Saturday, March 29, 2008

रहीम के दोहे:बन्दर की तरह उछलकूद कर जनसेवा करने वालों से सावधान रहें

बड़े दीन को दुख, सुनो, लेत दया उर आनि
हरि हाथीं सौं कब हुतो, कहूं रहीम पहिचानि


कविवर रहीम कहते है इस संसार में बड़े लोग तो वह जो छोट आदमी की पीड़ा सुनकर उस पर दया करते हैं, परंतु बंदर कभी हाथी नहीं हो सकता-कुछ लोग बंदर की तरह उछलकूद कर दया दिखाते हैं पर करते कुछ नहीं। वह कभी हाथी नहीं हो सकते।

आज के संदर्भ में व्याख्या- आजकल बच्चों, विकलांगों, महिलाओं और तमाम के तरह की बीमारियों के मरीजों की सहायतार्थ संगीत कार्यक्रम, क्रिकेट मैच तथा अन्य मनोरंजक कार्यक्रम होते हैं-जो कि मदद के नाम पर दिखावे से अधिक कुछ नहीं है। यह तो केवल बंदर की तरह उछलकूद होती है। ऐसे व्यवसायिक कार्यक्रम तो तमाम तरह के आर्थिक लाभ के लिये किये जाते हैं। जो सच्चे समाज सेवी हैं वह बिना किसी उद्देश्य के लोगों की मदद करते है, और वह प्रचार से परे अपना काम वैसे ही किये जाते हैं जैसे हाथी अपनी राह पर बिना किसी की परवाह किये चलता जाता है।

समझदार लोग तो सब जानते हैं पर कुछ बंदर की तरह उछलकूद कर समाजसेवा का नाटक करने वालों को देखकर इस कटु सत्य को भूल जाते है। कई लोग ऐसे कार्यक्रमों की टिकिट यह सोचकर खरीद लेते हैं कि वह इस तरह दान भी करेंगे और मनोरंजन भी कर लेंगे। उन्हें यह भ्रम तोड़ लेना चाहिये कि वह दान कर रहे हैं क्योंकि सुपात्र को ही दिया दान फलीभूत होता है। अतः हमें अपने बीच एसे लोग की पहचान कर लेना चाहिए जो इस तरह समाज सेवा का नाटक करते है। इनसे तो दूर रहना ही बेहतर है।

Friday, March 28, 2008

संत कबीर वाणी:एक बूंद के नाश होने पर रोता है संसार

इक दिन ऐसा होयगा, कोय काहू का नाहिं

घर की नारी को कहै, तन की नारी जाहिं

संत शिरोमणि कबीर दास जी कहते हैं कि आदमी भ्रम में रहता है कि यह देह कभी नष्ट नहीं होगी। वास्तविकता यह है कि एक दिन इस देह का त्याग करना ही पड़ता है। उस समय घर की नारी तो छोडिये अपने शरीर की नाड़ी तक हमारी इस देह का साथ छोड़ देती ही।

एक बूँद के कारनैं, रोता सब संसार

अनेक बून्द खाली गए, तिनका नहीं विचार

संत शिरोमणि कबीर दास जी कहते हैं कि कोई मनुष्य देह त्याग देता है तो परिवार के रो-रोकर उसका शोक करते हैं वह इस बात का विचार नहीं करते कि अनेक लोग इस तरह जा चुके हैं वह भी खाली हाथ।

व्याख्या-यहाँ कबीर दास जीइस शाश्वत सत्य के और इशारा करते हैं कि यहाँ सब नश्वर है और जो आया है वह जायेगा इसलिए किसी की मृत्यु पर शोक करना व्यर्थ है।

Thursday, March 27, 2008

संत कबीर वाणी:जहाँ अहं वहाँ आफत, जहाँ अज्ञान वहाँ शोक होगा

जहाँ आपा तहं आपदा, जहाँ संसै तहां सोग

कहैं कबीर कैसे मिटै, चारों दीरघ रोग

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं किजहाँ मनुष्य में अहंकार हैं वहाँ विपत्ति जरूर आयेगी। जहाँ अज्ञान के कारण संशय होगा वहाँ निराशा और शोक प्रकट होगा। ऐसे में चार महारोग अहंकार, संकट, संशय और शोक मिट नहीं सकते।

आज के संदर्भ में व्याख्या-वैसे तो मनुष्य में अहंकार की प्रवृति स्वाभाविक रूप से रहती है और यह कबीर जी के समय में भी रही है, पर उस समय फिर भी लोग अपना समय आध्यात्म में बिताते होंगे पर आजकल तो आदमी की दिनचर्या इतनी व्यस्त है कि उसे भक्ति और ज्ञान प्राप्त करने का समय ही कहाँ मिल पाता है। कई माता-पिता अपने बच्चों को भी कुछ सिखाने का समय नहीं निकाल पाते, ऐसे में चारों तरफ अज्ञान फैलता जा रहा है। साधू संत जिन्होंने केवल ज्ञान की किताबें पढी होतीं हैं पर धारण नहीं किया होता और वह अहंकार में मनोरंजन कार्यक्रम की तरह अपने प्रवचन प्रस्तुत करते हैं तो उनको सुनने वाले भी सत्संगी होने का अहंकार पाल लेते हैं।

कई लोग तो इन संतों के पास से ऐसे लौटते हैं मानो स्वर्ग का टिकिट लेकर लौटे हों। आशय यह है कि आजकल लोगों में जो मानसिक तनाव बढ़ रहा है और उससे जो तन और मन में व्याधियां फ़ैल रही हैं उसका कारण अहंकार और अज्ञान है। हर कोई अपनी बात एक ज्ञानी की तरह कर रहा है पर सुन कोई किसी की नहीं रहा है। हर कोई दर्द बयान कर रहा है पर कोई किसी का हमदर्द नहीं बन रहा है। कई जगह यह अंहकार छोटी-छोटी बातों पर पैदा होता है जो बडे संकट का कारण बनता है। हमारे यहाँ संयुक्त परिवार की परंपरा विघटन का कारण भी यही है जिससे लोगों की संघर्ष करने की भावना कम हुई है। इसलिए जो लोग अपना अंहकार छोड़ कर निरंकार भाव से काम करेंगे वही सुखी रह पायेंगे।

Wednesday, March 26, 2008

रहीम के दोहे:अब वह छायादार वृक्ष कहाँ हैं?

रहिमन अब वे बिरछ कहं जिनकी छांह गंभीर

बागन बिच बिच देखिअत, सेंहुड, कुंज करीर

कवीवर रहीम कहते हैं की अब इस संसार रुपी बैग में अब वह वृक्ष कहाँ है जो घनी छाया देते हैं। अब तो इस बगीचे में सेमल और घास फूस के ढेर या करील के वृक्ष ही दिखाई देते हैं।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-हम कहते हैं कि ज़माना बहुत खराब हैं पर देखें तो यह केवल हमारा एक नजरिया है। इस कलियुग में तो झूठे और लघु चरित्र के लोगों का बोलबाला है। रहीम जी के समय तो फिर भी सात्विक भाव कुछ अधिक रहा होगा पर अब तो स्थिति बदतर है।

पहले तो लोग दान -पुण्यके द्वारा समाज के गरीब तबके पर दया करते थे और अन्य भी तमाम तरह की समाज सेवा करते थे। आपने देखा होगा कि अनेक धर्म स्थलों पर तीर्थ यात्रियों के लिए धर्मशालाएं बनीं हैं जो अनेक तरह के दानी सेठों और साहूकारों ने बनवाईं पर आज उन जगहों पर फाईव स्टारहोटल बन गए हैं। कहने का तात्पर्य अब वह लोग नहीं है जो समाज को अपने पैसे, पद और प्रतिष्ठा से छाया देते थे। अगर कुछ लोग दानवीर या दयालू बनने का दिखावा करते हैं तो उनके निज स्वार्थ होते हैं। ऐसे लोगों से सतर्क रहने की जरूरत है।

Tuesday, March 25, 2008

संत कबीर वाणी:गुरु के ज्ञान से एकाध ही उबरता है

माया दीपक नर पतंग, भ्रमि भ्रमि इवेन पड़ंत

कह कबीर गुरु ग्यान तैं एक आध उबरंत

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि मनुष्य के पतंगे के सामान मायारूपी दीपक के प्रति आकर्षित होकर भ्रम में पडा रहता है। कोई भाग्यशाली मनुष्य होता है जिसे योग्य गुरु का ज्ञान मिल जाता है और वह इससे उबर पाता है।

आज के संदर्भ में व्याख्या- आजकल तो माया का ऐसा विस्तार है कि बडे साधू-संत उसके चक्कर में पड़े हैं। लंबे चौड़े व्याख्यान देते हैं, किताबे बेचते हैं, दवाईया बेचते हैं और उससे कमाए धन से अपने पांच सितारा आश्रम बनाते हैं। माजी की बात यह है भारी संख्या में लोग उनसे ज्ञान लेने जाते हैं जो केवल माया के आसपास ही अपना ज्ञान देते हैं। वैसे ही आम आदमी स्वाभाविक रूप से भ्रमित रहता है ऐसे में यह ज्ञान के मूलतत्व से परे हैं। अपने प्रवचनों में ही अपनी दवाईयों का बखान करते हैं। तिस पर इलेक्ट्रोनिक माध्यमों की प्रबलता और चकाचौंध में वह अधिक भ्रमित हो जाता है। ऐसे में मुक्ति की चाहे में घूम रहा आदमी और भ्रम पाल लेता है।

ऐसे में मेरा विचार है कि लोगों को आजकल गुरु बनाने की बजाय अपने अध्यात्मिक ग्रंथों को ही अपना गुरु मान कर उनको पढ़ना चाहिऐ, क्योंकि शाश्वत सत्य और ज्ञान उन्हीं में भरा पडा है। आजकल के गुरु उसमें से केवल उतना ही ज्ञान लोगों को सुनाते हैं जिनसे उनका खुद का व्यवसाय चल सके।

Monday, March 24, 2008

विदुर नीति:जैसे लोगों में रहता है वैसे ही हो जाता है आदमी

  1. बोलने से न बोलना अच्छा बताया गया है, किन्तु सत्य बोलना भी एक गुण है। चुप या मौन रहने से सत्य बोलना दो गुना लाभप्रद है। सत्य मीठी वाणी में बोलना तीसरा गुण है और धर्म के अनुसार बोला जाये यह उसका चौथा गुण है।
  2. मनुष्य जैसे लोगों के साथ रहता है और जिन लोगों की सेवा में रहता है और जैसी उसकी कामनाएं होतीं है वैसा ही वह हो भी जाता है।
  3. मनुष्य जिन विषयों से मन हटाता है उससे उसकी मुक्ति हो जाती है। इस प्रकार यदि सब और से निवृत हो जाये तो उसे कभी भी दुख प्राप्त नहीं होगा।
  4. जो न तो स्वयं किसी से जीता जाता है न दूसरों को जीतने के इच्छा करता है न किसी से बैर करता और न दूसरे को हानि पहुंचाता है और अपनी निंदा और प्रशंसा में भी सहज रहता है वह दुख और सुख के भाव से परे हो जाता है।

Monday, March 17, 2008

विदुर नीति:आकर्षक वाणी बोलना भी कठिन

  1. दुष्ट पुरुषों का बल हिंसा, राजाओं का बल दंड देना, स्त्रियों का बल सेवा और गुणवानोंका बल है क्षमा कर देना।
  2. वाणी का पूर्ण संयम तो बहुत कठिन माना ही गया है, परन्तु सार्थक तथा दूसरे आदमी को प्रभावित कर सके ऐसी आकर्षक वाणी बोलना भी कम कठिन नहीं है।
  3. मधुर शब्दों से युक्त बात अनेक प्रकार से लाभदायक होती है किन्तु कटु वाणी तो महान अनर्थकारी होती है और उससे तो हर हाल में बचना चाहिए।
  4. शरीर में घुसे बाण तो निकाले जा सकते हैं परन्तु कटु शब्द अगर किसी के मन में घर कर जाएं तो उसे निकालना कठिन होता है।
  5. जिसने स्वयं अपने आत्मा को ही जीत लिया है, वही उसका बंधू बन जाता है। आत्मा ही सच्चा बंधू है और वही नियत शत्रु भी है।
  6. जो धर्म और अर्थ का परित्याग कर अपनी इन्द्रियों के वश में हो जाता है वह जल्द ही अपने ऐश्वर्य, प्राण, धन-संपदा और स्त्री से वंचित हो जाता है।

Sunday, March 16, 2008

विदुर नीति:संतुलित भोजन से होते हैं अनेक लाभ

  1. नित्य स्नान करने वाले मनुष्य को बल, रूप, मधुर स्वर, आकर्षक वर्ण,, कोमलता, सुगंध, पवित्रता, शोभा, सुकुमारता और सौन्दर्य प्राप्त होता है।
  2. संतुलित भोजन करने वाले को आरोग्य, आयु, बल, सुख, सुन्दर संतान और समाज में सम्मान प्राप्त होता है। लोग उस पर अधिक खाने का आक्षेप नहीं करते।
  3. अकर्मण्य, अधिक खाने वाले और सबसे लड़ने वाले, मायावी, क्रूर, देश-काल न रखने वाले और खराब वेशभूषा धारण करने वाले को अपने घर में न ठहरने दें
  4. बहुत कष्ट झेलने पर भी कमजोर, अभद्र शब्द बोलने वाले,निर्बुद्धि, जंगल में रहने वाले, धूर्त, निर्दयी और कृतघ्न से कभी सहायता नहीं मांगनी चाहिए।

Saturday, March 15, 2008

मनुस्मृति:विद्यादान का है सर्वाधिक महत्व

1.किसी प्यासे को पानी पिलाने से स्वयं को भी तृप्ति मिलती है। इसी प्रकार अन्न का दानकरने पर दीर्घकाल का सुख, तिल का दान करने वाले को प्रिय संतान, दीपक का दान करने से उत्तम दृष्टि, भूमि का दान करने वाले को धरती, सोने का दान करने वाले को दीर्घायु , मकान दान करने वाले को महल और चांदी दान करने वाले को सुन्दर रूप की प्राप्ति होती है।

2.जल, अन्न, गाय, भूमि, वस्त्र तिल, सोना, और घी आदि समस्त दानों में विद्या और ज्ञान का दान सबसे अधिक महत्वपूर्ण है।

3.दान देने वाला जिस भाव से दान देता है उसी भाव से उसका फल भी उसे प्राप्त होता है।
4.जो व्यक्ति सम्मान के साथ दान देता है और लेने वाला भी उसी तरह लेता है तो उनको स्वर्ग की प्राप्ति होती है और श्रद्धा से रहित होकर दान देने और लेने वाला नरक में जाते हैं।

5.यदि दान मांगने वाला दान का उचित पात्र न लगता हो फिर भी उसे श्रद्धा के साथ दान देना चाहिए क्योंकि अगर दान देने की प्रवृति बनी रहती है तो कभी तो दान लेने वला योग्य पात्र मिल ही जायेगा जो दादा का उद्धार कर देगा।

Friday, March 14, 2008

विदुर नीति:मित्र की परीक्षा कभी न लें

१.जो मित्रों से सत्कार और सहायता पाकर कृतार्थ होकर भी उनका साथ नहीं निभाते ऐसे कृत्घ्नों के मरने पर उनका मांस तो मांसाहारी पशु भी नहीं खाते।
२.धनवान हो धनहीन मित्र का सम्मान करें। मित्रों से न तो किसी प्रकार की याचना करें और न ही उनकी परीक्षा लें।
३.दुष्ट पुरुषों का स्वभाव मेघ के समान चंचल होता है, वे सहसा क्रोध कर बैठते हैं और अकारण ही प्रसन्न हो जाते हैं।
४.हंस जिस प्रकार सूखे सरोवर के पास मंडरा कर रह जाते हैं उनके अन्दर प्रवेश नहीं करते उसी प्रकार जिसके ह्रदय में चंचलता का भाव विद्यमान है और अज्ञानी हैं वह भी इन्द्रियों के वश में रहता है अरु उसे अर्थ की प्राप्ति नहीं होती।

Saturday, March 8, 2008

रहीम के दोहे:मूर्ख को करनी का दंड देना जरूरी

खीरा सिर तें काटिए, मलियत नमक बनाय

रहिमन करुए मुखन को , चाहिअत इहै सजाय

कविवर रहीम कहते हैं कि जिस तरह खीरे का मुख काटकर उस पर नमक घिसा जाता है तभी वह खाने में स्वाद देता है वैसे ही मूर्खों को अपनी करनी की सजा देना चाहिऐ ताकि वह अनुकूल व्यवहार करें।

नये संदर्भ में व्याख्या-यह सही है कि बडों को छोटों के अपराध क्षमा करना चाहिए, पर कुछ लोग ऐसे होते हैं जो नित्य मूर्खताएं करते रहते हैं। कभी किसी की मजाक उडाएंगेतो कभी किसी को अपमानित करेंगे। कुछ तो ऐसी भी मूर्ख होते हैं जो दूसरे व्यक्ति को शारीरिक, आर्थिक और मानसिक हानि पहुँचने के लिए नित्य तत्पर रहते हैं। ऐसे लोगों को बर्दाश्त करना अपने लिए तनाव मोल लेना है। ऐसे में अपने क्रोध का प्रदर्शन कर उनको दण्डित करना चाहिए। अगर ऐसा नहीं करेंगे तो उनका साहस बढ़ता जायेगा।

व्याख्याकार स्वयं कई बार ऐसा देख चुका है कि कई लोग तो इतने नालायक होते हैं कि उनको प्यार से समझाओ तो और अधिक तंग करने लगते हैं और जब क्रोध का प्रदर्शन कर उन्हें धमकाया जाये तो वह फिर दोबारा वह बदतमीजी करने का साहस नहीं कर पाते। हालांकि इसमें अपनी सीमाओं का ध्यान अवश्य रखना चाहिऐ और क्रोध का बहाव बाहर से बाहर होना चाहिए न कि उसकी पीडा हमारे अन्दर जाये।

Friday, March 7, 2008

रहीम के दोहे: जहाँ दान और सम्मान का भाव न हो वहाँ से चले जाएं

रहिमन तब लगि ठहरिये, दान मान सनमान

घटत मान देखिय जबहिं तुरतहिं करिय पयान

कविवर रहीम कहते हैं कि उसी स्थान पर ठहरें जहाँ लोगों में दान और मान-सम्मान का भाव रहता है। जहाँ अपना सम्मान काम होते देखें वहाँ से पलायन कर जाना चाहिए।

संक्षिप्त व्याख्या- आजकल के महंगाई के युग में तो रहीम के यह वाक्य और अधिक प्रासंगिक है। वैसे भी हमें कई जगह अपने काम से जाना पड़ता है। आजकल रिश्तेदारी भी बहुत दूर-दूर होने लगी है इसलिए लोगों को दूसरे शहर जाना पड़ता है। पहले गावों में शादी-विवाह पर बहुत दिन तक रिश्तेदार रहते थे पर अब यह संभव नहीं। मनु स्मृति में तो लिखा है कि 'एक दिन से अधिक जो ठहरे अतिथि नहीं'। अत: लोग वैसे ही दूरी के कारण एक दिन से अधिक नहीं ठहरते। इसके अलावा भी हम किसी समूह में नित-प्रतिदिन रहते हैं और लग रहा हो कि अब उनके मन में सम्मान काम हो रहा है तो उनसे दूरी बना लेना चाहिए। स्थान से यहाँ आशय केवल भौतिक नहीं है बल्कि व्यवहार और संबंध से भी है। अगर हमसे व्यवहार करने वाले लोगों में जब हमारे लिए मान काम हो रहा है उनसे दूरी बनाना चाहिए। अगर हम किसी से रोज मिलेंगे तो वह वैसा सम्मान नहीं करेगा जिसकी हम आशा करते हैं।

इसके अलावा उन लोगों से भी दूरी बनाना चाहिऐ जो किसी का काम नहीं करते। यहाँ दान से आशय देने से है और इसे व्यापक अर्थों में लेना चाहिऐ। जिस्मने दान देने की प्रुवृति नहीं होती उसमें किसी का काम करने के भावना भी नहीं होती। अत: उनसे संपर्क रखने का कोई मतलब भी नहीं है।

Thursday, March 6, 2008

रहीम के दोहे:संसार को सूक्ष्म रूप में देखें

रूप, कथा, पद, चारु, पट, कंचन, दोहा, लाल

ज्यों ज्यों निरखत सूक्ष्मगति , मोल रहीम बिसाल

कविवर रहीम कहते हैं की सुन्दरता, कथा, काव्य, आकर्षक वस्त्र सोना, दोहा और अपने पुत्र का जब सूक्ष्म रूप में देखते हैं तो उनका महत्व बढ़ जाता है।

लेखकीय अभिमत- रहीम जी ने हर बात गूढ़ अर्थों में अपनी बात कही है। यह संसार बहुत सुन्दर हैं अगर हम उसका आनंद उठाएं पर यह तभी संभव है जब उसे निर्लिप्त भाव से देखें। अगर हम इसे गहराई और सूक्ष्म रूप से देखें तो इसमें परमात्मा की कला के दर्शन होते हैं। हम इसे भोगने के साथ निहारें तो इसमें परमात्मा के सुंदर स्वरूप के दर्शन होंगे। सुन्दर वस्त्रों को देखते हैं और फिर ध्यान कर पृथ्वी पर फ़ैली हरियाली को देखें तो वह उसी सुन्दर वस्त्रों की जननी है। कहीं कविता सुनते हैं तो उसमें छिपे गूढ़ अर्थों को समझें तभी आन्नद आता है। अक्सर कवियों का मजाक उडाया जाता है पर वह अपने अनुभव से जो सृजन करते हैं उसकी अनुभूति वही कर सकता है जो उसे ध्यान से पढता और सुनता है। सोना और अपनी संतान को सूक्ष्म रूप में देखना चाहिऐ किकिस तरह परमात्मा ने इस संसार का सृजन किया है। हम केवल बाह्य रूप देखते हैं और अपना समझकर उसमें तल्लीन हो जाते हैं और यही हमारे दुख का कारण बनता है। हमें इस तरह देखना चाहिए कि यह परमात्मा के ही देन और रचना है इसी को सूक्ष्म रूप से देखना कहते हैं। इससे मन में निर्लिप्ता और निष्काम भाव उत्पन्न होता है जीवन का आनंद वास्तविक रूप में तभी महसूस किया जा सकता है।

Wednesday, March 5, 2008

रहीम के दोहे:बेसन का आटा अच्छा, मैदा का नष्ट होना ठीक

रहिमन रहिला की भली, जो परसै चित लाय
परसत मन मैलो करे, सो मैदा जरि जाय


कविवर रहीम कहते हैं कि बेसन का आटा हितकर है क्योंकि उसको प्रेम से शरीर पर मला जाता है जबकि जो तन और मन को गंदा करता है उस मैदा का नष्ट होना ही अच्छा है।

भावार्थ- जिस प्रकार के आचरण, विचार और कार्य से हमारा स्वयं का मन शुद्ध होता हो, दूसरे का उपकार होता है और लोगों की बीच अच्छी छवि बनती है वह अच्छा है और उसी तरफ अपनी दृष्टि रखनी चाहिऐ। हमें मन में ऐसा कोई विचार नहीं लाना चाहिए जिससे अपने या दूसरे के प्रति वितृष्णा का भाव पैदा होता हो। अपने आचरण और कार्य से किसी को हानि पहुँचती है तो उसको नहीं करना चाहिऐ। बुरे विचार को नष्ट कर देना चाहिऐ।

जबकि आजकल हम देख रहे हैं कि किसी को अपमानित कर लोग अपने को सम्मानित समझते हैं और दूसरे को हानि पहुंचाने में अपनी शक्ति का प्रदर्शन करते हैं और इतना ही नहीं अपने बच्चो को भी ऐसे संस्कार भरते हैं जो बाद में उनके लिए ही भयावह सिद्ध होते हैं। जो अपने कुकर्मों और बाहुबल से प्रभाव बनाते हैं लोग उनको सम्मान देते हैं और उनके प्रति आदर भाव व्यक्त करते हैं। जबकि उनकी तरफ से मुहँ फेर लेना चाहिऐ। बुरा व्यक्ति, आचरण, विचार और सामान त्याग देना चाहिऐ।

Tuesday, March 4, 2008

रहीम के दोहे:सूर्य उल्लू को नहीं दिखाई देता

सीत हरत, तम हरत नित, भुवन भरत नहिं चूक
रहिमन तेहि रबि को कहा, जौ लखै उलूक


कविवर रहीम कहते हैं कि जो सूर्य समस्त प्राणियों की ठंड को दूर करता है और प्रतिदिन पृथ्वी के अंधकार को नष्ट करता है। सारे संसार में प्रकाश बिखेरने वाला सूर्य उल्लू को नहीं दिखाई देता।

भावार्थ- जिस तरह सूर्य के प्रकाश को उल्लू नहीं देख पाता वैसे ही बुद्धि से रहित व्यक्ति ज्ञान से परे रहते हुए जीवन भर कष्ट उठाता है। कई लोगों के लिए तो ज्ञान एक तरह से विष की तरह होता है क्योंकि भ्रम में जीने के आदी ऐसे लोग ज्ञान की बात सुनकर मानसिक रूप से विचलित हो जाते हैं और अपने अज्ञान को ही ज्ञान समझने लगते हैं। जैसे सूर्य की रौशनी को उल्लू नहीं देख पाता वैसे ही मूर्ख लोग ज्ञान की बात नहीं सुनना चाहते। अत: नित सत्संग करते रहना चाहिए और साधू-संतों के सन्देश सुनते रहना चाहिए और और उनके ज्ञान को ग्रहण करना चाहिए। हमें यह नही देखना चाहिए कि कौन क्या कर रहा है? कई लोग संतों के दोष देखने लगते हैं वह उल्लू की तरह हैं जिन्हें अँधेरा प्रिय हैं। जो इस बात के परवाह नहीं करते कि किसका आचरण कैसा है और उनसे ज्ञान ग्रहण करते हैं वह सही मायने में मनुष्य बुद्धि हैं। जैसे सूर्य की रौशनी को उल्लू नहीं देख पाता वैसे ही मूर्ख लोग ज्ञान की बात नहीं सुनना चाहते। अत: नित सत्संग करते रहना चाहिए और साधू-संतों के सन्देश सुनते रहना चाहिए और और उनके ज्ञान को ग्रहण करना चाहिए।

Monday, March 3, 2008

रहीम के दोहे: मुखिया की चुगली आचरण को भ्रष्ट कर देती है

रोल बिगाड़े राज ने, मोल बिगाड़े माल
सनै सनै सरदार की, चुगल बिगाड़े चाल


कविवर रहीम कहते हैं कि राज्य पानी के बहाव को बिगाड़ देता है. मोलभाव करने से माल का महत्व कम हो जाता है. धीरे धीरे मुखिया की चुगलखोरी आचरण को बिगाड़ देती है।

भावार्थ- राज्य के मद में आदमी अहंकारी हो जाता है और पथ भ्रष्ट हो जाता है. किसी वस्तु का मूल्य अधिक माँगा जाता है तो लोग उसे खरीदने से इनकार कर देते हैं और जब अपने समूह का मुखिया जब अनाप-शनाप बकने लगता है तो लोगों का आचरण भ्रष्ट हो जाता है। मुखिया अपने समूहों को इधर-उधर से ऐसी खबरें (शिकायतें) देता है जिससे लोग उतेजित होकर उसका साथ देते रहे और यह उतेजना पूरे समूह को बुद्धि से भ्रष्ट कर देती है और वह अनावश्यक रूप से ऐसी समस्याओं के लिए आक्रामक हो जाते हैं जो कभी आती ही नहीं।

Sunday, March 2, 2008

रहीम के दोहे:राम नाम की बजाय उपाधि को महत्व देने वालों का जीवन व्यर्थ

राम नाम जान्यो नहीं, जान्यो सदा उपाधि
कहि रहीम तिहिं आपुनो, जनम गंवायो वादि


कविवर रहीम कहते हैं कि जिन लोगों ने नाम का नाम धारण न कर अपने धन, पद और उपाधि को ही जाना और राम के नाम पर विवाद खडे किये उनका जन्म व्यर्थ है. वह केवल वाद-विवाद कर अपना जीवन नष्ट करते हैं।

राम नाम जान्यो नहीं, भइ पूजा में हानि
कहि रहीम क्यों मानिहै, जम के किंकर कानि


कविवर रही कहते हैं कि जिस मानव ने राम की महिमा नहीं समझी और अन्य देवों की ही पूजा की तो उसमें उसे हानि ही होती है। ऐसे में यमराज के सेवक किसी मर्यादा को नहीं मानेंगे।
भाव-राम का नाम ही सत्य है और बाक़ी अन्य देवों की पूजा से क्या लाभ. उससे तो मन इधर उधर भटकता है ऐसे में जब मृत्यु आती है तो बहुत तकलीफ होती है और पूरा जीवन भी राम का नाम लिए बिना बडे कष्ट से बीतता है।

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