Monday, June 24, 2013

संत कबीर दर्शन-धनवान गुरु को शिष्यों से ही रहता खतरा (sant kabir darshan-dhanwan guru ko shishyon se hi rahata hai khatra)



          अगर देखा जाये तो पैसे की औकात केवल जेब तक ही रहती है जबकि अज्ञानी लोग इसे सदैव अपने सिर पर धारण किए रहती है।। वह बात-बात में अपने धनी होने का प्रमाणपत्र लेकर आ जाते हैं। अपनी तमाम प्रकार डींगें  हांकते है। परमार्थ से तो उनका दूर  दूर तक नाता नहीं होता। जो लोग ज्ञानी हैं वह जेब मैं पैसा है यह बात अपने दिमाग में लेकर नहीं घूमते। आवश्यकतानुसार उसमें से पैसा खर्च करते हैं पर उसकी चर्चा अधिक नहीं करते। आजकल जिसके भी घर जाओं वह अपने घर के फर्नीचर, टीवी, फ्रिज, वीडियो और कंप्यूटर दिखाकर उनका मूल्य बताना नही भूलता और इस तरह प्रदर्शन करता है जैसे कि केवल उसी के पास है अन्य किसी के पास नहीं। कहने का अभिप्राय है कि लोगों के सिर पर माया अपना प्रभाव इस कदर जमाये हुए है कि उनको केवल अपनी भौतिक उपलब्धि ही दिखती है।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि

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माया दासी संत की साकट की शिर ताज
साकुट की सिर मानिनी, संतो सहेली लाज

               सामान्य हिंदी भाषा में भावार्थ- माया तो संतों के लिए दासी की तरह होती है पर अज्ञानियों का ताज बन जाती है। अज्ञानी लोग का माया संचालन करती है जबकि संतों के सामने उसका भाव विनम्र होता है।

गुरू का चेला बीष दे, जो गांठी होय दाम
पूत पिता को मारसी, ये माया के काम

                    सामान्य हिंदी भाषा में भावार्थ- शिष्य अगर गुरू के पास अधिक संपत्ति देखते हैं तो उसे विष देकर मार डालते है। और पुत्र पिता की हत्या तक कर देता है।


         सामूहिक स्थानों पर लोग आपस में बैठकर अपने धन और आर्थिक उपलब्धियों पर ही चर्चा करते हैं। अगर कोई गौर करे और सही विश्लेषण करे तो लोग नब्बे फीसदी से अधिक केवल पैसे के मामलों पर ही चर्चा करते हैं। अध्यात्म चर्चा और सत्संग तो लोगों के लिए फ़ालतू का विषय  है । इसके विपरीत जो ज्ञानी और सत्संगी हैं वह कभी भी अपनी आर्थिक और भौतिक उपलब्धियों पर अहंकार नहीं करते। न ही अपने अमीर होने का अहसास सभी को कराते हैं।
                वैसे जिस तरह आजकल धार्मिक संस्थानों में संपतियों को लेकर विवाद  और मारामारी मची है उसे देखते हुए यह आश्चर्य ही मानना चाहिये कि कबीरदास जी ने भी बहुत पहले ही ऐसा कोई  घटनाक्रम देखा होगा इसलिए ही चेताते हैं कि गुरुओं को अधिक संपति नहीं रखना चाहिये।  आजकल अनेक संत इस सन्देश कि उपेक्षा कर संपति संग्रह में लगे हुए हैं इसलिए ही विवादों में  भी घिरे रहते हैं। इतना ही नहीं अनेक धार्मिक स्थानों पर तो आथिक कारणों से खून खराबा तक हो जाता है| देखा जाए तो आध्यात्मिक सस्थान एकांत में होना चाहिए पर लोग उसे सामूहिक स्थानों पर करना चाहते है जिसका लाभ धार्मिक ठेकेदार उठाना चाहते है, जिसके कारण उनके आपस में ही विवाद होते हैं|


दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

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