न कभी मांगी खुशी
न कभी उसने गम दिये
जब भी गये सर्वशक्तिमान के दरबार
जमाने भर के विषय
बाहर द्वार पर रख दिये
जिंदगी में उठते और गिरते रहे
पर उसको पुकारा नहीं
वह रहा चारों तरफ हर कहीं
आखें दी देखने के लिये
कान दिये सुनने के लिये
बुद्धि दी विचार के लिये
इससे ज्यादा उससे क्या मांगते
हाथ दिये हिलाने के लिये
पांव दिये चलने के लिये
पेट दिया पलने के लिये
इससे अधिक उससे क्या मांगते
तय किया फिर कभी न खड़े होंगे
उसकी दरबार पर मांगने के लिये
घूमती घरती और आकाश के
बीच जीवन जीते हुए
कभी गिरे तो कभी उठे
कभी दर्द मिला तो दवा भी मिली
उसके दरबार में जाकर उसका याद में
क्यों अपना समय बरबाद करते
ध्यान लगाकर उसके होने के अहसास में
ही इसलिये अपनी शक्ति व्यय करते
अपने ही हाथों से किसी पर दया करना
अपनी रोटी से ही किसी का पेट भरना
अपनी जुबान से सुंदर शब्दों का संवरना
कभी हमें अचरज में नहीं डालता
किसी के अपमान का दर्द नहीं सालता
किसी के भ्रम को अपना समझ कर नहीं पालता
इतनी शक्ति दी है उसने
सर्वशक्तिमान के आगे सिर झुकाता हूं इसलिये
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दीपक भारतदीप