Thursday, October 30, 2008

भृतहरि शतकः जिनसे मन मिले हों उनको दूर अनुभव न करें

विरहेऽपि संगमः खलु परस्परं संगतं मनो येषाम्
हृदयमपि विघट्टितं चेत्संगी विरहं विशेषयति


हिंदी में भावार्थ-जिनके व्यक्तियों हृदय आपस मिले हों वह दैहिक रूप से एक दूसरे से परे होते हुए भी अपने को साथ अनुभव करते हैं। जिनसे हार्दिक प्रेम न हो तो वह कितने भी पास हो उनसे एक प्रकार से दूर बनी रहती है।

वैराग्ये सञ्चरत्येको नीतौ भ्रमति चापरः
श्रंृगाारे रमते कश्चिद् भुवि भेदाः परस्परम्


हिंदी में भावार्थ-इस विश्व में सभी व्यक्तियों का स्वभाव ऐक जैसा नहीं होता। सभी के हृदय में व्याप्त रुचियों भिन्न होती हैं। कोई वैराग्य धारण कर मोक्ष के लिये कार्य करता है तो कोई नीति शास्त्र के अनुसार अपने कार्य कर संतुष्ट होता है तो कोई श्रंृगार रस में आनंद मग्न है। यह भेद तो प्राकृतिक रूप से बना ही है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- वर्तमान समय में विकास का ऐसा पहिया घूमा है कि आत्मीय लोग अपने से दूर हो जाते हैं। अधिक धन और विकास की लालसा मनुष्य को अपनों से दूर जाने का बाध्य करती है पर इसे विरह नहीं मानना चाहिये। हालांकि अनेक शायर और गीतकार इसे विरह मानते हुए कवितायें, शायरी और गीत लिखते हैं पर उनको हृदय में धारण नहीं करना चाहिये। ऐसी रचनायें अध्यात्म ज्ञान से परे होती हैं। खासतौर से फिल्मों में काल्पनिक दृश्य गढ़कर ऐसे गीत रचे जाते हैं। एक देश से दूसरे देश पात्र भेजकर ‘चिट्ठी आई है’जैसे गीत लिखे जाते हैं जिसे सुनकर लोग भावुक हो जाते हैं। यह अज्ञान है। मनुष्य की पहचान उसके मन से है और अगर किसी के मन में बसे हैं और वह हमारे मन में बसा है तो उसे कभी दूर नहीं समझना चाहिये। ऐसे गीतों को सुनकर भूल जाना चाहिये। अरे जो मन में बसा है वह भला कभी दूर जा सकता है। विरह गीत रखने वाले दैहिक तत्व तक का सीमित ज्ञान रखते हैं और संगीत की धुनों से उनको लोकप्रियता मिलती है। अध्यात्म ज्ञान रखने वाले भी उनको सुनते हैं पर फिर भूल जाते हैं पर जिनको नहीं है वह भले ही कोई अपना दूर न हुआ हो फिर भी ऐसे गीतों को गुनगनाते हैं।
--------------------------------

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्दलेख पत्रिका
2.‘शब्दलेख सारथी’
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

Monday, October 27, 2008

रहीम सन्देश:छोटे पर दया करे वही है बड़ा आदमी

जे गरीब पर हित करै, ते रहीम बड़लोग
कहाँ सुदामा बापुरो, कृष्ण मिताई जोग


कविवर रहीम कहते हैं जो छोटी और गरीब लोगों का कल्याण करें वही बडे लोग कहलाते हैं। कहाँ सुदामा गरीब थे पर भगवान् कृष्ण ने उनका कल्याण किया।

आज के संदर्भ में व्याख्या- आपने देखा होगा कि आर्थिक, सामाजिक, कला, व्यापार और अन्य क्षेत्रों में जो भी प्रसिद्धि हासिल करता है वह छोटे और गरीब लोगों के कल्याण में जुटने की बात जरूर करता है। कई बडे-बडे कार्यक्रमों का आयोजन भी गरीब, बीमार और बेबस लोगों के लिए धन जुटाने के लिए कथित रूप से किये जाते हैं-उनसे गरीबों का भला कितना होता है सब जानते हैं पर ऐसे लोग जानते हैं कि जब तक गरीब और बेबस की सेवा करते नहीं देखेंगे तब तक बडे और प्रतिष्ठित नहीं कहलायेंगे इसलिए वह कथित सेवा से एक तरह से प्रमाण पत्र जुटाते हैं। मगर असलियत सब जानते हैं इसलिए मन से उनका कोई सम्मान नहीं करता।

जिन लोगों को इस इहलोक में आकर अपना मनुष्य जीवन सार्थक करना हैं उन्हें निष्काम भाव से अपने से छोटे और गरीब लोगों की सेवा करना चाहिऐ इससे अपना कर्तव्य पूरा करने की खुशी भी होगी और समाज में सम्मान भी बढेगा। झूठे दिखावे से कुछ नहीं होने वाला है।वैसे भी बड़े तथा अमीर लोगों को अपने छोटे और गरीब पर दया के लिये काम करते रहना चाहिये क्योंकि इससे समाज में समरसता का भाव बना रहता है।

----------------
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्दलेख पत्रिका
2.‘शब्दलेख सारथी’
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

Saturday, October 25, 2008

भृतहरि शतकःअधिक धन होने पर राज्य से भय लगता है

भोग रोगभयं कुले च्यूतिभयं वित्ते नृपालाद् भयं
माने दैन्यभयं बले रिपुभर्य रूपे जरायाः भयम्
शास्त्रे वादिभयं गुणे खलभयं काये कृतान्ताद् भयं
सर्व वस्तु भयान्वितं भुवि नृणां वैराग्यमेवाभयम्


हिंदी में भावार्थ- इस संसार में आने पर रोग का भय, ऊंचे कुल में पैदा हानेपर नीच कर्मों में लिप्त होने का भय, अधिक धन होने पर राज्य का भय, मौन रहने में दीनता का भय, शारीरिक रूप से बलवान होने पर शत्रु का भय, सुंदर होने पर बुढ़ापे का भय, ज्ञानी और शास्त्रों में पारंगत होने पर कहीं वाद विवाद में हार जाने का भय, शरीर रहने पर यमराज का भय रहता है। संसार में सभी जीवों के लिये सभी पदार्थ कहीं न कहीं पदार्थ भय से पीडि़त करने वाले हैं। इस भय से मन में वैराग्य भाव स्थापित कर ही बचा जा सकता है

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हर आदमी कहीं न कहीं भय से पीडि़त होता है। अगर यह देह है तो अनेक प्रकार के ऐसे कार्य करने पड़ते हैं जिससे उसका पालन पोषण हो सके पर इसी कारण अनेक त्रुटियां भी होती हैं। इन्हीं त्रुटियों के परिणाम का भय मन को खाये जाता है। इसके अलावा जो वस्तु हमारे पास होती है उसके खो जाने का भय रहता है। इससे बचने का एक ही मार्ग है वह वैराग्य भाव। श्रीमद्भागवत गीता मेें इसे निष्काम भाव कहा गया है। वैराग्य भाव या निष्काम भाव का आशय यह कतई नहीं है कि जीवन में कोई कार्य न किया जाये बल्कि इससे आशय यह है कि हम जो कोई भी कार्य करें उसके परिणाम या फल में मोह न पालेंं। दरअसल यही मोह हमारे लिये भय का कारण बनकर हमारे दिन रात की शांति को हर लेता है। हमारे पास अगर नौकरी या व्यापार से जो धन प्राप्त होता है वह कोई फल नहीं है और उससे हम अन्य सांसरिक कार्य करते हैं-इस तरह अपने परिश्रम के बदल्र प्राप्त धन को फल मानने का कोई अर्थ ही नहीं है बल्कि यह तो कर्म का ही एक भाग है। हम अपने पास पैसा देखकर उसमें मोह पाल लेते हैं तो उसके चोरी होने का भय रहता है। अधिक धन हुआ तो राज्य से भय प्राप्त होता है क्योंकि कर आदि का भुगतान न करने पर दंड का भागी बनना पड़ता है।

इसी तरह ज्ञान हो जाने पर जब उसका अहंकार उत्पन्न होता है तब यह डर भी साथ में लग जाता है कि कहीं किसी के साथ वाद विवाद में हार न जायें। यह समझना चाहिये कि कोई सर्वज्ञ नहीं हो सकता है। भले ही एक विषय के अध्ययन या कार्य करने में पूरी जिंदगी लगा दी जाये पर सर्वज्ञ नहीं बना जा सकता है। समय के साथ विज्ञान के स्वरूप में बदलाव आता है और इसलिये नित नये तत्व उसमें शामिल होते हैं। जिस आदमी में ज्ञान होते हुए भी नयी बात को सीखने और समझने की जिज्ञासा होती है वही जीवन को समझ पाते हैं पर ज्ञानी होने का अहंकार उनको भी नहीं पालना चाहिये तब किसी हारने का भय नहीं रहता।

कुल मिलाकर सांसरिक कार्य करते हुए अपने अंदर निष्काम या वैराग्य भाव रखकर हम अपने अंदर व्याप्त भय के भाव से बच सकते हैं जहां मोह पाला वह अपने लिये मानसिक संताप का कारण बनता है।
---------------------
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्दलेख पत्रिका
2.‘शब्दलेख सारथी’
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

Thursday, October 23, 2008

मनुस्मृतिः नकली वस्तुओं को बेचना अनुचित

नान्यदन्येन संसृष्टरूपं विक्रयमर्हति
न चासारं न च न्यून न दूरेण तिरोहितम्

हिंदी में आशय -मनुष्य किसी विशेष वस्तु के बदल किसी दूसरी वस्तु, सड़ी गली, निर्धारित वजन से कम, केवल दूर से ठीक दिखने वाली तथा ढकी हुई वस्तु न बेचे। विक्रेता को चाहिये कि वह ग्राहक को अपनी वस्तु की स्थिति ठीक बता दे।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-ऐसा लगता है कि आजकल धर्म के प्रति लोग इसलिये भी अधिक आकर्षित हो रहे हैं क्योंकि उनके नित्य कर्म में अशुद्धता का बोध उन्हें त्रस्त कर देता है। वह न केवल अपने ही कर्मों से असंतुष्ट हैं बल्कि दूसरे के अपने प्रति किया गया व्यवहार भी उन्हें खिन्न कर देता हैं। अब यह तो संभव नहीं है कि हम स्वयं बेईमानी का व्यवहार करते हुए दूसरों से ईमानदारी की आशा करें। नौकरी और व्यापार में कहीं न कहीं झूठ और बेईमानी करनी ही पड़ती है-यह सोचना अपने आपको धोखा देना है। दूसरे की बेेईमानी तो सभी को दिखती है अपना कर्म किसी ज्ञानी को ही दिखाई देता है। धन तो सभी के पास आता जाता है पर कुछ लोगों को धन का लोभ अनियंत्रित होकर उन्हें बेईमानी के रास्ते पर ले जाता है।

त्यौहारों के अवसर पर जब बाजार में मांग बढ़ती है तब दूध में मिलावट की बात तो होती थी पर अब तो सिंथेटिक दूध बिकने लगा है कि जिसका एक अंश भी शरीर के लिये सुपाच्य नहीं है अर्थात जो पेट में जाकर बैठता है तो फिर वहां पर बीमारी पैदा किये बिना नहीं रहता। तय बात है कि आदमी को डाक्टर के पास जाना है। दूध ऐसा जिसे दूध नहीं कहा जा सकता है मगर बेचने वाले बेच रहे है। कई जगह बड़े व्यापारी जानते हुए भी उसे खरीदकर खोवा बना रहे हैं। हलवाई मिठाई बनाकर बेचे रहे है। फिर जब दीपावली का दिन आता है तो भगवान श्रीनारायण और लक्ष्मी की मूर्तियां सजाकर अपने व्यवसायिक स्थानों की पूजा कर अपने धर्म का निर्वाह भी करते हैं। एसा पाखंड केवल इसी देश में ही संभव है। नकली दूध तथा अन्य वस्तुऐं बेचने वाले व्यापारी रौरव नरक के भागी बनते हैं यह बात मनुस्मृति में स्पष्ट की गयी है। मनु द्वारा स्थापित धर्म को मानने वाले उनकी पूजा भी करते हैं पर उनके ज्ञान को धारण नहीं करते।

धर्म का आशय यही है कि हमारे आचार, विचार और व्यवहार में शुद्धता होना चाहिये। यह भ्रम नहीं रखना चाहिये कि ईमानदारी से इस संसार में काम नहीं चलता। नकली और विषैली वस्तुयें बेचना पाप है यही सोचकर अपना व्यापार करना चाहिये।
-------------------------
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्दलेख पत्रिका
2.‘शब्दलेख सारथी’
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

Tuesday, October 21, 2008

भर्तृहरि शतकः सहायता करने वाले दिखावा नहीं करते

भर्तृहरि नीति शतक में कहा गया है कि
--------------------------------------
पद्माकरं दिनकरो विकची करोति
चन्द्रो विकासयति कैरवचक्रवालम्|
नाभ्यर्थितो जलधरोऽपि जलं ददाति
संत स्वयं परहिते विहिताभियोगाः||
     हिंदी में भावार्थ- बिना याचना किये सूर्य नारायण संसार में प्रकाश का दान करते है। चंद्रमा कुमुदिनी को उज्जवलता प्रदान करता है। कोई प्रार्थना नहीं करता तब भी बादल स्वयं ही वर्षा कर देते हैं। उसी प्रकार सहृदय मनुष्य स्वयं ही बिना किसी दिखावे के दूसरों की सहायता करने के लिये तत्पर रहते हैं।
     वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- आज के आधुनिक युग में समाज सेवा करना फैशन हो सकता है पर उससे किसी का भला होगा यह विचार करना भी व्यर्थ है। टीवी चैनलों और समाचार पत्रों में समाज सेवा करने वालों  समाचार नित्य प्रतिदिन  आना एक विज्ञापन से अधिक कुछ नहीं होता। कैमरे के सामने बाढ़ या अकाल पीडि़तों को सहायता देने के फोटो देखकर यह नहीं समझ लेना चाहिये कि वह मदद है बल्कि वह एक प्रचार है। बिना स्वार्थ के सहायता  करने वाले लोग कभी इस तरह के दिखावे में नहीं आते। जो दिखाकर मदद कर रहे हैं उनसे पीछे प्रचार पाना ही उनका उद्देश्य है। इस तरह की समाज सेवा की गतिविधियों में वही लोग सक्रिय देखे जाते हैं जिनकी समाजसेवक की छवि छद्म रूप होती है जबकि दरअसल उनका लक्ष्य दूसरा ही होता है| उनके प्रयासों से  समाज का उद्धार कभी नहीं होता। समाज के सच्चे हितैषी तो वही होते हैं जो बिना प्रचार के किसी की याचना न होने पर भी सहायता के लिये पहुंच जाते हैं। जिनके हृदय में किसी की सहायता का भाव उस मनुष्य को बिना किसी को दिखाये सहायता के लिये तत्पर होना चाहिये-यह सोचकर कि वह एक मनुष्य है और यह उसका धर्म है। अगर आप सहायता का प्रचार करते हैं तो दान से मिलने वाले पुण्य का नाश करते हैं।
-------------------------------------
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्दलेख पत्रिका
2.‘शब्दलेख सारथी’
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

Tuesday, October 14, 2008

चाणक्य सन्देश: प्रत्युपकार से मनुष्य अपनी रक्षा करता है

1.पाँव धोने का जल और संध्या के उपरांत शेष जल विकारों से युक्त हो जाता अत: उसे उपयोग में लाना अत्यंत निकृष्ट होता है। पत्थर पर चंदन घिसकर लगाना और अपना ही मुख पानी में देखना भी अशुभ माना गया है।
२.बिना बुलाए किसी के घर जाने की बात, बिना पूछे दान देना और दो व्यक्तियों के बीच वार्तालाप में बोल पडना भी अधर्म कार्य माना जाता है।
३.शंख का पिता रत्नों की खदान है। माता लक्ष्मी है फिर भी वह शंख भीख माँगता है तो उसमें उसके भाग्य का ही खेल कहा जा सकता है।
४.उपकार करने वाले पर प्रत्युपकार, मारने वाले को दण्ड दुष्ट और शठ से सख्ती का व्यवहार कर ही मनुष्य अपनी रक्षा कर सकता है।

---------------------------
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्दलेख पत्रिका
2.‘शब्दलेख सारथी’
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

Saturday, October 11, 2008

संत कबीर संदेशः इष्ट बदल कर पूजने वालों का उद्धार नहीं

संत कबीर दास जी के अनुसार
----------------------------
कामी तरि क्रोधी तरै, लोभी तरै अनंत
आग उपासी कृतघनी, तरै न गुरु कहंत


सद्गुरुओं का कहना है कि कामी, क्रोधी और लोभी भी अनेक बार अपने इष्ट को हृदय से स्मरण कर तर जाता है पर परंतु अपने इष्ट और सदगुरु को छोड़कर अन्य की उपासना करने वाला कभी नहीं तर सकता।

देवि देव मानै सबै, अलख न मानै कोय
जा अलेख का सब किया, तासों बेबुख होय


अनेक देवों की आराधना करने वाले निरंकार को नहीं मानते जबकि यह चराचर विश्व उसी ने रच रखा है। मूर्तियों को पूजने वाले उस निरंकार को नहीं जानते इसलिये उसे प्राप्त नहीं कर पाते।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-संत कबीरदास जी के समय भी धर्म परिवर्तन संभवतः बड़े पैमाने पर हो रहा था इसलिये उन्होंने इसका प्रतिवाद करते हुए उसकी आलोचना की है। सत्य तो यह है कि बाल्यकाल से ही माता पिता जिस इष्ट या गुरु का संपर्क करा देते हैं फिर उसी का ही अनुसरण जीवन भर करना चाहिये क्योंकि वह इस देह में मौजूद आत्मा धारण कर चुकी होती है। जो धर्म परिवर्तन करते हैं एक तरह से वह अपने माता पिता का त्याग तो करते ही हैं अज्ञान की शरण भी लेते हैं। जब सभी स्वरूपों में एक ही ईश्वर है तब उसका स्वरूप बदलने का आशय यह है कि मन में लोभ, काम और क्रोध का प्रकोप है। अगर सच्चे मन से माना जाये तो जिस रूप में हम बचपन से ही आराधना करते हैं उसी में ही परमात्मा की स्नेहपूर्ण अनुभूति होती है। धर्म या इष्ट बदलने का अर्थ यह है कि कोई स्वार्थ है जो इसके लिये प्रेरित करता हैै। ऐसा करने वाले माता पिता और गुरुओं का अपमान भी करते हैं।

यह केवल धर्म परिवर्तन के ही विषय में नहीं कहा गया बल्कि इष्ट के स्वरूप बदलना भी गलत माना गया है। कभी जीवन में कुछ काम समय न आने का कारण नहीं हो पाते तब लोग इष्ट या गुरु को भी बदलने के लिये प्रेरित करते हैं। उनकी बात भी नहीं मानी जानी चाहिये। वैसे देखा जाये तो समय के अनुसार सारे काम होते हैं पर कुछ लोग अपने लाभ के लिये दूसरों को धर्म, इष्ट या गुरु बदने के लिये उकसाते हैं। वह स्वयं तो संकट में रहते ही हैं दूसरों को भी संकट में डालते हैं। वैसे भी परमात्मा को निच्छल हृदय से स्मरण करने पर ही मन को शांति मिलती है। उसके स्वरूप बदलना तो अपने आपको ही धोखा देना है।
-----------------------------

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्दलेख पत्रिका
2.‘शब्दलेख सारथी’
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

Friday, October 10, 2008

संत कबीर संदेशः दूसरों की निंदा कर वैमनस्य न बढ़ायें

संत श्री कबीरदास जी के अनुसार
--------------------------
काहू का नहिं निन्दिये, चाहै जैसा होय
फिर फिर ताको बन्दिये, साधु लच्छ है सोय


किसी भी व्यक्ति का दोष देखकर भी उसकी निंदा न करें। अपना कर्तव्य तो यही है कि जो साधु और गुणी हो उसका सम्मान करें और उसकी बातों को समझें

तिनका कबहू न निंदिये, पांव तले जो होय
कबहुं उडि़ आंखों पड़े, पीर घनेरी होय


आशय यह है कि दूसरे के दोष देखकर उसकी निंदा से बचने का प्रयास करना चाहिये। तिनके तक की निंदा भी नहीं करना चाहिये। पता नहीं कब आंखों में गिरकर त्रास देने लगे।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जिसे देखो वही दूसरों की निंदा करने में लगा है। इसी प्रवृत्ति के कारण एक दूसरे से दूर हो जाते हैं। सक एक दूसरे की सामने तो प्रशंसा करते हैं पर पीठ पीछे निंदा पर आमादा हो जाते हैंं। यही कारण है कि किसी का किसी पर यकीन नहीं हैंं। अगर हम किसी की यह सोचकर निंदा करते हैं कि उससे क्या डरना वह कुछ नहीं कर सकता। यह भ्रम है। इस जीवन में पता नहीं कब किसकी आवश्यकता पड़ जाये-यही सोचकर किसी की निंदा नहीं करना चाहिये। दोष सभी में होते हैं। मानव देह तो दोषों का पुतला है फिर निंदा कर दूसरे लोगों से अपना वैमनस्य क्यों बढ़ाया जाये?

बजाय दूसरों की निंदा करने के ऐसे लोगोंे से संपर्क रखना चाहिये जो साधु प्रवृत्ति के हों। उनके सद्गुणों की चर्चा करना चाहिये। यह तय बात है कि हम अपने मूंह से अगर किसी के लिये बुरे शब्द निकालते हैं तो उसका हमारी मानसिकता पर ही बुरा प्रभाव पड़ता है। अगर किसी के बारे मे सद्चर्चा की जाये तो उसका सकारात्मक प्रभाव दिखता है।
--------------------------------
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्दलेख पत्रिका
2.‘शब्दलेख सारथी’
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

Thursday, October 9, 2008

संत कबीर संदेशः दुःख के महल त्याग कर सुख के आश्रम में रहो

दुक्ख महल को ढाहने, सुक्ख महल रहु जाय
अभि अन्तर है उनमुनी, तामें रहो समाय


संत कबीरदास जी के अनुसार इस संसार में रहना है तो दुख के महल को गिराकर सुख महल में रहो। यह तभी संभव है जब जो हमारे अंदर आत्मा है उसमें ही समा जायें।

काजल तजै न श्यामता, मुक्ता तर्ज न श्वेत
दुर्जन तजै न कुटिलता, सज्जन तजै न हेत


आशय यह है कि जिस तरह काजल अपना कालापन और मोती अपनी सफेदी को नहीं त्यागता वेसे ही दुर्जन अपनी कुटिलता और सज्जन अपनी सज्ज्नता नहीं त्यागता।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-देने वाला परमात्मा है और जो कर्म करता है उसे उसका परिणा मिलता ही है। फिर भी आदमी में अपना अहंकार है कि 'मैं कर्ता हूं।' वह अपने देह से किये गये कर्म से प्राप्त माया के भंडार को ही अपना फल समझता है और बस उसकी वृद्धि में ही अपना जीवन धन्य समझता है और भक्ति भाव को वह केवल एक समय पास काम मानता है। कितना बड़ा भ्रम मनुष्य में है यह अगर हम अपना आत्म मंथन करें तो समझ में आ जायेगा। हम कहीं दुकान कर रहे हैं या नौकरी उससे जो आय होती है वह फल नहीं होता। वह जो पैसा प्राप्त होता है उससे अपने और परिवार की आवश्यकताओं की पूर्ति पर ही व्यय करते हैं। वह पैसा प्राप्त करना तो हमारे ही कर्म का हिस्सा है। कहीं से मजदूरी या वेतन प्राप्त होता है वह भला कैसे फल हो सकता है जबकि उसे प्राप्त करना भी हमारा कर्तव्य है ताकि हम अपनी इस देह का और साथ ही अपने परिवार का भरण भोषण कर सकें। इसलिये माया की प्राप्त को फल समझना एक तरह से दुःख का महल है और उसे एक सामान्य कर्म मानते हुए उसे त्याग कर देना चाहिये। भगवान की भक्ति करना ही सुख के महल में रहना है।

अगर हमें यह अनुभूति हो जाये कि अमुक व्यक्ति के मूल स्वभाव में ही दुष्टता का भाव है तो उसे त्याग देना चाहिये। यह मानकर चले कि यहां कोई भी अपना स्वभाव नहीं बदल सकता। जिसत तरह काजल अपनी कालापन और मोती आपनी सफेदी नहीं छोड़ सकता वैसे ही जिनके मूल में दुष्टता का भाव है वह उसे नहीं छोड़ सकता। उसी तरह जिन में हमें सज्जनता का भाव लगता है उनका साथ भी कभी नहीं छोड़ना चाहिये।
----------------------------
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

Wednesday, October 8, 2008

रहीम संदेशः परमात्म से किया गया प्रेम ही सच्चा

वहै प्रीति नहिं रीति वह, नहीं पाछिलो हेत
घटत घटत रहिमन घटै, ज्यों कर लीन्हे रेत

स्वाभाविक रूप से जो प्रेम होता है उसकी कोई रीति नहीं होती। स्वार्थ की वजह से हुआ प्रेम तो धीरे धीरे घटते हुए समाप्त हो जाता है। जब आदमी के स्वार्थ पूरे हो जाते हैं जब उसका प्रेम ऐसे ही घटता है जैसे रेत हाथ से फिसलती है।
वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-जीवन में कई ऐसे लोग आते हैं जिनका साथ हमें बहुत अच्छा लगता है और हम से प्रेम समझ बैठते हैं। फिर वह बिछड़ जाते हैं तो उनकी याद आती है और फिर एकदम बिसर जाते हैं। उनकी जगह दूसरे लोग ले लेत हैं। यह प्रेमी की ऐसी रीति है जो देह के साथ आती है। यह अलग बात है कि इसमेें बहकर कई लोग अपना जीवन दूसरे को सौंप कर उसे तबाह कर लेते हैं।

सच्चा प्रेम तो परमात्मा के नाम से ही हो सकता है। आजकल के फिल्मी कहानियों में जो प्रेम दिखाया जाता है वह केवल देह के आकर्षण तक ही सीमित है। फिर कई सूफी गाने भी इस तरह प्रस्तुत किये जाते हैं कि परमात्मा और प्रेमी एक जैसा प्रस्तुत हो जाये। सूफी संस्कृति की आड़ में हाड़मांस के नष्ट होने वाली देह में दिल लगाने के लिये यह संस्कृति बाजार ने बनाई है। अनेक युवक युवतियां इसमें बह जाते हैं और उनको लगता हैकि बस यही प्रेम परमात्मा का रूप है।

सच तो यह है परमात्मा को प्रेम करने वाली तो कोई रीति नहीं है। उसका ध्यान और स्मरण कर मन के विकार दूर किये जायें तभी पता लगता है कि प्रेम क्या है? यह दैहिक प्रेम तो केवल एक आकर्षण है जबकि परमात्मा के प्रति ही प्रेम सच्चा है क्योंकि हम उससे अलग हुई आत्मा है।

रामनवमी के अवसर पर सभी पाठक,ब्लाग लेखक मित्रों और सहृदय सज्जनों को हार्दिक बधाई। यह पर्व समाज में पूरे वर्ष खुशियां बिखेरे ऐसी कामना सभी को करना चाहिये।
संपादक-दीपक भारतदीप

------------------------------------

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथि’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग शब्दलेख सारथि
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

Tuesday, October 7, 2008

रहीम के दोहेः जो दीन पर दया करे वही दीनबंधु कहलाता है

कविवर रहीम कहते हैं
---------------------------
दिव्य दीनता के रसहि, का जाने जग अंधु
भली बिचारी दीनता, दीनबंधु से बंधु
      हिंदी में भावार्थ-भगवान की भक्ति दीन भाव से करने पर जो रस और आनंद मिलता है उसे अहंकार में अंधे लोग नहीं समझ सकते। दीनता में जो सोंदर्य है उससे ही दीनबंधु आकर्षित होते हैं।
दीन सबन को लखत है, दीनहिं लखै न कोय
जो रहीम दीनहि लखै, दीनबंधु सम होय
      हिंदी में भावार्थ-जो दीन है वह सबकी तरफ देखता है पर उसे कोई नहीं देखता। जो दीन की ओर देखकर उस पर दया करता है उसके लिये वह भगवान तुल्य हो जाता है।
     वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-पहले समाज की एक स्वचालित व्यवस्था थी जिसमें धनी व्यक्ति के लिये दान का कर्तव्य निश्चित किया गया ताकि जिनके पास धन नहीं है उन्हें प्राप्त होता रहे और समाज में समरसता का भाव बना रहे मगर  अब लोग दान के नाम पर नाक भौं सिकोड़ते हैं या फिर ढिंढोरा पीटकर देते हें जिससे उनको आर्थिक लाभ और सामाजिक प्रतिष्ठा मिले। कुछ धनिक और उनकी संतानों के लिये तो माया शक्ति प्रदर्शन का एक हथियार बन गयी है। जिनके पास धन है उनको समाज में दीन और दरिद्र की तकलीफों का ख्याल नहीं होता और न ही इस बात का विचार होता है कि वह उनकी तरफ अपेक्षित भाव से देख रहे हैं। माया उनको अंधा बना देती हैं और फिर इन्हीं दीनों में से कोई अपराधी बनकर उनकी इसी माया का हरण तो कर ही लेता है और कहीं न कहीं तो शारीरिक हानि भी पहुंचा देता हैं।
      एक बात धनिकों को याद रखना चाहिये कि दीन उनको देखते हैं और उनके व्यवहार से ही उन पर अच्छा या बुरा प्रभाव पड़ता है। ऐसे में अगर वह स्वयं ही उन पर दया करें तो उनके लिये भगवान बन जायेंगे क्योंकि दीन तो बिचारे सभी तरफ देखते हैं पर उनकी तरफ अगर कोई देखे तो उनका मन प्रसन्न हो जाता है।
      दान करने से आशय यह नहीं है कि कहीं भिखारियों को खाना खिलाया जाये या किसी मंदिर में दान डाला जाये। यह अपने आसपास ही निर्धन और जरूरतमंद लोगों लोगों की सहायत कर भी किया जा सकता है। किसी मजदूर से काम कराकर उसके मांगे गये मेहनताने से थोड़ा अधिक देकर या अपने घर की अनावश्यक पड़ी वस्तु उनको देखकर भी उनका मन जीता जा सकता है। यह संदेश साफ है कि अगर आप धनी है तो आप अपने आसपास के निर्धन लोगों पर कृपा करते रहें तभी आप भी अमन से रह पायेंगे वरन आपको स्वयं ही अकेलापन और असुरक्षा का अनुभव होगा। मतलब यह कि आप दीनबंधु बने तभी आप दीनबंधु को पा सकते हैं। दान देते समय भी अपने अंदर दीन भाव रखना चाहिये और भक्ति करते समय भी। तभी परमानंद की प्राप्त हो सकती है।
------------------
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्दलेख पत्रिका
2.‘शब्दलेख सारथी’
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

Monday, October 6, 2008

संत कबीर संदेशः माया के इर्द गिर्द चक्कर लगाता है भ्रमित आदमी

संत कबीरदास जी के अनुसार
माया दीपक नर पतंग, भ्रमि भ्रमि इवैं पड़ंत
कह कबीर गुरु ग्यान तैं, एक आध उमरन्त


इसका आशय यह है कि मनुष्य एक पंतगे की तरह माया रूपी दीपक के प्रति आकर्षण में भ्रमित रहता है। वह अपना जीवन उसी के इर्द गिर्द चक्कर काटते हुए नष्ट कर देता है। कोई एकाध मनुष्य ही है जिसे योग्य गुरु का सानिध्य मिलता है और वह इस माया के भ्रम से बच पाता है।

गयान प्रकास्या गुरु मिल्या, से जिनि बीसरि जाई
जब गोबिन्द कृपा करी, तब गुरु मिलिया आई


इसका आशय यह है कि जब सच्चे गुरु का सानिध्य मिलता है तो हृदय में ज्ञान का प्रकाश फैल जाता है। ऐसे गुरु को कभी नहीं भूलना चाहिये। जब भगवान की कृपा होती है तभी सच्चे गुरु मिल पाते हैं।

वर्तमान समय में संपादकीय व्याख्या-यह सब जानते हैं कि यह देह और संसार एक मिथ्या है। खासतौर से अपने देश में तो हर आदमी एक दार्शनिक है। हमारे महापुरुषों ने अपनी तपस्या से तत्व ज्ञान के रहस्य को जानकर उससे सभी को अवगत करा दिया है।
इसके बावजूद हम लोग सर्वाधिक भ्रम का शिकार हैं। आज पूरा विश्व भारतीय बाजार की तरफ देख रहा है क्योंकि उससे अपने उत्पाद यहीं बिकने की संभावना दिखती है। अनेक तरह के जीवन की विलासिता से जुड़े साधनों के साथ लोग सुरक्षा की खातिर हथियारों के संग्रह में भी लगे हैंं। एक से बढ़कर एक चलने के लिये वाहन चाहिये तो साथ ही अपनी सुरक्षा के लिये रिवाल्वर भी चाहिये। इतना बड़ा भ्रमित लोग शायद ही किसी अन्य देश में हांे।

विश्व में भारत को अध्यात्म गुरु माना जाता है पर जैसे जैसे लोगों के पास धन की मात्रा बढ़ रही है वैसे उनकी मति भी भ्रष्ट हो रही है। कार आ गयी तो शराब पीकर उसका मजा उठाते हुए कितने लोगों ने सड़क पर मौत बिछा दी। कितने लोगों ने कर्जे में डूबकर अपनी जान दे दी। प्रतिदिन ऐसी घटनाओं का बढ़ना इस बात का प्रमाण है कि माया का भ्रमजाल बढ़ रहा है। धन, पद या शारीरिक शक्ति के अंधे घोड़े पर सवार लोग दौड़े जा रहे हैं। किसी से बात शुरू करो तो वह मोबाइल या गाडि़यों के माडलों पर ही बात करता है। कहीं सत्संग में जाओ तो वहां भी लोग मोबाइल से चिपके हुए है। इस मायाजाल से लोगों की मुक्ति कैसे संभव हैं क्योंकि उनके गुरु भी ऐसे ही हैं।

सच तो यह है कि भक्ति के बिना जीवन में मस्ती नहीं हो सकती। भौतिक साधनों का उपयोग बुरी बात नहीं है पर उनको अपने जीवन का आधार मानना मूर्खता है। एक समय ऐसा आता है जब उनके प्रति विरक्ति का भाव आता है तब कहीं अन्यत्र मन नहीं लग पाता। ऐसे में अगर भजन और भक्ति का अभ्यास न हो तो फिर तनाव बढ़ जाता है। यहां यह बात याद रखने लायक है कि भक्ति और भजन का अभ्यास युवावस्था में नहीं हुआ तो बुढ़ापे में तो बिल्कुल नहीं होता। उस समय लोग जबरन दिल लगाने का प्रयास करते हैं पर लगता नहीं हैं। इसलिये युवावस्था से अपने अंदर भक्ति के बीज अंकुरित कर लेना चाहिये। अगर योग्य गुरु न मिले तो स्वाध्याय भी इसमें सहायक होता है।
--------------------------
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्दलेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

Sunday, October 5, 2008

संत कबीर वाणी: जैसा व्यक्ति मिले वैसा उससे व्यवहार करें

संत कबीरदास जी के अनुसार
-----------------------------

जो जैसा उनमान का, तैसा तासो बोल
पोता का गाहक नहीं, हीरा गांठि न खोल


आशय-जिस तरह का व्यक्ति हो उससे वैसा ही व्यवहार तथा वार्तालाप करो। जो कांच खरीदने वाली भी नहीं है उसके सामने हीरे की गांठ खोलकर दिखाने का फायदा ही नहीं।

एक ही बार परिखए, न वा बारम्बार
चालू तौहू किरकिरी, जो छानै सौ बार


आशय-किसी व्यक्ति को उसके कृत्य से एक ही बार परखना चाहिए। बार बार किसी की परखने का कोई फायदा नहीं। बालू की रेत को सौ बार भी छाना जाये तो उसकी किरकिरी नहीं जा सकती।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जीवन में हमारा प्रतिदिन अनेक व्यक्तियों से संपर्क होता है। इनमें कुछ व्यक्ति केवल दिखावे के लिये हितैषी बनते तो कुछ वास्तव में होतेे भी है। हम कई बार अपने संपर्क में आने वाले व्यक्तियों पर अधिक दृष्टिपात नहीं करते पर जिनके स्वार्थ होते हैं वह अपनी पैनी नजरें रखते हैं कि कब हम चूकें और वह अपना हित साधकर नजरों से ओझल हो जायेंं। ऐसा हो सकता है कि कोई व्यक्ति लंबे समय तक साथ हो और हमें लगता है कि वह तो वफादार होगा तो यह भ्रम नहीं पालना चाहिये-क्योंकि कि वह कोई बड़ा स्वार्थ सिद्ध करने के लिये आपके साथ चिपका हो और उसकी पूर्ति के बाद छोड़ जाये। फिर जिन लोगों ने छोटे मोटे अवसरों पर धोखा दिया हो तो उनसे बड़े अवसर पर वफादारी की उम्मीद करना व्यर्थ है। अगर किसी ने एक बार आपका काम न करने पर बहाना बना दिया है तो वह दूसरी बार भी न करने पर कोई बहाना बना देगा। इसलिये सोच समझकर ही लोगों से व्यवहार करना चाहिये। जिस पर विश्वास न हो उसे अपने मन की बात और उद्देश्य नहीं बताना चाहिये

इसी तरह कुछ लोग दिखावे के लिये प्रेम से व्यवहार करते हैं पर वास्तव में उनका हमारे लिये प्रति उनके हृदय में किसी प्रकार का मोह नहीं होता। इसका आभास उनके व्यवहार से लग भी जाता है। साथ ही यह भी लगता है कि उनसे हमारा संपर्क अधिक नहीं चलेगा फिर भी उनके साथ संबंध बनाने की चेष्ट हम लोग करते हैं और यह जानते हुए भी कि वह व्यर्थ हो जायेगी। सच तो यह है कि जिनसे संपर्क अधिक चलने की न आशा है और भविष्य में किसी अवसर पर सहायता न मिलने की आशा है उनके सामने अपने दिल का हाल बयान करने का कोई लाभ नहीं हैं।
-----------------
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्दलेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

Friday, October 3, 2008

संत कबीर संदेशः आजकल के गुरु बहुत सस्ते हो गये, पैसा फैंको पचास बना लो

गुरवा तो सस्ता भया, पैसा केर पचास
राम नाम धन बेचि के, शिष्य करन की आस

संत श्री कबीरदास जी के समय में भी गुरुओं की माया ऐसी हो गयी थी कि उनको कहना पड़े कि गुरु तो अब सस्ते हो गये हैं। पैसे के दम पर पचास गुरु कर लो। ऐसे गुरु राम नाम को बेच कर धन कमाते हैं और यह आशा करते हैं कि उनको शिष्य मिलें।

जा गुरु ते भ्रम न मिटे, भ्रांति न जिया की जाये
सो गुरु झूठा जानिए, त्यागत देर न जाए


संत शिरोमणि कबीरदास के अनुसार जिस गुरु के पास जाकर मन के भ्रम का निवारण नहीं होता उसे झूठा समझ कर त्याग दें। भ्रम के साथ जीवन जीना बेकार है और जो गुरु उसका निवारण नहीं कर सकता वह ढोंगी है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-कितनी आश्चर्य की बात है कि सैंकड़ों वर्ष पूर्व संत कबीरदास जी द्वारा कही गयी बात आज भी प्रासंगिक लगती है। यही कारण है कि भारतीय अध्यात्म विश्व में किसी अन्य ज्ञान से अधिक सत्य के निकट है पर यहां सर्वाधिक भ्रम में लोग रहते हैं। सब जानते हैं कि माया मिथ्या है पर उसी के इर्द गिर्द घूमते हैं। मजे की बात यह है कि भारतीय अध्यात्म के कथित ढोंगी प्रचारक प्राचीन ग्रंथों में वर्णित केवल उन्हीं प्रसंगों को उठाते हैं जिससे लोगों का मनोरंजन हो पर तत्वाज्ञान से वह अवगत न हों। कहानियां और किस्से सुनाकर लोगों को मनुष्य जीवन का रहस्य समझाते है पर तत्व ज्ञान की चर्चा ऐसे करते हैं जैसे देह से ही उसका संबंध हो। कर्मकांडों और यज्ञों के लिये प्रेरित करते हैं ताकि उसकी आड़ में उनको गुरुदक्षिणाा मिलती रहे।

गुरुओं को शिष्य हमेशा यही कहते हैं कि ‘हमारा तो गुरू बैठा है’। मतलब यह है कि उनके लिये वही भगवान है।’

बलिहारी गुरु जो आपकी जो गोविंद दिया दिखाय-इस वाक्य का उच्चारण हर गुरु करता है पर वह किसी को गोविंद नहंी दिखा पाता। लोग भी बिना गोविंद को देखे अपने गुरु को ही गोविंद जैसा मानने लगते हैं। गोविंद को केवल तत्वज्ञान से ही अनुभव किया जा सकता है पर न तो गुरु उसको बताते हैं और न ही शिष्य उसका मतलब जानते हैं। गोल गोल केवल इसी माया के चक्कर में दोनों घूमते हैं। यही कारण है कि भारतीय समाज अपने ही देश में प्रवर्तित अध्यात्म ज्ञान से परे हैं जिसे आज पूरा विश्व मानता है।
.................................

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्दलेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

Thursday, October 2, 2008

संत कबीर सन्देश: सच्चा ज्ञान हीरे के तरह कसौटी पर खरा उतरता है

हीरा पाया पारखी, धन महं दीन्हा आन
चोट सही फूटा नहीं, तब पाई पहचान

पारखी ने ने हीरा प्राप्त कर लिया और उसकी धन के रूप में कीमत भी आंक ली पर जब चोट की तो वह फूटा नहीं और तब पहचान हुई कि वह कितना मजबूत है।
संक्षिप्त व्याख्या-जब किसी को ज्ञान प्राप्त होता है तो उसको लगता है कि अच्छा हुआ कि वह उसे प्राप्त हो गया और कभी काम आयेगा-उस समय वह उसे सामान्य बात मानता है। जब वक्त पर उसकी परीक्षा वह करता है और अनुभव करता है कि उसका ज्ञान वाकई प्रभावपूर्ण है जो उसके उपयोग करने में चूक नहींे हुई तब उसकी प्रसन्नता का पारावर नहीं रहता। अगर किसी मनुष्य के पास ज्ञान रहता है तो वह विपत्ति आने पर उसकी रक्षा करता है और आदमी चोट खाकर विचलित नहीं होता। तब उसे अपने गुरु द्वारा दिए गए ज्ञान के महत्त्व का आभास होता है।

खरी कसौटी तौलतां, निकसि गई सब खोट
सतगुरु सेना सब हनी, सब्द वान की चोट


जब खरी कसौटी पर परीक्षा की जाती है तो सब खोट निकल जाता है। झूठे शब्दों की सेना को सतगुरू का ज्ञान ध्वस्त कर देता है। जब तक आदमी अपनी ज्ञान का परीक्षण नहीं कर लेता तब तक वह अज्ञान के अँधेरे में भटकता है, जब उसे शब्द ज्ञान प्राप्त होता है तब वह उसमें से निकल आता है।

संक्षिप्त व्याख्या-झूठ कितना भी बोला जाये अगर उसकी परीक्षा सत्य की कसौटी पर की जाये तो वह पकड़ जाता है उसके लिये जरूरी है ज्ञान होना और ज्ञान के लिये आवश्यक है कोई गुरू होना। कई लोग कहते हैं कि हम बिना गुरू के ज्ञान प्राप्त कर लेंगे पर यह संभव नहीं है। गुरु से आशय यह नहीं है कि कोई संत या सन्यासी हो। जीवन में कई ऐसे लोग होते हैं जो हमें जीवन के बारे में बताते हैं उनको गुरु मानते हुए उनकी बात हृदय में धारण करना चाहिए।
-------------------------------
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्दलेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

Wednesday, October 1, 2008

चाणक्य नीति:कांच को मुकुट में जड़वाने से मणि का मोल कम नहीं होता

१.मन के संयम के बिना कोई दूसरा तप नहीं है, संतोष जैसा कोई सुख और तृष्णा जैसा कोई भयंकर रोग नहीं है और दया जैसा कोई धर्म नहीं है.
२.कोई राजवंश का व्यक्ति मणि रुपी रत्न को पैर की उँगलियों में धारण करे और कांच को सिर पर मुकुट में जड्वाकर धारण करे तो भी मणि का मूल्य कम नहीं हो जाता और बाजार में उसकी कीमत वही रहती है और कांच का मूल्य भी कम ही रहता है.

संक्षिप्त व्याख्या
- यहाँ अभिप्राय यह है की किसी गुणी व्यक्ति का उच्च वर्ग के लोग सम्मान न करे तो यह समझ नहीं लेना चाहिऐ कि उसके गुण का कोई मोल नहीं है और उसी तरह दुष्ट व्यक्ति को अगर उसके भय और दुर्गुणों के कारण सम्मान मिलता तो भी उसका कोई मोल नहीं है. वैसे आजकल हम देख रहे हैं कि अनुचित तरीके से धन बटोरने वाले और दूसरों को भय देने वाले लोग समाज में अधिक सम्मान पा रहे हैं. लोग किसी भले की बजाये गुंडे से संबंध रखकर अपने को सुरक्षित समझते हैं पर मन से उनका सम्मान नहीं करते. समाज को अपने रचनात्मक कार्यों के लिए अंतत: गुणी और ज्ञानी व्यक्ति की ही आवश्यकता होती है. वैसे भी जिन्होंने दुष्ट व्यक्तियों का संग किया उन्हें अपने जीवन से हाथ धोना पडा है ऐसे एक नहीं हजारों उदाहरण हमारे सामने हैं.
----------------
href="http://terahdeep.blogspot.com">‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

समस्त ब्लॉग/पत्रिका का संकलन यहाँ पढ़ें-

पाठकों ने सतत अपनी टिप्पणियों में यह बात लिखी है कि आपके अनेक पत्रिका/ब्लॉग हैं, इसलिए आपका नया पाठ ढूँढने में कठिनाई होती है. उनकी परेशानी को दृष्टिगत रखते हुए इस लेखक द्वारा अपने समस्त ब्लॉग/पत्रिकाओं का एक निजी संग्रहक बनाया गया है हिंद केसरी पत्रिका. अत: नियमित पाठक चाहें तो इस ब्लॉग संग्रहक का पता नोट कर लें. यहाँ नए पाठ वाला ब्लॉग सबसे ऊपर दिखाई देगा. इसके अलावा समस्त ब्लॉग/पत्रिका यहाँ एक साथ दिखाई देंगी.
दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका


इस लेखक की लोकप्रिय पत्रिकायें

आप इस ब्लॉग की कापी नहीं कर सकते

Text selection Lock by Hindi Blog Tips

हिंदी मित्र पत्रिका

यह ब्लाग/पत्रिका हिंदी मित्र पत्रिका अनेक ब्लाग का संकलक/संग्रहक है। जिन पाठकों को एक साथ अनेक विषयों पर पढ़ने की इच्छा है, वह यहां क्लिक करें। इसके अलावा जिन मित्रों को अपने ब्लाग यहां दिखाने हैं वह अपने ब्लाग यहां जोड़ सकते हैं। लेखक संपादक दीपक भारतदीप, ग्वालियर

विशिष्ट पत्रिकायें

Blog Archive

stat counter

Labels