Sunday, January 30, 2011

व्यसनों से कल्याण दूर होता है-हिन्दी चिंत्तन आलेख (vyasn aur kalyan-hindi chitan lekh)

मनुष्य अगर योगसाधना, अध्यात्मिक अध्ययन तथा दान आदि करे तो उसके व्यक्तित्व में चार चांद लग जाते हैं पर इसके लिये आवश्यक है कि वह सहज भाव के मार्ग का अनुसरण करे। सहज भाव मार्ग दिखने में बड़ा कठिन तथा अनाकर्षक है क्योंकि इसके लिये अच्छी आदतों का होना जरूरी है जो अपने अंदर डालने में कठिनाई आती है। सहज मार्ग में त्याग के भाव की प्रधानता है जबकि मनुष्य कुछ पाकर सुख चाहता है। त्याग के भाव के विपरीत यह मनुष्य का स्वभाव है कि वह व्यसनों की तरफ आकर्षित होता है क्योंकि वह त्वरित रूप से सुख देते हैं। शराब, तंबाकु, जुआ तथा मनोरंजक दृश्य देखकर मनुष्य बहुत जल्दी सुख पा लेता है यह अलग बात है कि कालांतर में वह तकलीफदेह होने के साथ ही उकताने वाले भी होते हैं, मगर तब तक मनुष्य अपनी शारीरिक तथा मानसिक शक्ति गंवा चुका होता है और तब अध्यात्मिक मार्ग अपनाना उसके लिये कठिन होता है।
व्यसनों के विषय पर महाराज कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में कहा है कि
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यस्माद्धि व्यसति श्रेयस्तस्माद्धयसमुच्यते।
व्यसन्योऽयो व्रजति तस्मात्तपरिवर्जयेत्।।
‘‘जिसका नाम व्यसन है उससे सारे कल्याण दूर हो जाते हैं। व्यसन से पुरुष का पतन होता है इस कारण उसे त्याग दे।’’
आजकल तंबाकु के पाउचों का सेवन जिस तरह हो रहा है उसे देखकर यह कहना कठिन है कि युवाओं में कितने युवा हैं। विभिन्न विषैले रसायनों से बने यह पाउच युवावस्था में ही फेफड़ों, दिल तथा शरीर के अंगों में विकृतियां लाते हैं। यह सब चिकित्सकों का कहना है न कि कोई अनुमान! शराब तो अब सांस्कृतिक कार्यक्रमों का एक भाग हो गयी है। उससे भी बड़ी बात यह कि अब तो मंदिर आदि के निर्माण के लिये पैसा जुटाने के लिये नृत्य और गीत के कार्यक्रम आयोेजित किये जाते हैं। इस तरह पूरा समाज ही व्यसनों में जाल में फंसा है। ऐसे में यह आशा करना कि धर्म का राज्य होगा एक तरह से मूर्खता है।
ऐसे में सात्विक पुरुषों को चाहिए कि वह अपनी योगसाधना, ध्यान तथा पूजा पाठ एकांत में करके ही इस बात पर संतोष करें कि वह अपना धर्म निर्वाह कर रहे हैं। इसके लिये संगत मिलने की अपेक्षा तो कतई न करें।
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संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

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Saturday, January 29, 2011

हमेशा बोलो और लिखो ‘बहुत बढ़िया’-हिन्दी चिंत्तन आलेख (hahesha bolo aur likho bahut badhiya or very nice-hindi chitan)

खुश रहना भी एक कला है जो हमारे अंतर्मन में विराजमान रहती है। हम अक्सर आपनी आखों से दूसरों के दोष देखने, कानों से दूसरे का अहित सुनने और वाणी से दूसरे के लिए निंदात्मक वाक्य कहने के आदी हो जाते हैं। यह आदत भले ही हमें अच्छी लगती है पर कालांतर में यह हमारे लिये मानसिक तनाव का ऐसा कारण बनर जाती है कि हमें कोई अच्छी चीज दिखाई नहीं देती। यहां तक सुखद वस्तुओं से स्वतः घृणा होने लगती है। हमारा स्वभाव नकारात्मक हो जाता है और इससे हम स्वयं ही नकारा हो जाते हैं।
आपने देखा होगा कि कुछ लोग हमेशा ही दूसरों से विनम्रता से पेश आते हैं और हमेशा ही अन्य लोगों को ‘बहुत अच्छा’ या ‘बहुत बढ़िया’ उनको प्रेरित करते हैं। भले ही लोग उनको चाटुकार या झूठा कहें पर सच यह है कि ऐसे लोग सकारात्मक विचाराधारा के होते हैं और अपनी जिंदगी आनंद से जीते हैं।
इस विषय पर मनु महाराज कहते हैं कि
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भद्र भद्रमिति ब्रूयाद् भ्रदमित्येव वा वदेत्।
शुष्कवैरं विवादं च न कुर्यात्केनचित्साह।।
‘‘सभ्य आदमी को हमेशा दूसरे के काम पर ‘बहुत बढ़िया‘ ‘बढ़िया’ ‘बहुत अच्छा’ या अच्छा जरूर बोलना चाहिये। किसी से व्यर्थ विवाद और शत्रुता नहीं करना चाहिये। न ही रूखा व्यवहार कर दूसरे को हतोत्तासहित करना चाहिये।’’
इस संसार में सभी लोग लोकप्रिय नहीं होते। कुछ तो अपने दृष्कृत्यों की वजह से निंदा का पात्र बनते हैं। अपने स्वार्थ में मस्त रहने वाले लोगों को कौन सम्मान देता है? समाज में वही मनुष्य लोकप्रिय होता है जो दूसरों को भी अच्छे काम के लिये प्रेरित करता है। इसलिये हमेशा ही हर पल दूसरे के काम पर उसकी प्रशंसा में बहुत अच्छा या अच्छा जरूर बोलना चाहिये। कहीं लिखकर किसी के कार्य की प्रशंसा करनी हो तो उसके लिये बहुत बढ़िया या बढ़िया शब्दों के उपयोग  की आदत डालना चाहिये। इससे न हमारा स्वभाव सकारात्मक होगा बल्कि दूसरों के बीच लोकप्रियता भी मिलेगी।
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Wednesday, January 26, 2011

बड़े आदमी की वजह से छोटे की उपेक्षा न करें-हिन्दी धार्मिक लेख (chhota aur badm aadmi-hindi dharmik lekh)

आजकल बड़े तथा पहुंचे हुए लोगों से संपर्क बनने की कुछ प्रवृत्ति ही अधिक हो गयी है। पुलिस, प्रशासन, राजनीति से जुड़े तथा अर्थजगत के शिखर पुरुषों के साथ मेल कर लोग बहुत खुश होते हैं। सामान्य आदमी से मित्रता या व्यवहार करना अब लोगों के लिये बोझ बन गया है। अनेक लोग तो केवल पुलिस अधिकरियों, प्रशासन में उच्च पदस्थ तथा राजनीति में सक्रिय लोगों से एक दो बार मिल क्या लेते हैं सभी जगह उनसे अपने संपर्क होने की गाथा गाते हुए थकते नहीं है।
हर आदमी सामान्य स्तर के मित्रों, रिश्तेदारों और साथियों को हेय दृष्टि से देखता है क्योंकि उसको लगता है कि यह किसी काम के नहीं है। जबकि सच यह है कि अपने जीवन की दिनचर्या से जुड़े यही लोग बहुत काम के होते हैं यह अलग बात है कि वह समस्यायें सहजता से दूर करते हैं इसलिये इसका आभास नहीं होता।
कविवर रहीम कहते हैं कि
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रहिमन देखि बड़ेन को, लघु न दीजिये डारि।
जहां काम आवे सुई, कहा करे तलवारि।।
‘‘बड़े लोगों को देखकर छोटे लोगों की उपेक्षा नहीं करना चाहिए। जहां सुई काम आती है वहां तलवार कुछ नहीं कर पाती।’’
हमारे साथ कुछ सामान्य लोग ऐसे होते हैं जिनके पास रहते हुए उनकी उपयोगिता का अनुभव नहीं होता इसलिये बड़ी हस्तियों से संपर्क बनाने लगते हैं। जबकि सच यह है कि बड़े तथा अमीर लोग केवल स्वार्थ की वजह से छोटे लोगों से संपर्क रखते हैं ताकि समय आने पर उनकी मदद मिल जाये न कि उनकी मदद करें। ऐसी अनेक घटनायें हुई हैं जिनमें लोग बड़े बड़े संपर्क होने का दावा करते हैं पर संकट आने पर उनको अपने आसपास के सामान्य लोगों की सहायता पर ही आश्रित रहना पड़ा है। साथ ही यह भी देखा गया है कि विपत्ति आने पर छोटे लोग फिर भी सहारा देते हैं जबकि बड़े लोग मुंह फेर लेते हैं।
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Saturday, January 22, 2011

जहां अपनी योग्यता की परवाह न हो वहां न जायें-हिन्दी अध्यात्मिक लेख (apni yogyta aur gun-hindi adhyatmik lekh)

सामान्यतः हर आदमी में यही चाहत होती है कि जहां चार लोग मिलें उसकी झूठी या सच्ची चाहे जैसी भी हो पर प्रशंसा जरूर हो। इसके लिये वह तमाम तरह के स्वांग रचता है। अनेक बार कुछ लोग आत्मप्रवंचना कर दूसरों को प्रभावित करने का प्रयास करते हैं। ऐसा कर सभी लोग अपने आपको धोखा देते हैं। प्रचार माध्यमों में क्रिकेट खिलाड़ियों तथा फिल्म अभिनेताओं का प्रचार देखकर अनेक लोग बौरा जाते हैं। लोग स्वयं या अपने बच्चों को नेता, क्रिकेट खिलाड़ी या अभिनेता बनाकर प्रतिष्ठा अर्जित करना  चाहते हैं। चंद चेहरों को पर्दे पर देखकर सारे देश के लोग ऐसी चकाचौंध में खो जाते हैं कि वैसा ही बनने की चाहते में हाथपांव मारते हैं।
इधर अध्यात्मिक चैनलों पर संतों के प्रवचनों की चकाचौंध देखकर अनेक लोग ऐसे भी हो गये हैं जो प्राचीन ग्रंथों का थोड़ा बहुत अध्ययन कर वैसे ही बनना चाहते हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि लोग योग्यता संचय या प्रतिभा निर्माण की बजाय प्रतिष्ठा अर्जन के लिये मरे जा रहे हैं। ज्ञान को रटना चाहते हैं धारण करना कोई नहीं चाहता। प्रबंध कौशल हो तो अल्पज्ञानी महाज्ञानी कहलाते हैं और अक्षम या नकारा लोग बड़े पदों पर भी सुशोभित हो जाते हैं। मगर सभी के लिये यह संभव नहीं है। सच तो यह है कि योग्य, प्रतिभाशाली, ज्ञानी तथा कुशल आदमी के लिये यही बेहतर है कि वह समय की प्रतीक्षा करे। वह ऐसे लोगों के बीच जाकर अपना गुणगान करने में अपना समय नष्ट न करे जो केवल अर्थ की उपलब्धि को ही सफलता का पैमाना मानते हैं।
संत कबीरदास जी कहते हैं कि
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जहां न जाको गुन लहै, तहां न ताको ठांव।
धोबी बसके क्या करे, दीगम्बर के गांव।।
‘‘जहां पर अपने गुण की पहचान न हो वहां अपना ठिकाना न बनायें। जहां वस्त्रहीन लोग रहते हैं वह कपड़े धोने के व्यवसायी का कोई काम नहीं है।’’
आजकल तो अंधों के हाथ बटेर लग गयी है। नकारा लोगों के पास पद, यश और धन आ गया है। ऐसे में वह योग्य आदमी की योग्यता से चिढ़ते हैं। उसकी गरीबी का मजाक बनाते हैं। इतना ही नहीं उनके चमचे और चेले भी उनका साथ निभाते हैं। ऐसे में अगर आप अपनी योग्यता, ज्ञान तथा भक्ति पर विश्वास करते हैं तो कभी दूसरे के कहने में न आयें न किसी दूसरी राह पर चलें। ऐसे अक्षम और नकारा लोगों का साथ छोड़ दें तो यही अच्छा है।
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Sunday, January 9, 2011

काला दूषित धन देश के लिए खतरा-हिन्दी चिंत्तन लेख (black money in india danger for country-hindi chitan lekh)

हम जब अपने देश की स्थिति को देखते हैं तो ऐसा लगता है कि चारों तरफ जो विकास की चकाचौंध है वह केवल दूषित या कालेधन की वजह से ही है। अंग्रेजी का विद्वान जार्ज बर्नाड शॉ कहता है कि बिना बेईमानी के कोई भी अमीर नहीं बन सकता। वैसे उसने यह बात पाश्चात्य सभ्यता को देखकर कही थी पर चूंकि हमने भी राज्य, समाज तथा शिक्षा व्यवस्था में उसी पश्चिमी संस्कृति को स्वीकार कर लिया है इसलिये हमारे देश पर भी यही सिद्धांत या फार्मूला लागू होता है। ऐसे में हम जहां भी बड़े धन के लेनेदेन देखते हैं तो यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठता है कि क्या वह दूषित धन का प्रताप नहीं है।
हमारे देश में कालाधन अब समस्या नहीं रही क्योंकि शायद ही कोई ऐसा अमीर हो जिसके पास सफेद धन अधिक हो। इसलिये यह कह सकते हैं कि यह तो हमारे समाज का एक भाग बन गया है। कालेधन में हमारी पूरी व्यवस्था के साथ ही समाज भी संास ले रहा है। एक तरह से आदत हो गयी है दूषित धन में सांस लेने की। जिस तरह हंस की आदत होती है कि वह मोती चुगता है और चिड़िया दाना उसी तरह हमारे समाज के कुछ लोगों को काला धन ही अपना सर्वस्व दिखता है। अब शिखर पुरुष हंस नहीं चिड़िया की तरह हो गये हैं। वह धन उनको दूषित नहीं बल्कि पवित्र दिखाई देता है। एक बात सच है कि मेहनत के दम पर केवल रोटी से पेट भरा जा सकता है पर ऐशोआराम केवल कालेधन या दूषित धन से ही अब संभव रह गया है। हम टीवी चैनलों पर विलासिता से भरी खबरों को देखते हैं जिनके पीछे केवल कालेधन का ही महिमा मंडन होता है। महान राजनीतिशास्त्री कौटिल्य महाराज ने अपने अर्थशास्त्र में कहा है कि-
दूष्यस्यादूषणर्द्यंव परित्यागो महयतः।
ऋते राज्यापह्यरातु युक्तदण्डा प्रशस्यते।।
‘‘दुष्य तथा दूषित अर्थ का अवश्य त्याग करना चाहिए। नीति ज्ञाताओं ने अर्थ हानि को ही अर्थ दूषण बताया है।’’
कितनी मज़ेदार बात है कि हम अक्सर यह सुनते हैं कि हमारे देश का बहुत अधिक धन स्विस बैंकों में पहुंच गया है। दरअसल यह हमारे देश की हानि है और इसी कारण हुई है कि वह पूरा धन काला या दूषित है। विश्व में अमीर देश की तरफ प्रतिष्ठित हो रहे देश की आम जनता महंगाई तथा अपराधों की मार से चीत्कार कर रही है। आज भी देश की जनता का एक बहुत बड़ा भाग गरीबी की रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहा है। नये वर्ष पर जब देश के टीवी चैनल देश में हो रही मस्ती दिखा रहे थे तब देश का एक बहुत बड़ा भाग सदी की ठिठुरन से लड़ते हुए अपनी सांसे बचा रहा था। यह विरोधाभास इसी दुषित धन का प्रमाण है। हम जब देश के खुशहाल होने की बात सोचते हैं तब इस दूषित धन के दुष्प्रभाव को नहीं भूला सकते। जिस पर विदेश मजे कर रहे हैं और देश गरीब झेल रहा है।
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Saturday, January 8, 2011

मणि का मूल्य कांच से अधिक ही रहता है-चिंत्तन आलेख (mani ka moolya kaanch se adhik rahega-hindi chinttan alekh)

मनुष्य का यह स्वभाव है कि वह दूसरों से मान और बढ़ाई पाना चाहता है। यही कारण है कि वह अपने अंतर्मन में ज्ञान उसी सीमा तक धारण करता है जिससे दूसरों के सामने अपने को ज्ञानी सिद्ध कर सके। मान पाने की इच्छा श्वान प्रवृत्ति का प्रमाण भी मानी जाती है। जिस तरह श्वान अपने मालिक को खुश करने की इच्छा से उसके आगे पीछे घूमा करता है उसी तरह मनुष्य अपने समुदाय में सम्मान के लिये उसके इर्दगिर्द अपना कर्म संसार बना लेता है जिससे उसकी मानसिकता संकीर्ण हो जाती है। इस प्रयास में न केवल वह ज्ञान के अभ्यास से विरक्त हो जाता है बल्कि अपने नियमित काम में सदाचार नहीं ला पाता। जीवन से लड़ने की उसकी शक्ति का भी हृास होता है। उसे लगता है कि अपने अंदर योग्यता या प्रतिभा का भंडार एकत्रित करने की बजाय सीमित मात्रा की क्षमताओं के माध्यम से ही अपना आत्मप्रचार कर किसी तरह सम्मान पाया जाये।
यह ज्ञान की कमी मनुष्य में आत्मविश्वास की कमी का प्रमाण है। इसके विपरीत कुछ असाधारण लोग सम्मान की परवाह किये बिना ही अपने नियमित कर्म करने के साथ ही भक्ति तथा सत्संग में व्यस्त रहने के साथ ही ज्ञान संचय भी किया करते हैं। उनको पता होता है कि अगर अपने अंदर ही प्रतिभा है तो उसका सम्मान होगा और न ही भी होगा तो वह उसका स्वयं आनंद उठायेंगे। वैसे इस बारे में नीति विशारद चाणक्य का कहना है कि
मकणिर्लुण्ठति पादाग्रे काचः शिरसि धार्यते।
क्रयविक्रयवेलायां काचः काचो मणिमेणिः।।
‘‘मणि यदि पैरों में भी लुढ़कती रहे और कांच को सिर पर धारण कर लिया जाए तब भी बाज़ार में सौदे के दौरान मणि की कीमत कांच से बहुत अधिक ही रहेगी।’’
जिन लोगों को अपने जीवन में सफलता प्राप्त करनी है उनको समय रहते ही अपने अंदर गुणों का संचय करना चाहिये। यह बात सही है कि चाटुकारिता के कारण अनेक लोग कम योग्यता के कारण ही पुज रहे हैं। इतना ही नहीं कला, साहित्य, तथा अन्य क्षेत्रों में गिरोह बन गये हैं जहां सामान्य योग्यता के दम पर ही प्रचार मिल जाता है पर जिससे अपने मन को संतुष्टि मिले तथा जिस काम की इतिहास में जगह दिखे वह केवल प्रतिभाशाली लोगों के हिस्से में ही आता है। इतना ही नहीं योग्य तथा प्रतिभाशाली अपने दम पर हमेशा ही अपना स्थान बनाये रखते हैं उनको किसी पितृपुरुष या मातृमहिला की आवश्यकता नहीं होती।
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