Tuesday, June 24, 2008

संत कबीर वाणी -शिक्षा से मन में अहंकार बढ़ जाता है।

पढ़ते गुनते जनम गया, आसा लोगी हेत
बोया बीजहि कुमति ने, गया जू निर्मल खेत

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि पढ़ते और समझते यूं ही सारा जीवन व्यर्थ चला जाता है पर मनुष्य सांसरिक विषयों में ही लिप्त रहते हुए अपना जीवन नष्ट कर देता है। कुमति ऐसा बीज बो देतेी है कि मनुष्य का जीवन रूपी खेत नष्ट हो जाता है।

पढ़त गुनत रोगी भया, बढ़ा बहुत अभिमान
भीतर ताप जू जगत का, घड़ी न पड़ती सान


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं पढ़ते समझते आदमी रोगी और अहंकारी हो जाता है। उसके मन में संसारिक विषयों की अग्नि उसे दग्ध किये देती है पर उसे पल भर भी शांति नहीं मिलती।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-शिक्षित होने वालों को स्वाभाविक रूप से अहंकार तो आ ही जाता है। बहुत कम लोग ऐसे हैं जो यह समझते हैं कि विद्यालयों और महाविद्यालयों में दी जा रही सांसरिक विषयों से जीवन में अध्यात्मिक लाभ नहीं हो सकता है। इस विषय पर अधिक क्या कहा जाये? भारतीय अध्यात्म विषयों से परे वर्तमान शिक्षा प्रणाली से लोगों के चिंतन और मनन की प्रवृत्ति नहीं पैदा हो पाती। शैक्षणिक विषयों से संबंधित पुस्तकों का रट्टा लगा लिया और परीक्षा उत्तीर्ण करते हुए छोटे और बड़े पदों पर पहुंच जाते हैं। इसके बाद जब जीवन अध्यात्मिक ज्ञानकी बात आये तो अपने प्राचीनतम ग्रंथों के चंद वह श्लोक या दोहे सुनाते हैं जिनमें किसी वर्ग के प्रति नकारात्मक विचार होता है। यह श्लोक और दोहे होते हैं जो भारतीय अध्यात्म के विरोधी अपने प्रचार के लिऐ उपयोग करते हैं।

आखिर इस देश में इतने शिक्षित लोग हैं फिर अशांति क्यों है? कहीं भी दृष्टिपात करिये शिक्षित लोग ही अपराधिक कृत्यों में लिप्त हैं। यह इस बात को दर्शाता है कि शिक्षा के कारण में उनमें ऐसा अहंकार आ जाता है जो उनको भले-बुरे की पहचान नहीं होती। उनका पढ़ना लिखना निरर्थक है। वह अपने परिवार और समाज के लिये कोई हित नहीं करते।

दूसरी बात यह भी है कि भारतीय अध्यात्म ग्रंथ पढ़ने और सुनने वाले भी कोई भक्त नहीं हो जाते। अनेक कथित विद्वान यह ग्रंथ पढ़कर देहाभिमान से ग्रसित होते हैं और चाहे जहां अपना ज्ञान सुनाकर अपनी श्रेष्ठता का प्रचार करते हुए धनार्जन करते हैं। वह अपने ग्रंथों का वही ज्ञान सुनाते हैं जिससे सुनने वाले उनको गुरू मानते हूए दान-दक्षिण दें। सुनने वाले भी यह सोचकर प्रसन्न हो जाते हैं कि हमने सुनकर कोई पुण्य का काम कर लिया। समाज और देश के हित के लिऐ काम करने वाले शिष्य कोई नहीं बनाना चाहता। मुख्य बात यह है कि ग्रंथों का अध्ययन या श्रवण किया जाना पर्याप्त नहीं है बल्कि उसमें वर्णित ज्ञान को मन मस्तिष्क में धारण कर उस मार्ग पर चलने का है।

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