Saturday, May 25, 2013

मनुस्मृति के आधार पर चिंत्तन-पाखंडी को दान देने वाला भी डूबता है (pakahandi ko dan dene wala bhee doobta hai

       
       वैसे तो हमारे देश में पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव के कारण खान पान, रहन सहन तथा कार्यपद्धति में अनेक परिवर्तन आये हैं।  इतना ही नहीं देश के पेशेवर धार्मिक स्वयंभूओं तथा संगठनों ने भी पश्चिमी देशों की व्यवसायिक कंपनियों की तरह अपने कामकाज का विस्तार किया है।  वह भक्ति के साथ भगवान का नाम अवश्य लें  पर उनका लक्ष्य माया पाना ही होता है। यह सच है कि इन्हीं धार्मिक ठेकेदारों ने अपने शिष्यों को दान तथा दया के आधुनिक प्रयासों के लिये प्रेरित नहीं किया ताकि पुरानी दान परंपरा के नाम पर उनके घर भरत रहें। दान देने के मामले में यही लोग गुरु बनकर दक्षिणा का  मुख अपनी तरफ किये रहते हैं।  तब वह कभी नहीं कहते कि यह दान दक्षिणा गरीब बच्चों की शिक्षा या असहायों की मदद के लिये व्यय करो। यह अलग बात है कि ऐसे साधन संपन्न धार्मिक व्यवसायी लोगों को दिखाने के लिये कथित रूप से गरीबों को खाना खिलाने और बच्चों को किताबें बांटने का काम स्वयं करते हैं। कभी अपने शिष्यों को अपने घर के आसपास स्थित जरूरतमंदों को मदद करने की प्रेरणा नहीं देते।
मनुस्मृति में कहा गया है कि
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यथा प्लवेनौपलेन निमज्जत्युदके तरन्।
तथा निमज्जतोऽधस्तदजो दातृप्रतीच्छकौ।।
         हिन्दी में भावार्थ-जिस तरह पानी में पत्थर की नाव पर सवार होने वाला व्यक्ति डूब जाता है उसी तरह पाखंडी विद्वान तथा उसका सहायक दानदाता दोनों ही पाप के भागी बनते हैं
तस्मादविद्वान्विद्यस्मात्तस्मात्प्रतिग्रहात्।
स्वल्पकेनाप्यविद्वान्हि पङ्के गौरवि सीदति।।
    हिन्दी में भावार्थ-पाखंडी विद्वान को दान देने से कोई लाभ नहीं होता। बल्कि उसे धन तथा पुण्य दोनों की हानि होती है। मूर्ख बनाकर दान लेने वाला विद्वान भी शीर्घ नष्ट होता है।
          सच बात यह है कि आधुनिक समय में समाज हित के लिये जिस व्यापक दृष्टिकोण की आवश्यकता है उसकी प्रेरणा कथित गुरु देना ही नहीं चाहते।  गरीबों को खाना खिलाना बुरी बात नहीं है पर प्रयास इस बात के होने चाहिये कि गरीबों को  अपने परिश्रम का उचित पारिश्रमिक मिले।  भीख मांगने वाले  को दान देते समय पुण्य का फल की कामना मन में रहती है तो लोग खुलकर देते हैं पर जब किसी मजदूर या सेवक को उचित पारिश्रमिक या वेतन देने की बात हो तो तब अमीर आदमी अपनी चतुराई पर उतर आता है।  उस समय वह मजदूर या सेवक के परिवार का पेट भरने में अपना पुण्य नहीं देखता।  यही कारण है कि अनेक भिखारी परिश्रम कर कमाने की बात कहने पर कहते हैं कि हमें तो अपने ही इस धंधे में ही इतनी कमाई है कि परिश्रम करने पर उसका दसवां हिस्सा भी नहीं मिल सकता।  यह हमारे समाज की बौद्धिक मूर्खता है कि वह मेहनतकश को उचित या अधिक पारिश्रमिक देने को दान नहीं मान पाता। यही कारण है कि हमारे देश में धनिक अधिक संख्या में पैदा रहे हैं पर समाज में उनके प्रति वैमनस्य भी उतनी तेजी से बढ़ रहा है।  सच बात तो यह कि हमारा आधुनिक समाज का संपन्न पहले की अपेक्षा अधिक मेहनतकशों पर निर्भर हो गया है पर उनका सम्मान नहीं करना चाहता जबकि अमीर गरीब के बीच स्थित तनाव से बचने का एक ही मार्ग है कि पूंजीगत शक्तियां मानव श्रम का उचित ढंग से लालन पालन करें।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 



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