Thursday, December 31, 2009

मनुस्मृतिः अपराध न रोकने वालों के विरुद्ध कड़ी कार्यवाही जरूरी (action against corrupt state officer-hindu dharama sandesh)

 ये नियुक्तासतुकार्येषफ हन्युः कार्याणि कार्विणामम्

धनोष्मणा पञ्चमानांस्तानिन्स्वान्कारवेन्नृपः।।

हिन्दी में भावार्थ-
राज्य द्वारा जो कर्मचारी द्यूत आदि वर्जित पापों को रोकने के नियुक्त किये गये हैं वह पैसे की लालच में ऐसे पापों को नहीं रोकते तो इसका आशय यह है कि वह उसे बढ़ावा दे रहे हैं। इसलिये उनको पद से हटाकर उनका सभी कुछ छीन लेना चाहिये।

कुटशासनकर्तृश्च प्रकृतीनां च दूषकान्।

स्त्रीबालब्राहम्णघ्राश्च हन्यात् द्विट्सेविनस्तथा।

हिन्दी में भावार्थ-
राज्य के प्रतीक चिन्हों की नकल से अपना स्वार्थ निकालने वालों, प्रजा को भ्रष्ट करने में रत, स्त्रियों, बालकों व विद्वानों की हत्या करने वाले और राज्य के शत्रु से संबंध रखने वालों को अतिशीघ्र मार डालना चाहिये।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-आज अगर हम पूरे विश्व की व्यवस्थाओं पर दृष्टिपात करें तो जिन व्यसनों को करने और कराने वालों को पापी कहा जाता है वही अब फैशन बनते जा रहे हैं। लोगों में अज्ञान, मोह तथा लालच तथा काम भावना पैदा करने के लिये खुलेआम चालाकी से विज्ञापन की प्रस्तुति देखकर यह आभास अब बहुत कम लोग करते हैं कि लोगों की मानसिकता को भ्रष्ट करना ही प्रचार माध्यमों का उद्देश्य रह गया है।  सभी जानते हैं कि दुनियां के सभी मशहूर खेलों में सट्टा लगता है और अनेक देशों ने तो उसे वैद्यता भी प्रदान कर दी है।  पर्दे पर खेलने वाले खिलाड़ियों को देखकर लगता ही नहीं है कि वह तयशुदा मैच खेल रहे हैं-यह संभव भी नहीं है क्योंकि हर कोई अपने व्यवसाय में माहिर होता है।  पहले तो क्रिकेट के बारे में भी कहा जाता था पर अब फुटबाल और टेनिस जैसे खेलों पर भी उंगलियां उठने लगी हैं।  समाचार पत्र पत्रिकायें अनेक बार अपने यहां ऐसे समाचार छापते हैं। केवल यही नहीं जुआ खेलने के लिये पश्चिमी देशों में तो बकायदा कैसीनो हैं। अपने देश में भी ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो जुआ खेलने और खिलाने के कर्म मेें जुटे हैं। एक मजे की बात यह है कि उन्हीं खेल प्रतियोगिताओं में अधिक सट्टा या जुआ होता है जिसमें देशों के नाम से टीमें भाग लेती हैं। इससे कुछ लोग तो कथित राष्ट्र प्रेम की वजह से देखते हैं तो दूसरे टीम के हारने या जीतने पर दांव लगाते हैं। सट्टा तो क्लब स्तर की प्रतियोगिताओं पर भी लगता है पर इतना नहीं इसलिये देश का नाम उपयोग करना पेशेवर मनोरंजनकर्ताओं को लाभप्रद लगता है।

इसके अलावा लोगों के अंदर व्यसनों का भाव पैदा करने वाले अन्य अनेक व्यवसायक भी हैं जिनमें लाटरी भी शामिल है। कहने का तात्पर्य यह है कि  लोगों को भ्रमित कर उनको भ्रष्ट करने वालों को कड़ी सजा देना चाहिये।  यह राज्य का कर्तव्य है कि वह हर ऐसे काम को रोके जिससे लोगों में अज्ञान, हिंसा तथा व्यवसन का भाव पैदा करने का काम किया जाता है।

वैसे द्यूत और सट्टे को पाप कहना भी गलत लगता है बल्कि यह तो मनुष्य के लिये एक तरह से दिमागी विष की तरह है।  द्यूत खेलने वालों का सजा क्या देना? वह तो अपने दुश्मन स्वयं ही होते हैं।  समाचार पत्र पत्रिकाओं में ऐसे नित किस्से आते हैं जिसमें जुआ और सट्टे में हारे जुआरी कहीं स्वयं तो कहीं पूरे परिवार को ही मार डालते हैं। राज्य को जुआ खिलाने वालों के विरुद्ध कार्यवाही करना चाहिये पर आम लोग इस बात को समझ लें कि जुआ खेलना तो दूर जुआरी की छाया से स्वयं तथा परिवार के सदस्यों को दूर रखें।
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Wednesday, December 30, 2009

विदुर नीति-निर्दोष को सताने वाला सुख से नहीं रह सकता (nirdosh ko n sataeyn-hindu dharma sandesh)

निरर्थ कलह प्राज्ञो वर्जयन्मूढसेवितम्।
कीर्ति च लभते लोके न चानर्थेन युज्यते।।
हिन्दी में भावार्थ-
बिना बात के कलह करना मूर्खो का कार्य है। बुद्धिमान पुरुषो को चाहिए कि वह इस बुराई से दूर रहें। बिना बात के विवाद करने से एक तो यश नहीं मिलता दूसरा अनेक बार बेकार के संकटों का सामना करना पड़ता है।
न च रात्रौ सुखं शेते ससर्प इव वेश्मनि।
यः कोपयति निर्दोषं सदोषोऽभ्यन्तरं जनम्।
हिन्दी में भावार्थ-
जो स्वयं दोषी होकर भी निर्दोष और आत्मीय व्यक्ति को कुपित करता है वह सांप के निवास करने वाले घर वाले मनुष्य की भांति सुख से सो नहीं सकता।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-पूरा जीवन शांति तथा सुख से बिताने की अगर आवश्यकता अनुभव करें तो बस एक ही उपाय है कि दूसरों के दोष देखना बंद कर दें और निरर्थक विषयों पर बहस से बचें। इससे परंनिंदा जैसे आत्मघाती दोष तथा हिंसा से बचाव किया जा सकता है। अगर इस धरती पर होने वाले झगड़ों को देखें तो शायद ही उनका कोई कारण होता हो। अगर राजकाज से जुड़ा आदमी है तो वह सामान्य प्रजाजनों के लिये प्रभाव जमाने के लिये अन्य राज्यों से निरर्थक विवाद करता है या फिर राज्य के अंदर ही पहले असामाजिक तत्वों के खिलाफ पहले ढीला ढाला रवैया अपना कर उनको प्रोत्साहन देता है और फिर बाद में विलंब से कार्यवाही कर वाह वाही लूटता है। यही हालत सामान्य आदमी की भी है वह अपने से जुड़े लोगों में प्रतिष्ठा अर्जित करने के लिये निरर्थक डींगें हांकता है-अवसर मिले तो किसी कमजोर पर प्रहार का अपनी शक्ति दिखाता है।
इस प्रकार मानवीय प्रवत्तियों में अहंकार सारे झगड़ों की जड़ है। इस प्रयास में लोग निर्दोष तथा मासूम लोगों पर आक्रमक करते हैं या उनको सताते हैं जो कि अंततः उनके लिये दुःखदायी होता है। याद रखें कि निर्दोष या आत्मीयजन को सताने के बाद कोई सुख से वैसे ही नहीं रह सकता जैसे कि सांप को घर में देखने के बाद कोई आदमी चैन से नहीं रह पाता।
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Tuesday, December 29, 2009

विदुर नीति-शीलहीन पुरुष का धन और बंधुओं से भी प्रयोजन सिद्ध नहीं होता (corrupt man loss money and family-hindu dharm sandesh)

जिता सभा वस्त्रवता मिष्टाशा गोमाता जिता।
अध्वा जितो यानवता सर्व शीलवता जितम्।।
हिन्दी में भावार्थ-
जिस तरह अच्छे वस्त्र पहनने वाला सभा, गौ पालने वाला मीठे स्वाद की इच्छा और किसी वाहन पर सवारी करने वाला मार्ग को जीत लेता है उसी तरह शीलवान मनुष्य सभी पर एक साथ विजय प्राप्त करता है।
शील प्रधानं पुरुषे तद् यस्येह प्रणश्चति।
न तस्य जीवितनार्थो न धनेन न बन्धुभि।।
हिन्दी में भावार्थ-
किसी भी पुरुष के चरित्र की प्रधानता उसके शील आचरण से प्रकट होती है। जिसका शील नष्ट हो गया उसकी जीवन, धन और बंधुओं से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय-पाश्चात्य संस्कृति के चलते हमारे देश में विवाहित पुरुषों में रोमांटिक भाव ढूंढा जाता है। अपनी पत्नी से प्रेम करने वाले को नहीं बल्कि दूसरी जगह मुंह मारने वाले को रोमांटिक कहना एक तरह से समाज में शीलहीनता को प्रोत्साहन देना है। इतिहास गवाह है कि रंगीन मिजाज राजाओं ने न केवल अपने सिंहासन गंवायें बल्कि इतिहास ने उनको खलनायक के रूप में स्थापित किया। एक बात याद रखें कि आज भी हमारे देश के लोगों के हृदय नायक भगवान श्रीराम हैं और यह केवल इसलिये कि उन्होंने जीवन भर ‘एक पत्नी व्रत’ को निभाया। उनके नाम से ही लोगों के हृदय प्रफुल्लित हो उठते हैं।
जब आदमी के पास धन, पद और प्रतिष्ठा आती है तो वह उसका दोहन करने के लिये लालायित होता है और ऐसे में काम की प्रेरणा से वह परिवार के बाहर की स्त्रियों की तरफ आकर्षित होता है। उस समय वह दूसरी लाचार और बेबस स्त्रियों को शोषण भी करते हुए भले ही गौरवान्वित अनुभव करता हो पर सच यही है कि उसकी रंगीन मिजाजी की चर्चा उसकी छवि खराब करती है।
अधिकतर पुरुष भले ही ऐसे काम छिपकर करते हैं और प्रमाण के अभाव में उनकी चर्चा भले ही उनको बचाये रखती है पर जब मामला सार्वजनिक हो जाये तो फिर वह पुरुष चरित्रहीन मान लिया जाता है। अगर ऐसा न होता तो जो पुरुष ऐसे काम करते हैं अपनी रंगीन मिजाजी सरेआम दिखाते। अधिकतर पुरुष उसे इसलिये छिपाते हैं क्योंकि पोल खुल जाने पर उनके पुरुषत्व की चर्चा उन्हें लोकप्रिय नहीं बल्कि उनका सार्वजनिक रूप से मजाक बनाती है। सच बात तो यह है कि अपने पर नियंत्रण करना ही पुरुषत्व का सबसे अधिक मजबूत प्रमाण माना जाता है। यह केवल भारत में हीं उन पश्चिमी देशों में भी है जहां खुला समाज है। वहां के शिखर पुरुष भी अपनी रंगीनियां छिपाते हैं।

जब कामी और रंगीन तबियत के लोगों की पोल खुलती है तो वह कहीं के नहीं रहते। अपने जीवन में उनको संकट का सामना तो करना ही पड़ता है और धन से प्राप्त प्रतिष्ठा भी जाती रहती है। उससे बुरा यह होता है कि परिवार के सदस्य भी उससे नफरते करते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि यह रंगीन मिजाजी पुरुष को पतन के गर्त में ले जाती है।
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Monday, December 28, 2009

विदुर नीति-योगासन से विद्या और ज्ञान की रक्षा संभव (yogasan se gyan ki raksha-hindu dharm sandesh)

पर्जन्यनाथाः पशवो राजानो मन्त्रिबान्धवाः।।
पतयो बान्धवा स्त्रीणां ब्राह्मण वेदबान्धवा।।
हिन्दी में भावार्थ-
पशुओं के सहायक बादल, राजाओं के सहायक मंत्री, स्त्रियों के सहायक पति के साथ बंधु और विद्वानों का सहायक ज्ञान है।
सत्येन रक्ष्यते धर्मो विद्या योगेन रक्ष्यते।
मृजया रक्ष्यते रूपं कुलं वृत्तेन रक्ष्यते।।
हिन्दी में भावार्थ-
सत्य से धर्म, योग से विद्या, सफाई से सुंदरता और सदाचार से कुल की रक्षा होती है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जीवन में ज्ञान का होना जरूरी है अन्यथा हम अपने पास मौजूद व्यक्तियों, वस्तुओं तथा उपलब्धियों का सही उपयोग नहीं कर सकते। एक बात याद रखना चाहिये कि हमारे साथ जो लोग होते हैं उनका महत्व होता है।  अंधेरे में तीर चलाने से कुछ नहीं होता, इसलिये जीवन के सत्य को समझ लेना चाहिये। राजाओं के सहायक मंत्री होते हैं। इसका आशय साफ है कि अपने मित्र और सलाहकार के चयन में हर आदमी को सतर्कता बरतना चाहिये।

स्त्रियों की स्वतंत्रता बुरी नहीं है पर उन्हें यह समझ लेना चाहिये कि उनकी रक्षा उसके परिवार के पुरुष सदस्य ही कर सकते हैं।  उनको बाहर के व्यक्तियों से यह अपेक्षा नहीं करना चाहिये कि वह उनकी रक्षा करेंगे भले ही चाहे वह कितना भी दावा करें।  हम अक्सर ऐसी वारदातें देखते हैं जिसमें स्त्रियों के साथ धोखा होता है और इनमें अधिकतर उनमें अपने ही  लोग होते हैं। इनमें भी अधिक संख्या उनकी होती है  जो परिवार के बाहर के होने के बावजूद उनसे निकटता प्राप्त करते हैं।  स्त्रियों के मामले में यह भी दिखाई देता है कि उनके साथ विश्वासघात अपने ही करते हैं पर इनमें अधिकतर संख्या  उन लोगों की होती है जो बाहर के होने के साथ  अपने बनने का नाटक हुए   उनको धर्म और चरित्र पथ से भ्रष्ट भी करते हैं।
हम लोगों का यह भ्रम होता है कि बादल हमारे लिये बरस रहे हैं।  जब बादल नहीं बरसते तब तमाम तरह के धार्मिक कर्मकांड किये जाते हैं। बरसते हैं तो धर्म के ठेकेदार अनेक प्रकार के दावे करते हैं जबकि सच्चाई यह है कि बादल धरती पर स्थित पेड़ पौद्यों तथा पशुओं के रक्षक हैं और इसलिये उनका तो बरसना ही है।
आजकल भारतीय योग साधना का प्रचार हो रहा है। दरअसल यह योग साधना न केवल स्वास्थ्य के लिये उपयुक्त है बल्कि उससे हमारी विद्या तथा ज्ञान की रक्षा भी होती है। इसलिये जो लोग चाहते हैं कि उनके बच्चे प्रतिभाशाली हों उन्हें चाहिये कि वह इसके लिये उनको प्रेरित करें।  आजकल कठिन प्रतियोगिता का समय है और ऐसे में योग साधना ही एक ऐसा उपाय दिखती है जिससे उनकी प्रतिभा को सोने जैसी चमक मिल सकती है। 

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Sunday, December 27, 2009

श्री गुरुग्रंथ साहिब-कुटिल लोगों की विपत्ति में सहानुभूति जताना व्यर्थ (kutil admi se sahanubhuti n dikhayen-shri guru granth sahib)

‘जिना अंतरि कपटु विकार है तिना रोइ किआ कीजै।’
हिन्दी में भावार्थ-
श्री गुरु ग्रंथ साहिब के अनुसार जिन लोगों के मन में कपट भरा है उनकी विपत्ति में उनसे सहानुभूति जताना व्यर्थ है।
‘हिरदै जिनके कपटु बाहरहु संत कहाहि।
तृस्ना मूलि न चुकई अंति गए पछुताहि।।
हिन्दी में भावार्थ-
श्री गुरु ग्रंथ साहिब के अनुसार जो संत होने का दिखावा करते हैं वस्तुतः उनके हृदय में कपट भरा होता है जिसके कारण उनकी तृष्णा कभी शांत नहीं होती। अंतकाल में ऐसे लोगों को पछताना पड़ेगा।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्य मन में कपट रखकर दूसरों से सहानुभूति की आशा करता है। अपना काम निकालने के लिये मीठा बोलना या दूसरे से झूठा वादा करना और फिर मुकर जाना मनुष्य के लिये क्लेश का कारण बनता है। अगर हम अपने पौराणिक ग्रंथों का अध्ययन करने के बाद अपने समाज की स्थिति पर नजर डालें तो यह तथ्य सामने आता है कि अधिकतर लोगों का व्यवहार कपटपूर्ण हो गया है। खास तौर से बड़े स्तर पर बैठे लोग छोटे लोगों के साथ कपट, चालाकी तथा बेईमानी का व्यवहार कर उनका दोहन करते हैं।
हम आज पूरे विश्व समुदाय में जो अशांति देख रहे हैं वह ऐसे ही कपटपूर्ण व्यवहार का परिणाम है। कहीं मजदूरों, कामगारों तथा छोटे व्यवसायियों से अभद्र व्यवहार की तो कहीं स्त्रियों के दैहिक शोषण से अनेक समाचार आते रहते हैं। दरअसल सभ्रांत वर्ग ने कपटपूर्ण व्यवहार को राजनीति का नाम दिया है। जो कपटपूर्ण तथा अहंकार का व्यवहार करता है उसे ‘पहुंच वाला’ माना जाता है। ‘कौटिल्य का अर्थशास्त्र’ की जगह ‘कुटिलता का अर्थशास्त्र’ सभी जगह काम कर रहा है। कुटिलता और कपट को ‘दृढ चरित्र’ का प्रमाण मानना पूरे विश्व समुदाय के लिये आत्मघाती साबित हो गया है। वैसे देखा जाये तो जितनी कुटिलता जिसमें अधिक है वही अधिक प्रगति करता है और यही कारण है कि बड़े लोगों से कोई हादसा होने से उनके प्रति लोगों की वैसी सहानुभूति भी नहीं रहती जैसे कि पहले रहती थी। बल्कि बड़े लोगों की बदनाम या उनसे हादसे पर लोग उनके प्रतिकूल ही टिप्पणियां देकर इस बात को प्रमाणित करते हैं कि वह इस आधुनिक प्रचार माध्यमों से सभी की कुटिलता जान चुके हैं भले ही उनके सामने व्यक्त नहीं करते। सच है कि कुटिल लोगों से सहानुभूति जताना अपने आपको ही कष्ट पहुंचाना है।
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Saturday, December 26, 2009

भर्तृहरि शतक-ज्ञानियों का उद्देश्य व्यापक होता है (gyaniyon ka uddeshya-hindu dharam sandesh)

सवल्पस्नायुवशेषमलिनं निर्मासमप्यस्थिगोः श्वा लब्ध्वा परितोषमेति न तु तत्तस्य क्षुधाशान्तये।

सिंहो जम्बुकंकमागतमपि त्यकत्वा निहन्ति द्विपं सर्वः कृच्छ्रगतोऽप वांछति जनः सत्तवानुरूपं फलम्।।

हिन्दी में भावार्थ-
जिस तरह कुत्ता थोड़े रस और चरबी वाली हड्डी पाकर प्रसन्न हो जाता है किन्तु सिंह समीप आये भेड़िए को छोड़कर भी हाथी के शिकार की मानता करता है। हाथी का शिकार करने पर ही उसे संतुष्ट प्राप्ति होती है।

यद चेतनोऽपिपादैः स्पृष्टः प्रज्वलित सवितुरिनकान्तः।

तत्तेजस्वी पुरुषः परकृत निकृतिं कथं सहते?।।

हिन्दी में भावार्थ-
जैसे सूर्य की किरणों से जड़ सूर्यकांतमणि जल जाती वैसे ही चेतन और जागरुक पुरुष भी दूसरे लोगों के अपमान को सहन न कर उसका प्रतिकार करते हैं।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हर व्यक्ति अपनी क्षमता और बुद्धि के अनुसार अपने लक्ष्य तय करता है। जिन लोगों की  अध्यात्मिक ज्ञान में रुचि नहीं होती वह केवल धन और माया के फेर में ही अपना जीवन व्यतीत करते हैं। दान, धर्म परोपकार तथा सभी जीवों के प्रति उदारता के भाव का उनमें अभाव होता है। उनका एक ही छोटा लक्ष्य होता है अधिक से अधिक धन कमाना।  इसके विपरीत जो ज्ञानी और बुद्धिमान पुरुष होते हैं वह सांसरिक कार्य करते हुए न केवल अध्यात्मिक ज्ञान तथा सत्संग से अपने हृदय की शांति का प्रयास करते हैं तथा  साथ ही दान और परोपकार के कार्य कर समाज को भी संतुष्ट करते हैं।  उनका लक्ष्य न केवल धन कमाना बल्कि धर्म कमाना भी आता है।  उनकी रुचि अपने नियमित व्यवसायिक कार्यों के अलावा ज्ञान अर्जित करना भी होती है।  देखा जाये तो धन तो हरेक कोई कमा रहा है। हर कोई खर्च भी करता है पर फिर भी कुछ लोग अपने व्यवहार की वजह से समाज में लोकप्रिय होते हैं और कुछ अपने स्वार्थों के कारण बदनाम हो जाते हैं।

अक्सर वार्तालाप में लोग एक दूसरे को अपमानित करते हैं। यह अच्छी बात नहीं है।  एक बात याद रखें कि कोई व्यक्ति अगर अपमानित होकर चुप हो गया तो यह नहीं समझ लेना चाहिये कि वह डर गया।  हो सकता है कि वह आंतरिक रूप से गुण धारण करता हो और समय आने पर अपना बदला ले।  तेजस्वी पुरुष ज्ञानी होते हैं। अपमानित किये जाने पर समय और हालात देख चुप हो जाते हैं पर समय आने पर अपने विरोधी को चारों खाने चित्त करते हैं।  यह बात भी याद रखने लायक है कि यह प्रक्रिया केवल तत्वज्ञानियों द्वारा ही अपनायी जा सकती है।  अल्पज्ञानी तो थोड़ी थोड़ी बात पर उत्तेजित होकर अपने गुस्से को ही नष्ट करते हैं जबकि ज्ञानी समय आने पर अपने तेज को प्रकट करते हैं।  इसलिये अपने संपर्क में आने वाले व्यक्तियों के गुण अवगुण देखकर व्यवहार करना चाहिए। 

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Friday, December 25, 2009

मनुस्मृति-झूठ बोलने वाले को आठ गुना अधिक दंड दें (jhooth bolne vale ko saja-manu smruti)

 तुलामान प्रतीमान सर्व एव स्यात्सुरक्षितम्।

षट्स षट्स च मासेषु पुनेरव परीक्षयेत्।।

हिन्दी में भावार्थ
-
शासन को चाहिये कि वह प्रत्येक छह महीने में तुला तथा तौल से जुड़ी अन्य वस्तुओं की जांच करवाये।

शुल्कस्थानं परिहन्नकाल क्रयविक्रयी।

मिथ्यावादी संस्थानैदाप्योऽष्टगुणमत्ययम्।।

हिन्दी में भावार्थ-
यदि कोई आदमी शुल्क की चोरी करता है, छिपा कर चोरी की वस्तुओं का व्यापार करता है अथवा मोल भाव करते हुए झूठ बोलने के साथ माप तौल में गड़बड़ी करता है तो उससे बचाऐ हुए धन का छह गुना और झूठ बोलकर बचाऐ हुए धन का आठ गुना दंड के रूप में लेना चाहिए।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय  व्याख्या-समाज में झूठ के आधार पर व्यापार करने वालों की कमी नहीं रही कम से कम मनुस्मृति पढ़ने से यह तो पता लग ही जाता है। हां, पहले सजा कड़ी होने के साथ ही राजकीय कर्मचारियों की तत्परता और प्रतिबद्धता के कारण आदमी अपराध करने से घबड़ाता था। आजकल यह भय खत्म हो गया है।  संविधान, राज्य और धर्म के प्रति राजकीय कर्मचारियों और अधिकारियों की ही नहीं समाज की भी प्रतिबद्धता सतही रह गयी है।  यही कारण है कि लोग सरेआम कम तौलने के साथ मिलावट भी कर रहे हैं।   यह खुलेआम हो रहा है और शासन ही क्या लोग खुद भी  सक्रिय होना तो दूर जागरुक तक नहीं है। उनके सामने सामान कम तुल रहा है, व्यापारी झूठ बोल रहा है और भाव में बेईमान की जा रही है पर वह कह नहीं पाता। सच बात तो यह है कि अगर आप वस्तुओं की उपलब्धता का पैमाना देखें तो यह महंगाई अर्थशास्त्र के मांग आपूर्ति के नियम की अपेक्षा जमाखोरी और कालाबाजारी से अधिक प्रेरित दिखती है।  अनेक लोग अपने यहां गैस सिलैंडर की तौल कम आने की आशंका जताते हैं पर उसे रोकने के लिये स्वयं कोई कदम नहीं उठाते।  दूध, घी तथा खाद्य पेय पदार्थों में मिलावट की बात सरेआम होती दिखती है पर उसे शासन तो तब रोके जब लोग स्वयं ही जागरूक हो। सभी इसी इंतजार में रहते हैं कि कोई दूसरा प्रयास करे और हम तो आराम से रहें।
भारतीय अध्यात्मिक ग्रंथों का ज्ञान लोगों को है नहीं और फिर समाज ने ऐसी व्यवस्था स्वयं ही बनायी है जिसमें चाहे भी जिस ढंग से धन संपदा अर्जित की जाये उस पर कोई सवाल नहीं करता बल्कि लोग सम्मान करते हैं। यही कारण है कि विश्व में अध्यात्मिक गुरु कहलाने वाला यह देश भ्रष्टाचार और अपराधों में भी सभी का गुरु बन गया है।  अगर इस अव्यवस्था से बचना है तो तो हर नागरिक को स्वयं आगे बढ़ना होगा।


 

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Thursday, December 24, 2009

विदुर नीति-प्रजा को कष्ट दिये बिना राज्य कर वसूले (tax policy and public-hindu dharam sandesh)

यथा मधु समादत्ते रक्षन पुष्पाणि षट्पदः।

तदभ्दर्थान्मननुष्येभ्य आदद्यादिवहिंसया।।

हिन्दी में भावार्थ
-जिस तरह भौंरा फूलों की रक्षा करता हुआ ही उनके रस का स्वाद लेता है वैसे ही राज्य को चाहिये कि वह प्रजाजनों को कष्ट न देते हुए ही उनसे धन वसूले।

पुष्पं पुष्पं विचन्यीत मूलच्छेदं न कारयेत्।

मालाकार इवरामे न यथांगरकारकः।।

हिन्दी में भावार्थ-
जिस प्रकार माली अपने बगीचे से पेड़ की जड़ को काटे बिना एक एक कर फूल तोड़ता है वैसे ही राजा को चाहिये कि उनकी रक्षा करते हुए उनसे कर वसूले। कोयला बनाने वाले की तरह जड़ नहीं काटना चाहिये।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हमारे प्राचीन ग्रंथों में अर्थशास्त्र और राजनीति शास्त्र को लेकर उच्च कोटि की विषय सामग्री है पर हमारे देश में अंग्रेजों की शिक्षा प्रणाली के चलते उनका अध्ययन नहीं किया जाता है।  अग्रेजों की नीति रही है कि फूट डालो और राज्य करो। दूसरा यह कि जिस सीढ़ी के सहारे सत्ता के शिखर पर चढ़ो उसे गिरा डालो। भले ही अंग्रेजों ने पूरे विश्व पर अपनी ताकत पर राज्य किया पर पर वह सिमट भी गया।  इसके विपरीत भारत भले ही टुकड़ों में बंटा था पर यहां फिर भी धाार्मिक तथा वैचारिक एकता रही। करों को लेकर हमारे देश की व्यवस्था की अक्सर आलोचना होती है।   चूंकि अंग्रेजों ने यहां अपनी व्यवस्था थोपी और फिर उनकी शिक्षा पद्धति से पढ़े लोग ही यहां के नीति निर्धारक बनते हैं तो इसलिये वह अब भी चल रही है।

सच बात तो यह है कि हमारे देश में कर एक अधिकार की तरह वसूल किये जाते हैं। जिसका परिणाम यह है कि प्रशासकीय व्यवस्था में लगे लोग कर तो वसूल करते हैं पर जनकल्याण पर ध्यान नहीं देते।  जलकल्याण करना उनके लिये अपनी इच्छा पर निर्भर हो गया है।  इससे देश में जो अव्यवस्था फैली है उस पर अधिक चर्चा करने बैठें तो पूरा ग्रंथ लिखना पड़ेगा। बड़े स्तर पर तो छोड़िये छोटे स्तर पर राजकीय कर्मचारी अपने अधिकारों को लेकर अकड़ते हैं। प्रजा की सेवा करने में अपनी हेठी समझते हैं।  इसका कारण यही है कि राज्य को सेवा नहीं बल्कि अधिकार का विषय बना दिया गया है।  सच बात तो यह है कि जब तक हमार देश अपने प्राचीन धर्मग्रंथों में वर्णित राजनीति और आर्थिक नीतियों पर नहीं चलेगा यहां की व्यवस्था सुधार होने की संभावना नहीं लगती।


 

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Wednesday, December 23, 2009

विदुर नीति-दोषदृष्टि से रहित बुद्धि ही पवित्र होती है (doshdrishti rahit buddh-hindu dharm sandesh)

अन्नसूयुः कुतप्रज्ञः शोभनान्याचरन् सदा।
न कृच्छ्रम् महादाप्नोति सर्वत्र च विरोचते।।
हिन्दी में भावार्थ-
जिसकी बुद्धि दोषदृष्टि से रहित है वह मनुष्य सदा ही पवित्र और शुभ करता हुआ जीवन में महान आनंद प्राप्त करता है। जिससे उसका अन्य लोग भी सम्मान करते हैं।
प्रज्ञामेवागमयति यः प्राज्ञेभ्यःस पण्डितः।
प्राज्ञो ह्यवापप्य धर्मार्थौं शक्नोति सुखमेधितम्।।
हिन्दी में भावार्थ-
नीति विशारद विदुर जी के मतानुसार जो मनुष्य बुद्धिमानों की संगत कर सद्बुद्धि प्राप्त करता है वही पण्डित है। बुद्धिमान पुरुष ही धर्म और अर्थ को प्राप्त कर अनायास ही अपना विकास करता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इस जीवन का रहस्य वही समझ सकते हैं जिनकी बुद्धि दूसरे में दोष नहीं देखती। जीवन भर आदमी सत्संग सुने या ईश्वर की वंदना करे पर जब तक उसमें ज्ञान नहीं है तब तक वह भी यह जीवन प्रसन्नता से व्यतीत नहीं कर सकता। सच बात तो यह है कि जैसी अपनी दृष्टि होती है वैसा ही दृश्य सामने आता है और वैसी ही यह दुनियां दिखाई देती है। इतना ही नहीं जब हम किसी में उसका दोष देखते हैं तो वह धीरे धीरे हम में आकर निवास करने लगता है। जब हम अपना समय दूसरो की निंदा करते हुए बिताते हैं तो यही काम दूसरे लोग हमारी निंदा करते हुए करते हैं। यही कारण है कि अक्सर लोग यही कहते हैं कि ‘इस संसार में सुख नहीं है।’
सच्चाई तो यह है कि इस संसार में न तो कभी सतयुग था न अब कलियुग है। यह बस बुद्धि से देखने का नजरिया है। जिन लोगों की बुद्धि दोष रहित है वह प्रातःकाल योगसाधना, ध्यान तथा मंत्रोच्चार करते हुए अपना दिन प्रारंभ करते हैं। उनके लिये वह काल स्वर्ग जैसा होता है। मगर जिनकी बुद्धि दोषपूर्ण है वह सुबह उठते ही निंदात्मक विचार व्यक्त करना प्रारंभ कर देते हैं। कई लोग तो प्रातःकाल ही चीखना चिल्लाना प्रारंभ करते हैं और उनको भगवान के नाम जगह अपने कष्टों का जाप करते हुए सुना जा सकता है। सुबह उठते ही अगर मनुष्य में प्रसन्नता का अनुभव न हो तो समझ लीजिये वह नरक में जी रहा है। यह तभी संभव है जब आदमी अपनी बुद्धि को पवित्र रखते हुए दूसरे में दोष देखना बंद कर दे।
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Tuesday, December 22, 2009

श्रीगुरुग्रंथ साहिब संदेश- हृदय में धारण किये बिना राम नहीं मिलते (ram ka nam-shri gurugranth sahib)

‘राम-राम करता सभ जग फिरै, राम न पाया जाये।
गुरु कै शाब्दि भेदिआ, इन बिध वसिआ मन आए।।’
हिन्दी में भावार्थ-
श्री गुरु ग्रंथ साहिब के अनुसार केवल जीभ से राम का नाम लेने से परमात्मा प्राप्त नहीं होते जब तब गुरुओं के शब्द ज्ञान से विधिपूर्वक उनको अपने दिल में न बसाया जाये। गुरु के द्वारा प्राप्त ज्ञान ही परमात्मा के भेद का पता सकता है।
‘दुर्लभ देह पाई बड़भागी।
नाम न जपहि ते आत्मघाती।
हिन्दी में भावार्थ-
श्री गुरु ग्रंथ साहिब के अनुसार परमपिता परमात्मा की कृपा से ही यह मनुष्य यौनि मिली है और जो उसका नाम नहीं लेता वह एक तरह से आत्मघाती है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अगर हम अपने देश के लोगों की दिनचर्या का देखें तो भगवान का नाम जितना यहां लिया जाता है अन्यत्र कहीं दिखाई नहीं देगा। अनेक लोगों को यहां धर्म के नाम पर होने वाले सार्वजनिक कार्यक्रम बहुत गौरव का प्रतीक लगते हैं। जबकि हमारे समाज का यह कालापक्ष भी है कि हमारे देश का भ्रष्टाचार की दृष्टि से विश्व में बहुत ऊंचा स्थान है। इतना ही नहीं विवाह जैसे पवित्र संस्कार में खुलेआम दहेज का लेन देन होता है। अगर आप बड़ी राशि में दहेज लेने और देने वालों पर दृष्टिपात करें तो यकीनन वह पैसा उनके पास एक नंबर से नहीं आया होता। देश का पूरा समाज पैसे की दौड़ में केवल इसलिये नहीं शामिल कि उसे रोटी खाना है बल्कि इसके पीछे सोच यही होती है कि अधिक पैसा है तो बेटे की शादी में अच्छा दहेज मिले ओर अगर बेटी है तो उसका बड़े घर में विवाह करवायें। यह दहेज रूपी भ्रष्टाचार समाज का एक बहुत बड़ा हिस्सा है। कहने का तात्पर्य यह है कि लोग धर्म और समाज के नाम पर दिखावा करते हैं। सच तो यह है कि दिखावे की भक्ति बहुत है। लोग जुबान से खाली नाम लेकर यह समझते हैं कि भगवान पर अहसान किया।

धर्म,अध्यात्म तथा भक्ति का सही ज्ञान लोगों को नहीं है। यह सच है कि अध्यात्मिक अभ्यास और भक्ति नितांत एकाकी प्रक्रिया है पर उससे जो ज्ञान और शक्ति हमें प्राप्त हो उसे दूसरे भी लाभान्वित हों-यह आवश्यक है। इसके विपरीत लोग सार्वजनिक रूप से अध्यात्मिक अभ्यास तथा भक्ति का दिखावा करते हुए केवल प्रतिष्ठा अर्जित करने के लिये प्रयास करते हैं। अतः यह जरूरी है कि भगवान का नाम लेने के साथ ही उसके स्वरूप और गुणों को हम अपने अंतर्मन में स्थापित करें।
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Monday, December 21, 2009

श्रीगुरु ग्रंथ साहिब से-ईमानदारी से ही व्यापार बढ़ता है (imandari aur vyapar-shri guru granth sahib)

‘सच्चा साहु सचो वणजारि। सचु वणंजहि गुर हेति अपारे।।
सचु विहाझहि सचु कमावहि सचो सचु कमावणआ।।
हिन्दी में भावार्थ-
श्री गुरुग्रंथ साहिब के अनुसार जो मनुष्य धर्म के मार्ग का अनुसरण करते हुए ईमानदारी से कमाई करता है उसका व्यापार हमेशा बढ़ता है और उसकी सच्चाई को सारा समाज सराहता है।
‘चोर जार जूआर पीढ़ै घाणीअै।’
हिन्दी में भावार्थ-
श्री गुरुग्रंथ साहिब के अनुसार चोर और जुआरी घानी में पीसे जाने योग्य होते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हमारे देश में व्याप्त भ्रष्टाचार की समस्या अकेली नहीं है बल्कि कठिनाई इस बात की है कि देश में हालत ऐसे बना दिये गये हैं कि ईमानदारी से काम करने वाले को अधिक धन कमाने का अवसर ही नहीं मिलता। नौकरी, व्यवसाय, कला, साहित्य तथा अन्य व्यवसायिक क्षेत्रों में बेईमानी, चाटुकारिता तथा ढोंग को आश्रय मिल रहा है। यही कारण है कि देश भले ही अन्य देशों के मुकाबले धनी हो रहा है पर फिर भी यहां गरीबी भी बढ़ रही है। सच बात तो यह है कि बिना बेईमानी, भ्रष्टाचार और धोखाधड़ी के शायद ही कोई अमीर बन पाता हो। इतना ही नहीं जिस धर्म को लेकर हम गर्व करते हैं उसकी आड़ जितने अधर्म के काम होते हैं शायद किसी अन्य में नहीं होते।
लोगों की हालत भी यह है कि वह धनी होने पर ही कलाकार, लेखक, ज्ञानी, तथा समाज सेवक मानते हैं। भ्रष्टाचार ऊपर से आता है यह सच है पर नीचे उसे प्रश्रय कौन दे रहा है यह भी देखने वाली बात है। आम आदमी यह जानते हुए भी बेईमानी से धनी बने व्यक्ति का सम्मान करता है भले ही वह कितना भी भ्रष्ट और अधर्मी क्यों न हो?
देश में अधर्म के कारण धन बढ़ रहा है पर कुल व्यापार देखें तो जस का तस है’-यानि देश में गरीब और असहाय तबका वहीं का वहीं है। यह देश के लिये शर्म की बात है कि जहां देश के विश्व में आर्थिक महाशक्ति होने के दावे हो रहे हैं वहीं चालीस प्रतिशत लोग ऐसे हैं जिनको शुद्ध खाना तो दूर अन्न का दाना तक नसीब नहीं है। एक तरह से देश का व्यापार वहीं का वहीं है जहां पहले था। अगर धर्म के सहारे धन कमाने वालों को प्रोत्साहन दिया जाये तभी इस स्थिति से उबरा जा सकता है।
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Sunday, December 20, 2009

विदुर नीति-शरीर रूप रथ की बुद्धि होती है सारथी (vidur niti-sharir hai rath aur buddhi sarthi)

रथः शरीरं पुरुषस्य राजन्नात्मा नियंन्तेनिद्रयाण्यस्य चाश्वाः।
तैरप्रमतः कुशली सवश्वैर्दान्तैः सुखं याति रथीव धीरः।।
हिन्दी में भावार्थ-
नीति विशारद विदुर जी के अनुसार मनुष्य की देह रथ की तरह और बुद्धि उसकी सारथी है। इंद्रियां घोड़े की तरह उसमें जुती हुई हैं। इन घोड़ों को अपनी बुद्धि के कौशल से जो बस में करता है वही अपनी इस देह रूप रथ से जीवन की यात्रा सुख से तय करता है।
अनर्थमर्थतः पश्यन्नर्थ चैवाप्यनर्थतः।
इन्द्रियैरजितैबांलः सुदुःखं मन्यते सुखम्।।
हिन्दी में भावार्थ-
इंद्रियां वश में न होने पर अज्ञानी मनुष्य अर्थ को अनर्थ तथा अनर्थ को अर्थ समझकर भारी कष्ट को भी सुख मान बैठता है।
वर्तमान संदर्भ में सम्पादकीय व्याख्या-जब हम अपने कर्तापन के अहंकार को त्यागकर अपने जीवन को दृष्टा की तरह देखेंगे तभी यह समझ पायेंगे कि हमारी देह का संचालन मन, बुद्धि और अहंकार किस तरह करते हैं। इंद्रियां स्वयमेव संचालित है पर उनका मार्गदर्शन बुद्धि के द्वारा ही होता है। यही बुद्धि उनको ऐसे कामों में लगाती है जिनका परिणाम दिखने में तात्कालिक रूप से लाभकर लगता है पर कहीं न कहीं उसका प्रभाव बुरा पड़ता है। आजकल मनोरंजन के नाम पर चहुं और असत्य और कल्पना को परोसा जा रहा है जिसे देखकर लोग भावनाओं के उतार चढ़ाव के साथ चलते हैं जो उनके मस्तिष्क को भारी कष्ट पहुंचाने वाली प्रक्रिया है। अमेरिका के एक विशेषज्ञ ने बताया है कि जो निरंतर रंगीन टीवी देखते हैं एक समय उनके नेत्रों की रंगों की पहचान करने की क्षमता क्षीण होती है। इससे यह समझा जा सकता है कि रंगीन टीवी पर रंगीन दृश्य देखकर सुखद अनुभूति होती है पर कालांतर में उसका परिणाम कितना बुरा होता है।
यही स्थिति आजकल के संगीत के बारे में भी कही जाती है। तेज आवाज लगातार सुनने से कानों की श्रवण शक्ति पर बुरा प्रभाव पड़ता है पर टीवी चैनल हों या रेडियो कानफाड़ूं संगीत चलाकर लोगों का मनोरंजन कर रहे हैं। सुनने वालों को शायद यह अच्छा भी लगता है पर शरीर पर होने वाले दुष्प्रभावों को कोई नहीं समझता। मन है तो मनोरंजन होगा पर उसके लिये अपने शरीर को हानि पहुंचे वह काम नहीं करना चाहिये। इसके लिये यह जरूरी है कि लोग अपनी बुद्धि का सदुपयोग करें। यही बुद्धि है जो कुशल सारथी हो सकती है बशर्ते हमारा संकल्प ऐसा हो।
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Saturday, December 19, 2009

विदुर नीति-यज्ञ, अध्ययन, दान और तप तो अहंकारवश भी किये जाते हैं (yagya, dan, tap aur adhyayan-vidur niti)

इन्याध्ययनदानादि तपः सत्यं क्षमा घृणा।

अलोभ इति मार्गोऽयं धर्मस्याष्टविधः समृतः।।

हिन्दी में भावार्थ-
नीति विशारद विदुर का कहना है कि यज्ञ, अध्ययन, दान, तप, सत्य, क्षमा, दया और अलोभ वह गुण है जो धर्म के मार्ग भी हैं।

तत्र पूर्वचतुर्वर्गो दम्भार्थमपि सेव्यते।

उत्तरश्च चतुर्वर्गो नामहात्मसु तिष्ठति।।

हिन्दी में भावार्थ-
इनमें पहले चार का तो अहंकार वश भी पालन किया जाता है जबकि आखिरी चार के मार्ग पर केवल महात्मा लोग ही चल पाते हैं।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-ऐसा नहीं है कि किसी मनुष्य में कोई गुण नहीं होता और न ही कोई बिना भला काम किये रह जाता है।  अलबत्ता उसकी मूल प्रकृत्ति के अनुसार ही उसके पुण्य या भले काम का मूल्यांकन भी होता है।  देखा जाये तो दुनियां के अधिकतर लोग अपने  धर्म के अनुसार यज्ञ, अध्ययन, दान और परमात्मा की भक्ति सभी करते हैं पर इनमें कुछ लोग दिखावे के लिये अहंकार वश करते हैं।  उनके मन में कर्तापन का अहंकार इतना होता है कि उसे देखकर हंसी ही आती है।  हमारे देश के प्रसिद्ध संत रविदास जी ने कहा है कि ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’ जिसका आशय यही है कि अगर हृदय पवित्र है तो वहीं भगवान का वास है।  लोग अपने घरों पर रहते हुए हृदय से परमात्मा का स्मरण नहीं कर पाते जिससे उनके मन में विकार एकत्रित होते हैं।  फिर वही लोग  दिल बहलाने के लिये पर्यटन की दृष्टि से धार्मिक यात्राओं पर जाते हैं यह दिखाने के लिये कि वह धार्मिक प्रवृत्ति के हैं।  फिर वहां से आकर सभी के सामने बधारते हैंे कि ‘मैंने यह किया’, ‘मैंने वह किया’ या ‘मैंने दान किया’-यह उनकी अहंकार की प्रवृत्ति का परिचायक है। इससे यह भी पता चलता है कि उनके मन का विकार तो गया ही नहीं।

इतना ही नहीं कुछ लोग अक्सर यह भी कहते हैं कि ‘हमारे धर्म के अनुसार यह होता है’, या ‘हमारे धर्म के अनुसार ऐसा होना चाहिये’।  इससे भी आगे बढ़कर वह खान पान, रहन सहन तथा चाल चलन को लेकर अपने धार्मिक ग्रंथों के हवाले देते हैं।  उनका यह अध्ययन एक तरह से अहंकार के इर्दगिर्द आकर सिमट जाता है।  सत्संग चर्चा होना चाहिये पर उसमें अपने आपको भक्त या ज्ञानी साबित करना अहंकार का प्रतीक है।  कहने का तात्पर्य यही है कि यज्ञ, अध्ययन, तप और दान करना ही किसी मनुष्य की धार्मिक प्रवृत्ति होने का प्रमाण नहीं है जब तक उसके व्यवहार में वह अपने क्षमावान, दयालु, सत्यनिष्ठ, और लोभरहित नहीं दिखता।  यह चारों गुण ही आदमी के सात्विक होने का प्रतीक हैं।


 

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Friday, December 18, 2009

संत कबीर वाणी-ऐसी जगह न जायें जहां मन दुःखी हो (vahan n jayen-hindu dharam sandesh)

कबीर तहां न जाइये, जहां कपट का हेत।

जानो कली अनार की, तन राता मन सेत।।


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि वहां कभी न जायें जहां कपट का प्रेम मिलता हो। ऐसे कपटी प्रेम को अनार की कली की तरह समझें जो उपरी भाग से लाल परंतु अंदर से सफेद होती है। कपटी लोगों का प्रेम भी ऐसा ही होता है वह बाहर तो लालित्य उड़ेलते हैं पर उनके भीतर शुद्ध रूप से कपट भरा होता है।

कबीर न तहां न जाइये, जहां जु नाना भाव।

लागे ही फल ढहि पड़े, वाजै कोई कुबाव।।

संत शिरोमणि कबीरदास का कहना है कि वह कभी न जायें जहां नाना प्रकार के भाव हों। ऐसे लोगों से संपर्क न कर रखें जिनका कोई एक मत नहीं है। उनके संपर्क से के दुष्प्रभाव से हवा के एक झौंके से ही मन का प्रेम रूपी फल गिर जाता है।

वर्तमान संदर्भ  में संपादकीय व्याख्या-जीवन में प्रसन्न रहने का यह भी एक तरीका है कि उस स्थान पर न जायें जहां आपको प्रसन्नता नहीं मिल जाती। कुछ लोग ऐसे होते हैं जो बाहर से तो बहुत प्रेम से पेश आते हैं जैसे कि उनका दिल साफ है पर व्यवहार में धीरे धीरे उनके स्वार्थ या कटु भाव दिखने लगता है तब मन में एक तरह से व्यग्रता का भाव पैदा होता है।  अनेक लोग अपने घर इसलिये बुलाते हैं ताकि दूसरे को अपमानित कर स्वयं को सम्मानित बनाया जा सके।  वह बुलाते तो बड़े प्यार से हैं पर फिर अपमान करने का मौका नहीं छोड़ते।  ऐसे लोगों के घर जाना व्यर्थ है जो मन को तकलीफ देते हैं वह चाहे कितने भी आत्मीय क्यों न हों? मुख्य बात यह है कि हमें अपने जीवन के दुःख या सुख की तलाश स्वयं करनी है अतः ऐसे ही स्थान पर जायें जहां सुख मिले। जहां जाने पर हृदय में क्लेश पैदा हो वहां नहीं जाना चाहिये।  उसी तरह ऐसे लोगों का साथ ही नहीं करना चाहिये जो एकमत के न हों। ऐसे भ्रमित लोग न स्वयं ही परेशान होते हैं बल्कि साथ वाले को भी तकलीफ देते हैं

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Sunday, December 13, 2009

चाणक्य नीति-ऊंचे स्थान पर बैठने से कोई महान नहीं हो जाता (mahan insan-hindu dharm sandesh)

गुणैरुत्तमतां याति नीच्चैरासनसंस्थिताः।
प्रासादशिखरस्थोऽपि काकः किं गरुडायते।।
हिन्दी में भावार्थ-
ऊंचे स्थान पर बैठने से कोई ऊंचा या महान नहीं हो जाता। गुणवान ही ऊंचा माना जाता। महल की अटारी पर बैठने से कौआ, गरुड़ नहीं कहलाने लगता है।
पर-प्रौक्तगुणो वस्तु निर्गुणोऽपि गुणी भवेत्।
इन्द्रोऽपि लघुतां याति स्वयं प्रख्यापितैर्गृणैः।।
हिन्दी में भावार्थ-
जिसके गुणों की प्रशंसा अन्य लोग भी करें उसका ज्ञान भले ही अल्प हो पर फिर भी उसे गुणवान माना जायेगा। इसके विपरीत जिसे ज्ञान में पूर्णता प्राप्त हो वह अगर स्वयं उनका बखान करे तो गुणहीन माना जायेगा भले ही वह साक्षात देवराज इंद्र ही क्यों न हो।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-आजकल की भौतिक दुनियां में संचार साधन अत्यंत प्रभावशाली हो गये हैं। अखबार, टीवी चैनल, मोबाईल, कंप्यूटर तथा अन्य साधनों से अधिकतर लोग जुड़े हुए हैं। अपनी व्यवसायिक बाध्यताओं के चलते प्रचार प्रबंधकों ने फिल्म, राजनीति, टीवी चैनल, साहित्य, कला, तथा पत्रकारिता में अनेक मिथक स्थापित कर दिये हैं। दुनियां भर में ऐसे मिथक एक दो हजार से अधिक नहीं होंगे। अपने ही देश में भी सौ दो सौ ऐसे अधिक प्रभावशाली नाम और चेहरे नहीं होंगे जो प्रचार माध्यमों में छाये हुए हैं। प्रचार माध्यम उनके चेहरे, नाम और बयान प्रस्तुत कर लोगों को व्यस्त रखते हैं। यह देखकर आजकल के अनेक युवा भ्रमित हो जाते हैं। उनको लगता है कि यह काल्पनिक चरित्र ही जीवन का सत्य है। राजनीति, अर्थतंत्र, प्रशासन, साहित्य, पत्रकारिता, फिल्म तथा कला के शिखर पर स्थापित लोग त्रिगुणमयी माया के गुणों से परे हैं-यह भ्रम पता नहीं कैसे लोगों में हो जाता है। जबकि सच यह है कि यह शिखर ही अपने आप में मायावी हैं इसलिये इन पर बैठे लोगों के सात्विक होने की आशा ही करना बेकार है। बाजार और प्रचार केवल उनके चेहरे, नाम और बयान भुनाने का प्रयास करते हैं। फिल्मों के कल्पित नायक सदी के महानायक और गायक सुर सम्राट कहलाते हैं पर सच यह है कि उनका कोई सामाजिक योगदान नहीं होता।
महान वही है जिसका कृत्य समाज में चेतना, आत्मविश्वास तथा दृढ़ता लाने का काम करता है। इतना ही नहीं उनका बदलाव लंबे समय तक रहता है। कहने का तात्पर्य यही है कि आर्थिक, सामाजिक तथा सामाजिक शिखरों पर विराजमान लोगों को महान समझने की गलती नहीं करना चाहिये। वह भी आम आदमी की तरह होते हैं। जिस तरह आम आदमी अपने परिवार की चिंता करता है वैसे ही वह करते हैं। महान आदमी वह है जो पूरी तरह से समाज की चिंता करते हुए उसे हित के लिये काम करता है।
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Friday, December 11, 2009

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-जिस पर कर्जा न हो उसी को राजकाज में नियुक्त करें (hindu dharm sandesh-rajkaj men karj rahit ko niyukt karen)

अभ्यस्तकम्र्मणस्तज्ज्ञान् शुचीन् सुझानम्मतान्।
कुय्र्यादुद्योगसम्पन्नानध्याक्षान् सर्वकम्र्मसु।।
हिन्दी में भावार्थ-
राज्य प्रमुख को चाहिये कि वह राजकीय कार्य के अभ्यास करने वाले, संबंधित कार्य विशेष का ज्ञान रखने वाले पवित्र तथा ऐसे लोगों को अपने विभागों का प्रमुख नियुक्त करे जिन पर किसी का कर्जा न हो।
जो यद्वस्तु विजानाति तं तत्र विनियोजयेत्।
अशेषविषयप्राप्तविन्द्रियार्थ इवेन्द्रियम्।।
हिन्दी में भावार्थ-
राज्य प्रमुख को चाहिये कि जो व्यक्ति संबंधित विषय का ज्ञाता हो उससे संबंधित विभाग और कार्य में ही उसे नियुक्त करे। जिस तरह समस्त इंद्रियां अपने गुणों में ही बरतती हैं वैसे ही किसी विषय में अनुभवी व्यक्ति ही अपने कार्य का निर्वाह सहजता से कर सकता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय-हमारे देश के विश्व में पिछड़े होने का कारण कुप्रबंध है। यह आश्चर्य की बात है कि हम आधुनिक अर्थशास्त्र के नाम पर पश्चिम का ही अर्थशास्त्र पढ़ते हैं जबकि हमारा कौटिल्य का अर्थशास्त्र भी वही बातें कह रहा है जिनको पश्चिमी अर्थशास्त्र अब बता पा रहे हैं। वैसे आधुनिक अर्थशास्त्री कहते हैं कि आर्थिक विशेषज्ञ को सभी विषयों को पढ़ना चाहिये सिवाय धर्मग्रंथों को। हमारे कौटिल्य महाराज को भी हमारे अध्यात्मिक ज्ञान का भाग माना जाता है। चूंकि अध्यात्म को धर्म का हिस्सा मान लिया गया है इसलिये कौटिल्य का अर्थशास्त्र का अध्ययन अधिक लोग नहीं करते।
आज देश में बड़ी बड़ी प्रबंधकीय, औद्योगिक तथा व्यवसायिक संस्थाओं को देखें तो वह अनेक ज्ञानी उच्चाधिकारी लोग काम रहे हैं। शिक्षा विज्ञान में मिली पर लेखा का काम रहे हैं। अनेक लोगों ने विज्ञान में शिक्षा प्राप्त की पर वह प्रबंध के उच्च पदों पर पहुंच गये हैं। अब प्रश्न यह है कि जिनको प्रबंध और लेखा का ज्ञान कभी नहीं रहा वह अपना दायित्व उचित ढंग से कैसे निभा सकते हैं। यही कारण है कि देश की प्रबंधकीय तथा औद्योगिक संस्थाओं में बड़े पदों पर लोग तो पहुंच गये हैं और काम करते भी दिखते हैं पर फिर भी इस देश कह प्रबंधकीय कौशल को लेकर कोई अच्छी छबि विश्व पटल पर नहीं दिखाई देती। सच बात तो यह है कि कार्य और पद योग्यता के आधार पर देना चाहिये पर यहां ऐसी शिक्षा के आधार पर यह सब किया जाता है जिसका फिर कभी जीवन में उपयोग नहीं होता न वह कार्यालयीन और व्यवसायिक निर्देशन के योग्य रहती है। ऐसे में सभी जगह कामकाज के स्तर में गिरावट के साथ ही असहिष्णुता का वातावरण बन गया है। बड़े पद पर बैठा व्यक्ति काम के ज्ञान के अभाव में कुंठा का शिकार हो जाता है और वह अपने मातहत के साथ आक्रामक व्यवहार कर अपने अज्ञान का दोष स्वयं से छिपाता है। वह अपने को ही यह विश्वास दिलाता है कि ‘आखिर वह एक उच्चाधिकारी है, जिसे काम करना नहीं बल्कि करवाना है।’ एक मजे की बात यह है कि कौटिल्य महाराज कहते हैं कि राजकाज में उसी व्यक्ति को नियुक्त करें जिस पर कर्जा न हो पर हम देख रहे हैं कि कम से कम इस व्यवस्था को अब तो कोई नहीं मान रहा। बाकी देश की जो हालात हैं उसे सभी जानते हैं।
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Sunday, December 6, 2009

संत कबीरदास वाणी-पांच तत्वों और तीन गुणों के आगे मुक्ति धाम (paanch tatva teen gun-hindu dharm sandesh)

पांच तत्व गुन तीन के, आगे मुक्ति मुकाम
तहां कबीरा घर किया, गोरख दत्त न राम
संत शिरोमणि कबीरदास कहते हैं कि पांच तत्वों और तीन गुणों से आगे तो मुक्ति धाम है। जहां हमने अपना घर बनाया है गोरख, दत्तात्रय और राम में कोई भेद नहीं रह जाता।
मैं लागा उस एक सों, एक भया सब माहिं।
सब मेरा मैं सबन का, तहां दूसरा नांहि।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि मैं तो केवल उस एक परमात्मा के साथ लगा हुआ था। वह सभी में समाया हुआ है। इसलिये मैं सभी का हूं और सब मेरे हैं। कोई दूसरा नहीं है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-संत कबीरदास जी न केवल हिन्दी भाषा के वरन् भारतीय अध्यात्म के सबसे पुख्ता स्तंभ माने जाते हैं। उनकी रचनायें न केवल भाषा वरन् अध्यात्मिक ज्ञान की दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। सबसे बड़ी बात यह कि उनके दोहों का अर्थ नहीं बल्कि भावार्थ समझने की आवश्यकता है। वह कहते हैं कि यह संसार पांच तत्वों प्रथ्वी, अग्नि, जल, आकाश और वायु से निर्मित हुआ है। इसका संचालन तीन गुणों-सात्विक, राजस तथा तामस-से ही होता है। सच तो यह है कि उन्होंने अपने दोहों में उस विज्ञान की चर्चा भी की है जो श्रीमद्भागवत गीता में बताया गया है। हम लोग अक्सर मेरा, मैं मुझे शब्दों के फेरे में पड़े रहते हैं और यह नहीं जानते कि यह देह तो पांच तत्वों से बनी हैं जिसमें परमात्मा से बिछड़ा आत्मा ही वास करता है। वही हम हैं और अगर दृष्टा की तरह अपनी देह को देखें तो पायेंगे कि हमारे रहन सहन तथा विचारों का आधार उसमें स्थित मन बुद्धि और अहंकार की प्रकृत्तियों से बनता है। खान पान तथा लोगों की संगत का हमारी देह पर बाहरी तथा आंतरिक दोनों दृष्टि से प्रभाव पड़ता है। आप देखिये जिस देह को हम आग पानी तथा वायु से बचाते हैं उसे अंत में जलाते है या फिर वह जमीन में गाढ़ दी जाती है। यह सब हमारे परिजन और सहयोगी देखते हैं पर क्या जीवित व्यक्ति के मामले में यह संभव है? यकीनन नहीं! इसका सीधा मतलब यह है कि आत्मा रूपी पंछी के निकल जाने के बाद यह देह एक बिना काम का पिंजरा रह जाता है जिसे दूसरा कोई रखना नहीं चाहता।
यहां अमर होकर कोई नहीं आया। इसके बावजूद लोग जीवन भर इस सत्य जानते हुए भी भ्रम में रहते हैं। कहने को तो कहा जाता है कि कि जीवन में कर्म तो करना ही है। यह सच भी है पर हमारे अध्यात्मिक दर्शन का मानना है कि उनमें लिप्त नहीं होना है। हमारे कर्म का परिणाम हमारे सामने आता है पर हम उसे समझ नहीं पाते। हम कर्तापन के अहंकार में यही सोचते हैं कि हमने यह और वह किया। हाथ, पांव,नाक,कान तथा अन्य इंद्रिया अपना काम कर रही हैं न कि हम! इन इंद्रियों का संचालन भी तीनों गुण ही करते हैं फिर इसमें हमारी यानि आत्मा की भूमिका कहां है? यह जगत मिथ्या है तो देह भी। अगर यह देह है तो इस जगत में कर्म भी करना है। हां, इसके साथ ही योगासन, प्राणायाम, ध्यान, तथा मंत्र जाप के साथ भक्ति भी करनी है ताकि हम अपनी आत्मा को देखकर पहचाने और जीवन में एक दृष्टा की तरह रहें। उससे जीवन का आनंद दोगुना हो जाता है।
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Saturday, December 5, 2009

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-समय पर अग्नि की तरह प्रज्जवलित हो जायें (samay aur aag-economics of kautilya ka arthshastra)

असत्यता निष्ठुरता कृताज्ञता भयं प्रमादोऽलसता विषादिता।

वृथाभिमानों ह्यतिदीर्घसूत्रतातथांनाक्षदिविनाशनंश्रियः।।

हिन्दी में भावार्थ
-
असत्य बोलने, निष्ठुरता बरतने, कृतज्ञता न दिखाने, भय, प्रमाद, आलस्य, विषाद, वृथा प्रयास, अभिमान, अतिदीर्घसूत्रता निरंतर  स्त्री समागम तथा पासे खेल से लक्ष्मी का विनाश होता है।

काले सहिष्णुगिंरिवदसहिश्णुश्चय वह्वित्।।

स्कन्धेनापि वहेच्छत्रन्प्रियाणि समुदाहरन्।।

हिन्दी में भावार्थ-
समय आने पर पर्वत के समान सहनशील और अग्नि के समान असहनशील हो जायें। समय पर मित्र के कंधे पर हाथ रखें तो शत्रु पर भी उसका प्रयोग करें।

वर्तमान समय में संपादकीय व्याख्या-जीवन में उतार चढ़ाव तो आते हैं। इन उतार चढ़ावों तथा अन्य घटनाक्रमों का अच्छा या बुरा परिणाम हमारे कर्म, विचार तथा  संकल्प के अनुसार ही प्राप्त होता है।  झूठ बोलने, क्रूरता का भाव रखने, दूसरे के उपकार का आभार न मानने, आलस्य करने वाले तथा थोड़े कष्ट में ही आर्तनाद करने वाले लोग अपनी लक्ष्मी का विनाश कर डालते हैं।  कुछ लोग तो ऐसे होते हैं जो छोटी छोटी बातों पर भयभीत हो जाते हैं।  अगर आज हम सभी तरफ राक्षसी वृत्तियों का शासन देख रहे हैं तो वह केवल इसलिये कि भले लोग भय के कारण निष्क्रिय हो गये हैं।  समाज अपने ही अध्यात्मिक ज्ञान से विमुख हो गया है। अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति का मोह तथा अभाव का भय उसे आशंकित किये रहता है। यही कारण है कि वह अपने समाज के प्रति एकता नहीं दिखाता या दिखाता है तो केवल तब तक जब शांति है और संकट आने पर हर कोई अपने घर में दुबक जाता है।  इतना ही नहीं दूसरे के उपकार सदाशयता तथा अनुसंधान का कोई आभार ज्ञापित नहीं करता। कृत्घनता चालाकी का प्रमाण मान ली गयी है।

मृत्यु तय है यह सभी जानते हैं पर उसका भय ऐसा है कि लोग मर मर की जीने को तैयार हैं।  नतीजा यह है कि कायरों पर महाकायर राज कर रहे हैं जो शीर्ष पर इसलिये पहुंचते हैं क्योंकि उनको भय रहता है कि अगर वहां नहीं रहे तो कोई भी उनको क्षति पहुंचा सकता है। कहने का तात्पर्य यह है कि अध्यात्मिक ज्ञान के बिना समाज पशुओं का समूह बन गया है।  कब मित्र से निभाना है या कब शत्रु पर प्रहार करना है इसका ज्ञान लोगों को नहीं रहा।  आत्म प्रवंचना करना तथा प्रशंसा पाने के मोह लोगों को चोर बना दिया है। वह दूसरे का धन, अविष्कार तथा विचार चुराकर अपने नाम से प्रस्तुत करते हैं।  कहने को समाज देवताओं को मानता है पर कृत्य दानवों जैसे हो गये हैं। मगर सभी लोग ऐसे नहीं है। यही कारण है कि आज भी यह समाज इतने सारे हमलों और दबावों के बाद जिंदा है। आज भी दानवीर, कर्मवीर तथा धर्मवीर हैं जो निष्काम कर्म में लिप्त रहते हुए निष्प्रयोजन दया करते हैं।



 

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Sunday, November 29, 2009

चाणक्य नीति-लोभी को धन दें तथा हठी को हाथ जोड़ें (lobhi aur hathi se bachen-chanakya niti)

लुब्धमथेंन गृह्णीयात् स्तब्धमंजलिकर्मणा।
मूर्ख छन्दोऽनृवृत्तेन यथार्थत्वेन पण्डितम्।।
हिंदी में भावार्थ-
नीति विशारद चाणक्य कहते हैं कि लोभी मनुष्य को धन देकर, हठी को हाथ जोड़कर, मूर्ख की इच्छा पूरी कर तथा बुद्धिमान को सही स्थिति बताकर अपने वश में किया जा सकता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-क्रोध या निराशा से जीवन में सफलता नहीं मिल सकती न ही केवल किसी की चाटुकारिता से कुछ मिलता है। जीवन में हमेशा रणनीति से काम करना चाहिये। वैसे तो अपने आसपास हमें लोभियों का समुदाय दिख ही रहा है। जिसे देखो वही अपने लिये धन जुटाना चाहता है। लोग इतना धन जुटा रहे हैं कि उनका पूरे जीवन में स्वयं उपयोग नहीं कर सकते पर फिर भी उनका मन नहीं भरता। अतः अपना काम करने पर किसी को पैसा देकर उसे करवाया जा सकता है। लोभ ने ही लोगों को मूर्ख बना रखा है अतः उनकी इच्छा पूर्ति कर ही उनसे काम निकाला जा सकता है। इसमें एक दूसरी समस्या है कि धन आने से लोगों में हठ आ जाता है। अपने समान वह किसी को कुछ नहीं समझते। अतः ऐसे लोगों से वाद विवाद करना भी ठीक है। वह कहते हैं कि ‘हम बड़े हैं’ तो उनसे बहस करने की बजाय हाथ जोड़कर उनकी बात स्वीकार कर लें। लोभियों मूर्खों तथा हठियों से बचना कठिन है क्योंकि उनका अस्तित्व सभी जगह है। ऐसे में अपने संपर्क बुद्धिमानों से अपने संबंध बनायें। अपने बुद्धिमान मित्रों को अपनी स्थिति से अवगत कराकर उनसे सलाह आदि लेना चाहिये। उनसे झूठ या मक्कारी करने अपने आपको धोखा देना है। इस तरह अगर जीवन में रणनीति से काम किया जाये तो क्रोध और निराशा से बचा जा सकता है।
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Saturday, November 28, 2009

मनुस्मृति-भ्रष्टाचारी के विरुद्ध कड़ी कार्यवाही करना चाहिए (manu smriti-bhrashtachar jaghnya apradh)

उपाधनिश्च यः कश्चित्परद्रव्यं हरेन्नरः।
न सहायः स हन्तव्यः प्रकाशंविविधैर्वधेः।।
हिंदी में भावार्थ-
जो राज्य कर्मचारी अपने आपको राज्य प्रमुख का प्रिय जताकर तथा राज्य कृपा का आश्वासन देकर प्रजा से धन लेता है उसे सभी के सामने अनेक प्रकार की यातनायें देकर मृत्यु दंड देना चाहिये।
यौ निक्षेपं नार्पयति यश्चानिक्षिप्य याचते।
तावुभौ चैरवच्चासयो दाप्यौ या तस्समं दभम्।।
हिंदी में भावार्थ-
किसी की धरोहर नहीं लौटाने वाले तथा बिना ही रखे उसे मांगने वालो को चोर के समान दंड देना चाहिये। धरोहर की राशि के बराबर ही उन पर दंड लगाना चाहिये।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-कहना कठिन है कि भ्रष्टाचार के लिये शायद संस्कृत में कोई पर्यायवायी शब्द नहीं है या फिर राज्य कर्मचारियों द्वारा प्रजा से अनावश्यक रूप से धन ऐंठने को भ्रष्टाचार से अधिक घृणित अपराध माना गया है जिसके कारण उसके लिये भारी संताप देने के बाद मृत्युदंड का प्रावधान है। यहां अपने देश में भ्रष्टाचार का बोलबाला है और भारतीय अध्यात्मिक दर्शन को शिक्षा पद्धति से दूर शायद इसलिये रखा गया है कि लोग प्राचीन भारत को न जान सकें जिसमें आचरण और वैचारिक दृढ़ता को बहुत महत्व दिया जाता है। मनुस्मृति में नारी तथा जाति विषय श्लोकों लेकर इसकी आलोचना करने वाले बहुत मिल जायेंगे पर इसमें भ्रष्टाचार के लिये जो सजा है उसकी कोई जानकारी नहीं देता। भ्रष्टाचार को एक मामूली अपराध की तरह लेना ही हमारे समाज के नैतिक पतन का परिचायक है। हालत तो यह है कि आदमी स्वयं कहीं ने अनाधिकार धन लेता है तो उसे वह अपनी मौलिक आय लगती है और अगर दूसरा करे तो भ्रष्टाचार नजर आता है। वैचारिक रूप से अक्षम हो चुके समाज को जगाने के लिये अनेक प्रकार के लोग अभियान चलाते हैं पर उनका ध्येय केवल नारे लगाकर अपनी उपस्थिति प्रचार माध्यमों के द्वारा दर्ज कराना होता है न कि बदलाव लाना।
एक सामान्य व्यक्ति अगर किसी की धरोहर को वापस नहीं करता या फिर बिना रखे मांगता है तो उस पर उसकी नियत राशि के बराबर जुर्माना किया जा सकता है पर जनता की धरोहर के रूप में प्राप्त धन का दुरुपयोग करने वाले राज्य कर्मचारियों को मामूली सजा नहीं बल्कि भारी पीड़ा देकर मौत जैसी सजा देने का प्रावधान करना इस बात का प्रमाण है कि मनुस्मृति की कुछ बातें आज भी प्रासंगिक हैं। अपने आपको राज्य का प्रिय बताकर या उसकी कृपा का आश्वासन देकर धन लेने वाले के लिये हत्या जैसे जघन्य आरोप की सजा देने का प्रावधान करने से तो यही जाहिर होता है कि मनुस्मृति में भ्रष्टाचार को राष्ट्रद्रोह जैसा अपराध मानते हैं। हालांकि आज के इस कथित सभ्य युग में मृत्युदंड को पाशविक माना जाता है पर उन अपराधों के बारे में क्या कहा जाये जो आज भी प्रासंगिक हैं? क्या इस बात का मतलब यह समझा जाये कि प्रजा से अनावश्यक रूप से धन ऐंठने को सहज अपराध मान जाये क्योंकि आज के समाज में कुछ रूप में प्रासंगिक है? क्या यह समझा जाये कि आज विश्व में सक्रिय राजकीय व्यवस्थाओं में इसका होना अनिवार्य है और लोगों को इसके साथ जीने की आदत पड़ गयी है?
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Saturday, November 21, 2009

मनुस्मृति-चांदी दान करने से सौम्य रूप प्राप्त होता है (chandi ka dan aur sundarta- manu smriti)

वारिदस्तृप्तिमाष्नोति सुखमक्षयमन्वदः।
तिलप्रदः प्रजामिष्टां दीपश्चक्षरुत्तमम्।।
भूमिदो भूमिमाश्नोति दीर्घमायुर्हिरण्यदः।
गृहदोऽयाणि वेश्मानि रूपमृत्तमम्।।
हिन्दी में भावार्थ-
प्यासे को जल प्रदान करने वाले बहुत तृप्ति मिलती है। अन्न देने वालो को स्थिर सुख, तिल का दान करने वाले को प्रिय संतान, दीपक का दान को उत्तम दृष्टि,भूमि का दान करने वालो को धरती, सोने का दान करने वाले दीर्घायु, मकान का दान करने वाले को सुंदर महल एवं चांदी दान करने वालो को सौम्य और सुंदर रूप की प्राप्ति होती है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हमारे अध्यात्मिक दर्शन के अनुसार दान की महिमा अपरंपार है। इसके दैहिक तथा मानसिक लाभ दोनों ही होते हैं। मुख्य बात यह है कि हम अगर मनुष्य हैं तो अपने परिवार और मित्रों के लिये काम करते हुए यह समझते हैं कि हम अच्छा काम रहे हैं जबकि यह तो केवल हम अपने स्वार्थ की वजह से करते हैं। इतना ही नहीं हम किसी से कुछ पाने की इच्छा करते हुए भी उसका काम करते हैं। यह स्वार्थपूर्ण जीवन व्यतीत करना सभी को अच्छा लगता है पर मन में शांति किसी को नहीं मिलती। वैसे हमारे यहां सारे संदेश धर्म के आधार पर इसलिये ही दिये गये हैं क्योंकि यहां आदमी बहुत धर्मभीरु है पर इन संदेशों का मुख्य उद्देश्य समाज में समरसता का भाव पैदा करना है।
दान करने से स्वर्ग मिलता है या नहीं यह बहस का विषय हो सकता है परंतु धनी लोगों द्वारा गरीबों को कुछ देने से उनका कोई खजाना खत्म नहीं होता बल्कि गरीबों को उनके प्रति सौहार्द बढ़ता है। समाज में रहने के लिये लोगों के सौहार्द भाव की जरूरत सभी को होती है-चाहे वह गरीब हो या अमीर। जैसे जैसे अमीर लोग इससे विमुख हुए हैं उनके लिये ही असुरक्षा का वातावरण बना है। सुरक्षा के लिये पहरेदार उन्होंने ही लगाये हैं। बंदूकों के लायसेंस उन्होंने लिये हैं। वजह यह है कि अपना धन और अपने प्राण बचाने के लिये उनको चिंता रहती है। यह जीवन के प्रति आत्मविश्वास की कमी इसलिये ही है क्योंकि वह जानते हैं कि समाज का एक वर्ग उनसे नाखुश है। यह नाखुशी कभी कभी अपराधी के रूप में भी प्रकट होती है। इसका मुख्य कारण यह है कि पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव में समाज हित का काम राज्य के भरोसे छोड़ दिया गया है। दान और कल्याण के कार्यक्रम संस्थागत रूप पा गये हैं जिनसे पनपा है केवल भ्रष्टाचार। एक व्यक्ति के रूप में दान और कल्याण का काम बहुत कम लोग करते हैं।

आज हम अपने देश में चारों तरफ जो अशांति का वातावरण देख रहे हैं उसका मुख्य कारण यही है कि धनी लोगों के संचय की प्रवृत्ति तो है पर दान की नहीं। गरीब तो चाहे जैसे जी लेता है पर अमीरों की नींद केवल इसलिये ही हराम है क्योंकि वह दान और कल्याण के काम को अपना दायित्व नहीं समझते।
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Monday, November 16, 2009

भर्तृहरि शतक-सज्जनता का व्रत किसने बताया (hindu dharm sandesh-sjjanta ka vrat)

प्रदानं प्रच्छन्नं गृहमुपगते सम्भ्रमविविधः प्रिय कृत्वा मौनं सदसि कथनं चाप्युपकृते।
अनुत्सेको लक्ष्म्यांनभिभवगन्धाः परकथाः सतां केनोद्दिष्टं विषमसिधाराव्रतमिदम्।।
हिंदी में भावार्थ-
गुप्त दान देना, घर पर आये मेहमान का सम्मान करना, दूसरे का काम कर चुप रहना, अन्य के उपकार को समाज में सभी को बताना। धन वैभव पाकर भी गर्व न करना, दूसरों की कभी निंदा न करना जैसे गुणों का अपनाना तलवार के धार पर चलने जैसा व्रत है। यह व्रत सज्जन पुरुषों को किसने बताया है?
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अधिकतर मनुष्य तो दान देकर प्रचार करते, घर आये मेहमान को दुत्कारते, दूसरे का काम करते कम गाते अधिक हैं। इससे भी अधिक यह है कि दूसरा उपकार करे तो उसे तो सुनाते नहीं बल्कि उसका काम अपने नाम से दिखाते हैं। जिसे देखो वही दूसरों की निंदा में व्यस्त है।
दरअसल सज्जनता का व्रत कठोर होता है जिसका पालन हर कोई नहीं करता। अधिकतर लोग बहिर्मुखी होकर आत्मप्रचार करते हुए निम्नकोटि का व्यवहार करते हैं। स्थित यह है कि अब तो सम्मान उसी आदमी का रह गया जिसके पास धन, पद और बाहुबल है। उनके नाम पर ही सारे श्रेष्ठ कार्य दर्ज किये जाते हैं भले ही काम उनके मातहतों ने किया हो। इतना ही नहीं गरीब और आम इंसान द्वारा किये गये कार्य को समाज को सुनाने में बड़े लोग संकोच करते हैं चाहे भले ही उनका कितना भी हित उससे हुआ हो।
यही कारण है कि हमारा समाज जड़ हो गया है। हर क्षेत्र में वंशवाद का बोलबाला है। स्थापित वंश केवल आत्मप्रचार कर रहे हैं कि वही श्रे्रष्ठ है। आम इंसान के कार्य को तो मामूली मान लिया जाता है। क्या साहित्य, क्या फिल्म और क्या पत्रकारिता, सभी में स्तुति गान हो रहे हैं पर रचनाधर्मिता के नाम पर सब जगह शून्य है। कहते हैं कि फिल्म अच्छी नहीं बनती? कहानी अच्छी नहीं लिखी जा रही । देश में कोई अविष्कार नहीं हो रहा। किसी भी विषय में सजावट का काम आम इंसान करता है पर हमारे समाज की प्रवृत्ति है कि वह उपलब्धि का आधार पहले से प्राप्त परिलब्धियों के आधार पर तय करता है। यही इस समाज की जड़ता का कारण है।
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Sunday, November 15, 2009

रहीम के दोहे-लोग तो अपने मतलब के अनुसार नज़र रखते हैं (matlab aur nazar-rahim ke dohe in hindi)

स्वारथ रचत रहीम सब, औगुनहूं जग मांहि
बड़े बड़े बैठे लखौ, पथ रथ कूबर छांहि।।
कविवर रहीम कहते हैं कि लोग अपने स्वार्थ के अनुसार दूसरे में गुण और अवगुण ढूंढते रहते हैं। जो कभी अपना स्वाथ साधने के लिये रथ के हरसो को टेढ़ा मेढ़ी छाया को अशुभ कहते हैं वह लोग उसकी छाया में भी बैठ जाते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अगर आपको अपने जीवन में तरक्की करनी हैं तो फिर लोगों के कहने सुनने की परवाह छोड़ दो। लोग तो अपने स्वार्थ के अनुसार गुण और अवगुण देखते हैं। अगर आपका कार्य किसी के अनुकूल नहीं है तो वह कभी आपको उसे करने के लिये प्रेरित नहीं करेगा। यदि प्रतिकूल हुआ तो वह जमकर आलोचना करेगा। यह मनुष्य स्वभाव है। कभी कभी ऐसा भी होता है कि एक आदमी दूसरे की तरक्की को रोकने के लिये उसके लक्ष्य से भटकाते हुए अनेक दोष गिनाता है। जब कोई मनुष्य वास्तव में समाज सेवा के लिये प्रेरित होता है तो लोग उसे पागल तक कहते हैं। लोगों के कहने की परवाह करने वाले कभी भी विकास नहीं कर पाते। इसलिये जब आपने कोई लक्ष्य तय कर लिया है तो उस पर बढ़ चलिये। जब उसमें आपको सफलता मिलेगी तो वही लोग प्रशंसा कर आपकी छाया में बैठने का प्रयास करेंगे जिन्होंने आपकी आलोचना की थी। यह इस संसार की प्रकृति है कि वह गरीब को देता नहीं है और अमीर को सहन नहीं करता। गुणवान की गाता नहीं वरन् अवगुणी का बखान कर अपनी प्रशंसा कराना चाहता है। इसलिये अपने पथ पर चलते रहो। किसी की परवाह न करो।
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Saturday, November 14, 2009

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-शिक्षित व्यक्ति करता हैं सैंकड़ों शिकार (economics of kautilya ka -educated parson)

अशिक्षितनयः सिंहो हन्तीम केवलं बलात्।
तच्च धीरो नरस्तेषां शतानि जतिमांजयेत्।।
हिंदी में भावार्थ-
सिंह किसी नीति की शिक्षा लिये बना सीधे अपने दैहिक बल से ही आक्रमण करता है जबकि शिक्षित एवं धीर पुरुष अपनी नीति से सैंकड़ों को मारता है।
पश्यदिभ्र्दूरतोऽप्रायान्सूपायप्रतिपत्तिभिः।
भवन्ति हि फलायव विद्वादभ्श्वन्तिताः क्रिया।।
हिन्दी में भावार्थ-
विद्वान तो दूर से विपत्तियों को आता देखकर पहले ही से उसकी प्रतिक्रिया का अनुमान कर लेता है और इसी कारण अपनी क्रिया से उसका सामना करता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-सिंह बुद्धि बल का आश्रय लिये बिना अपने बल पर एक शिकार करता है पर जो मनुष्य ज्ञानी और धीरज वाला है वह एक साथ सैंकड़ों शिकार करता है। महाराज कौटिल्य का यह संदेश आज के संदर्भ में देखें तो पता लगता है कि हमारे देश में लोगों की समझ इसलिये कम है क्योंकि वह अपने अध्यात्मिक साहित्य आधुनिक शिक्षा में पढ़ाया नहीं जाता। अंग्रेज हिंसा से इस देश में राज्य नहीं कर पा रहे थे तब उन्होंने अपने विद्वान मैकाले का यह जिम्मेदारी दी कि वह कोई मार्ग निकालें। उन्होंने ऐसी शिक्षा पद्धति निकाली कि अब तो अंग्रेज ब्रिटेन में हैं पर अंग्रेजियत आज भी राज्य कर रही है। अब तलवारों से लड़कर जीतने का समय गया। अब तो फिल्म, शिक्षा, धारावाहिक, समाचार पत्र, किताबें तथा रेडियो से प्रचार कर भी सैंकड़ों लोगों को गुलाम बनाया जा सकता है। इनमें फिल्म और टीवी तो एक बड़ा हथियार बन गया है। आप फिल्में और टीवी की विषय सामग्रंी देखकर उसका मनन करें तो पता लग जायेगा कि जाति, धर्म, और भाषा के गुप्त ऐजेडे वहीं से लागू किये जा रहे हैं। फिल्म और टीवी वाले तो कहते हैं कि समाज में जो चल रहा है वही दिखा रहे हैं पर सच तो यह है कि उन्होंने अपनी कहानियों में ईमानदार लोगों का परिवार समेत तो हश्र दिखाया वह कहीं नहीं हुआ पर उनकी वजह से समाज डरपोक होता चला गया और आज इसलिये अपराधियों में सार्वजनिक प्रतिरोध का भय नहीं रहा। वजह यह थी कि इन फिल्मों में अपराधियों का पैसा लगता रहा था। फिल्मों के अपराधी पात्र गोलियों से दूसरों को निशाना बनाते थे पर उनको नायक के हाथ से पिटते हुए दिखाया गया। स्पष्टतः संदेश था कि आप अगर नायक नहीं हो तो आतंक या बेईमानी से लड़ना भूल जाओ। इस तरह समाज को डरपोक बना दिया गया और अब तो पूरी तरह से अपराधियों को महिमा मंडन होने लगा है।
अगर आप कभी फिल्म या टीवी धारवाहिकों की पटकथा तथा अन्य सामग्री देखें और उस पर चिंतन करें तो हाल पता लग जायेगा कि उसके पीछे किस तरह के प्रायोजक हैं? यह एक चालाकी है जो धनवान और शिक्षित लोग करते हैं। अंग्रेज लोग हमारे धार्मिक ग्रंथों को खूब पढ़ते रहे होंगे इसलिये उन्होंने एसी शिक्षा पद्धति थोपी कि उनसे यह देश अपनी प्राचीन विरासत से दूर हो जाये। अब क्या हालत है कि जो अंग्रेज जो कहें वही ठीक है। वह अपनी परंपराओं तथा भाषा के कारण आज भी यहां राज्य कर रहे हैं। उनकी दी हुई शिक्षा पद्धति यहां गुलाम पैदा करती है जो अंग्रेजों की सेवा के लिये वहां जाकर उनकी सेवा के लिये तत्पर रहते हैं।
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Friday, November 13, 2009

चाणक्य नीति-आय से अधिक व्यय करने वाला संकट में पड़ता है (chankya neeti-amdani aur kharchaa)

अनालोक्य व्ययं कर्ता ह्यनाथःः कलहप्रियः।
आतुर सर्वक्षेत्रेपु नरः शीघ्र विनश्चयति ।।
हिंदी में भावार्थ-
नीति विशारद चाणक्य कहते हैं कि बिना विचारे ही अपनी आय के साधनों से अधिक व्यय करने वाला सहायकों से रहित और युद्धों में रुचि रखने वाला तथा कामी आदमी का बहुत शीघ्र विनाश हो जाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय-आज समाज में आर्थिक तनावों के चलते मनुष्य की मानसिकता अत्यंत विकृत हो गयी है। लोग दूसरों के घरों में टीवी, फ्रिज, कार तथा अन्य साधनों को देखकर अपने अंदर उसे पाने का मोह पाल लेते हैं। मगर अपनी आय की स्थिति उनके ध्यान में आते ही वह कुंठित हो जाते हैं। इसलिये कहीं से ऋण लेकर वह उपभोग के सामान जुटाकर अपने परिवार के सदस्यों की वाहवाही लूट लेते हैं पर बाद में जहां ऋण और ब्याज चुकाने की बात आयी वहां उसके लिये आय के साधनों की सीमा उनके लिये संकट का कारण बन जाती है। अनेक लोग तो इसलिये ही आत्महत्या कर लेते हैं क्योंकि उनको लेनदार तंग करते हैं या धमकी देते हैं। इसके अलावा कुछ लोग ठगी तथा धोखे की प्रवृत्ति अपनाते हुए भी खतरनाक मार्ग पल चल पड़ते हैं जिसका दुष्परिणाम उनको बाद में भोगना पड़ता है। इस तरह अपनी आय से अधिक व्यय करने वालें जल्दी संकट में पड़ जाने के कारण अपने जीवन से हाथ धो बैठते हैं। समझदार व्यक्ति वही है जो आय के अनुसार व्यय करता है।
यही स्थिति उन लोगों की भी है जो नित्य ही दूसरों से झगड़ा और विवाद करते हैं। इससे उनके शरीर में उच्च रक्तचाप और हृदय रोग संबंधी विकास अपनी निवास बना लेते हैं। अगर ऐसा न भी हो तो कहीं न कहीं उनको अपने से बलवान व्यक्ति मिल जाता है जो उनके जीवन ही खत्म कर देता है या फिर ऐसे घाव देता है कि वह उसे जीवन भर नहीं भर पाते। अतः प्रयास यही करना चाहिये कि शांति से अपना काम करें।



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Wednesday, November 11, 2009

विदुर नीति: जैसे लोगों के बीच आदमी रहता है वैसा ही हो जाता है


  1. बोलने से न बोलना अच्छा बताया गया है, किन्तु सत्य बोलना भी एक गुण है। चुप या मौन रहने से सत्य बोलना दो गुना लाभप्रद है। सत्य मीठी वाणी में बोलना तीसरा गुण है और धर्म के अनुसार बोला जाये यह उसका चौथा गुण है।
  2. मनुष्य जैसे लोगों के साथ रहता है और जिन लोगों की सेवा में रहता है और जैसी उसकी कामनाएं होतीं है वैसा ही वह हो भी जाता है।
  3. मनुष्य जिन विषयों से मन हटाता है उससे उसकी मुक्ति हो जाती है। इस प्रकार यदि सब और से निवृत हो जाये तो उसे कभी भी दुख प्राप्त नहीं होगा।
  4. जो न तो स्वयं किसी से जीता जाता है न दूसरों को जीतने के इच्छा करता है न किसी से बैर करता और न दूसरे को हानि पहुंचाता है और अपनी निंदा और प्रशंसा में भी सहज रहता है वह दुख और सुख के भाव से परे हो जाता है।
  5. विदुर नीति-दूसरे में दोष देखने वाली जल्दी नष्ट होता है
    असूयको दन्दशूको निष्ठुरो वरकृच्छठः। सं कृच्छ्रम् महदाप्नोति न चिरात् पापमाचरन्।।
    हिंदी में भावार्थ-दूसरे व्यक्ति के गुणों में भी दोष देखने वाला, दूसरे के मर्म को आघात पहुंचाने वाला, निर्दयता और शत्रुतापूर्ण व्यवहार करने वाले शठ मनुष्य अपने आचरण करे कारण शीघ्र नष्ट हो जाता है। अनूसूयुः कृतयज्ञः शोभनान्याचरन् सदा। न कृष्छ्रम महादाप्नोति सर्वत्र च विरोचते।। हिंदी में भावार्थ-जिसकी दृष्टि दोष रहित है ऐसा व्यक्ति हमेशा ही शुभ कर्म करता हुआ महान सुख प्राप्त करने के सर्वत्र ही प्रशंसा का पात्र बनता है। वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- कहा जाता है कि जैसा दूसरे से व्यवहार करोगे वैसा स्वयं को भी मिलेगा। उसी तरह जिस दृष्टि से यह संसार देखोगे वैसे ही सामने दृश्य भी प्रस्तुत होंगे। कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनमें ज्ञान और अनुभव तो नाममात्र का होता है पर आत्मप्रचार की इच्छा उनको कुंठित कर देती है। किसी दूसरे की प्रशंसा देखकर वह उसके प्रतिकुल टिप्पणी करते हैं। भले ही दूसरे में गुण हो पर उसमें वह दोष निकालते हैं। जैसे मान लो कोई अच्छा लिखता है तो वह उसके विषय में दोष निकालेंगे या उसे गौण प्रमाणिम करेंगे। कोई अच्छा खाना बनाता है तो वह उसके लिये मसालों को श्रेय देंगे। कहने का तात्पय यह है कि उनकी दृष्टि दोष देखने की आदी होती है। ऐसे लोग न हमेशा कष्ट उठाते हैं बल्कि उनकी जीवन भी जल्दी नष्ट होता है। इसके विपरीत दूसरे के गुण देखकर उनसे सीखने वाले विकास पथ पर चलते हैं। वह अपने कार्य से न केवल उपलब्धियां प्राप्त करते हैं बल्कि समाज में उनको सम्मान भी प्राप्त होता है। इसलिये अपना रवैया हमेशा सकारात्मक रखते हुए जीवन पथ पर बढ़ना चाहिये।

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Tuesday, November 10, 2009

विदुर नीति-दूसरों में दोष देखने वाला कष्ट को प्राप्त होता है (hindi sandesh-doosron me dosh dekhna nahin)

विदुर नीति में कहा गया है कि
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असूय को दन्दशू को निष्ठुरो वैरकृच्छठः।
स कृच्छम् महदाप्नोति न चिरात् पापमाचरन्।।

       हिन्दी में भावार्थ-गुणों में दोष देखने वाला, दूसरे के मर्म को छेदने वाला, निर्दयी, शत्रुता का व्यवहार रखने वाला और शठ मनुष्य शीघ्र ही अपने आचरण के कारण महान कष्ट को प्राप्त होता है।
अनूसयुः कृतप्रज्ञ शोभनान्याचरन् सदा।
न कृच्छ्रम् महदाप्नोति सर्वत्र च विरोचते।।

      हिन्दी में भावार्थ-दोषदृष्टि से रहित शुद्ध मंतव्य वाला सदा अनुष्ठान तथा पवित्र कार्य करते हुए महान सुख के साथ सम्मान भी प्राप्त करता है।
       चाहे कोई कितना भी कहे कि आजकल बुरे काम और गलत मार्ग अपनाये बिना कुछ नहीं मिलता पर यह उसका भ्रम है। जो मार्ग कुऐं की तरफ जाता है और कोई अज्ञानी उस पर चलता चला जायेगा तो वह उसमें गिरेगा ही-वह कोई आकाश में उड़ने का विमान प्राप्त नहीं कर लेगा। यही स्थिति कर्म, व्यवहार और दृष्टि की है।
      दूसरे में दोष देखते रहकर उसकी चर्चा करने रहने से वह दुर्गुण हमारे अंदर भी आ जाता है। हमारे मन में जिस प्रकार का स्मरण होता है वैसे ही दृश्य सामने आते हैं। दूसरे के दोषों का स्मरण करने मात्र से भी वह दोष हमारे अंदर आ जाता है। दूसरे को मर्म भेदने वाली बात कहकर उसे कष्ट देना बहुत बुरा है। किसी के दुःख को उभारने उसके मन में जो कष्ट आता है उसका प्रभाव कहीं न कहीं हम पर भी पड़ता है। इस तरह का नकारत्मक व्यवहार करने वाले लोग न केवल अपने जीवन में विकास से वंचित रहते हैं बल्कि उनको महान कष्ट भी प्राप्त होता है।
जो सदा दूसरों में गुण देखते हुए सभी का सम्मान करते हैं उनको अपने काम में न केवल सफलता मिलती है बल्कि समाज में उनको सम्मान भी प्राप्त होता है।संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,gwalior
http://anantraj.blogspot.com
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Monday, November 9, 2009

मनुस्मृतिः गाली का उत्तर गाली से नहीं देना चाहिए (gaalie ke badle gaali n den-hindi sandesh)

अति वादांस्तितिक्षेत नावमन्येत कञ्चन
न चेमं देहमाश्रित्य वैरं कुर्वीत केनचित्
न क्रुद्धयंन्तं प्रतिक्रुध्येदाक्रृष्टः कुशलं वदेत्
सप्तद्वाराऽवकीर्णां च न वाचमनृतां वदेत्


हिंदी में भावार्थ-दूसरे के कड़वे वचनों को सहना करना चाहिये। अभद्र शब्द (गाली)का उत्तर कभी वैसा ही नहीं देना चाहिये। न ही किसी का अपमान करना चाहिये। यह शरीर तो नश्वर है इसके लिये किसी से शत्रुता करना ठीक नहीं माना जा सकता।
अध्यात्मरतिरासीनो निरपेक्षो निरामिषः
आत्मनैव सहायेन सुखार्थी विचरेदिह

हिंदी में भावार्थ-अध्यात्म विषयों में अपनी रुचि रखते हुए सभी वस्तुओं और व्यक्तियों के प्रति निरपेक्ष भाव रखना चाहिये। इसके साथ ही शाकाहारी तथा इद्रियों से संंबंधित विषयो में निर्लिप्त भाव रखते हुए अपने अध्यात्म उत्थान के लिये अपने प्रयास करते रहना चाहिये। इससे मनुष्य सुखपूर्वक इस दुनियां में विचरण कर सकता है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-खानपान और रहन सहन में आई आधुनिकता ने लोगों की सहनशीलता को कम कर दिया है। लोग जरा जरा सी बात पर उत्तेजित होकर झगड़ा करने पर आमादा है। स्वयं के पास कितना भी बड़ा पद,धन और वैभव हो पर दूसरे का सुख सहन नहीं कर पाते। गाली का जवाब गाली से देना के लिये सभी तत्पर हैं। अध्यात्म विषय के बारे में लोगों का कहना है कि उसमें तो वृद्धावस्था में ही जाकर दिलचस्पी रखना चाहिये। इस अज्ञानता का परिणामस्वरूप आदमी वृद्धावस्था में अधिक दुखी होता हैं। अगर बचपन से ही अध्यात्म में रुचि रखी जाये तो फिर बुढ़ापे में आदमी को अकेलापन नहीं सताता। जिसकी रुचि अध्यात्म में नहीं रही वह आदमी वृद्धावस्था में चिढ़चिढ़ा हो जाता है। ऐसे अनेक वृद्ध लोग हैं जो अपना जीवन शांतिपूर्वक व्यतीत करते हैं क्योंकि वह बचपन से मंदिर आदि में जाकर अपने मन की शुद्धि कर लेते हैंं और अध्यात्म विषयों पर चिंतन और मनन भी करते हैं।

बदले की भावना इंसान को पशु बना देती हैं और वह तमाम तरह के ऐसे अपराध करने लगता है जिससे समाज में उसे बदनामी मिलती है। कई लोग ऐसे हैं जो गाली के जवाब में गाली देकर अपने लिये शत्रुता बढ़ा लेते है। कुछ लोग ऐसे हैं जिनको अभद्र शब्द बोलने और लिखने में मजा आता है जबकि यह अंततः अपने लिये ही दुःखदायी होता है। अपने मस्तिष्क में अच्छी बात सोचने से रक्त में भी वैसे ही कीटाणु फैलते हैं और खराब सोचने से खराब। यह संसार वैसा ही जैसा हमारा संकल्प होता है। अतः अपनी वाणी और विचारों में शुद्धता रखना चाहिये। दूसरे के व्यवहार या शब्दों से प्रभावित होकर उनमें अशुद्धता लाना अपने आपको ही कष्ट देना है।
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Saturday, November 7, 2009

चाणक्य नीति-फन फैलाने का दिखावा तो करना चाहिए (chankya niti-adambar)

प्रातद्र्यूतप्रसंगेन मध्याह्ये स्त्रीप्रसंगतः।
रात्रौ चैर्यप्रसंगेन कालो गच्छत्यधीमातम्।।
हिंदी में भावार्थ-
मूर्ख लोगों का समय प्रातःकाल जुआ, दोपहर प्रेम प्रसंग और रात्रि चोरी करने में व्यतीत होता है।
निर्विषेणाऽपि सर्पेण कत्र्तव्या महती फणा।
विषमस्तु न चाष्यस्तु घटाटोपो भयंकरः।।
हिंदी में भावार्थ-
भले ही अपने पास विष न हो पर विषहीन सर्प को फिर भी फन फैलाने का आडंबर करना चाहिये। उसके बचाव के लिये यह जरूरी होता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्य को अपने हृदय में दूसरों के प्रति स्वच्छता, स्नेह और दया का भाव रखना चाहिये। जहां तक हो सके दूसरे का भला करें पर यह भी आवश्यक है कि अपनी रक्षा के लिये सतर्कता बरतें। इस संसार में मनुष्य में ही देवता और राक्षस बैठा है। पता नहीं कब किस मनुष्य में राक्षसत्व का भाव पैदा हो इसलिये सभी लोगों से सतर्कता आवश्यक है। वैसे कुछ लोगों में तो हमेशा ही दुष्टता का भाव भरा होता है। ऐसे लोग जिसे कमजोर या असहाय समझते हैं उससे परेशान करने लगते हैं। हालांकि उनके द्वारा संकट पैदा करने पर लोगों पर प्रतिकार भी कर सकते हैं पर वह हमला ही न करें इसलिये अपनी शक्ति का प्रदर्शन समय आने पर करना पहले ही चाहिए। इस प्रदर्शन से दुष्ट हम पर हमला करने का दुस्साहस ही न करे। स्वयं किसी को हानि पहुंचाने का विचार करना भी दुष्टता है पर बाह्य विरोधी से निपटने के लिये अपने पास शक्ति का संचय अवश्य करते रहना चाहिये। इतना ही नहीं कोई अन्य आक्रमण न करे ताकि शक्ति का व्यर्थ उपयोग करने से बचें इस उद्देश्य से समय समय पर उसका प्रदर्शन भी करना चाहिये। जरूरत पड़े तो गुस्सा भी दिखाना चाहिए ताकि दुष्ट लोग सहमें रहें। इस बात का ध्यान रहे कि हमारे व्यवहार या गुस्से से किसी सज्जन का दिल न दुखे। अलबत्ता व्यवहार मे अपने शक्तिशाली होने का आभास लोगों को कराते रहना चाहिये ताकि लोग आपकी बात को हल्का न लें।
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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Thursday, November 5, 2009

भर्तृहरि नीति शतक-दुश्मन से दया और मित्र से धन न मांगें (daya aur dhan-bhartrihari niti shatak in hindi)

असन्तो नाम्यथ्र्याः सुहृदपि न याच्यः कृशधनः प्रियान्याच्या वृत्तिर्मलिनमुसुभंगेऽप्यसुकरं।
चिपद्युच्चैः स्थेयं पदमनृविधेयं च महतां सत्तां केनाद्दिष्टं विषमममसिधाराव्रतमिदम्?
हिंदी में भावार्थ-
दुष्ट लोगों से दया के लिये प्रार्थना और अमीर मित्रों से याचना न कर केवल सत्य आचरण से ही जीवन पथ पर आगे बढ़ना चाहिये-ऐसे विचार का प्रतिपादन सज्जन लोगों के लिये किसने किया? मृत्यु के समक्ष भी उच्च विचारों की रक्षा की जाती है और महापुरुषों के मार्ग का ही अनुसरण करना पड़ता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जीवन के अनेक नियम हैं जिनमें यह भी है कि जो व्यक्ति दुष्ट प्रवृत्ति का है उससे दया की याचना करने का कोई अर्थ नहीं है। उससे अपनी दुष्टता का प्रदर्शन करना ही है। दया दिखाने पर हो सकता है वह कुछ देर अपने दुष्कर्म से रुक जाये पर फिर उसे उसी मार्ग पर जाना है। अतः दुष्ट प्रकृति के लोगों का प्रतिकार करने का सामर्थ्य हमेशा अपने पास रखना चाहिये या फिर उस स्थान से ही चले जाना चाहिये जहां वह निवास करते है।
उसी तरह अपने धनी मित्र से किसी प्रकार की याचना कर अपने संबंध बिगाड़ने की आशंकायें पैदा करना व्यर्थ है। धन एक माया का रूप है और वह सभी को भ्रम, लालच और लोभ की प्रवृत्तियों के कारण अपने बंधन में जकड़े रहती है। अतः अपने धन बंधु-बांधवों और मित्रों से यह आशा करना व्यर्थ है कि वह याचना करने पर आर्थिक सहायता देंगे। जहां तक आर्थिक सहायता का प्रश्न है तो जिसके मन में यह उदार भाव होता है वह बिना याचना ही करता है और जिसका हृदय संकीर्ण मानसिकता वाला है उससे कितना भी आग्रह करें वह आर्थिक सहायता नहीं करेगा।
जीवन में अपने आत्म सम्मान की रक्षा के लिये जरूरी है कि उसके कुछ नियमों को समझाया जाये। महापुरुष द्वारा ने अपने अनुभवों से जो सत्य का मार्ग दिखाया है उस पर चलकर ही सामान्य मनुष्य जीवन में स्वस्थ और प्रसन्न रह सकता है। उससे पृथक चलना अपने आपको ही शारीरिक और मानसिक कष्ट देना है। अगर हम आज के समाज की मुख्य समस्या यही है कि लोग सोच विचार कर न तो संबंध बनाते हैं और उनको निभाने के लिए विचार करते हैं।
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Tuesday, November 3, 2009

चाणक्य नीति-कुछ पुरुषों में भी विवेक नहीं होता (purush aur vivek-chankya niti)

मातृवत् परदारांश्चय परद्रव्याणि लोष्ठवत्।
आत्मवत् सर्वभूतानि यः पश्यति स नरः।।

हिंदी में भावार्थ-दूसरों की पत्नी को माता तथा धन को मिट्टी के ढेले की भांति समझना चाहिये। इस संसार में वह यथार्थ रूप से मनुष्य है जो सारे प्राणियों को अपनी आत्मा की भांति देखने वाला मानता है।
यो मोहन्मन्यते मूढो रक्तेयं मयि कामिनी।
स तस्य वशगो मूढो भूत्वा नृत्येत् क्रीडा-शकुन्तवत्।।

हिंदी में भावार्थ-नीति विशारद चाणक्य के अनुसार कुछ पुरुषों में विवेक नहीं होता और वह सुंदर स्त्री से व्यवहार करते हुए यह भ्रम पाल लेते हैं कि वह वह उस पर मोहित है। वह भ्रमित पुरुष फिर उस स्त्री के लिये ऐसे ही हो जाता है जैसे कि मनोरंजन के लिये पाला गया पक्षी।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हर व्यक्ति को अपने अंदर विवेक धारण करना चाहिये। कुछ लोग स्त्रियों के विषय में अत्यंत भ्रमित होते हैं। उनको लगता है कि कोई स्त्री उनसे अच्छी तरह बात कर रही है तो इसका आशय यह है कि वह उन पर मोहित है-यह उनका केवल एक भ्रम है। स्त्रियों का स्वभाव तथा वाणी कोमल होती है और इसी कारण वह हमेशा मृदभाषा से पुरुषों का मन मोह लेती हैं पर कुछ अज्ञानी और अविवेकी पुरुष यह भ्रम पाल कर अपने आपको ही कष्ट देते हैं कि वह उनके प्रति आकर्षित है।
नीति विशारद चाणक्य ऐसे व्यक्तियों की तरफ संकेत करते हुए कहते हैं कि दूसरे की स्त्री को माता के समान समझना चाहिये। उसी तरह दूसरे के धन को मिट्टी का ढेला समझना चाहिये। वह यह भी कहते हैं कि इस संसार में वही मनुष्य श्रेष्ठ है जो सभी लोगों को देह नहीं बल्कि इस संसार में दृष्टा की तरह उपस्थित आत्मा ही मानता है।

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Sunday, November 1, 2009

विदुर नीति-अकल का पैसे से कोई संबंध नहीं (akal aur paisa-vidur niti in hindi)

असंविभागो दुष्टात्मा कृतघ्नो निरपत्रपः।
तादृंनारिधपो लोके वर्जनीवो नारधिपः।।

           
हिंदी में भावार्थ-अपने व्यक्ति अपने आश्रितों में अपनी धन संपत्ति को ठीक से बंटवारा नहीं करे तो दुष्ट कृतघ्न और निर्लज्ज है उसे इस लोक में त्याग देना चाहिए।

न बुद्धिर्धनलाभाय न जाह्यमसद्धये।
लोकपर्यावृतांत प्राज्ञो जानाति नेतरः।।

           
हिंदी में भावार्थ- धन केवल बुद्धि से ही प्राप्त होता है या मूर्खता के कारण आदमी दरिद्र रहता है, ऐसा कोई नियम नहीं है। इस संसार के नियमों को केवल विद्वान पुरुष ही जानते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जिन लोगों के पास धन नहीं है या अल्पमात्रा में है उन्हें धनवान लोग मूर्ख और अज्ञानी मानते हैं। अक्सर धनवान  लोग कहते हैं कि अक्ल की कमी के कारण लोग गरीब होते हैं। इतना ही नहीं इन धनवानों के इर्दगिर्द अपने स्वार्थ कि वजह से मंडराने वाले चाटुकार लोग भी उनकी बुद्धि का महिमामंडन करते हुए नहीं थकते|
      उनका यह तर्क गलत और बेहूदा है। अगर उनका तर्क सही माना जाए तो सवाल उठता है कि  अनेक धनवान अपनी बौद्धिक त्रुटियों का कारण गरीब क्यों हो जाते हैं? जिनके पास धन और संपत्ति विपुल मात्रा में वह अपने व्यवसाय में हानि उठाने या अपने बच्चों की गलत संगत के कारण उनके द्वारा किये जा रहे अपव्यय कि वजह से संकटग्रस्त होकर निर्धनता को प्राप्त हो जाते हैं। तब उनके बारे में क्या यह कहना चाहिये किवह अक्ल के कारण ही अमीर हुए और अब उसके न रहने से गरीब हो गये।या अब धन नहीं है तो उनके पास अक्ल भी नहीं होगी।
      कहने का तात्पर्य है कि यह धारणा भ्रांत है कि बुद्धि या अक्ल के कारण कोई अमीर या गरीब बनता है। संसार का अपना एक चक्र है। शाश्वत सत्य कभी नहीं बदलता पर माया तो महाठगिनी है। आज इस घर में सुशोभित है तो कल वह किसी दूसरे दरवाजे पर जायेगी। लक्ष्मी के नाम का एक पर्यायवाची शब्द चंचलाभी है। वह हमेशा भ्रमण करती हैं। अतः हमेशा ही अमीरों को बुद्धिमान और गरीबों को बुद्धिहीन मानने वालों को अपने विचार बदलना चाहिए।
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Saturday, October 31, 2009

रहीम के दोहे-पेड़ कभी अपना फल नहीं खाते, तालाब पानी नहीं पीता (Couplets of Rahim - trees sometimes do not eat fruit, drink pond water)

तन रहीम है कर्म बस, मन राखो ओहि ओर।
जल में उल्टी नाव ज्यों, खैंचत गुन के जोर।
कविवर रहीम कहते हैं कि अपना शरीर तो कर्म के फल के नियंत्रण में है पर मन को भगवान की भक्ति में लीन रखा जा सकता है। जैसे जल में उल्टी नाव को रस्सी से खींचा जाता है वैसे ही मन को भी खींचना चाहिए।
तरुवर फल नहिं खात है, सरवर पियहि न पान।
कहि रहीम पर काज हित, संपति संचहि सुजान।।
कविवर रहीम कहते हैं कि जिसत तर पेड़ कभी स्वयं अपने फल नहीं खाते और तालाब कभी अपना पानी नहीं पीते उसी तरह सज्जनलोग दूसरे के हित के लिये संपत्ति का संचय करते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय-सामान्य मनुष्य स्वभाव का यह मूल स्वभाव होता है कि वह अपने लिये आवश्यक वस्तुओं का संग्रह करता है पर जो दूसरे के हित का विचार करते हैं उनका उद्देश्य दूसरों का हित भी करना होता है। अपने अपने सोचने का तरीका है। कुछ लोग अपने लिये धन संचय करते चले जाते हैं यह सोचकर कि उनकी सात पीढ़ियां उनको याद करेंगीं। समाज में वैमनस्य फैल रहा है तो उसकी वह परवाह नहीं करते। गरीब के साथ अन्याय और मजदूरी के शोषण से धन संचय करने में उनको हिचक नहीं होती। वह सोचते हैं कि उनका और आने वाली पीढ़ियाों का जीवन इसी तरह ही चलता रहेगा। उनके कृत्यों से समाज में जो विद्रोह फैलता है उसकी आशंका से परे होकर वह केवल अपने स्वार्थ पूरे करने में लगते हैं। मगर जब उनके पापों और कृत्यों की अति हो जाती है तब वह उसका परिणाम भोगते हैं और कभी कभी यह दुष्परिणाम उनकी पीढ़ियों को भोगना पड़ता है।
समझदार मनुष्य समाज को देखभाल कर ही आगे बढ़ते हैं। मिल बांटकर खाओ की नीति अपनाकर न केवल वह अपने लिये सुविधायें जुटाते हैं बल्कि उसके उपभोग में समाज को भागीदार बनाकर यश प्राप्त करते हैं। एक बात तय है कि शरीर की आवश्यकता भौतिक पदार्थों से ही पूरी होती है अतः यह समझना चाहिये कि किसी दूसरे को भी ऐसी सुविधा देकर ही उसका हृदय जीता जा सकता है।
यह शरीर तो सांसरिक कर्म फल के अधीन है। इसकी पूर्ति के लिये भौतिक वस्तुओं को प्राप्त करना जरूरी है पर भगवान भक्ति और परोपकार से जो आत्मिक सुख मिलता है उसकी अनुभूति अगर नहीं की तो यह जीवन व्यर्थ है। मन तो केवल साधनों के संग्रह में ही रहना चाहता है और उस पर नियंत्रण तभी किया जा सकता है जब हम अपने अंदर दृढ़ता पूर्वक संकल्प लेकर भक्ति तथा परोपकार के काम करें।
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