिवार के समस्त सदस्य मिलकर बैठकर करें। अनियमित जीवन से मानसिक अस्थिरता पैदा होती है और जीवन में स्वयं निरर्थक तनाव और संकट में घिर जाते हैं। जीवन में हमेशा ही संघर्ष के लिए तैयार रहना चाहिए।

Wednesday, May 7, 2008

संत कबीर वाणी:स्वयं ठग जाएं तो कोई बात नहीं, दूसरे को न ठगें

जो तोको काटा बुवै, ताहि बुवै तू फूल
तोहि फूल को फूल है, वाको है तिरशूल


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं जो अगर कोई व्यक्ति तुम्हारे लिए कांटे बोता है, तुंम उसके लिए फूल बोओ। तुम्हारे तो फूल हमेशा ही फूल होंगे परंतु उसके लिये कांटे तिरशूल की तरह उसको लगेंगे।

कबीर आप ठगाइये, और न ठगिये कोय
आप ठगै सुख, ऊपजै और ठगे दुख होय


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि अगर आपको कोई ठग जाता है तो कोई बात नहीं है, पर आप स्वयं किसी को ठगने का प्रयास मत करो। हम ठग जायें तो एक तरह से इस बात का तो सुख होता है कि हमने स्वयं कोई अपराध नहीं किया पर अगर हम किसी दूसरे को ठगते हैं तो मन में अपने पकड़े जाने का भय होता है और कभी न कभी तो उसका दंड भी भोगना पड़ता है।

संपादकीय व्याख्या-ऐसा लगता है कि दूसरों को ठगने वाले लोग सुखी हैं, पर यह वास्तविकता नहीं है। जिन लोगों ने दूसरों के प्रति अपराध कर संपत्ति बनाई है उनको भी कहीं न कहीं मन में भय रहता है और कभी न कभी उनको दंड भोगना ही पड़ता है। यह दंड किसी भी प्रकार का हो सकता है। उनकी संतानें अयोग्य होतीं हैं या उनके घर मे बीमारियों का वास रहता है। पकड़े जाने पर सामाजिक रूप से भी वह अपमानित होते हैं। इसलिये स्वयं हमें किसी को ठगने का प्रयास नहीं करना चाहिए। हां, कभी स्वयं ठगे जाते हैं तब धन या वस्तु खोने का क्षणिक दुःख होता है पर समय के साथ उसे भूल जाते हैं पर अगर किसी और को हम ठगते हैं तो वह अपराध हमारे हृदय में शूल की तरह चुभा रहता है और इससे जीवन में हम सदैव विचलित रहते है।

Saturday, May 3, 2008

संत कबीर वाणी:संगत करने से भक्ति में बाधा होती है

ऊजल पहिनै कापड़ा, पान सुपारी खाय
कबीर गुरु की भक्ति बिन, बांधा जमपुर जाय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि लोग साफ-सुथरे कपड़े पहन कर पान और सुपारी खाते हुए जीवन व्यतीत करते हैं। गुरु की भक्ति के बिना उनका जीवन निरर्थक व्यतीत करते हुए मृत्यु को प्राप्त होते हैं

दुनिया सेती दोसती, होय भजन के भंग
एका एकी राम सों, कै साधुन के संग


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि दुनिया के लोगों के साथ मित्रता बढ़ाने से भगवान की भक्ति मंे बाधा आती है। एकांत में बैठकर भगवान राम का स्मरण करना चाहिये या साधुओं की संगत करना चाहिए तभी भक्ति प्राप्त हो सकती है।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-भक्ति लोग अब जोर से शोर मचाते हुए कर रहे हैं। मंदिरों और प्रार्थना घरों में फिल्मी गानों की तर्ज पर भजन सुनकर लोग ऐसे नृत्य करते हैं मानो वह भगवान की भक्ति कर रहे हैं। समूह बनाकर दूर शहरों में मंदिरों में स्थित प्रतिमाओं के दर्शन करने जाते हैं। जबकि इससे स्वयं और दूसरों को दिखाने की भक्ति तो हो जाती है, पर मन में संतोष नहीं होता। मनुष्य भक्ति करता है ताकि उसे मन की शांति प्राप्त हो जाये पर इस तरह भीड़भाड़ में शोर मचाते हुए भगवान का स्मरण करना व्यर्थ होता है क्योंकि हमारा ध्यान एक तरफ नहीं लगा रहता। सच तो यह है कि भक्ति और साधना एकांत में होती है। जितनी ध्यान में एकाग्रता होगी उतनी ही विचारों में स्वच्छता और पवित्रता आयेगी। अगर हम यह सोचेंगे कि कोई हमारे साथ इस भक्ति में सहचर बने तो यह संभव नहीं है। अगर कोई व्यक्ति साथ होगा या हमारा ध्यान कहीं और लगेगा तो भक्ति भाव में एकाग्रता नहीं आ सकती। अगर हम चाहते हैं कि भगवान की भक्ति करते हुए मन को शांति मिले तो एकांत में साधना का प्रयास करना चाहिए।
inglish translation by googl tool
Sant Kabir speech: relevant to interfere with a devotional

1.Sant Kabir G says that the head clean - clean water and clothes to wear a life spent in the nut account. Without the devotional guru spent his life meaningless, are receiving death


2.Sant Kabir G says head of the world's increasing friendship with the people of God comes devotional doubleentry.xml.in.h obstacle. Ram sat in the privacy of a memorial should be relevant only if the sadhus, or can be devotional.

In the context of the current interpretation - devotional people have stressed from the noise are cosy. Temples and prayer houses of worship in the pattern of film songs to hear such people are dancing as if he were God's devotional. Groups in cities away by making statues in the temples of philosophy to go. While the show itself and others, is devotional, not on the mind of satisfaction. The devotional man's mind so that it will be received on such a crowded, noisy, the cosy God in vain to remember because our focus is not on the one hand remains. The fact is that in the privacy of devotional and meditation. Concentration will be the same as in the ideas of cleanliness and purity will. If we think that a fellow with us in this devotional, it became not possible. If a person is or will be with us much attention, and it will take devotional sense of concentration can not come. If we want God's peace of mind, the devotional met in art should try to privacy.

Friday, May 2, 2008

संत कबीर वाणी:समाज को लाभ न हो तो बड़ा आदमी होना किस काम का

बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जोरे बड़ मति नांहि
जैसे फूल उजाड़ को, मिथ्या हो झड़ जांहि

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि आदमी धन, पद और सम्मान पाकर बड़ा हुआ तो भी क्या अगर उसके पास अपनी मति नहीं है। वह ऐसे ही है जैसे बियावन उजड़े जंगल में फूल खिल कर बिना किसी के काम आये मुरझा जाता है।

हाथी चढि के जो फिरै, ऊपर चंवर ढुराय
लोग कहैं सुख भोगवे, सीधे दोजख जाय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहत हैं कि तो हाथी पर चढ़कर अपने ऊपर चंवर डुलवाते हैं और लोग समझते हैं कि वह सुख भोग रहे तो यह उनका भ्रम है वह तो अपने अभिमान के कारण सीधे नरक में जाते हैं।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-समय ने ऐसी करवट ली है कि इस समय धर्म और जनकल्याण के नाम पर भी व्यवसाय हो गया है। इस मायावी दुनियां में यह पता ही नहीं लगता कि सत्य और माया है क्या? जिसे देखो भौतिकता की तरफ भाग रहा है। क्या साधु और क्या भक्त सब दिखावे की भक्ति में लगे हैं। राजा तो क्या संत भी अपने ऊपर चंवर डुलवाते हैं। उनको देखकर लोग वाह-वाह करते हैं। सोचते हैं हां, राजा और संत को इस तरह रहना चाहिये। सत्य तो यह है कि इस तरह तो वह भी लोग भी भ्रम में हो जाते हैं और उनमें अहंकार आ जाता है और दिखावे के लिये सभी धर्म करते हैं और फिर अपनी मायावी दुनियां में अपना रंग भी दिखाते हैं। ऐसे लोग पुण्य नहीं पाप में लिप्त है और उन्हें भगवान भक्ति से मिलने वाला सुख नहीं मिलता और वह अपने किये का दंड भोगते हैं।

यह शाश्वत सत्य है कि भक्ति का आनंद त्याग में है और मोह अनेक पापों को जन्म देता है। सच्ची भक्ति तो एकांत में होती है न कि ढोल नगाड़े बजाकर उसका प्रचार किया जाता है। हम जिन्हें बड़ा व्यक्ति या भक्त कहते हैं उनके पास अपना ज्ञान और बुद्धि कैसी है यह नहीं देखते। बड़ा आदमी वही है जो अपनी संपत्ति से वास्तव में छोटे लोगों का भला करता है न कि उसका दिखावा। आपने देखा होगा कि कई बड़े लोग अनेक कार्यक्रम गरीबों की भलाई के लिये करते हैं और फिर उसकी आय किन्हीं कल्याण संस्थाओं को देते हैं। यह सिर्फ नाटकबाजी है। वह लोग अपने को बड़ा आदमी सबित करने के लिये ही ऐसा करते हैं उनका और कोई इसके पीछे जनकल्याण करने का भाव नहीं होता।

Thursday, May 1, 2008

संत कबीर वाणी:मन तो बिना सिर का मृग है

धरती फाटे मेघ मिलै, कपड़ा फाटे डौर
तन फाटे को औषधि, मन फाटे नहिं ठौर


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जब पानी बरसता है तो फटी हुई धरती आपस में मिल जाती है और फटा हुआ कपडा डोरे से सिल जाता है और बीमार देह को औषधि से स्वस्थ किया जा सकता है पर अगर कही मन अगर फट गया तो उसके लिये कोई ठिकाना नहीं है।

बिना सीस का मिरग है, चहूं दिस चरने जाय
बांधि लाओ गुरुज्ञान सूं, राखे तत्व लगाय


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि यह मन तो तो बिना सिर के मृग की तरह है जो चारों तरफ भागता रहता है। इस पर नियंत्रण करने के लिये किसी ज्ञानी गुरू से तत्वज्ञान प्राप्त कर नियंत्रण करना चाहिए तभी जीवन का आनंद लिया जा सकता है।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या- सब भौतिक चीजों पर हम अपना नियंत्रण कर लेते हैं पर मन पर कोई नियंत्रण नहीं कर पाता। वह चारों तरफ आदमी की दौड़ाता है। अपने देहाभिमान के चलते हम कभी नहीं अनुभव कर पाते कि अकारण तमाम तरह की उपलब्धियों के लिये दौड़ लगा रहे हैं। भक्ति भाव से दूर रहकर हम अपने आपको बहुत तकलीफ देते हैं। कोई भौतिक चीज मिल जाती है तो उसे पाकर पुलकित हो उठते हैं पर जल्द ही उससे ऊब जाते हैं फिर किसी नयी चीज की तलाश में लग जाते हैं। फिर सब चीजों से ऊब जाते हैं उससे बचने के लिये निरर्थक बोलने लगते हैं तमाम तरह के स्वांग रचते हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि हम अपने आपको धोखा देने लगते हैं।

हम अपने मन के साथ भागते हैं पर अपने अंदर बैठे जीवात्मा को नहंी देखते जो भगवान भक्ति के लिये ताकता रहता है। हम भटकते हुए ऐसे गुरूओं की शरण में जाते हैं जो स्वयं तत्वज्ञान से रहित हैं और किताबों से रटकर हमें सुनाते हैं। ज्ञान का मतलब रटने से नहीं है बल्कि उसे धारण करने से है। ऐसे में हमें निष्काम भाव से ज्ञान देने वाले गुरूओं की शरण लेकर अपने मन पर नियंत्रण करने का प्रयास करना चाहिए।

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