Saturday, July 31, 2010

पतंजलि योग शास्त्र-ध्यान में बहुत बड़ी शक्ति है (Patanjali yoga shastra-Power of Dhyan)

तदेवार्थमात्रनिर्भसं स्वरूपशून्यमिव समाधिः।।
हिन्दी में भावार्थ-
जब केवल अपना ही लक्ष्य दिखता है और चित्त में जब शून्य जैसा अनुभव होता वही समाधि हो जाता है।
त्रयमेकत्र संयम्।।
हिन्दी में भावार्थ-
किसी एक विषय पर ध्यान केंद्रित हो जाने तीनों का होना संयम् है।
तज्जयात्प्रज्ञालोकः।।
हिन्दी में भावार्थ-
उस विषय में जीत होने से बुद्धि का प्रकाश होता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-ध्यान मनुष्य के लिये एक श्रेष्ठ स्थिति है। चंचल मन तो मनुष्य को हर भल चलाता है इसलिये किसी लक्ष्य में संलिप्त होते ही उसका ध्यान उससे इतर विषयों पर चला जाता है। अनेक लोग एक लक्ष्य के साथ अनेक लक्ष्य निर्धारित करते हैं। इससे मस्तिष्क असंयमित हो जाता है और मनुष्य न इधर का रहता है न उधर का।
जब कोई मनुष्य एकाग्र होकर किसी एक विषय में रम जाता है तब वह ध्यान का वह चरम प्राप्त कर लेता है जिसकी कल्पना केवल सहज योगी ही कर पाते हैं। मूलत यह स्थिति मस्तिष्क से खेले जाने वाले खेलों शतरंज, ताश और शतरंज में देखी जा सकती है जब खेलने वाले किसी अन्य काम का स्मरण तक नहीं कर पाते। हालांकि शारीरिक खेलों-बैटमिंटन, क्रिकेट, हॉकी तथा फुटबाल में इसकी अनुभूति देखी जा सकती है पर अन्य अंग चलायमान रहने से केवल खेलने वाले को ही इसका आभास हो सकता देखने वाले को नहीं। हम अक्सर खेलों के परिणामों का विश्लेषण करते हैं पर इस बात पर दृष्टिपात नहीं कर पाते कि जिसका अपने खेल में ध्यान अच्छा है वही जीतता है। हम केवल खिलाड़ी के हाथों के पराक्रम, पांवों की चंचलता तथा शारीरिक शक्ति पर विचार करते हैं पर जिस ध्यान की वजह से खिलाड़ी जीतते हैं उसे नहीं देख पाते। यहां तक कि अभ्यास से अपने खेल में पारंगत खिलाड़ी भी इस बात की अनुभूति नहंी कर पाते कि उनका ध्यान ही उनकी शक्ति होता है जिससे उनको विजय मिलती है। जो पतंजलि येाग शास्त्र का अध्ययन करते हैं उनको ही इस बात की अनुभूति होती है कि यह सब ध्यान का परिणाम है। यही कारण है कि जिन लोगों का स्वाभाविक रूप से ध्यान नहीं लगता उनको इसका अभ्यास करने के लिये कहा जाता है।
इसका अभ्यास करने पर बुद्धि तीक्ष्ण होती है और अपने विषय में उपलब्धि होने पर मनुष्य के अंदर एक ऐसा प्रकाश फैलता है जिसके सुख की अनुभूति केवल वही कर सकता है।
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Thursday, July 29, 2010

मनुदर्शन-दूसरों पर निर्भर काम प्रारंभ न करें (apna hath jagnnath-manu darshan)

मनुष्य स्वभाव से ही अहंकारी होता है ऐसे में जब उसे कहीं अपने व्यक्तित्व के कमजोर होने की अनुभूति पर वह हताश होता है। आजकल लोगों ने अपनी जरूरतें इतनी बढ़ा ली हैं कि उसके लिये उनको दूसरों की सहायता लेनी पड़ती है जो कालांतर में उनके स्वाभिमान पर आघात पहुंचाती है। जब कोई मनुष्य अपना काम दूसरे पर छोड़ता है तब उसे इस बात का ज्ञान नहीं होता कि उसका बदला भी उसे चुकाना है। ऐसे में जब उसे प्रत्युत्तर में काम करना या दाम देना होता है तब उसका दम फूलने लगता है। शायद इसलिये कहा गया है कि अपना हाथ जगन्नाथ। इसलिये जहां तक हो सके दूसरों पर निर्भर होने वाला काम शुरु ही नहीं करना चाहिए।
सर्वे परवशं दुःखं सर्वमात्मवशं सुखम्।
एतद्विद्यात्समासेन लक्षणं सुखदुःखयोः।।
हिन्दी में भावार्थ-
जो कार्य दूसरे के अधीन है वह दुःखदायी होता है। जिस काम पर अपना पूरी तरह से नियंत्रण हो उसी से ही सुख मिलता है। यही सुख और दुःख का लक्षण है।
यत्कर्मकुर्वतोऽस्य स्यात्परितोषोऽन्तरात्मनः।
तत्प्रयतनेन कुर्वीत विपरीतं तु वर्जयेत्।
हिन्दी में भावार्थ-
जिस काम को करने से मन और अंतरात्मा को शांति मिलती हो वही करना चाहिए। जिससे इसके विपरीत स्थिति हो तो उस काम को त्याग देना चाहिए।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जब भी हमारे सामने कोई कार्य उपस्थित होता है तो उसके परिणामों, प्रकृति तथा स्वरूप पर अवश्य विचार करना चाहिए। कभी कोई कार्य दबाव या परप्रेरणा से नहीं करना चाहिऐ। इसके अलावा जो कार्य पूरे या आंशिक रूप से दूसरे पर निर्भर हो उसे अपने हाथ में न लें तो ही अच्छा। क्योंकि तब लक्ष्य की प्राप्ति दूसरे की गतिविधि पर निर्भर हो जाती है। अनेक बार ऐसा भी होता है कि दूसरा आदमी अगर अंदर ही अंदर द्वेष रखता है तो वह जानबूझकर उस काम का अपना पूरा या आंशिक दायित्व नहीं निभाता तब अपना लक्ष्य या अभियान संकट में पड़ जाता है।
इसके अलावा किसी भी कार्य को करते हुए इस बात पर भी विचार करना चाहिए कि उससे अपने मन और अंतरात्मा को संतोष मिलेगा या नहीं। जिस काम को करने से मन और अंतरात्मा में क्लेश होता हो उससे करने का विचार ही छोड़ दें तो ही अच्छा होगा। कहने का अभिप्राय यह है कि अपने हाथ से किये जाने वाले कार्यों पर विचार करना चाहिए ताकि उनके परिणामों को लेकर बाद में पछताना न पड़े। बुद्धिमान व्यक्ति किसी भी काम को करने से पहले उसके हर पहलू पर विचार कर लेते हैं।
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Wednesday, July 28, 2010

पतंजलि योग सूत्र-प्राणवायु अंदर बाहर निकालने से मन शुद्ध होता है (pranvayu aur man-Patanjli Yog Sootra)

            तंजलि योग सूत्र एक प्रमाणिक कला और विज्ञान है। आज जब हम अपने देश में अस्वस्थ और मनोरोगों के शिकार लोगों की संख्या को देखते हैं तो इसको अपनाने की आवश्यकता अधिक अनुभव होती है। पतंजलि योग एक बृहद साहित्य है और इसमें केवल आसनों से शरीर को स्वस्थ ही नहीं रखा जा सकता बल्कि प्राणायाम तथा वैचारिक योग से मन को भी प्रसन्न रखा जा सकता है। यह अंतिम सत्य है कि दवाईयां मनुष्य की बीमारियां दूर सकती हैं पर योग तो कभी बीमार ही नहीं पड़ने देता।

पतंजलि योग सूत्र में  कहा गया है
प्रच्छर्दनविधारणाभ्यां वा प्राणस्य।

     हिन्दी में भावार्थ-प्राणवायु को बाहर निकालने और अंदर रोकने के निरंतर अभ्यास चित्त निर्मल होता है।

विषयवती वा प्रवृत्तिरुपन्न मनसः स्थितिनिबन्धनी।।

हिन्दी में भावार्थ-विषयवाली प्रवृत्ति उत्पन्न होने पर भी मन पर नियंत्रण रहता है।
विशोका वा ज्योतिवस्ती।
हिन्दी में भावार्थ-इसके अलावा शोकरहित प्रवृत्ति से मन नियंत्रण में रहता है।
वीतरागविषयं वा चित्तम्।
हिन्दी में भावार्थ-वीतराग विषय आने पर भी मन नियंत्रण में रहता है।
     वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-भारतीय योग दर्शन में प्राणायाम का बहुत महत्व है। योगासनों से जहां देह के विकार निकलते हैं वहीं प्राणायाम से मन तथा विचारों में शुद्धता आती है। जैसा कि स्वास्थ्य विशेषज्ञ बताते आ रहे हैं कि इस विश्व में मनोरोगियों का इतना अधिक प्रतिशत है कि उसका सही आंकलन करना संभव नहीं है। अनेक लोगों को तो यह भी पता नहीं कि वह मनोविकारों का शिकार है। इसका कारण यह है कि आधुनिक विकास में भौतिक सुविधाओं की अधिकता उपलब्धि और उपयेाग के कारण सामान्य मनुष्य का शरीर विकारों का शिकार हो रहा है वहीं मनोरंजन के नाम पर उसके सामने जो दृश्य प्रस्तुत किये जा रहे है वह मनोविकार पैदा करने वाले हैं।
    ऐसी अनेक घटनायें आती हैं जिसमें किसी फिल्म या टीवी चैनल को देखकर उनके पात्रों जैसा अभिनय कुछ लोग अपनी जिंदगी में करना चाहते हैं। कई लोग तो अपनी जान गंवा देते हैं। यह तो वह उदाहरण सामने आते हैं पर इसके अलावा जिनकी मनस्थिति खराब होती है और उसका दुष्प्रभाव मनुष्य के सामान्य व्यवहार पर पड़ता है उसकी अनुभूति सहजता से नहीं हो जाता।
प्राणायाम से मन और विचारों में जो दृढ़ता आती है उसकी कल्पना ही की जा सकती है मगर जो लोग प्राणायाम करते और कराते हैं वह जानते हैं कि आज के समय में प्राणायाम ऐसा ब्रह्मास्त्र है जिससे समाजको बहुत लाभ हो सकता है।
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Saturday, July 24, 2010

श्री गुरुग्रंथ साहिब से-परमात्मा का नाम लिये बिना खाना पहनना अपवित्र (shri gurugranth sahib-parmatma ka nam)

उदम करहि अनेक हरि नाम न गावही।
भरमहि जोनि असंख मन जन्महि आवहीं।।
हिन्दी में भावार्थ-
श्री गुरुवाणी के अनुसार जो मनुष्य अनेक प्रकार के उद्यमों से सांसरिक उपलब्लियां तो प्राप्त करता है पर परमात्मा का नाम नहीं लेने से वह असंख्य योनियों में भटकता है।
सो कीउ मनहु विसारीअै जाके जीअ पराण
तिसु विणु सभु अपवितु है जेना पहिनणु खाणु।।’
हिन्दी में भावार्थ-
जिस ईश्वर ने हमें जीवन और प्राण उपहार में प्रदान किए हैं उसे भूलना अनुचित है। उसका स्मरण के बिना खाना और पहनना अपवित्र है।
अनिक रूप खिन माहि कुदरति धारदा।
हिन्दी में भावार्थ-
यह प्रकृति अत्यंत शक्तिशाली है जो पल भर में अनेक रूप धारण करती है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-एक सवाल अक्सर लोग पूछते हैं कि आखिर ईश्वर का नाम लेने से क्या लाभ है? जब संसार में हम स्वयं ही सारे काम कर रहे हैं और उसके फल भुगतने के लिये तैयार भी हैं तब किसका भय है?
दरअसल इसके लिये हमें अपने अंदर स्थित मन तथा बुद्धि तत्व को समझना जरूरी है। दुनियां की सारी दौलत के साथ शौहरत पाने वाला आदमी भी अपने को सुखी अनुभव नहीं करता तो गरीब का तो सवाल ही नहीं है तो यह प्रश्न उठता है कि सुख चीज क्या है? मनुष्य अपने कर्म से सांसरिक कार्यों में लिप्त रहता है पर उसकी आत्मा-जो वह स्वयं ही है- न खाने का सुख जानती है न पीने का वह अपने लिये शांति तलाशती है और न मिल पाने पर उसकी छटपटाहट ही मनुष्य के तनाव कारण बनती है। इसके अलावा मन तो महान खिलाड़ी है। महल में रहती देह को समझाता है कि झौंपड़ी वाला सुखी है और झौंपड़ी में रहने वाले को बताता है कि महल में तो सारे सुख हैं। मन का गुलाम मनुष्य इधर उधर दौड़ता है पर नहीं मिलता तो सुख! इसका कारण यह है कि आध्यात्मिक ज्ञान के अभाव में आदमी अपनी देह को देखता है अपने को नहीं। पाने का सुख तभी है जब त्याग करना जानते हों तो सोने का सुख बिस्तर से नहीं नींद आने से हैं। मन परिवर्तन चाहता है और ऐसे में सांसरिक वस्तुओं को इष्ट मानने वाला व्यक्ति परमात्मा का स्मरण करे तो उसे सुखद परिवर्तन की अनुभूति होती है। यही कारण है कि आज भी अनेक लोग मंदिरों में जाकर अपने मन को तसल्ली देते हैं।
हम यहां मूर्तिपूजा की भी चर्चा कर लें। दरअसल बनी तो वह किसी धातु या पत्थर की होती हैं पर जब हम उनको पूजते हैं तो हमारे अंदर ही ऐसी पवित्र भावनायें उठती हैं जो उसके भगवान होने की अनुभूति कराती हैं। हमें मूर्तियों की पूजा से भौतिक लाभ की अपेक्षा मानसिक लाभ का आंकलन करना चाहिये जो एकदम अनमोल होता है। एकदम निरंकार को पूजना सामान्य आदमी के लिये थोड़ा कठिन है इसलिये ही शायद मूर्तिपूजा के द्वारा उसमें भगवान का भौतिक स्वरूप स्थापित करने का प्रयास किया गया है जो कि अंततः निरंकार की तरफ ले जाता है।
कहने का अर्थ यह है कि सांसरिक विषयों में लिप्त रहने से ही शांति नही मिलती और परिवर्तन के लिये ही सही परमात्मा का नाम लेकर हम लाभ उठा सकते हैं।
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Sunday, July 18, 2010

धर्म संदेश-जाति पाति के भाव से रहित होने पर मनुष्य महावत हो जाता है

मनुष्य की बुद्धि कहीं न कहीं किसी प्रकार से विषयों से जुड़ती है जिसे हम योग भी कह सकते हैं। जब मनुष्य की बुद्धि स्वतः यह काम करती है तब वह अंधेरी गली में भटकता है। जहां मन में आया वही चले गये या फिर सोचने लगे। यह असहज योग की स्थिति है। मगर जब मनुष्य योग साधना और ध्यान से अपनी बुद्धि पर नियंत्रण कर लेता है तब यही बुद्धि रचनात्मक कार्यों में लग जाती है जिसके परिणाम सुखद होते हैं। यह सहज योग की स्थिति है। ऐसे में जो मनुष्य असहज योग के साथ जीते हैं उनमें जाति पाति तथा धन संपदा का अहंकार स्वतः आ जाता है जिससे वह आक्रामक होकर नकारात्मक राह पर चल पड़ता है। योगेश्वर श्री कृष्ण कहते हैं कि जो मुझे भजेगा वही मुझे मिलेगा पर उनको मानने वाले अनेक कथित मठाधीश हैं जो अपने यहां के आश्रमों में प्रवेश के लिये जातीय शर्ते लगा देते हैं। यह ढोंग सदियों से चल रहा है पर सच बात तो यह है कि ऐसे धर्मांध व्यक्ति न केवल स्वयं बल्कि समाज को भी अंधेरे में धकेलते हैं। पतंजलि योग दर्शन में इसी तरफ संकेत कर कहा गया है कि जाति पाति के भाव से रहित व्यक्ति महावत की तरह होता है।
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जातिदेशकालसमयानमच्छिन्नाः सार्वभौमा महाव्रतम्।
हिन्दी में भावार्थ
-जाति, देश, काल तथा व्यक्तिगत सीमा से रहित होकर सावैभौमिक विचार का हो जाने पर मनुष्य एक महावत की तरह हो जाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-महर्षि पतंजलि यहां पर मनुष्य को संकीर्ण विचाराधाराओं से बाहर आने का संदेश दे रहे हैं। योगासन और प्राणायाम के बाद मनुष्य की देह तथा मन में स्फूर्ति आती है तब उसके हृदय में कुछ नया कर गुजरने की चाहत पैदा होती है। ऐसे में वह अपने लक्ष्य निर्धारित करता है। उस समय उसे अपने मस्तिष्क की सारी खिड़कियां खुली रखना चाहिए।
हमारे देश में जाति, भाषा, वर्ण तथा क्षेत्र को लेकर संकीर्णता का भाव लोगों में बहुत देखा जाता है। सभी लोग अपने समाज की श्रेष्ठता का बखान करते हुए नहीं थकते। हमारे देश में समाज का विभाजन कर कल्याण की योजनायें बनायी जाती हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि व्यक्तिगत तथा सामूहिक रूप से काम करने में जातीय, भाषाई, तथा क्षेत्रीय भावनाओं की प्रधानता देखती है जाती है। इस संकीर्ण सोच ने हमारे देश के लोगों को कायर और अक्षम बना दिया है। भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिल रहा है क्योंकि हर आदमी अपने व्यक्तिगत दायरों में होकर सोचता है और उसे समाज से कोई सरोकार नहीं  है।
जिन लोगों को कुशल महावत की तरह अपने जिंदगी रूपी हाथी पर नियंत्रण करना है उनको अपने अंदर किसी प्रकार की संकीर्ण सोच को स्थान नहीं देना चाहिये। जब आदमी जातीय, भाषाई, वर्णिक तथा क्षेत्रीय सीमाओं के सोचता है तो उसकी चिंता अपने समाज पर ही क्रेद्रित होकर रह जाती है। तब उसे लगता है कि वह कोई ऐसा काम न करे करे जिससे उसका समाज नाराज न हो जाये। यहां तक कि इस डर से वह दूसरे समाज के लिये हित का न तो सोचता है न करता है कि वह उसके समाज का विरोधी है। इससे उसके अंदर असहजता का भाव उत्पन्न होता है। जब आदमी उन्मुक्त होकर जीवन में में विचरण करता है तब वह विभिन्न जातीय, भाषाई, तथा क्षेत्रीय समूहों में भी उसको प्रेम मिलता है जिससे उसका आनंद बढ़ जाता है।
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Saturday, July 17, 2010

संत कबीर वाणी-मनुष्य धन बटोरने के काम से थकता नहीं है (manushya ke dhan ki bhookh)

            प्रकृति में उत्पन्न समस्त जीवों में मनुष्य सबसे अधिक बुद्धिमान माना गया है और विचित्र बात यह है कि जहां अन्य जीव सीमित आवश्यकताओं के कारण अपना जीवन सामान्य रूप से गुजार लेते हैं जबकि मनुष्य असीम लालच और लोभ को अपने मन में स्थान देता है और सदैव संकट बुलाता है। संत कबीर दास जी ने अपने संदेशों में इसी तरफ इंगित किया है।
कबीरा औंधी खोपड़ी, कबहूं धापै नाहिं|
तीन लोक की सम्पदा, कब आवै घर माहिं||
      संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि मनुष्य की खोपड़ी उल्टी होती है क्योंकि वह कभी भी धन प्राप्ति से थकता नहीं है। वह अपना पूरा जीवन इस आशा में नष्ट कर देता है कि तीनों लोकों की संपदा उसके घर कब आयेगी।
     वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-इस दुनिया में मनुष्य ही एक ऐसा जीवन जिसके पास बुद्धि में विवेक है इसलिये वह कुछ नया निर्माण कर सकता है। अपनी बुद्धि की वह से ही वह अच्छे और बुरे का निर्णय कर सकता है। सच तो यह कि परमात्मा ने उसे इस संसार पर राज्य करने के लिए ही बुद्धि दी है पर लालच और लोभ के वश में आदमी अपनी बुद्धि गुलाम रख देता है। वह कभी भी धन प्राप्ति के कार्य से थकता नहीं है। अगर हजार रुपये होता है तो दस हजार, दस हजार से लाख और लाख से दस लाख की चाहत करते हुए उसकी लालच का क्रम बढ़ जाता है। कई बार तो ऐसे लोग भी देखने में आ जाते है जिनके पेट में दर्द अपने खाने से नहीं दूसरे को खाते देखने से उठ खड़ा होता है।
अनेक धनी लोग जिनको चिकित्सकों ने मधुमेह की वजह से खाने पर नियंत्रण रखने को कहा होता है वह गरीबों को खाता देख दुःखी होकर कहते भी हैंदेखो गरीब होकर खा कैसे रहा है। इतना ही नहीं कई जगह ऐसे अमीर हैं पर निर्धन लोगों की झग्गियों को उजाड़ कर वहां अपने महल खड़े करना चाहते हैं। आदमी एक तरह से विकास का गुलाम बन गया है। भक्ति भाव से पर आदमी बस माया के चक्कर लगाता है और वह परे होती चली जाती है। सौ रुपया पाया तो हजार का मोह आया, हजार से दस हजार, दस हजार से लाख और लाख से दस लाख के बढ़ते क्रम में आदमी चलता जाता है और कहता जाता है कि अभी मेरे पास कुछ नहीं है दूसरे के पास अधिक है। मतलब वह माया की सीढियां चढ़ता जाता है और वह दूर होती जाती है। इस तरह आदमी अपना पूरा जीवन नष्ट कर देता है।
   आजकल तो जिसे देखो उस पर विकास का भूत चढ़ा हुआ है। कहते हैं कि इस देश में शिक्षा की कमी है पर जिन्होने शिक्षा प्राप्त की है तो इसका मतलब यह कदापि नहीं है कि उन्होंने ज्ञान भी प्राप्त कर लिया है। इसलिये शिक्षित आदमी तो और भी माया के चक्कर में पड़ जाता है और उसे तो बस विकास की पड़ी होती है पर उसका स्वरूप उसे भी पता नहीं होता। लोगों ने केवल भौतिक उपलब्धियों को ही सबकुछ मान लिया है और अध्यात्म से दूर हो गये हैं उसी का परिणाम है कि सामाजिक वैमनस्य तथा मानसिक तनाव बढ़ रहा है। अत: जितना हो सके उतना ही अपनी पर नियंत्रण रख्नना चाहिये।
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Saturday, July 10, 2010

वेदांत दर्शन साहित्य-इच्छानुसार अभक्ष्य भोजन करना निषेध (kharab khana nishedh)

सर्वानन्नुमतिश्च प्राणात्ययेतद्दर्शनात्।।
हिन्दी में भावार्थ-
अन्न बिना प्राण न रहने की आशंका होने पर ही सब प्रकार के अन्न भक्षण करने की अनुमति है।
आबधाच्च
हिन्दी में भावार्थ-
वैसे आपातकाल में भी आचार का त्याग नहीं करना चाहिए।
शब्दश्चातोऽकामकारे।।
हिन्दी में भावार्थ-
इच्छानुसार अभक्ष्य भोजन करना निषेध ही है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-
आजकल फास्ट फूड के सेवन की प्रवृत्ति बढ़ रही है जिसे स्वास्थ्य विशेषज्ञ अच्छा नहीं मानते। इसके अलावा तंबाकू की रसायन युक्त पुड़िया की आज की युवा पीढ़ी भक्त हो गयी है जो कि हर दृष्टि से खतरनाक है। समस्या यह है कि यह सब लोग अपनी इच्छानुसार कर रहे हैं। देश का उच्च तथा उच्च मध्यम वर्ग घर में खाने की बजाय बाहर के भोजन करने को उत्सुक रहता है। परिणाम यह है कि देश के अंदर अस्वस्थ लोगों की भीड़ बढ़ती जा रही है। अब स्थिति यह है कि हर बड़े शहर में फाइव स्टार चिकित्सालय खुल गये हैं जिनमें अपने स्वस्थ जीवन की तलाश करने वाले लोगों की भारी भीड़ रहती है। शीतल पेयों को पीना फैशन हो गया है। गर्मी के अवसर पर लोग सादा पानी पीने की बजाय शीतल पेयों से प्यास बुझाते हैं जिससे अनेक प्रकार की बीमारियां होती हैं।
कहने का आशय यह है कि पूरे विश्व में अपने अध्यात्मिक ज्ञान की पहचान रखने वाला भारतीय समाज फैशन की वजह से अंधे रास्ते पर चल रहा है। जिन भक्ष्य पदार्थों तथा अशुद्ध पेयों के सेवन से परे रहना चाहिए उनको फैशन बना लिया है यह जाने बिना कि उनका उपयोग तभी करना चाहिये जब भक्ष्य पदार्थ तथा शुद्ध पेय उपलब्ध न हों। हमारे देश पर प्रकृति की विशेष कृपा है इसलिये ही यहां आज भी भूजल स्तर अन्य देशों से अधिक है। अनेक प्रकार के खनिज पदार्थ तथा प्रकृति संपदा उपलब्ध हैं। हम प्रकृति के आभारी होने की बजाय उससे दूर जा रहे हैं। जिसके कारण हम स्वर्ग में रहते हुए भी नरक के होने का आभास करते हैं। मनुष्य होकर भी पशु पक्षियों की तरह बाध्य होकर फैशन की मार झेल रहे हैं। अतः अपने खान पान को लेकर सजग होना चाहिये ताकि हमारी आने वाली पीढ़ियां स्वस्थ और सजग रहें।
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संकलक लेखक  एवं संपादक-दीपक भारतदीप
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Sunday, July 4, 2010

हिन्दू धर्म संदेश-अधम पुरुषों से परे रहना ही अच्छा (adhma purushon se pare rahna hi shreshth-hindu dharma sandesh)

हमारे साथ व्यापार अथवा नौकरी के कारण अनेक लोग संपर्क में आते हैं। उनसे संबंध बनाना मज़बूरी होती है पर जहां किसी व्यक्ति के चाल चलन या आदतों में बुराई का आभास हो उससे औपाचारिकतावश ही संबंध रखना ही अच्छा है न कि उससे आत्मीयता या एकता दिखाकर अपने लिये संकट को आमंत्रण देना। एक बात तय है कि आदमी अपना स्वभाव आसानी से नहीं बदलता इसलिये अपने साथ संपर्क में रहने वाला व्यक्ति अगर अन्य लोगों के लिये संकट खड़ा करता है या दूसरों की निंदा करता है तो समझ लीजिये कि वह किसी दिन अपने मित्र को भी नहीं बख्शने वाला। अतः मनुस्मृति वर्णित इस संदेश का भाव का रहस्य समझते हुए ही अपने संबंध श्रेष्ठ मनुष्यों के साथ विकसित करना चाहिए।
उत्तमैरुत्तमैर्नित्यं संबंधनाचरेत्सह।
निनीषुः कुलमुत्कर्षमधमानधर्मास्त्यजेत्।
हिन्दी में भावार्थ-
अपने परिवार की रक्षा तथा सम्मान में वृद्धि के लिये अच्छे परिवारों के साथ अपनी कन्या और पुत्र के संबंध बनाने चाहिए। खराब आचरण तथा धर्म विरोधी पुरुषों के परिवारों के साथ किसी प्रकार का संबंध स्थापित करना ठीक नहीं है।
उत्तमानुत्तमान्गच्छन्हीनाश्च वर्जवन्।
ब्राम्हण श्रेष्ठतामेति प्रत्यावयेन शूद्रताम्।।
हिन्दी में भावार्थ-
श्रेष्ठ पुरुषों से संबंध जोड़ने और नीच तथा अधम पुरुषों से परे रहने वाले विद्वान की प्रतिष्ठा बढ़ जाती है। इसके विपरीत श्रेष्ठ लोगों की बजाय नीच पुरुषों से संबंध बनाने वाला मनुष्य और उसका कुल कलंकित हो जाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-श्रेष्ठ व्यक्ति या परिवार के उच्च आचरण का पैमाना जाति, वर्ण, धन या भाषा नहीं वरन् चरित्र और व्यवहार है। आजकल तो मनुष्य जाति में जिस तरह पाखंड तथा ढोंग की प्रवृत्ति बढ़ गयी है ऐसे में किसी भी प्रकार के मैत्री या वैवाहिक संबंध सोच समझकर जोड़ना चाहिए। युवक युवतियां शैक्षणिक, व्यवसायिक तथा अन्य सार्वजनिक स्थानों पर एक दूसरे से मिलते हैं। लच्छेदार बातों से एक दूसरे पर प्रभाव डालकर संबंध बना देते हैं। कोई यह देखने का विचार भी नहीं करता कि सामने वाले का बौद्धिक, वैचारिक तथा चारित्रिक स्तर क्या है? इसलिये ही आजकल अधिकतर लोग मैत्री और प्यार में धोखे की शिकायत करते नज़र आते हैं। इतना ही नहीं माता पिता की उपेक्षा कर वैवाहिक जीवन साथी चुनने को लालायित युवक युवतियां जब बाद में निराश होते हैं तो आत्महत्या तक कर बैठते हैं। यौवन की अग्नि उनकी बौद्धिक सोच को कुंठित कर देते हैं और समझते हैं कि जैसे जीवन का पूरा अनुभव उनको हो गया है। वह माता पिता के अनुभव को पुराना समझकर उनकी उपेक्षा तो करते हैं पर उसके परिणाम कोई अच्छे नहीं रहते।
एक बात दूसरी भी है कि हमारे समाज के अनेक लोगों ने श्रेष्ठता का प्रमाण जाति, भाषा और आर्थिक स्तर मान लिया है जो कि गलत हैं। दरअसल जिस परिवार में उच्च विचार वाले लोग हैं वही श्रेष्ठ है। जिनका आचरण धार्मिक प्रवृत्ति का है वही श्रेष्ठ लोग हैं। मनोरंजन, विलासिता तथा श्रम बचाने वाले सुविधाभोगी साधनों का संचय करना ही उच्च कुल या व्यक्ति होने का प्रमाण नहीं है। न ही किसी जाति, भाषा या समूह का श्रेष्ठता पर एकाधिकार है। मुख्य विषय यह है कि वैवाहिक तथा मैत्री संबंध स्थापित करने से पहले अपने सामने वाली की बौद्धिक, वैचारिक, सामाजिक तथा चारित्रिक दृढ़ता को प्रमाणित कर लेना चाहिए। केवल चेहरा और पहनावा देखकर किसी को श्र्रेष्ठ मानकर उससे संबंध जोड़ना खतरनाक भी हो सकता है।
संकलक,लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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