Thursday, April 28, 2011

अधर्मियों को न रोकना भी पाप का प्रमाण-हिन्दू धार्मिक चिंत्तन (adharam ko na rokana bhee paap ka praman-hindu dharmik chinttan)

         स्वयं पाप न करना ही धर्म का परिचायक नहीं है वरन् जिस पाप को रोकना संभव है उसका प्रतिकार न करना भी अधर्म है। हम अपने मित्रों, रिश्तेदारों या परिवार के सदस्यों के पाप में स्वयं लिप्त न हों पर उनको दुष्कर्म करते देख मौन रहना या उनको न रोकना भी अधर्म की श्रेणी में आता है। चूंकि मनुष्य को प्रकृति ने हाथ पांव, वाणी, तथा आंखें दी हैं और उसके साथ ही बुद्धि भी प्रदान की है तब यह उसके लिये आवश्यक है कि वह अपने समूहों को पाप कर्म से रोके। अगर कोई ऐसा सोचता है कि वह स्वयं पाप नहीं कर रहा है इसलिये वह धर्मभीरु है तो गलती पर है। यह उदासीनता अधर्म का ही एक बहुत बड़ा भाग है।
           हमारे वेद शस्त्रों में कहा गया है कि
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          धर्मादयेतं यत्कर्म यद्यपि स्यान्महाफलम्।
            न तत् सेवत मेधावी न तद्धिमिहोच्यते।।
               ‘‘इस धर्म का अर्थ बहुत व्यापक है। जहां विद्वान लोग न्याय का समर्थन नहीं करते वह अधर्मी ही कहे जाते हैं।
           यत्र धर्मोह्य्मेंण सत्यं यत्रानृतेन च।
          हन्यते प्रेक्षामाणानां हतास्तत्र सभासदः।।
       ‘‘जहां अधर्म को देखते हुए भी सभासद चुप रहते हैं और उसका प्रतिकार नहीं करते वह भी पाप के भागी हैं।’’
                 कहते हैं भी अन्याय करने से अधिक पाप अन्याय पाप सहना है। उतना ही पाप है अपने सामने अन्याय, व्याभिचार, भ्रष्टाचार और बेईमानी होते देखना। वैसे धर्म साधना एकाकी होती है पर उसका निर्वहन करना सामूहिक गतिविधियों में ही होता है। परमार्थ, दान तथा धर्म की रक्षा का दायित्व बोध बाहरी गतिविधियों से प्रमाणित होता है। जब कोई आदमी अपनी जाति, परिवार और मित्र समुदाय के पथभ्रष्ट होने पर यह सोचकर चुप रहता है कि वह अपना धर्म निभा रहा है तो उसे बताना चाहिए कि यह भी अधर्म का ही एक भाग है। धर्म का आशय यह है कि आप स्वयं पाप न करें तो दूसरे को भी करने से रोकें।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

Tuesday, April 26, 2011

योग शक्ति के बिना संसार का ज्ञान होना संभव नहीं-हिन्दू धार्मिक चिंत्तन (yog sadhana ki shakti-hindu dharmik chittan)

       अनेक योग प्रचारक अपने शिष्यों को तात्कालिक दैहिक प्रभाव दिखाने वाले आसनों तथा प्राणायामों के बारे में सिखाते हैं जबकि योग विधा के आठ अंग होते हैं जिनका ज्ञान होने पर आदमी ज्ञानी हो जाता है।
      इसमें कोई संशय नहीं है कि योगासन तथा प्राणायाम का बहुत महत्व है पर यह भी जरूरी है कि पतंजलि योग के मूल तत्वों का भी ज्ञान प्राप्त किया जाये। योगासन और प्राणायाम से शरीर में स्फूर्ति और स्थिरता आती है तब मानव मन कोई अच्छा विचार करना चाहता है। मन में बेहतर विषयों के अध्ययन के प्रति रुचि उत्पन्न होती है। ऐसे में भारतीय अध्यात्म ग्रंथों का अध्ययन करना एक महत्वपूर्ण कार्य साबित हो सकता है। पतंजलि योग में वर्णित आठों भागों का ज्ञान प्राप्त होने पर हमारे अंदर योग शक्ति का निर्माण होता है। मन के उतार चढ़ाव, इंद्रियों की गतिविधियों तथा देह के अंदर चल रही प्रक्रिया को हम अपनी अंतदृष्टि से देखते हैं। इससे हमारे अंदर संसार के व्यवहार का ज्ञान आता है।
                दक्षस्मृति में कहा गया है कि
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         लोको वशीकृतों येन यन चात्मा वशीकृतः।
         इन्द्रियार्थो जितोयने ते योग प्रब्रवीम्यहम्।।
               ‘‘योग से मनुष्य सारे संसार को वश में कर सकता है। बिना योग शक्ति के किसी को भी वश में करना संभव नहीं है। बिना योग के व्यवहार का भी ज्ञान नहीं होता न ही इंद्रियों की गतिविधियों को नियंत्रित किया जा सकता है।’’
                सच बात तो यह है कि बोलते, सुनते, स्पर्श करते, सूंघते और देखते हुए केवल एक प्रयोक्ता की तरह हो जाते हैं। अपने अंदर के स्वामित्व का आभास तनिक भी नहीं रहता। हमारी इंद्रियां कार्यरत हैं पर उन पर हमारी नज़र नहीं रहती। हमें लगता है कि सारे काम हम कर रहे हैं पर यह भूल जाते हैं कि यह सब इंद्रियों की गतिविधियों का परिणाम है। हम इंद्रियों के प्रयोक्ता हैं पर यह अहसास नहीं होता। यही अहसास अपने स्वामित्व होने का परिचय देता है और आदमी दृष्टा की तरह हो जाता है। तब वह संसार के व्यवहार के सिद्धांतों को अच्छी तरह समझता है। इसी कारण योग साधना तथा ध्यान में हमेशा तत्पर रहना चाहिए। इससे जो ज्ञान प्राप्त होता है वह आदमी को विश्व विजयी बना सकता है।
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संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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Friday, April 22, 2011

सांयकाल वंदना अवश्य करना चाहिए-हिन्दू धार्मिक चिंत्तन (sanykal vandna avashya karna chahie-hindu dharmik chittan)

          हमारे अध्यात्मिक दर्शन में बहुत सारी बातें स्वास्थ्य विज्ञान से संबंधित हैं तो हमारे धर्म में मनुष्य के मनोविज्ञान को भी बहुत महत्व दिया गया है। इसे आधुनिक लोग शायद ही समझ पाते हैं। मनुष्य तो अन्य जीवों की तरह पंच तत्वों से बना प्राणी है पर उसके पास बुद्धि की वह शक्ति जिसकी शक्ति पर अपने मन की हर बात पूरी कर सकता है जो अन्य जीवों में नहीं होती। मजे की बात यह है कि यह मन अपनी बात तो पूरी करवा लेता है पर उस बुद्धि की शक्ति के ज्ञान से से परे ही रहता है जो कि मनुष्य की ही शक्ति है। यही कारण है कि मनुष्य सारी सुविधायें होते हुए भी मानसिक तनाव में रहता है।
          हम अपने अंदर मानसिक तनाव का अध्ययन करें तो पायेंगे कि सांसरिक कार्यो में निरंतर सक्रिय रहने से उपजी एकरसता उसका एक कारण होती है। कुछ देर उनसे विरक्ति जीवन को नवीनता प्रदान करती है। यही कारण है कि हमारे यहां परमात्मा की निष्काम भक्ति की बात कही जाती है ताकि कुछ देर अपना मन तथा बुद्धि को सांसरिक कर्म से हटाकल दूसरी राह पर ले जाया जाये। सच बात तो यह है कि महल में सारी सुविधायें रहते हुए भी वह तब जेल लगने लगता है जब वहां से कहीं जाने का अवसर न मिले। यही कारण है कि हमारे यहां प्रातः तथा सांयकाल ईश्वर वंदना के लिये नियत किये गये हैं। प्रातः वंदना से हम पवित्र मन लेकर सांसरिक कार्य के लिये तैयार होते हैं तो सांयकाल प्रतिदिन कर्ममंथन से प्राप्त विषय का विसर्जन करते हैं।
सांयकाल वंदना पर दक्षस्मृति में कहा गया है कि
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संध्याहीनोऽशुचिर्नित्यमनर्हः सर्वकर्मसु।।
यदन्यत् कुरुते कर्म न तस्य फलमश्नुते।।
               ‘‘संध्यावंदन अवश्य करना चाहिए। ऐसा न करने वाला हमेशा ही अपवित्र रहता है और किसी भी कार्य करने का अघिकार नहीं रखता। जो सायंकाल जपादि नहीं करता उसके सारे कर्म निष्फल हो जाते हैं।’’
         सुबह जल्दी नहाने और ईश्वरीय वंदना करने से शरीर और मन में नवीनता की अनुभूति होती है। सुबह गायत्री मंत्र का जाप करना अत्यंत श्रेष्ठ कर्म माना जाता है। शाम को शांति पाठ अवश्य करना चाहिए ताकि दिन भर में अपने जीवन कर्म मंथन से  अशांति रूपी विष एकत्रित किया है उससे मन मुक्त हो सके।
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Wednesday, April 20, 2011

ज्ञानियों में बैठकर टूट जाता है भ्रम-हिन्दू धार्मिक चिंत्तन (gyan aur bhram-hindu dharmik chittan)

अगर हम शिक्षा या अध्यात्मिक ज्ञान से संबंधित किताबें पढ़कर यह सोचें कि कोई भारी ज्ञानी बन गये हैं तो यह हमारी ही मूर्खता का प्रमाण होता है। उसी तरह जब कोई कथित ज्ञानी इन्हीं किताबों से रटा रटाया ज्ञान हमारे सामने उसे बघारता है तो समझ लेना भी मूर्खता है कि वह कोई भारी ज्ञानी है। इसके अलावा अगर कोई तोता रटंत कथित ज्ञानी के पास ढेर सारे शिष्य हैं तो उसे भी कोई भारी सिद्ध नहीं समझ लेना चाहिए क्योंकि अपने नीरस जीवन से उकताये लोग लोग थोड़ा ज्ञान की बातें सुनकर प्रभावित हो जाते हैं पर आचरण कोई  नहीं  देखता। ज्ञान का प्रमाण तो व्यक्ति का आचरण है। ज्ञानी उसकी अनुभूति दूसरों को कराते हैं कि अपनी प्रशंसा करते हुए सुनाते हुए हैं। कोई भी ज्ञानी यह दावा नहीं कर सकता कि वह सिद्ध है क्योंकि वह जानता है कि ज्ञान की सीमा भी परमात्मा के रूप की तरह अनंत है।
इस विषय पर भर्तृहरि महाराज कहते हैं कि
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यदा किंचिज्ज्ञोऽहं द्विप मदान्धः समभवम्
तदा सर्वज्ञोऽस्मीत्यभवदवहनश्प्तं मम मनः।
यदाकिंचत्किंचिद् बुधजनसकाशादवगतम्
तदामूर्खोऽस्मीति ज्वर इव मदो मे व्यपगतः।।
‘‘जब मुझे कुछ ज्ञान हुआ तो हाथी की तरह मस्त होकर अपने ज्ञानी होने का अहंकार पालने लगा। मुझे लगा कि मैं ‘सर्वज्ञ’ हूं। लेकिन जब विद्वानों के बीच बैठा तो यथार्थ का ज्ञान हुआ और मेरा मद कम हो गया है। तब लगा कि मैं तो निपट मूर्ख हूं।’
श्रीमद्भागवत गीता में ज्ञान का प्रमाण मनुष्य का ‘स्थिरप्रज्ञ’ होना है। जो माने अपमान से परे हो, समदर्शी हो तथा निष्काम भाव से कार्य करने के साथ निष्प्रयोजन दया करने वाला हो। ऐसे में कोई ज्ञानी है या नहीं या उसके आचरण से तय करना चाहिए। उसी तरह अपने ज्ञानी होने का भ्रम तो कभी पालना ही नहीं चाहिए क्योंकि तब हम कोई नई बात नहीं सीख सकते।
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संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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Saturday, April 16, 2011

परिणाम का कर्म से संबंध जानना जरूरी-पतंजलि योग सूत्र (parinam ka karma se sanbandh-patanjali yoga sootra)

क्रमान्यत्वं परिणामन्यत्वे हेतुः।
‘‘किसी कार्य करने के क्रम में भिन्नता से परिणाम भी भिन्न होता है।’’
परिणामन्नयसंयमादतीतानागतज्ञानम्।।
‘‘अतीत, वर्तमान तथा भविष्य का विचार करने से परिणाम का ज्ञान हो जाता है।’’
                   पतंजलि योग में न केवल भौतिक तथा दृश्यव्य संसार को जानने की विधा बताई गयी है बल्कि अभौतिक तथा अदृश्यव्य स्थितियों के आंकलन का भी ज्ञान दिया गया है। हमारे सामने जो भी दृश्य आता है वह तत्काल प्रकट नहीं होता बल्कि वह किसी के कार्य के परिणाम स्वरूप ही ऐसा होता है। कोई व्यक्ति हमारे घर आया तो इसका मतलब वह किसी राह से निकला होगा। वहां भी उसके संपर्क हुए होंगे। वह हमारे घर पर जो व्यवहार करता है वह उसके घर से निकलने से लेकर हमारे यहां पहुंचने तक आये संपर्क तत्वों से प्रभावित होता है। वह धूप में चलकर आया है तो दैहिक थकावट के साथ मानसिक तनाव से ग्रसित होकर व्यवहार करता है। कोई घर से लड़कर आया है तो उसका मन भी वहीं फंसा रह जाता है और भले ही वह उसे प्रकट न करे पर उसकी वाणी तथा व्यवहार अवश्य ही नकारात्मक रूप से परिलक्षित होती है।
               कहने का अभिप्राय यह है कि हम प्रतिदिन जो काम करते हैं या लोगों हमारे लिये काम करते हैं वह कहीं न कहीं अभौतिक तथा अदृश्यव्य क्रियाओं से प्रभावित होती हैं। इसलिये कोई दृश्य सामने आने पर त्वरित प्रतिक्रिया नहीं व्यक्त करना चाहिए। हमें यह विचार करना चाहिए कि उस दृश्य के पीछे कौन कौन से तत्व हैं। व्यक्ति, वस्तु या स्थितियों से प्रभावित होकर ही कोई धटना हमारे सामने घटित होती है। जब हमें यह ज्ञान हो जायेगा तब हमारे व्यवहार में दृढ़ता आयेगी और हम अनावश्यक परिश्रम से बच सकते हैं। इतना ही नहीं किसी दृश्य के सामने होने पर जब हम उसका अध्ययन करते हैं तो उसके अतीत का स्वरूप भी हमारे अंतर्मन में प्रकट होता है। जब उसका अध्ययन करते हैं तो भविष्य का भी ज्ञान हो जाता है।
               हम अपने साथ रहने वाले अनेक लोगों का व्यवहार देखते हैं पर उसका गहराई से अध्ययन नहीं करते। किसी व्यक्ति के मन में अगर पूर्वकाल में से दोष रहे हैं और वर्तमान में दिख रहे हैं तो मानना चाहिए कि भविष्य में भी उसकी मुक्ति नहीं है। ऐसे में उससे व्यवहार करते समय यह आशा कतई नहीं करना चाहिए कि वह आगे सुधर जायेगा। योग साधना और ध्यान से ऐसी सिद्धियां प्राप्त होती हैं जिनसे व्यक्ति स्वचालित ढंग से परिणाम तथा दृश्यों का अवलोकन करता है। अतः वह ऐसे लोगों से दूर हो जाता है जिनके भविष्य में सुधरने की आशा नहीं होती।

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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Sunday, April 10, 2011

नाखून चबाने वाला शीघ्र नष्ट होता है-मनु स्मृति के आधार पर चिंत्तन (thought according munu smriti

             हम अपनी छोटी छोटी आदतों की तरफ ध्यान नहीं देते जबकि वही हमारे लिये जबरदस्त कष्ट का कारण बनती हैं। कुछ लोगों की आदत होती है कि वह अपने नाखून चबाते हैं। वह अपनी इस आदत पर ध्यान नहीं देते जबकि इससे उनको देखने वालों की दृष्टि में छवि खराब होती है। उन लोगों को यह मालुम नहीं कि हमारे नाखूनों में मिट्टी के साथ विषैले कीटाणु भी होते हैं। चबाने से वह मुख से होते हुए पेट में जाकर बीमारी पैदा करते हैं। यह बात आधुनिक विज्ञान अब कह रहा है जबकि हमारं मनु महाराज यह बात बहुत पहले ही कह गये।
मनु महाराज कहते हैं कि
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न विगृह्य कथां कुर्याद् बहिर्माल्य न धारेवेत्।
गवां च यानं पुष्ठेन सर्वथैव विगर्हितम्।।
‘‘उच्छ्रंखलता से वार्तालाप करना, दूसरों को दिखाने के लिये सोने की चैन पहनकर दिखाना और बैल की पीठ पर सवारी करना निंदाजनक कार्य हैं।’’
लोष्ठमर्दी तृपाच्छेदी नखखादी च यो नरः।
स विनाशं व्रजत्याशु सूचकोऽशुचिरेव सः।।
‘‘ऐसा व्यक्ति शीघ्र नाश को प्राप्त होता है, जो मिट्टी के बरतन पर मिट्टी के ढेले को साफ करता है, तिनकों को उखाड़ता है, अपने नाखूनों को चबाता है तथा चुगलखोरी करता है और अस्वच्छ रहता है।’’
              इसी तरह चाहे जब हम दूसरों की निंदा या चुगली करने लगते हैं। झूठे आरोप लगाकर दूसरे को बदनाम करते हैं। ऐसे एक नहीं अनेक कारनामे हैं जो दिखते बहुत छोटे हैं पर उनका दुष्प्रभाव व्यापक होता है।
अतः हमें अपने उठने बैठने, चलने फिरने तथा खाने पीने की आदतों पर ध्यान देना चाहिए। इसके लिये आवश्यक है कि योग तथा ध्यान कर अंतर्मुखी बना जाये। हमेशा बहिर्मुखी रहने से हम आत्ममंथन नहीं कर पाते और छोटी मोटी बुरी आदतों के बुरे प्रभाव का शिकार बने रहते हैं।
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संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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Thursday, April 7, 2011

योग में ‘संयोग’ भी होता है-हिन्दू धार्मिक चिंत्तन (yog aur sanyog-patanjali yoga sahitya)

                          स्वस्वामिशक्त्यो स्वरूपोपलब्धिहेतुः संयोगः।।
                 "जब स्व तथा स्वामी की शक्ति के स्वरूप का ज्ञान प्राप्त हो जाता है तो उसे संयोग कहा जाता है।"
           हमारी सृष्टि के दो रूप हैं एक तो भौतिक प्रकृति दूसरा अभौतिक जीवात्मा। प्रकृति स्वयं एक शक्ति है तो जीवात्मा भी अपना स्वामी स्वयं है। मनुष्य इस प्रथ्वी पर पंच तत्वों से बनी अपनी देह के साथ विचरण करते हुए सांसरिक पदार्थों का उपभोग करता है। यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। जब कोई मनुष्य तत्वज्ञान प्राप्त करता है तब वह दृष्टा की तरह अपना जीवन व्यतीत करता है। अपनी इंद्रियों के साथ कर्म करते हुए वह अपने कर्तापान का अहंकार नहीं पालता।
               यहां अज्ञानवश हर आदमी अपने इर्दगिर्द स्थित भौतिक संसार के स्वामी होने का भ्रम पाल लेता है। वह नहीं जान पाता कि उसकी देह में स्थित मन, बुद्धि और अहंकार ऐसी प्रकृतियां हैं जो उसे दैहिक स्वामित्व का बोध कराकर भ्रमित करते हुए इधर से उधर दौड़ाती हैं। यही कारण है कि भौतिक देह और अभौतिक जीवात्मा का कभी आपस में मेल नहीं  हो पाता। आदमी मन को ही आत्मा समझने लगता है।
           जब योग साधना, ध्यान, स्मरण तथा भक्ति से कोई मनुष्य इस सत्य को जान लेता है तब उसे संयोग कहा जाता है वरना तो सारा  संसार दुर्योग का शिकार होकर जीवन तबाह कर लेता है। दैहिक प्रेम क्षीण हों जाता है तब घृणा या उदासीनता पनपती है। उसी तरह स्वार्थ की मित्रता का क्षरण भी जल्दी होता है। सकाम भक्ति में कामना पूर्ण न होने पर मन संसार से विरक्त होने लगता है मगर जो तत्वज्ञान को जान लेते हैं वह कभी हताश नहीं होता। वह ऐसे संयोग देखकर मन  में  क्षणिक   प्रसन्नता होती  है जो अंततः दुर्योग का कारण बनती है। 
         यह संसार संकल्प  और बने संयोग और दुर्योग का खेल है। मन में जैसा संकल्प होगा वैसी ही हमारी दुनियां होगी।  सीधी मत कहें तो मन का योग ही हमारे सामने दुर्योंग और संयोग बनाता है। हम अपने विचार और आचरण पवित्र रखेंगे तो हमारे संकल्प भी पवित्र होंगे और वैसे ही हमारे सामने दृश्य उपस्थित होंगे और वैस ही लोग हमारे संपर्क में आयेंगे।
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संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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Saturday, April 2, 2011

इस धरती के तीन रत्नों की पहचान करें-हिन्दू धार्मिक लेख (dharti ke teen ratna-hindu dharmik lekh)

आधुनिक प्रचार माध्यमों के विज्ञापनों से पूरा भारतीय समाज दिग्भ्रमित हो रहा है। क्रिकेट खिलाड़ियांे, फिल्म अभिनेता तथा अभिनेत्रियों के अभिनीत विज्ञापन उपभोग की ऐसी खतरनाक प्रवृत्ति को जाग्रत करते हैं कि लोगों की अध्यात्मिक चेतना लुप्त हो गयी है। फिर हमारी शिक्षा व्यवस्था में ऐसी प्रणाली अपनाई गयी है जो केवल गुलाम बनाती है। ऐसे में अगर किसी में रचनात्मक प्रवृत्ति जाग्रत हो जाये तो वह पूर्व जन्म का ही प्रभाव समझे तो अच्छा है वरना तो अब व्यक्ति में चरित्र निर्माण की बजाय उसे प्रयोक्ता और सेवक बनने के लिये प्रेरित किया जा रहा है।
वैसे समाज की हालत तो कोई पहले भी अच्छी नहीं थी। सोना, चांदी, हीरा और रत्नों की चाहत हमारे समाज में हमेशा रही है। शायद यही कारण है कि हमारे मनीषी मनुष्य के अंदर मौजूद उस रत्न का परिचय कराते रहे हैं जिसे आत्मा कहा जाता है। इसके बावजूद लोग भौतिक संसार की चकाचौंध में खो जाते हैं और सोना, चांदी और हीरे की चाहत में ऐसे दौड़ते हैं कि पूरा जीवन ही अध्यात्मिक ज्ञान के बिना गुजार देते हैं। जिस अन्न और जल से जीवन मिलता है उसे तुच्छ समझते हैं एक पल का चैन न दे वही सोना गले लगा देते हैं। उसी तरह देहाभिमान से युक्त होने के कारण अधिक वाचाल होकर क्रूरतम शब्दों का प्रयोग करते हैं। जिससे समाज में वैमनस्य बढ़ता है।
महान नीति विशारद चाणक्य कहते हैं कि
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पृथिव्यां त्रीणी रत्नानि जलमन्नं सुभाषितम्।
मूर्खे पाणखण्डेषु रत्नसंज्ञा विधीयते।।
‘‘इस प्रथ्वी पर तीन ही रत्न हैं-अन्न, जल और मधुर वाणी, किन्तु मूर्ख लोग पत्थर के टुकड़ों को ही रत्न कहते हैं।’’

अक्सर लोग कहते हैं कि भारतीय लोगों के पास दुनियां के अन्य देशों के मुकाबले बहुत अधिक सोना है, मगर बहुत कम लोग जानते हैं कि उससे अधिक तो हम पर परमात्मा की यह कृपा है कि दुनियां के अन्य देशों से अधिक हमारे यहां भूगर्भ जलस्तर है। वैसे आजकल बाज़ार के सौदागर यह प्रयास भी कर रहे हैं कि यहां जल सूख जाये और उसे बेचकर अपने बैंक खाते बढ़ायें। अनेक तरह के ठंडे पेयों के कारखाने यहां स्थापित हो गये हैं जो अपने इलाके का पूरा जल पी जाते हैं। वहां का जलस्तर कम हो गया है पर भारतीय जनमानस ऐसी चकाचौंध में खो गया है कि उसे इसका आभास ही नहीं होता। जल जैसा रत्न हम खोते जा रहे हैं पर आर्थिक विकास का मोह ऐसा अंधा किये जा रहा है कि उसकी परवाह नहीं है।
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