Saturday, December 11, 2010

मनुस्मृति-प्रजा को डराने वाले अपराधियों को क्षमा नहीं करना चाहिए (manu smriti-praja aur apradhi)

साहसे वर्तमानं तु यो मर्थयति पार्थिवः।
सः विनाशं व्रजत्याशु विद्वेषं चाधिगच्छति।।
हिन्दी में भावार्थ-
जो राज्य प्रमुख दुस्साहस करने वाले व्यक्ति को क्षमा कर देता है वह स्वयं ही अतिशीघ्र नाश को प्राप्त होता है क्योंकि इससे राज्य की प्रजा में विद्रोह का भाव पैदा होता है।
न मित्रकारणांद्राजा विपुलाद्वाधनायामात्।
समुत्सृजेत्साहसिकान्सर्वभूतभयावहान्।।
हिन्दी में भावार्थ-
राज्य प्रमुख को चाहिए वह स्नेह अथवा लालचवश भी प्रजा में डर उत्पन्न करने वालो चोरों और अपराधियों को क्षमा न प्रदान करे।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुस्मृति का विरोध करते करते अनेक लोगों ने राजकाज में भागीदारी प्राप्त की मगर प्रजा को क्या दिया? सभी मुखौटों की तरह काम करते रहे। पूंजीपतियों और अपराध समूहों का आजकल इतना घालमेल हो गया है कि पता ही नहीं चलता कि राज्य वास्तव में उन लोगों से संचालित है जिनका चेहरा दिख रहा है या वह पुतले हैं जिनकी डोर कोई पीछे से खींच रहा है। दुस्साहस करने वाले अपराध्सियों पर हाथ डालना आसान नहीं रहा। प्रचार माध्यमों में घोटालों की चर्चा पर अगर विचार करें तो ऐसा लगता है कि राज्य का राजस्व लुट रहा है और जिम्मेदार लोग लाचार दिख रहे हैं। जो अनाज राज्य गरीबों के लिये सस्ते दामों पर बेचने के लिये भेजता है उसे राज्य के अधिकारी, कर्मचारी तथा व्यापारी मिलकर अपने कब्जे में ले लेते हैं। इधर ऐसे एक राज्य का गरीबों को बेचा जाने वा अनाज विदेशों में भेज दिया गया-इस घटना पर प्रचार माध्मयों के बहुत चर्चा है।
मनुस्मृति में केवल अपराधियों के लिये हीं कड़े दंड का प्रावधान नहीं वरन् उनकी अनदेखी करने वाले राज्य कर्मियों के लिये भी ऐसी ही व्यवस्था है। ऐसा लगता है कि राज्य कर्म से जुड़े कुछ तत्व मनुस्मृति की व्यवस्था और संदेशों से भय खाते हैं इसलिये ही निम्न जाति तथा स्त्रियों के प्रति कुछ संदेशों को लेकर दुष्प्रचार करते हैं ताकि कोई उनकी निष्कर्मता तथा लालच की वजह की जा रही लापरवाही पर लोग टिप्पणियां न करें। यही कारण है कि आज देश की व्यवस्था एकदम बुरी और दर्दनाक हो गयी है।
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संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
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Sunday, December 5, 2010

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-प्रमाद और अहंकार करने वाला शीघ्र नष्ट हो जाता है (kautilya ka arthshastra-pramad aur ahankar)

प्रकृतिव्यसननि भूतिकामः समुपेक्षेत नहि प्रमाददर्पात्।
प्रकृतिव्यवसनान्युपेक्षते यो चिरातं रिपवःपराभवन्ति।।
हिन्दी में भावार्थ-
विभूति की कामना से उत्पन्न प्रमाद और अहंकार की प्रकृति से उत्पन्न व्यसन की उपेक्षा न करें। प्रकृत्ति की व्यसनों की उपेक्षा करने वाला शीघ्र ही नष्ट हो जाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-प्रकृति के पंच तत्वों से बनी इस देह में मन, बुद्धि और अहंकार की प्रवृत्ति स्वाभाविक रूप से विद्यमान रहती है। जिनके पास भौतिक उपलब्धि है वह उसके आकर्षण में बंधकर मतमस्त हो जाते हैं। दूसरे को गरीब या अल्पधनी मानकर उसका मज़ाक उड़ाते हैं। मज़ाक न उड़ाये तो भी शाब्दिक दया दिखाकर अपने मन को शांति देने का प्रयास करते हैं। दरअसल यह सब दूसरों से ही नहीं बल्कि अपने साथ भी प्रमाद करना ही है। इस संसार में भगवान की तरह माया का खेल भी निराला है। किसी के पास कम है तो किसी के पास ज्यादा है, इसमें मनुष्य की कोई भूमिका नहीं है। यह अलग बात है कि अज्ञानवश वह अपने को कर्ता मान लेता है। इसी कारण वह कभी प्रमाद तो कभी अहंकार के भाव से ग्रसित होकर व्यवहार करता है।
आज हम देश के हालात देखें तो यह बात समझ में आ जायेगी कि जिन लोगों के पास धन, प्रतिष्ठा और पद की उपलब्धि है वह दूसरे को अपने से हेय समझते हैं। नतीजा यह है कि आम इंसानों में उनके प्रति विद्रोह के बीज पड़ गये हैं। शिखर पुरुषों को यह भ्रम है कि आम आदमी उनसे जाति, धर्म, भाषा तथा क्षेत्र के बंटवारे के कारण उनसे जुड़े हैं जो कि उनके किराये के बुद्धिजीवी बनाकर रखते हैं। मगर सच तो यह है कि शिखर पुरुषों से अब किसी की सहानुभूति नहीं है। भले ही प्रचार माध्यम कितने भी दावा करें कि जनता प्रसिद्धि लोगों को देखना और सुनना चाहती है। अब तो हर आदमी यह जान गया है कि शिखर पर अब बिना ढोंग, पाखंड या बेईमानी के कोई नहीं पहुंच सकता। अगर ऐसा न होता तो देश के अनेक शिखर पुरुष अपने घरों के बाहर सुरक्षा उपाय नहीं करते। इतना ही नहीं अनेक तो राह चलते हुए भी सुरक्षा लेकर चलते हैं। इसका मतलब सीधा है कि अपने ही कारनामों को उनके अंदर भय व्याप्त है। गरीबों से भरे देश में सुरक्षा एक मुद्दा बन गयी है।
फिर अब शिखर पर भी झगड़े होने लगे हैं। एक जाता है तो दूसरा आ जाता है। यह अस्थिरता इसलिये हैं क्योंकि प्रमाद और अहंकार में लगे शिखर पुरुष जल्दी जल्दी अपना आकर्षण खो देते हैं। शिखर बैठकर वह अपने वैभव का प्रदर्शन कर वह एक दूसरे को प्रभावित तो कर सकते हैं पर आम आदमी को नहीं।
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Saturday, December 4, 2010

चाणक्य नीति-शास्त्र तथा उत्तम पुरुषों का मजाक उड़ाना गलत (chankya neeti in hindi-shastra aur uttam purush)

अन्यथा वेदपाण्डित्यं शास्त्रमाचारमन्यथा।
अन्यथा कुवचः शान्तं लोकाः क्लिश्यन्ति चान्यथा।।
हिन्दी में भावार्थ-
वेदों के तत्वज्ञान, शास्त्रों के विधान तथा उत्तम पुरुषों के चरित्र को मिथ्या कहने वाले लोग लोक परलोक दोनों में कष्ट उठाते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-देश में घोटालों, भ्रष्टाचार तथा अपराधों की बाढ़ आयी हुई है। टीवी चैनल देखने तथा अखबार पढ़ने से तो यही लगता है कि देश में नरक बन गया है। हैरानी की बात है कि अनेक विद्वान तथा समाज सेवक भ्रष्टाचार के विरुद्ध अभियान छेड़े हुए हैं पर परिणाम शून्य दिखाई दे रहा है। इसका कारण यह है कि भारतीय अध्यात्म का वही लोग मज़ाक उड़ा रहे हैं जो आधुनिक शिक्षा से शिक्षित हैं और उनके पास ही समाज और राज्य संचालन का दायित्व भी है। वह अपने प्रति शिष्टाचार का भाव की अभिव्यक्ति के रूप में प्रस्तुत उपहारों का भ्रष्टाचार की परिधि में ही नहीं मानते।
कहीं राम पर तो कहीं कृष्ण के चरित्र पर आक्षेप होते हैं। वेदों का मज़ाक उड़ाया जाता है तो रामायण में भी अप्रमाणिक उत्तर रामायण के हिस्से लेकर समाज पर आक्षेप किये जाते हैं। पूरा भारतीय विद्वान जगत विचारधाराओं में बंटा हुआ है पर अपने ही अध्यात्म ज्ञान से अनभिज्ञ है। भारतीय अध्यात्म का मज़ाक उड़ाने वाले तो अज्ञानी है पर उनका प्रतिकार करने वाले भी तत्व ज्ञान नहीं जानते इसलिये बहस में कमजोर पड़ जाते हैं। यही कारण है कि कुछ अल्पज्ञानी गाहे बगाहे भारतीय अध्यात्म का मज़ाक उड़ाते हैं।
हालांकि हमारे देश में धर्म के प्रति जनमानस में गहरा लगाव है पर उनके कुछ कर्मकांड अंधविश्वास की परिधि में आते हैं, पर इसी आधार पर पूरे अध्यात्म दर्शन का मखौल उड़ाना भी कम अज्ञान का प्रमाण नहीं है। मनुस्मृति को लेकर अनेक लोग बवाल करते हैं पर वह कौन हैं? क्या उन्होंने राजकीय भ्रष्टाचार पर कभी मनु संदेशों का अध्ययन किया गया है। भ्रष्टाचारियों पर दंड के विधान का मनुस्मृति समर्थन करता है पर कभी उस पर नज़र नहीं डाली गयी। कहा जाता है कि मनुस्मृति में महिलाओं और निम्न जातियों के लिये अपमान जनक संदेश है
जबकि सच तो यह है कि मनु ने यह कहा है कि जिन घरों में महिलाओं का सम्मान नहीं होता उनका जल्दी विनाश हो जाता है। योग्यता के अनुसार सभी को सम्मान देने की बात भी उसमें कही गयी है। हम अगर आज के कथित आधुनिक समाज को देखें तो क्या पश्चिमी राह पर भी चलकर क्या औरतों और निम्न जातियों का सम्मान करने लायक बन पाया?
भ्रष्टाचार में डूबे लोग और उनकी अभिव्यक्ति को शाब्दिक रूप देने वाले लिपिक कभी भी भारतीय अध्यात्म का रहस्य नहीं समझ पाये। जिनका रोम रोम भ्र्रष्टाचार और अहंकार से भरा है वही भारतीय अध्यात्म पर प्रतिकूल टिप्पणियां करते हैं। वह नहीं जानते कि समय के अनुसार बदलने की प्रेरणा केवल भारतीय अध्यात्म दर्शन में ही मिलता है।
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Saturday, November 20, 2010

पतंजलि योग विज्ञान-दूसरे के चित्त का ज्ञान होना संभव (patanjali yoga vigyan-doosre ke chitta ka gyan sanbhav)

प्रत्ययस्य परचितज्ञानम्
हिन्दी में भावार्थ-
चित्त की वृत्ति का ज्ञान होने पर दूसरे के चित्त को भी जाना जा सकता है।
न च तत्सालब्बनं त्साविषयीभूतत्वात्।
हिन्दी में भावार्थ-
किन्तु वह ज्ञान आलम्बनसहित नहीं होता क्योंकि वह योगी के चित्त का विषय नहीं है। मतलब यह कि दूसरा किसी वस्तु पर चिंतन कर रहा है इसका आभास नहीं होता।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-योगी अपने योगासन, ध्यान, प्राणायाम तथा मंत्रजाप का अभ्यास करते हुए अपने चित्त का साक्षात्कार करने लगते हैं। इस साक्षात्कार से उनके दूसरों के चित्त की भी सारी वृत्तियों का स्वरूप उनकी समझ में आ जाता है। इसी आधार पर वह अपने व्यवहार और संपर्क में पास आने वाले लोगों के चित्त की भावनाओं का आभास करने लगते हैं पर वह उसके अंदर चल रही भौतिक विषय का आभास नहीं करते। कोई व्यक्ति अपने साथ व्यवहार में बेईमान करने वाला है यह तो समझ में आ जाता है पर इससे वह कौनसा भौतिक लक्ष्य वह प्राप्त करना चाहता है इसका आभास नहीं होता। किसी ने ठगी कि या भ्रष्टाचार किया इसका पता चल जाता है पर उसने अपने लिये कौनसा सामान जुटाया यह पता नहीं लगता। मतलब यह कि दूसरे के चित्त की अभौतिक वृत्ति जानने तक ही उस ज्ञान की एक सीमा है।
प्रसंगवश हम यहां धूर्त तांत्रिकों की भी बात कर लें जो कहीं बच्चा खो जाने या धन चोरी हो जाने पर उसका पता बताते हैं। यह उनके लिये संभव नहीं है। जब बड़े बड़े योग में पूर्णता प्राप्त करने वाले योगी भी इतना भौतिक आभास नहीं पा सकते तो वह ढोंगी तांत्रिक यह काम कैसे कर सकते हैं। हां, इतना अवश्य है कि योगी अन्य मनुष्य की वाणी, चाल चलन तथा विचारों से उसके व्यक्तित्व और भावना का मूल्यांकन आसानी से कर लेते हैं और उसके अनुसार ही उससे व्यवहार और संपर्क की सीमा तय करते हैं।
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Wednesday, November 17, 2010

पतंजलि योग दर्शन-स्वशक्ति तथा स्वामीशक्ति का संयोग (patanjali yog dershan-swashakti and swamishakti ka sanyog)

स्वस्वामिशक्त्योः स्वरूपपोपलब्धिहेतुः संयोगः।
हिन्दी में भावार्थ-
स्वशक्ति और स्वामीशक्ति के स्वरूप की प्राप्ति का जो कारण है वह संयोग है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-यह सृष्टि दो तरह के आधारों पर चलती है। एक तो उसकी स्वयं की शक्ति है दूसरा जीव का अस्तित्व। इस प्रथ्वी पर अन्न उत्पादन की क्षमता है पर वह तभी उपयोग हो सकता है जब कोई जीव परिश्रम कर उसका दोहन करे। खेती या बागवानी के माध्यम से मनुष्य अन्न, फल तथा अन्य भोज्य पदार्थों को उत्पादित करता है। यह खेती और बागवानी संयोग है क्योकि यह प्रकृति तथा जीव के परिश्रम के बीच में एक ऐसी क्रिया है जो उत्पादन का कारण है।
जब हम इस बात को योग साधना, प्राणायाम तथा ध्यान के विषय में विचार करते हैं तब इसका अनुभव होता है कि हमारी देह भी एक तरह से सृष्टि है जिसकी स्वशक्ति है । उसमें हमारा आत्मा या अध्यात्म की भी शक्ति है जिसे हम स्वामीशक्ति मानते हैं। देह और आत्मा के संयोग के लिये प्रयास की आवश्यकता है जिसे हम योग साधना भी कह सकते हैं। हमारी देह में मन, बुद्धि और अहंकार रूपी प्रकृति हैं जिनका दोहन करने के लिये आसन, प्राणायाम, ध्यान तथा मंत्रजाप एक ऐसी क्रियाविधि है जो संयोग का निमित बनती है। इनसे देह के विकार निकलने के बाद वह जीवन में वैसे ही परिणाममूलक बनती है जैसे कृषि या बागवानी करने के बाद प्रथ्वी फल, फूल तथा अन्न प्रदान करती है। हमारी देह की स्वशक्ति और आत्मा की स्वामीशक्ति के स्वरूप का आभास योगसाधना के माध्यम से ही संभव है। यही कारण है कि हमारे अध्यात्म में योगासन, प्राणायाम, ध्यान तथा मंत्र जाप के साथ ही तत्व ज्ञान को जानने के प्रयास को बहुत महत्व दिया गया है।
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Sunday, November 14, 2010

विवाद न करना भी एक तरह से आसन-धार्मिक विचार (vivad n karna bhee ek tarah se asan-dharmik vichar)

क्षीणस्य चैव क्रमशो दैवात् पूर्वकृतेन वा।
मित्रस्य चानुरोधेन द्विविधं स्मृतमासनम्।।
हिन्दी में भावार्थ-
जब शक्ति क्षीण हो जाने पर या अपनी गलतियों के कारण चुप बैठना तथा मित्रों की बात का सम्मान करते हुए उनसे विवाद न करना यह दो प्रकार के शांत आसन हैं।
यदावगच्छेदायत्वयामाधिक्यं ध्रृवमात्मनः।
तदा त्वेचाल्पिकां पीर्डा तदा सन्धि समाश्चयेत्।।
हिन्दी में भावार्थ-
भविष्य में अच्छी संभावना हो तो वर्तमान में विरोधियों और शत्रुओं से भी संधि कर लेना चाहिए।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-किसी भी मनुष्य के जीवन में दुःख, सुख, आशा और निराशा के दौर आते हैं। आवेश और आल्हाद के चरम भाव पर पहुंचने के बाद किसी भी मनुष्य का अपने पर से नियंत्रण समाप्त हो जाता है। भावावेश में आदमी कुछ नहीं सोच पाता। मनु महाराज के अनुसार मनुष्य को अपने विवेक पर सदैव नियंत्रण करना चाहिये। जब शक्ति क्षीण हो या अपने से कोई गलती हो जाये तब मन शांत होने लगता है और ऐसा करना श्रेयस्कर भी है। अनेक बार मित्रों से वाद विवाद हो जाने पर उनके गलत होने पर भी शांत बैठना एक तरह से आसन है। यह आसन विवेकपूर्ण मनुष्य स्वयं ही अपनाता है जबकि अज्ञानी आदमी मज़बूरीवश ऐसा करता है। जिनके पास ज्ञान है वह घटना से पहले ही अपने मन में शांति धारण करते हैं जिससे उनको सुख मिलता है जबकि अविवेकी मनुष्य बाध्यता वश ऐसा करते हुए दुःख पाते हैं।
जीवन में ऐसे अनेक तनावपूर्ण क्षण आते हैं जब आक्रामक होने का मन करता है पर उस समय अपनी स्थिति पर विचार करना  चाहिए। अगर ऐसा लगता है कि भविष्य में अच्छी आशा है तब बेहतर है कि शत्रु और विरोधी से संधि कर लें क्योंकि समय के साथ यहां सब बदलता है इसलिये अपने भाव में सकारात्मक भाव रखते स्थितियों में बदलाव की आशा रखना चाहिए। कहने का अभिप्राय यह है कि हमेशा ही शांत होकर अपना काम करना चाहिए। शांत रहना भी एक तरह से आसन है।
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Saturday, November 6, 2010

मनुस्मृति-चोरी रुकने पर ही राष्ट्र का विकास संभव (chori rukne par hi rashtra ka vikas sanbhav)

परमं यत्नमतिष्ठेत्सतेनानां निग्रहे नृपः
सोनानां निग्रहाददस्ययशो राष्ट्रं च वर्धते।
हिन्दी में भावार्थ-
चोरों को पकड़ने के लिये राजा या राज्यप्रमुख को पूरी तरह से कोशिश करना चाहिए। अगर वह ऐसा करता है तो राष्ट्र विकास करता है और प्रजा प्रसन्न होती है।
सर्वतो धर्मः षड्भागो राज्ञो भवति रक्षतः।
अधर्मादपि षड्भागो भवत्यस्य हयऽरक्षतः।।
हिन्दी में भावार्थ-
जो राजा या राज्य प्रमुख चोरों से अपनी प्रजा की रक्षा करता उसे समग्र प्रजा के पुण्य का उठा भाग प्राप्त होता है और जो ऐसा नहीं करता उसे प्रजा के पापों का छठा भाग दंड के रूप में प्राप्त होता है।
वर्तमान संदर्भ में सम्पादकीय व्याख्या-राजा और राज्य प्रमुख के कर्तव्यों का मनुस्मृति में व्यापक रूप से वर्णन किया गया है। राजा या राज्य प्रमुख के दायित्वों का निर्वहन एक धर्म के पालन की तरह होता है। जब कोई मनुष्य राजा या राज्य प्रमुख के पद पर प्रतिष्ठित होता है तब उसे राज्य धर्म का पालन करते हुए अपने प्रजाजनों की चोरों, अपराधियों तथा बेईमानों से रक्षा करना चाहिए। मज़ेदार बात यह है कि मनृस्मृति के जाति तथा स्त्री संबंधी अनेक संदेशों को समझ के अभाव में बुद्धिमान लोग अनर्थ के रूप में लेते हैं। आज के अनेक पश्चिमी शिक्षा से अभिप्रेरित विद्वान तथा वहीं की विचाराधारा के अनुगामी बुद्धिजीवी इन्हीं संदेशों के कारण पूरी मनृस्मुति को ही अपठनीय मानते हैं। निश्चित रूप से ऐसे बुद्धिजीवी सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक शिखर पुरुषों से प्रायोजित और संरक्षित हैं। आज के हमारे शिखर पुरुष कैसें हैं यह सभी जानते हैं। भारतीय अध्यात्म तथा दर्शन में वर्णित पाप पुण्य को अंधविश्वास इसलिये नहीं कहा जाता है कि हमारे बुद्धिजीवी कोई प्रशिक्षित ज्ञानी हैं बल्कि वह मनुस्मृति के अध्ययन से विरक्त होकर शुतुरमुर्ग की तरह अपने मन में मौजूद अपराध भावना से स्वयं छिपकर ऐसी ही सुविधा अपने आकाओं को भी देते हैं। जो राजा या राज्य प्रमुख अपनी प्रजा की चोरों, अपरािधयों तथा बेईमानों से रक्षा नहीं करता वह पाप का भागी बनता है, मगर मनु महाराज ने कभी यह सोचा भी नहीं था कि इस भारतवर्ष जैसी देवभूमि पर ही राज्य से संबंधित कुछ लोग असामाजिक, अपराधी तथा भ्रष्ट तत्वों से अपनी जनता की रक्षा बजाय उनको ही संरक्षण देकर महापाप करेंगे। जब कोई मनुस्मृति के संदेशों का विरोध करता है तो वह यकीनन ऐसे राज्य का समर्थन कर रहा है जो प्रजा की रक्षा ऐसे दुष्ट तत्वों से बचाने में नाकाम रहता है। स्पष्टतः आज के अनेक प्रसिद्ध बुद्धिजीवी इसलिये ही संदेह के दायरे में आते हैं क्योंकि वह किसी न किसी ऐसे व्यक्ति का समर्थन करते हैं जो राज्य धर्म का पालन नहीं करता।
ऐसा लगता है कि असामाजिक, अराजक, चोरी कर्म तथा अन्य अपराध के कार्यों और उनको संरक्षण देने में लगे लोग पाप पुण्य की स्थापित विचारधारा की चर्चा से अपने को दूर रखना चाहते हैं इसलिये ही वह भारतीय अध्यात्म की चर्चा सार्वजनिक होने से घबड़ाते हैं ताकि कहीं उनका मन सुविचारों की गिरफ्त में न आ जाये। वह अपने ही कुविचारों में सत्य पक्ष ढूंढते हैं। उनका नारा है कि ‘आजकल की दुनियां में चालाकी के बिना काम नहीं चलता।’ अपने पाप को चालाकी कहने से उनका मन संतुष्ट होता है और सामने सत्य कहने वाला कोई होता नहीं है और लिख तो कोई नहीं सकता क्योंकि प्रचार कर्म से जुड़े लोग उनके धन से प्रायोजित है। यही कारण है कि राम राज्य की बात करने वाले बहुत हैं पर वह आता इसलिये नहीं क्योंकि वह एक नारा भर है न कि एक दर्शन।
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Friday, November 5, 2010

विदुर नीति-दुर्गुण देखने वाले किसी के गुण नहीं देखते (vidur darshan-gun aur avgun)

न तथेच्छन्ति कल्याणम् परेवां वेदितुं गुणम्।
यथैवां ज्ञातुमिच्छन्ति नैगुण्यं पापचेतसः।।
हिन्दी में भावार्थ-
महात्मा विदुर कहते हैं कि जिनका मन पाप में लिप्त है वे लोग दूसरों के कल्याणमय गुणों को जानने की वैसी ही इच्छा नहीं करते जितनी उत्सुकता उनके दुर्गुणों में रहती है।
अर्थसिद्धि परामिच्छन् धर्ममेवादितश्यचरेत्।
न हि धर्मादपैत्यर्थः स्वर्गलोकविदवामृतम्।
हिन्दी में भावार्थ-
जो पूर्ण से भौतिक उपलब्धि प्राप्त करना चाहते हैं उसे धर्म के अनुसार ही आचरण करना चाहिए। जिस प्रकार स्वर्ग से अमृत दूर नहीं होता उसी तरह धर्म के पास ही अर्थ रहता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या -आजकल टीवी चैनलों, रेडियो और समाचार पत्र पत्रिकाओं में दुर्घटनाओं, दुव्यर्वहार तथा दुष्टतापूर्ण बयानों से सनसनी फैलती इसलिये ही नज़र आ रही है क्योंकि व्यवसायिक मनोरंजनकर्ता यह जानते हैं कि मनुष्य के हृदय में दूसरों के दोष देखने की स्वाभाविक प्रवृत्ति है। तमाम मंचों पर धर्म, अर्थ और समाज के विषयों पर बहसें होती हैं तब एक निंदक और प्रशंसक बिठाया जाता है ताकि लोग दोषों को सुनकर आनंद लें। कत्ल, लूट, अपहरण दुर्घटनाओं की खबरें प्रमुखता से छपती हैं और निष्प्रयोजन दया, निष्काम कर्म तथा धर्म के काम में लगे रचनाकारों की चर्चा नगण्य ही हो पाती है। देवी देवताओं की नग्न तस्वीरों पर प्रयोजित रूप से हाय हाय कर चित्रकारों को प्रसिद्धि दिलाई जाती है परन्तु जो तमिलनाडु के शिवकाशी में बैठे लोग सौम्य तस्वीरो बनाते हैं उनकी चर्चा कोई नहीं करता। हम यहां प्रसारणों और प्रकाशनों की प्रवृत्ति की नहीं बल्कि आम जनों की चर्चा कर रहे हैं जिनमें यह प्रवृत्ति होती है कि विध्वंस, दोष तथा व्यसन उनको आसानी से अपनी तरफ आकर्षित करते हैं। दरअसल उनमें ही किसी का गुण देखने की इच्छा नहीं है जिसका लाभ व्यवसायिक मनोरंजन कर्ता अपनी कमाई के लिये उठाते हैं।
एक बात याद रखें कि मायावी संसार का विस्तार होता है हालांकि वह अत्यंत कमजोर ढांचे पर टिका होता है जबकि सत्य अत्यंत सूक्ष्म है पर शक्तिशाली है। इस सूक्ष्म को तत्वज्ञान से ही जाना जा सकता है। सत्य बीभत्स दिखता है पर उसका प्रभाव अत्यंत सुंदर है जबकि माया आकर्षक है पर अत्यंत उसमें लोभ पालना दुःख का हेतु बनता है। हम देख रहे हैं कि अधर्म अपनी चरम पर पहुंच चुका है। इसके लिये खास या आम लोगों दोनों ही जिम्मेदार हैं। धर्म का पालन करने में एक्शन या सक्रियता नज़र नहीं आती जबकि अधर्म में वह सब है जो दूसरों को आकर्षित करता है। यही कारण है कि समाज में किसी भी तरह धन, प्रतिष्ठा तथा पद पाने की लालसा बढ़ रही है जिसमें लोग आत्मा, आचरण तथा अपने लोगों को ही दांव लगा देते हैं। ऐसा नहीं है कि समाज में भले लोगों की कमी है पर मुश्किल यह है कि उनका आकर्षण विस्तारित रूप नहीं लेता जिससे दूसरों पर प्रभाव पड़े। इसे यूं भी कहना चाहिए कि वह प्रचार नहीं करते इसलिये उनसे कोई प्रेरणा नहीं लेता। यह अलग बात है कि धर्म के ज्ञानी लोग इस तथ्य का जानते हुए अपने काम में लगे रहते हैं।
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Saturday, October 30, 2010

श्रीगुरुवाणी-नाम स्मरण करने वाले के दिन और रात सुहावनी होती हैं (shri guruvani-naam samran se din aur raat suhavane)

दिनु रैणि सभ सुहावणे पिआरे जितु जपीअै हरि नाउ।’
हिन्दी में भावार्थ-
श्री गुरुवाणी में संत फरीद की इस रचना के अनुसार जब मनुष्य ईश्वर के नाम का स्मरण हृदय से करता है तो उसके लिए सभी दिन और रातें सुहावनी हो जाती हैं।
माइआ कारनि बिदिआ बेयहु जनमु अबिरथा जाइ।
हिन्दी में भावार्थ-
श्री गुरुग्रंथ साहिब के अनुसार पैसे के लिए विद्या बेचने वालों जन्म व्यर्थ जाता है।
फरीदा जा लबहु त नेहु किआ लबु त कूढ़ा नेहु।
किचरु झति लघाइअै छप्पर लुटै मेहु।
हिन्दी में भावार्थ-
संत फरीद के अनुसार अगर परमात्मा की भक्ति लालच या लोभवश की जाती है तो वह सच्ची नहीं है। एक तरह से बहुत बड़ा झूठ है। ठीक वैसे ही जैसे टूटे हुए छप्पर से पानी बह जाता है वैसा ही हश्र कामना सहित भक्ति का होता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-श्रीगुरुग्रंथ साहिब के अनेक संत कवियों की रचनायें शामिल हैं जिसमें संत फरीद का नाम भी आता है। इन सभी संत कवियों ने निष्काम भक्ति के लाभ बताये हैं। दरअसल मनुष्य कामनाओं के साथ हमेशा जीता है और इस कारण पैदा होनी वाली एकरसता अंततः मन में भारी ऊब तथा खीज पैदा करती है। कई लोग मूड बदलने के लिये कहीं पर्यटन तथा पिकनिक के लिये जाते हैं पर फिर लौटते हैं तो वही असंतोष जीवन को घेर लेता है जिसके साथ जी रहे हैं।
अपने मन का मार्ग बदलने के लिये निष्काम होना जरूरी है इसके लिये परमात्मा का नाम स्मरण करना एक श्रेष्ठ मार्ग हैं। मुश्किल यह है कि अज्ञानी मनुष्य भक्ति में कामना रखकर ही चल पड़ता है और इससे उसको कोई लाभ नहीं मिलता। इतना ही नहंी अनेक लोग तो ज्ञान प्राप्त कर उसे बेचकर अपने मन को संतोष देने का प्रयास करते हैं। ऐसे ढोंगी भले ही समाज में पुजते हैं पर मन तो उनका भी संताप से भरा रहता है। निष्काम भक्ति तभी संभव है जब अपने मन को केवल नाम स्मरण में यह सोचकर लगाया जाये कि उससे कोई भौतिक लाभ हो या नहीं पर शांति मिलनी चाहिए।
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संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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Wednesday, October 27, 2010

श्रीगुरुग्रंथ साहिब-धन न होने पर पत्नी, पुत्र, मित्र तथा संबंधी आदमी को छोड़ देते हैं (shri gurugranth sahib-dhan aur sambandh)

इहु धनु करते का खेल है कदे आवै कदे जाइ।
गिआनी का धनु नामु है सद ही रहे समाइ।।
हिन्दी में भावार्थ-
श्री गुरुग्रंथ साहिब के अनुसार सांसरिक धन तो ईश्वर का खेल। कभी किसी आदमी के पास आता है तो चला भी जाता है। ज्ञानी का धन तो प्रभु का नाम है जो हमेशा उसके हृदय में बना रहता है।
दारा मीत पूत सनबंधी सगर धन सिउ लागै।
जब ही निरधन देखिउ नर कउ संगि छाडि सभ भागै।
हिन्दी में भावार्थ-
श्री गुरु ग्रंथ सहिब के अनुसार पत्नी, मित्र, पुत्र और संबंधी तो धन के कारण ही साथ लगे रहते हैं। जिस दिन आदमी निर्धन हो जाता है उस दिन सब छोड़ जाते हैं।
धन जीबन का गरबु न कीजै कागद जिउ गलि जाहिगा।
हिन्दी में भावार्थ-
किसी भी मनुष्य को अपने जीवन और धन पर गर्व नहीं करना चाहिऐ। यह दोनों कागज की तरह है चाहे जब गल जायें।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्य जीवन की यह विचित्र माया है कि उसकी अनुभूति में धन दुनियां का सबसे बड़ा सत्य है जबकि उससे बड़ा कोई भ्रम नहीं है। आधुनिक योग में सारे देशों की मुद्रा कागज की बनी हुई है और केवल राज्य के विश्वास पर ही वह धन मानी जाती है। मजे की बात यह है कि अनेक लोगों के पास तो वह भी हाथ में न रहकर बैंकों के खातों में आंकड़ों के रूप में स्थापित होती है। अनेक लोगों के खातों में दर्ज आंकड़ें तो इतने होते हैं कि वह स्वयं सौ जीवन धारण कर भी उनको खर्च नहीं कर सकते मगर फिर भी इस कागजी और आंकड़ा रूपी धन के पीछे अपना पूरा जीवन नष्ट कर देते हैं।
हम अपने जिस शरीर के बाह्य रूप को मांस से चमकता देखते हैं अंदर वह भी कीचड़ से सना रहता है। धीरे धीरे क्षय की तरफ बढ़ता जाता है। धन या देह न रहने पर अपने सभी त्याग देते हैं तब भी मनुष्य दोनों के लेकर भ्रम पालता है। उससे भी ज्यादा बुरा तो यह भ्रम हैं कि हमारे लोग हमेशा ही निस्वार्थ भाव से हमारे साथ हैं। हर आदमी स्वार्थ के कारण ही दूसरे से जुड़ा है। अलबत्ता कुछ परम ज्ञानी तथा ध्यानी महापुरुष संसार और समाज के हित के लिए निष्काम भाव से कर्म करते हैं पर वह भी इसके फल में लिप्त नहीं होते बल्कि उनका फल तो परमात्मा की भक्ति पाना ही होते। वह जानते हैं कि कागज का धन आज हाथ में आया है कल चला जायेगा। यह केवल जीवन निर्वाह का साधन न न कि फल।
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Saturday, October 23, 2010

पतंजलि योग विज्ञान-देश काल से संपर्क टूटने पर भी संस्कार बने रहते हैं (patanjali yoga vigyan-deshkal aur sanskar)

महार्षि पतंजलि के अनुसार 
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जातिदेशकालव्यवहितानामप्यानष्यानन्तर्य स्मृतिसंस्कारयोरेकरूपत्वात्।।
हिन्दी में भावार्थ-
पतंजलि योग सूत्र के अनुसार जाति, देश काल इन तीनों से संपर्क टूटने पर भी स्वाभाविक कर्म संस्कारों में बाधा नहीं आती क्योंकि स्मृति और संस्कारों का एक ही रूप होता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हम इस श्लोक में योग के संस्कारिक रूप को समझ सकते हैं। जब मनुष्य बच्चा होता है तब उसके अपने घर परिवार, रिश्तेदारी, विद्यालय तथा पड़ौस के लोगों से स्वाभाविक संपर्क बनते हैं। वह उनसे संसार की अनेक बातें ऐसी सीखता है जो उसके लिये नयी होती हैं। वह अपने मन और बुद्धि के तत्वों में उन्हें स्वाभाविक रूप से इस तरह स्थापित करता है जीवन भर वह उसकी स्मृतियों में बनी जाती हैं। कहा भी जाता है कि बचपन में जो संस्कार मनुष्य में आ गये फिर उनसे पीछा नहीं छूटता और न छोड़ना चाहिए क्योंकि वह कष्टकर होता है।
यही कारण है कि माता पिता तथा गुरुओं से यह अपेक्षा की जाती है कि वह अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दें। संभव है बाल्यकाल में अनेक बच्चे उनकी शिक्षा पर ध्यान न दें पर कालांतर में जब वह उनकी स्थाई स्मृति बनती है तब वह उनका मार्ग प्रशस्त करती है। इसलिये बच्चों के लालन पालन में मां की भूमिका सदैव महत्वपूर्ण मानी गयी है क्योंकि बाल्यकाल में वही अपने बच्चे के समक्ष सबसे अधिक रहती है और इसका परिणाम यह होता है कि कोई भी मनुष्य ऐसा नहीं है जो अपनी मां को भूल सके।
इसलिये हमारे अध्यात्मिक संदेशों में अच्छी संगत के साथ ही अच्छे वातावरण में भी निवास बनाने की बात कहीं जाती है। अक्सर लोग कहते हैं कि पास पड़ौस का प्रभाव मनुष्य पर नहीं पड़ता पर यह गलत है। अनेक बच्चे तो इसलिये ही बिगड़ जाते हैं क्योंकि उनके बच्चे आसपास के गलत वातावरण को अपने अंदर स्थापित कर लेते हैं।
यही नहीं आज के अनेक माता पिता बाहर जाकर कार्य करते हैं और सोचते हैं कि उनका बच्चा उनकी तरह ही अच्छा निकलेगा तो यह भ्रम भी उनको नहीं पालना चाहिये क्योंकि किसी भी मनुष्य की प्रथम गुरु माता की कम संगत बच्चों को अनेक प्रकार के संस्कारों से वंचित कर देती है। ऐसे लोग सोचते हैं कि उनका बच्चा बड़ा होकर ठीक हो जायेगा या हम उसे संभाल लेंगे तो यह भी भ्रामक है क्योंकि जो संस्कार कच्चे दिमाग में स्मृति के रूप में स्थापित करने का है वह अगर निकल गया तो फिर अपेक्षायें करना निरर्थक है। युवा होने पर दिमाग पक्का हो जाता है और सभी जानते हैं कि पक्की मिट्टी के खिलोने नहीं बन सकते-वह तो जैसे बन गये वैसे बन गये। दरअसल हम जिससे संस्कार कहते हैं वह प्रारम्भिक काल में स्थापित स्मृतियों का विस्तार ही हैं इसलिये अगर हम अपेक्षा करते हैं कि हमारे बच्चे आगे चलकर वह काम करें जो हम स्वयं चाहते हैं तो उसकी शिक्षा पहले ही देना चाहिए। यह स्मृतियां इस तरह की होती हैं कि देश, काल तथा जाति से कम संपर्क रहने न बिल्कुल न होने पर भी बनी रहती हैं और मनुष्य अपने संस्कारों से भ्रष्ट नहीं होता है अगर किसी लोभवश वह अपना पथ छोड़ता भी है तो उसे भारी कष्ट उठाना पड़ता है और फिर अपने स्थान पर वापस आता है। अतः अपने बच्चों में अच्छे संस्कार डालने का प्रयास करना चाहिए जो कि अंततः उसकी स्मृतियां बन जाती हैं।
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Saturday, October 16, 2010

श्रीगुरुग्रंथ साहिब से-ईश्वर ही सच्चा मित्र हो सकता है (shri gurugranth sahib-sachcha mitra eeshwar)

नानक मित्राई तिसु सिउ, सभी किछु जिस कै हाथि।
कुमित्रा सेई कांढीअहि, इक व्रिख न चलहि साथि।।
हिन्दी में भावार्थ-
श्रीगुरुवाणी के अनुसार मनुष्य का सच्चा मित्र केवल ईश्वर ही हो सकता है जो बुरे मित्रों और शत्रुओं से बचाने की शक्ति रखता है।
दुस्टा नालि दोस्ती संता वैरु करंनि।
आपि डूबे कुटंब सिउ सगाले कुल डोबंनि।।
हिन्दी में भावार्थ-
दुष्टों से मित्रता करने तथा साधुओं के प्रति बैर रखने वाले स्वयं तो डूबते हैं अपने परिवार का भी सत्यानाश करते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-दोस्ती, प्यार और वफादारी के उम्मीद में इंसान इधर से उधर भटकता है। फिल्म और साहित्य में सक्रिय रचनाकर इंसान को इंसानों में ऐसी चीजें ढूंढने के लिये प्रेरित करते हैं जो मनुष्य देहधारियों में होना संभव ही नहीं है। हर इंसान पंच तत्वों से बना है और उसके स्वयं के स्वार्थ का कहीं अंत नहीं है। ऐसे विरले ही महामनस्वी होते हैं जो निष्काम भक्ति, योगसाधना, स्वाध्याय अथवा तप से तत्व ज्ञान प्राप्त कर समाज का भला करते हैं। उनके दर्शन करना भी अपने आप में पुण्य का काम है और यह तभी संभव है जब किसी मनुष्य में सत्संग के माध्यम से मन की शांति तथा भक्ति प्राप्त करने का संकल्प हो। ऐसे महात्मा लोग किसी इंसान का भला कर सकते हैं पर वह उससे कोई आशा नहीं करते। न ही ईश्वर के अलावा किसी अन्य को मित्र समझते हैं।
इंसान में ईश्वर ढूंढना एक व्यर्थ का काम है पर ईश्वर के बने इंसानों के प्रति प्रेम और अहिंसा का भाव अवश्य रखना चाहिए जो कि धर्म का ही काम है। अपने से गरीब और बेसहारा को सहारा देना अच्छी बात है। मगर मित्रता और प्रेम के नाम पर किसी से कोई आशा नहीं करना चाहिए। दैहिक प्रेम काम, लोभ तथा कामना से उपजा एक व्यसन है जिसका दुष्प्रभाव होता है। ईश्वर को ही सच्चा प्रेमी और मित्र समझना चाहिए जो कि बुरे और स्वार्थी मित्रों के जाल तथा शत्रुओं की चाल में फंसने से बचाने की बुद्धि प्रदान करता है।
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Friday, October 15, 2010

चाणक्य नीति-आंखों से देखकर ज़मीन पर पांव रखें (chanakya neeti in hindi-aankha aur paanv)

दृष्टिपूतं न्यसेत् पादं वस्त्रपूतं पिबेज्जलम्।
शास्त्रं वंदेद् वाक्यं मनः पूतं समाचरेत्।।
हिन्दी में भावार्थ-
नीति विशारद चाणक्य का कहना है कि दृष्टि से देखकर प्रथ्वी पर पांव रखें, कपड़े से छानकर पानी को पिऐं, शास्त्र से शुरु कर वाक्य बोलें और मन से सोचकर कार्य प्रारंभ करने पर उसे पूरा अवश्य करें।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जिंदगी में सावधानी के साथ ही चिंतन और मनन की आवश्यकता होती। अधिकतर लोग दूसरों की शान शौकत या दौलत देखकर वैसा ही बनने का सपना पाल लेते हैं। वह यह नहीं देखते कि किसने किस तरह अपनी जिंदगी में संघर्ष किया है। अनेक लोग हवाई किले बनाकर चल पड़ते हैं पर कामयाबी न मिलने पर संकट में पड़ जाते हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि जीवन में हर कदम पर सोच समझकर ही अपना काम प्रारंभ करना चाहिए।
अनेक जगह लोग निरर्थक वार्तालाप करते हैं। अनेक बार तो बातचीत में झगड़े हो जाते हैं और नौबत खून खराब की आ जाती है। लोग अध्यात्म ग्रंथों की बजाय कल्पित साहित्य और फिल्मों से प्रभावित इतने हैं कि उनको यह पता नहीं है कि जिंदगी कितनी कठिन है और उसमें सपने देखना और उनको पूरा करना अलग अलग बातें हैं। खासतौर से नयी पीढ़ी को तो एकदम सुविधाभोगी जीवन के सपने प्रचार माध्यम दिखा रहे हैं। बंगला, कार, तथा घर में नौकर होने का ख्वाब सभी को है पर यह पता नहीं कि नौकर भी एक इंसान होता है जिसे बंगला और कार की तरह बेज़ान नहीं माना जा सकता। न ही हर नौकर फिल्म या धारावाहिक की तरह वफादार होता है। यही कारण है कि घरेलु नौकरों द्वारा किये जा रहे अपराधों की संख्या बढ़ रही है।
कहने का अभिप्राय यह है कि आंखें खुली होने के साथ ही बुद्धि भी सक्रिय रखना चाहिये। फिल्में देखना या कल्पित साहित्य पढ़ना बुरा नहीं है पर जीवन के यथार्थ का ज्ञान भी अपने आसपास की घटनाओं तथा पुराने लोगों से प्राप्त करना चाहिए।
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Sunday, October 10, 2010

श्रीगुरुग्रंथ साहिब से-भक्त की चाल निराली होती है (shir guru granth sahib-bhakt ki chal nirali)

‘भगता की चाल निराली।
चाला निराली भगताह केरी, विखम मारगि चलणा।
लबु लोभु अहंकारु तजि तृस्ना, बहुतु नाही बोलणा।।
हिन्दी में भावार्थ-
श्रीगुरुवाणी के अनुसार भगवान के भक्त की चाल निराली होती है। सद्गुरु के प्रति उसकी यह अनन्य भक्ति उसे ऐसे विषम मार्ग पर चलने में भी सहायता करती है जो आम इंसान के लिए असहज होते हैं। वह लोभ, अहंकार तथा कामनाओं का त्याग कर देता है। कभी अधिक नहीं बोलता।
‘जै को सिखु, गुरु सेती सनमुखु हौवे।
होवै त सनमुखु सिखु कोई, जीअहु रहै गुरु नालै।।
हिन्दी में भावार्थ-
श्रीगुरुवाणी के अनुसार जो सिख गुरु के समक्ष उपस्थित होता है और चाहता है कि उनके समक्ष कभी शर्मिंदा न होना पड़े तो तो उसके लिये यह आवश्यक है कि गुरु को हमेशा प्रणाम कर सत्कर्म करता रहे।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-वैसे तो सभी लोग भक्ति करते हैं पर जिनके मन में ईश्वर के प्रति अगाध निष्ठा है उनकी चाल आम इंसानों से अलग हो जाती है। वह दुःख सुख और मान अपमान में सम रहते हैं। वह अपने जीवन में अनेक ऐसे कष्टों का सहजता से समाना कर लेते हैं जो सामान्य इंसान के लिये कठिन काम होता है। इसलिये कहा जाता है कि भक्ति में शक्ति होती है। जब तक यह देह है तब तक सांसरिक संकट तो आते ही रहेंगे। उसके साथ ही सुख के पल भी आते हैं पर सामान्य मनुष्य केवल उनको ही चाहता है। मगर संसार का नियम है। सूरज डूबता है तो अंधेरा होता है और वह फिर सुबह होती है। संसार का यह निमय मनुष्य की देह पर भी लागू होता है। यह सत्य भक्त जान लेते हैं। उनको पता होता है कि अगर अच्छा वक्त नहीं रहा तो यह खराब भी नहीं रहेगा। इसलिये वह सहज हो जाते हैं। इसके विपरीत जो भक्ति और प्रार्थना से दूर रहते हैं वह अध्यात्मिक ज्ञान नहीं समझ पाते इसलिये थोड़े कष्ट या बीमारा में हाहाकार मचा देते हैं जो अंततः मानसिक रूप से तोड़ देता है। इसके विपरीत भक्त लोग हमेशा ही अपनी मस्ती में मस्त रहते हैं।
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Sunday, October 3, 2010

चाणक्य नीति-एकता से शत्रु का मुकाबला संभव (chankya neeti-ekta se dushman ka mukabla sanbhav)

बहूनां चैव सात्तवानां समवायो रिपुञ्जयः।
वर्षधाराधरो मेघस्तृपौरपि निवार्यते।
हिन्दी में भावार्थ-
अगर लोगों का समूह बड़ा होने के साथ ही एकता कायम किये रहे तो वह शत्रु पर विजय प्राप्त कर लेता है जैसे वर्षा की तेज धारा होने होने के बावजूद तिनकों का समूह उसे आगे बहने से रोक लेता है।
हिन्दी में भावार्थ-सामान्य मनुष्य की सोच हमेशा ही अपनी चिंताओं के इर्दगिर्द घूमती है। सच बात तो यह है कि इस संसार के संकट दुष्टों द्वारा इसलिये ही पैदा किया जाता है क्योंकि सज्जन लोग एक होकर उनका मुकाबला नहीं कर पाते। मुकाबला करना तो दूर ऐसा सोचते भी नहीं है।
कहा भी जाता है कि विश्व की समस्यायें दुष्टों की सक्रियता से नहीं बल्कि सज्जनों की निष्क्रियता के कारण बढ़ती हैं । सज्जन लोग अपने तथा परिवार के जीवन की रक्षा के लिये इतने आतंकित रहते हैं कि एक दूसरे की मदद करने की बजाय परस्पर ही पीड़ित के दोष ढूंढने लगते हैं। सार्वजनिक जगहों पर महिलाओं के साथ बदतमीजी और बेबसों पर हमले इसी कारण ही होते हैं क्योंकि अपराधियों को पता है कि डरपोक कथित भले लोग कभी भी पीड़ित की मदद को नहीं आयेंगे।
हमारे देश की महिमा तो बड़ी विचित्र है। सभी जानते हैं कि यह जीवन क्षण भंगुर है और जब मृत्यु आयेगी तब कोई भी उसे रोक नहीं पायेगा पर अपने मतलब से ही मतलब रखने वाले इसे भूलकर डरपोक जैसा जीवन गुजारते हैं। यही कारण है कि फूट का लाभ दुष्ट लोग उठाते हैं।
अगर सज्जन लोग अपने अंदर चेतना, दृढ़ता और परस्पर सहयोग का भाव लायें तो दुष्टों को रोक जा सकता है। इस बात पर अगर गंभीरता विचार किया जाये तो तिनके भी हमें सिखा सकते है जो ढेर सारी बरसात में भी उसके सामने विचलित नहीं होते। जहां झुंड की तरह खड़े हैं वहां उसका पानी रोके रहते हैं। इन्हीं तिनकों से बनी झौंपड़ियां अपने स्वामी की बरसात से रक्षा करती हैं।
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Saturday, October 2, 2010

पतंजलि योग साहित्य-इंद्रियों पर विजय प्राप्त करने से सिद्धियां मिलती हैं (patanjali yoga sahitya-indriyan aur siddhi)

रूपलावण्यबलवज्रसंहनत्वानि कायसम्पत्।।
हिन्दी में भावार्थ-
रूप, लावण्य, बल और मानसिक दृढ़ता यानि वज्र एक संगठन होने के साथ ही शरीर की संपत्ति है।
ग्रहणस्वरूपास्मितान्वयार्थवत्तवसंमादिन्द्रियजयः।।
हिन्दी में भावार्थ-
ग्रहण, स्वरूप, अस्मित, अन्वय और अर्थतत्व इन पांचों अवस्थाओं में संयम करने से मन सहित इंद्रियों पर विजय प्राप्त हो जाती है।
ततो मनोजवित्वं विकरणभावः प्रधानजयश्च।।
हिन्दी में भावार्थ-
इंद्रियों पर विजय प्राप्त करने मन के सदृश गति, शरीर के बिना विषयों को अनुभव करने की शक्ति और प्रकृत्ति पर अधिकार स्वतः प्राप्त हो जाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-भारतीय योग साधना के प्रचारक केवल आसन तथा प्राणायाम करने के संदेश के साथ ही इसे केवल स्वस्थ रहने का उपाय बताते हैं। यह गलत नहीं है पर इससे सीमित उद्देश्य की प्राप्त होती हैं । योगासन, प्राणायाम तथा ध्यान अनेक प्रकार की सिद्धियां भी प्राप्त हो जाती हैं। अब यहां सिद्धियों का अर्थ यह कदापि नहीं लेना चाहिए कि मरे हुए आदमी को जीवित किया जा सकता है या किसी को को धन प्राप्त हो ऐसा उपाय किया जा सकता है। कुछ लोग योग साधना कर यह भ्रम पाल लेते हैं कि उनको तो भारी सिद्धियां मिल गयी। दरअसल योगासन, प्राणायाम तथा ध्यान करने से मनुष्य की देह तथा इंद्रियों में तीक्ष्णता आती है पर अन्य ज्ञान न होने की वजह से उसका उपयोग अनेक लोग अज्ञानजनित कार्यों में करते के साथ ही अंधविश्वास फैलाने में करते हैं।
पतंजलि महाराज ने योग दर्शन में केवल मनुष्य को स्वयं शक्तिशली और दृढ़ मानसिकता का स्वामी होने का पाठा सिखाया है। योगासन, प्राणायाम तथा मंत्र जाप के बाद जब ध्यान किया जाता है तब वह मनुष्य देह और मन को पूर्णता प्राप्त करता है। उस समय अंतर्मन का निरीक्षण करने से बाहर के विषयों की अनुभूति की जा सकती है। ऐसी जगहों को भी अनुमान किया जा सकता है जहां स्वयं उपस्थित न हों। इतना ही दूसरे व्यक्ति का चेहरा देखकर या उसके शब्द सुनकर उसके मन में चल रही अन्य बातों का भी अनुमान किया जा सकता है। इसके अलावा गर्मी, सर्दी और वर्षा के दौरान अपनी देह को बीमारियों से भी बचाया जा सकता है।
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Saturday, September 25, 2010

पतंजलि योग साहित्य-बुद्धि और पुरुष के अंतर जानने वाला ही ज्ञानी (buddhi aur purush ka antar-patanjali yog vigyan)

सत्वपुरुषान्यताख्यातिमात्रस्य सर्वभाधिष्ठास्तृत्वं सर्वज्ञातृत्वं च।
हिन्दी में भावार्थ-
बुद्धि और पुरुष (आत्मा) के अंतर का आभास जिसे समझ में आ जाता है ऐसा समाधिस्थ योगी सभी प्रकार के भावों पर स्वामित्व प्राप्त कर लेता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हम क्या हैं? बुद्धि कहती हैं कि मै हूं और मन इस अहंकार के बोध में बेलगाम विचरण करता है। दैहिक क्रियाओं में कर्तापन की अनुभूति आदमी को ज्ञान से परे कर देती है। आदमी यानि अध्यात्म! पुरुष हो या स्त्री वास्तव में परमात्मा का अंश आत्मा है! वह इस देह को धारण किये है इसलिये उसे अध्यात्म भी कहा जाता है। वह कर्ता नहीं दृष्टा है मगर योग साधना से विरत मनुष्य की बुद्धि इस ज्ञान को ग्रहण नहीं करने देती और मन इधर से उधर उसे दौड़ाता है।
हम आत्मा है! न वह खाता है न वह पीता है न वह सोचता है न बोलता है। यह सारे कार्य तो उस देह के अंग स्वतः कर रहे हैं जिसको आत्मा यानि हमने धारण किया है। देह की आवश्यकतायें असीमित पर अध्यात्म की भूख सीमित है। वह केवल ज्ञान के साथ जीना चाहता है। वह दृष्टा तभी बन सकता है जब हम योग के द्वारा अपनी इंद्रियों के गुणों से उसे सुसज्जित करें। इसके लिये जरूरी है कि ध्यान करते हुए समाधि के माध्यम से उन पर नियंत्रित कर उनका स्वामी बनने का प्रयास किया जाये। नाक है तो सुगंध ग्रहण करेगी, आंख है तो देखेगी और कान है तो सुनेंगे। बुद्धि का काम है विचार करना और मन का काम है इधर उधर विचरण करना। ऐसे में हम अध्यात्मिक ज्ञान को तभी प्राप्त कर सकते हैं कि जब संकल्प धारण करें। सदैव बहिर्मुखी रहने की बजाय अंतर्मुखी होने का प्रयास भी करें। जब हम अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण कर अपने अध्यात्म से संपर्क कर लेंगे तो वह दृष्टा भाव को प्राप्त होगा तब निराशा, प्रसन्न्ता, शोक तथा हर्ष के भाव पर स्वामित्व प्राप्त हो जायेगा। जिस तरह स्वामी अपने अनुचरों के कर्म से विचलित नहीं होता और मानता है कि यह काम तो उनको करना ही है उसी तरह हम भी यह देखने लगेंगे कि शरीर के अंग हमारे सेवक है और उनको काम करना है तब ऐसा आनंद प्राप्त होगा जो विरलों को ही प्राप्त होता है।
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Wednesday, September 22, 2010

मनुस्मृति-अभिवादन का उत्तर जो नहीं जानते उनको प्रणाम न करें (manu smriti in hindi-abhivadan aur pranam(

यो न वेत्यभिवादस्य विप्रः प्रत्यभिवादनम्।
नाभिवाद्य स विदुषा यथा शूर्दस्तथैव सः।।
हिन्दी में भावार्थ-
जो अभिवादन का उत्तर देना नहीं जानता उसे प्रणाम नहीं करना क्योंकि वह इस सम्मान के अयोग्य होता है।
अवाच्यो तु या स्त्री स्वादसम्बद्धा य योनितः।
भोभवत्पूर्वकं त्वनेमभिभाषेत धर्मवित्।।
हिन्दी में भावार्थ-
धर्म का ज्ञान रखने वाले को चाहिए कि वह दूसरे ज्ञानी को कभी भी नाम से संबोधित न करे भले ही वह उससे छोटी आयु का क्यों न हो। उसको हमेशा सम्मान से संबोधित करना चाहिए।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या  -हमेशा मीठी वाणी में बोलकर दूसरों को प्रसन्न करना चाहिए। अपने से बड़ों का सम्मान करना हमारा धर्म है। निसंदेह इस संसार में विनम्र व्यवहार से मनुष्य विजय प्राप्त करता है। मगर इस संसार में ही लोग भी दो प्रकार के होते हैं-एक आसुरी संपदा तो दूसरे दैवीय संपदा लेकर उत्पन्न होते हैं, यह बात भी ध्यान रखने योग्य हैं। कुछ लोग ऐसे भी हैं जो विनम्र व्यवहार को कायरता और उदारता को कमजोरी समझकर दुर्व्यवहार करने पर आमादा हो जाते हैं। ऐसे लोगों को दंडित करना भी हमारा धर्म है।
इसलिये जो लोग अभिवादन का उत्तर न देते हों या अहंकारवश मजाक उड़ाते हों उनका कभी स्वयं अभिवादन नहीं करना चाहिए। जहां तक हो सके उनके सामने आने से बचना चाहिए। इस संसार में आसुरी संपदा लेकर उत्पन्न हुए कुछ लोग ऐसे हैं जिनका अभिवादन करने पर सिवाय अपमान के कुछ नहीं मिलता। उनका अभिवादन करना तो दूर उनके चेहरे की तरफ दृष्टि नहीं डालना चाहिए।
उसी तरह दैवीय संपदा लेकर उत्पन्न सहृदयजनों का सम्मान करना भी आवश्यक है भले ही आयु में वह छोटे क्यों न हों? सच बात तो यह है कि योग्यता, प्रतिभा तथा सज्जनता के गुणों होने के लिये आयु का छोटा या बड़ा होना जिम्मेदार नहीं है। अनेक लोग बड़ी आयु होने पर भी अपना विवेक नहीं खोते। अतः अपने से कम आयु के व्यक्ति की योग्यता देखकर उसका सम्मान करना चाहिए। सामने आने पर उसे पहले अभिवादन करना भी अच्छी बात है। उस समय पहले अभिवादन करने में संकुचित मानसिकता नहीं दिखाना चाहिए।
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संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,Gwalior
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Saturday, September 18, 2010

मनुस्मृति-ज्ञान देने वाला छोटा हो तो भी सम्मानीय (gyani sammaniya-manu smruti in hindi)

ब्राह्मस्य जन्मनः कर्त्ता स्वधर्मस्य च शासिता।
बालोऽपि विप्रो वृद्धास्य पिता भवति धर्मतः।।
हिन्दी में भावार्थ-
ज्ञान देकर दूसरा जन्म देने के साथ ही अपने धर्म का संदेश देने वाला विद्वान चाहे बालक ही क्यों न हो वह धर्म के अनुसार वृद्ध तथा पिता की तरह आदरणीय होता है।
न तेन वृद्धो भवित येनास्य पलितं शिरः।
यो वै युवाऽष्यधीमानस्तं देवाः स्थविरं विदुः।।
हिन्दी में भावार्थ-
बाल सफेद होने से कोई बड़ा या आदरणीय नहीं होता। ज्ञान प्राप्त करने के बाद तो युवा भी बुद्धिमान लोगों की दृष्टि से पूज्यनीय होता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अनेक लोग दावा करते हैं कि उन्होंने अपने बाल धूप में सफेद नहीं किये तो कुछ लोग ऐसे भी हैं जो मानते हैं कि ज्ञान देने का काम काम केवल उच्च वर्ण के विद्वानों का है। कुछ लोगों में यह भी भ्रम है कि वेदों का ज्ञान केवल पंडित जाति के लोगों का ही है। मनृस्मृति के आधार पर इसका प्रचार खूब होता है। जब मनुस्मृति का अध्ययन करते हैं तो उससे पता लगता है कि चारों वर्णों के लोग अपना स्वाभाविक कर्म करते हैं। इसे हम यूं भी कह सकते हैं कि हमारे स्वाभाविक कर्म ही हमारे वर्ण का परिचायक है।
संसार का ज्ञान प्राप्त करना दूसरा ही जन्म माना जाता है यानि जिसने सिद्धि प्राप्त कर ली वही पंडित हो गया। ज्ञान देने वाला किसी भी जाति में जन्मा हो, उसकी आयु छोटी हो या बड़ी वह पंडित ही है। बुद्धिमान लोग इसलिये ही ज्ञान को परख कर सम्मान प्रदान करते हैं। जाति, धर्म, भाषा या क्षेत्रीय आधार पर बने कथित समाजों में जन्म लेने से कोई छोटा या बड़ा नहीं होता बल्कि जिसने तत्व ज्ञान को समझ लिया और भारतीय अध्यात्म के मर्म को ग्रहण कर लिया वही पंडित है। वैसे भी बड़प्पन इस बात में है कि दूसरो पर उपकार किया जाये वरना अपनी शक्ति किस काम की? यही कारण है कि समझदार लोग केवल उन्हीं लोगों को सम्मानीय मानते हैं जो समाज के हित के लिये काम करते हैं।
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संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,Gwalior
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Saturday, September 11, 2010

पतंजलि योग विज्ञान-जीवन में सकारात्मक भाव लाने के प्रयास करें (exercise for positive think-patanjali yoga darshan)

वितर्का हिंसादयः कृतकारितानुमोदिता लोभक्रोधमोहपूर्वका मृदुमध्याधिमात्रा दुःखज्ञानान्तफला इतिप्रतिक्षभावनम्।।
हिन्दी में भावार्थ-
हिंसा आदि का भाव वितर्क कहलाते हैं जिन पर आधारित बुरे कर्म स्वयं या दूसरों से करवाये जाते हैं या उनका अनुमोदन किया जाता है। यह वितर्क वाला भाव लोभ, क्रोध और मोह के कारण पैदा होता है। यह भाव दुःख और अज्ञान के रूप में फल प्रदान करते हैं अतः उनके लिये प्रतिपक्षी विचार करना चाहिए।
वितर्कबाधने प्रतिपक्षभावनाम्।
हिन्दी में भावार्थ-
जब वितर्क और यम नियम में बाधा पहुंचाये तब उनके प्रतिपक्षी विचारों का ध्यान करना चाहिए।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-आधुनिक सभ्यता के विशेषज्ञ अक्सर सकारात्मक भाव को जीवन की सफलता का मूल मंत्र बताते हैं। अनेक अनुभवी लोग भी सभी को सकारात्मक विचाराधारा रखने की सलाह देते हैं पर यह भाव आये कैसे इसे कोई नहीं बता सकता क्योंकि इसके लिये मनुष्य मन के रहस्य को समझना जरूरी है जिसे कोई विरले ही समझ पाते हैं। पतंजलि योग सूत्र को विज्ञान इसलिये भी कहा जाता है क्योंकि वह मनुष्य की देह, मन तथा विचारों में शुद्धता लाने का मार्ग भी बताता है।
मनुष्य का मन चंचल और बुद्धि में कुटिलता का भाव स्वाभाविक रूप से रहता है। इसलिये ही अज्ञानी मनुष्य व्यसनों की तरफ आकर्षित होता है जो कि उसके लिये देह के लिये हानिकारक हैं और वह जरा जरा बात पर क्रोध का शिकार होता है जो कि उसके लिये मानसिक तनाव का कारण बनता है। इन पर नियंत्रण करने के लिये राय देना आसान है पर इसका मार्ग जाने बिना कोई भी आत्मनियंत्रण नहीं कर सकता। इसके लिये अभ्यास की आवश्यकता है। इस अभ्यास का तरीका यह है कि जब हमारे अंदर आवेश, निराशा या अस्थिरिता का भाव आता है तब हमें अपने समक्ष उपस्थित प्रसंग पर विपरीत दृष्टिकोण पर भी विचार करना चाहिए। जब किसी की बात पर गुस्सा आता है तब हमें यह भी देखना चाहिए कि कहीं सामने वाले की बात सही तो नहीं है, अगर वह गलत है तो यह भी जानने का प्रयास करना चाहिए कि वह किसी अन्य की प्रेरणा से तो यह नहीं कह रहा। इसके बाद उस बात को अनसुना करने का प्रयास भी करना अच्छा रहता है। उसी समय यह भी विचार करना चाहिये कि आखिर क्रोध करने के परिणाम क्या होंगे। उसके बाद इस बात पर भी चिंतन करना चाहिये कि इस जीवन में प्रसन्नता लाने के लिये अन्य विषय भी हैं जिससे ध्यान अच्छी बात की तरफ चला जाये। कोई गाली दे तब अपने अंदर ओम शब्द का ध्यान करें और जब कोई लड़ने आये तो विनम्रता और मौन का मार्ग अपनायें जिससे तत्काल न केवल तनाव समाप्त होता है बल्कि एक प्रकार से अलौकिक प्रसन्नता भी प्राप्त होती है।
हमारे जीवन में अनेक लोग संपर्क में आते हैं। कई लोग दुःख देते हैं तो कोई प्रसन्नता देते हैं। जो दुःख का हेतु हैं उनका स्मरण होने पर अपना ध्यान प्रसन्न करने वाले लोगों की तरफ लाना चाहिये। इसके कष्ट आने पर आनंद के गुजरे पलों का स्मरण कर अपने अंदर यह दृढ़ भाव स्थापित हो जाता है कि समय की बलिहारी है वह अच्छा समय नहीं रहा तो यह बुरा भी नहीं रहेगा। इसी तरह अभ्यास करने से ही सकारात्मक भाव पैदा किया जा सकता है।
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Saturday, September 4, 2010

विदुर नीति-अधिक विश्वास किसी पर न करें (adhik vishvas na karen-vidur neeti in hindi)

अनीर्षुर्गुप्तदारश्च संविभागी पियंवदः।
श्लक्ष्णो मधुरपाक् स्वीणां न चासां वशगो भवेत्।।
हिन्दी में भावार्थ-
मनुष्य ईर्ष्या रहित, स्त्रियों की रक्षा करने वाला, संपत्ति का न्यायपूर्वक बांटने वाला, प्रिय वाणी बोलने वाला, साफ सुथरा तथा स्त्रियों से सद्व्यवहार करने वाला हो परंतु किसी के वश में न हो।
न विश्वसेदविश्वस्ते विश्वस्ते नातिविश्वसेत्।
विश्वासाद भयमुत्पन्नं मूलान्यपि निकृन्तति।
हिन्दी में भावार्थ-
जिस मनुष्य का विश्वास प्रमाणिक न हो उस पर तो विश्वास करना ही नहंी चाहिए पर जिस पर जो योग्य हो उस भी अधिक विश्वास न करें। विश्वास से जो भय उत्पन्न होता है वह मूल लक्ष्य को ही नष्ट कर डालता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जहां तक हो सके मनुष्य को अपने विवेक से काम लेना चाहिये। सुनना सभी की चाहिए पर करना तो मन की ही ठीक रहता है।। अनेक लोग दूसरों के कहने में आकर अपनी हानि कर डालते हैं। हर कोई अपनी शक्ति और लक्ष्यों के बारे में अधिक केवल स्वयं ही जान सकता है। दूसरा उसे राय दे सकता है पर इसका अर्थ कदापि नहीं कि उसे मान लिया जाये। दूसरे की बात पर विचार करना चाहिये पर निर्णय लेते समय अपने विवेक का उपयोग करना ही अच्छा है।
इस संसार में बिना विश्वास किये काम नहीं चल सकता पर उसकी सीमायें हैं। हम अनेक बाद अपने मन की बात दूसरे से यह प्रमाण पत्र लेने के बाद उसे बता देते हैं कि वह किसी से कहेगा नहीं पर उस समय यह सोचना चाहिए कि जब हम अपनी बात स्वयं मन में नहीं रख सके तब दूसरा कैसे रखेगा? अतः विश्वास एक सीमा तक ही करना चाहिये।
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Thursday, September 2, 2010

मनुस्मृति-दो प्रकार का शांत आसन (manu smruti-shant aasan)

मनु स्मृति में कहा गया है कि
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क्षीणस्य चैव क्रमशो दैवात् पूर्वकृतेन वा।
मित्रस्य चानुरोधेन द्विविधं स्मृतमासनम्।।

           
हिन्दी में भावार्थ-जब शक्ति क्षीण हो जाने पर या अपनी गलतियों के कारण चुप बैठना तथा मित्रों की बात का सम्मान करते हुए उनसे विवाद न करना यह दो प्रकार के शांत आसन हैं।
यदावगच्छेदायत्वयामाधिक्यं ध्रृवमात्मनः।
तदा त्वेचाल्पिकां पीर्डा तदा सन्धि समाश्चयेत्।।

           
हिन्दी में भावार्थ-भविष्य में अच्छी संभावना हो तो वर्तमान में विरोधियों और शत्रुओं से भी संधि कर लेना चाहिए।
            वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-किसी भी मनुष्य के जीवन में दुःख, सुख, आशा और निराशा के दौर आते हैं। आवेश और आल्हाद के चरम भाव पर पहुंचने के बाद किसी भी मनुष्य का अपने पर से नियंत्रण समाप्त हो जाता है। भावावेश में आदमी कुछ नहीं सोच पाता। मनु महाराज के अनुसार मनुष्य को अपने विवेक पर सदैव नियंत्रण करना चाहिये। जब शक्ति क्षीण हो या अपने से कोई गलती हो जाये तब मन शांत होने लगता है और ऐसा करना श्रेयस्कर भी है। अनेक बार मित्रों से वाद विवाद हो जाने पर उनके गलत होने पर भी शांत बैठना एक तरह से आसन है। यह आसन विवेकपूर्ण मनुष्य स्वयं ही अपनाता है जबकि अज्ञानी आदमी मज़बूरीवश ऐसा करता है। जिनके पास ज्ञान है वह घटना से पहले ही अपने मन में शांति धारण करते हैं जिससे उनको सुख मिलता है जबकि अविवेकी मनुष्य बाध्यता वश ऐसा करते हुए दुःख पाते हैं।
            जीवन में ऐसे अनेक तनावपूर्ण क्षण आते हैं जब आक्रामक होने का मन करता है पर उस समय अपनी स्थिति पर विचार कना चाहिए। अगर ऐसा लगता है कि भविष्य में अच्छी आशा है तब बेहतर है कि शत्रु और विरोधी से संधि कर लें क्योंकि समय के साथ यहां सब बदलता है इसलिये अपने भाव में सकारात्मक भाव रखते स्थितियों में बदलाव की आशा रखना चाहिए।
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Saturday, August 28, 2010

विदुर नीति-एक भी इंद्रिय का दोष बुद्धि भ्रष्ट कर देता है (vidur niti-indriya dosh aur buddhi)

पंचेन्द्रियश्च मर्त्यश्च क्षिद्रं चेदेकमिन्द्रियम्।
ततोऽस्य स्त्रवति प्रज्ञा दृतेः यात्रादिवोदकम्।।
हिन्दी में भावार्थ-
जब किसी मनुष्य की पांचों इंद्रियों में एक में भी दोष होता है तब उसकी बुद्धि उसके मस्तिष्क से ऐसे ही निकल जाती है जैसे छिद्र में से पानी।
षड् दोषा पुरुषेपोहे हात्व्या भूतिमिच्छता।
निन्द्रा तन्द्रा भयं क्रोधं आलस्यं दीर्घसूत्रता।।
हिन्दी में भावार्थ-
जिन पुरुषों को अपने जीवन में ऐश्वर्य की चाह है उनको नींद, तंद्रा, भय, क्रोध, आलस्य तथा दीर्घसूत्रता-किसी काम में तय समय से अधिक समय लगाना या सोचना-इन छह दुःर्गुणों का त्याग कर देना चाहिए।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जीवन में सफलता का मंत्र कड़ा परिश्रम तथा लगन है मगर यह वही कर सकता है जिसको अपने लक्ष्य का सही ज्ञान है। किसी भी मनुष्य की सफलता में उसके स्वास्थ्य का योगदान रहता है इसलिये अपने आपको सदैव सक्षम बनाये रखने का प्रयास करना चाहिये। मनुष्य आंख, कान, नाक मुख तथा मन से ही अपनी देह का संचालन करता है इसलिये उनका स्वस्थ होना आवश्यक है। अगर इनमें से किसी एक में भी दोष होता है तो यह निश्चित समझिये कि कोई भी अपने लक्ष्य को नहीं पा सकता। कहा भी जाता है कि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ दिमाग का निवास होता है। अस्वस्थ मनुष्य का ध्यान अपनी कमजोर इंद्रिय की तरफ ही निरंतर जाता है ऐसे वह कोई भी काम ढंग से नहीं कर पाता।
यह फिटनेस यानि सामर्थ्य सदैव बनाये रखने के लिये योगासन, प्राणायाम तथा ध्यान करना चाहिये। इससे देह, मन और विचारों के विकार निकल जाते हैं और मन प्रसन्न रहता है। हालांकि सुबह घूमना और अन्य व्यायाम करना भी लाभप्रद है पर उनसे केवल शरीर के विकार ही निकल पाते हैं और दूसरा यह भी उनका प्रभाव पूरे दिन स्थाई नहीं रहता जबकि योगसाधना करने से दीर्घकालीन स्वास्थ्य लाभ प्राप्त होता है। इसके अलावा बड़ी आयु में व्यायाम करना कठिन लगता है जबकि योग साधना में ऐसी समस्या नहीं आती।
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Saturday, August 21, 2010

उजड़े जंगल में फूल खिलने से क्या लाभ-संत कबीर संदेश (ujade jungle men fool khilne se labh nahin-sandesh kabir sandesh)

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि तो हाथी पर चढ़कर अपने ऊपर चंवर डुलवाते हैं और लोग समझते हैं कि वह सुख भोग रहे तो यह उनका भ्रम है वह तो अपने अभिमान के कारण सीधे नरक में जाते हैं।
हाथी चढि के जो फिरै, ऊपर चंवर ढुराय
लोग कहैं सुख भोगवे, सीधे दोजख जाय
बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जोरे बड़ मति नांहि
जैसे फूल उजाड़ को, मिथ्या हो झड़ जांहि
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि आदमी धन, पद और सम्मान पाकर बड़ा हुआ तो भी क्या अगर उसके पास अपनी मति नहीं है। वह ऐसे ही है जैसे बियावन उजड़े जंगल में फूल खिल कर बिना किसी के काम आये मुरझा जाता है।
वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-समय ने ऐसी करवट ली है कि इस समय धर्म और जनकल्याण के नाम पर भी व्यवसाय हो गया है। इस मायावी दुनियां में यह पता ही नहीं लगता कि सत्य और माया है क्या? जिसे देखो भौतिकता की तरफ भाग रहा है। क्या साधु और क्या भक्त सब दिखावे की भक्ति में लगे हैं। राजा तो क्या संत भी अपने ऊपर चंवर डुलवाते हैं। उनको देखकर लोग वाह-वाह करते हैं। सोचते हैं हां, राजा और संत को इस तरह रहना चाहिये। सत्य तो यह है कि इस तरह तो वह भी लोग भी भ्रम में हो जाते हैं और उनमें अहंकार आ जाता है और दिखावे के लिये सभी धर्म करते हैं और फिर अपनी मायावी दुनियां में अपना रंग भी दिखाते हैं। ऐसे लोग पुण्य नहीं पाप में लिप्त है और उन्हें भगवान भक्ति से मिलने वाला सुख नहीं मिलता और वह अपने किये का दंड भोगते हैं।
यह शाश्वत सत्य है कि भक्ति का आनंद त्याग में है और मोह अनेक पापों को जन्म देता है। सच्ची भक्ति तो एकांत में होती है न कि ढोल नगाड़े बजाकर उसका प्रचार किया जाता है। हम जिन्हें बड़ा व्यक्ति या भक्त कहते हैं उनके पास अपना ज्ञान और बुद्धि कैसी है यह नहीं देखते। बड़ा आदमी वही है जो अपनी संपत्ति से वास्तव में छोटे लोगों का भला करता है न कि उसका दिखावा। आपने देखा होगा कि कई बड़े लोग अनेक कार्यक्रम गरीबों की भलाई के लिये करते हैं और फिर उसकी आय किन्हीं कल्याण संस्थाओं को देते हैं। यह सिर्फ नाटकबाजी है। वह लोग अपने को बड़ा आदमी सबित करने के लिये ही ऐसा करते हैं उनका और कोई इसके पीछे जनकल्याण करने का भाव नहीं होता।
कभी कभी तो लगता है कि जनकल्याण का नारा देने वाले लोग बड़े पद पर प्रतिष्ठत हो गये हैं पर लगता नहीं कि उनके पास अपनी मति है क्योंकि वह दूसरों की राय लेकर काम करने आदी हो गये हैं। ऐसे लोगों के लिये कल्याण तो बस दिखावा है वह तो उसके नाम पर सुख तथा एश्वर्य प्राप्त करने में ही अपने को धन्य समझते हैं। ऐसे कथित धर्म के सौदागर बहुत दिखाई देते हैं जिनका न तो स्वयं का ज्ञान प्रमाणिक होता है और न ही वह ही वह लोभ और लालच की प्रवृत्ति से परे रहते हैं। उनकी शरण लेने से मनुष्य का न तो उद्धार होता है और न मन का संताप दूर होता है।
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संकलक, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,ग्वालियर 
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Saturday, August 14, 2010

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-अभिमान से उत्पन्न विग्रह का सामपूर्वक निग्रह करें (kautilya ka arthshastra-abhiman aur samman)

अपमानातु सम्भूतं मानेन प्रशमं नयेत्।
सामपूर्व उपायो वा प्रणामो वाभिमानजे।।
हिन्दी में भावार्थ-
जब अपने अपमान से विग्रह यानि तनाव सामने आये तब सम्मान देकर उसे शांत करें और जब अभिमान से उत्पन्न हो तब सामपूर्वक उसका उपाय कर शांत करें।
कुर्यायर्थदपरित्यागमेकार्थाभिनिवेशजे।
धनापचारजाते तन्निरोधं न समाचरेत्।।
हिन्दी में भावार्थ-
जब एक ही प्रयोजन के कारण विग्रह या तनाव उत्तपन्न हो तब दोनों में से एक उसका त्याग करे। जब धन के कारण तनाव हो तब उसकी उपेक्षा करें तो शांति हो जाती है।
भूतनुग्रहविच्छेदजाते तत्र वदेत्प्रियम्।
दवमेव तु देवोत्थे  शमनं साधुसम्मतम्।।
हिन्दी में भावार्थ-
जब अन्य प्राणियों से वाणी के द्वारा तनाव या विग्रह उत्पन्न तो उसे प्रियवचन बोलकर शांत करें।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जीवन में अनेक प्रकार के तनाव या विग्रह के क्षण आते हैं। उस समय ज्ञानी लोग उसके उत्पन्न होने का कारण जानकर उसका निग्रह करते हैं। जिन लोगों को ज्ञान नहीं है वह अभिमान वश उसी कारण को अधिक बढ़ाते हैं जिसके कारण तनाव या विग्रह उत्पन्न हुआ है। अगर कोई व्यक्ति हमारे बोलने से नाराज हुआ है तो उसकी उपेक्षा कर हम उसे अधिक बढ़ाते हैं। उस समय ऐसा लगता है कि हमसे अपमानित व्यक्ति हमारा क्या कर लेगा मगर इस बात को भूल जाते हैं कि अहंकार हर मनुष्य में है और समय आने पर हर कोई अपने अपमान का बदला लेने को तत्पर होता है। एक बात दूसरी भी है कि हम अपने व्यवहार से अपने शत्रु बनाते हैं तो स्वयं भी आराम से नहीं बैठ पाते।
अतः जहां तक हो सके अन्य लोगों से वैमनस्य या तनाव का भाव समाप्त कर देना चाहिये। ऐसा भी होता है कि एक ही समय में दो लोग किसी लक्ष्य या व्यक्ति के लिये प्रयत्नशील हो जाते हैं इससे दोनों में वाद विवाद होता है। ज्ञानी मनुष्य अपना लक्ष्य छोड़कर दूसरा तय कर लेते हैं। बजाय किसी से विवाद के अच्छा है कि अपना ही मार्ग बदल लें। मन शांत करने के लिये ऐसे आवश्यक उपाय करते रहना चाहिये ताकि समय समय पर आने वाले तनाव क्षणिक साबित हों।
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Saturday, August 7, 2010

संत कबीर के दोहे-प्रचार पाने के लिये भक्ति का दिखावा करते हैं लोग (publicity ke liye ghakti-sant kabir ke dohe)



संत कबीर दास कहते हैं कि
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मान बड़ाई देखि कर, भक्ति करै संसार। जब देखैं कछु हीनता, अवगुन धरै गंवार।
            हिंदी में भावार्थ-संत कबीरदास जी कहते हैं कि दूसरों की देखादेखी कुछ लोग सम्मान पाने के लिये परमात्मा की भक्ति करने लगते हैं पर जब वह नहीं मिलता वह मूर्खों की तरह इस संसार में ही दोष निकालने लगते हैं।
मान बड़ाई ऊरमी, ये जग का व्यवहार। दीन गरीबी बन्दगी, सतगुरु का उपकार।।
      हिंदी में भावार्थ-संत शिरोमणि कबीरदास का कहना है कि जिस तरह दुनियां का व्यवहार है उससे देखकर तो यही आभास होता है कि मान और बड़ाई दुःख का कारण है। सतगुरु की शरण लेकर उनकी कृपा से जो गरीब असहाय की सहायता करता है, वही सुखी है।
     वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इस संसार में ऐसे अनेक लोग हैं जो अपनी धार्मिक छबि बनाये रखने के लिये भक्ति का दिखावा करते हैं। इनमें से कुछ तो ऐसे हैं जो गुरु बनकर अपने लिये शिष्य समुदाय का निर्माण कर अपनी रोजी रोटी चलाते हैं। ऐसे दिखावे की भक्ति करने वाले अनेक लोग हैं। इसके विपरीत जो भगवान की वास्तव में भक्ति करते हैं वह उसका प्रयार नहीं करते न ही अपना ज्ञान बघारते हैं।
भक्त और ज्ञानी की पहचान यह है कि वह कभी अपनी भक्ति और ज्ञान शक्ति का बखान नहीं करते बल्कि निर्लिप्त भाव से समाज सेवा करते हुए अपना जीवन यापन करते हैं। अपनी सच्ची भक्ति और ज्ञान के कारण कुछ लोग महापुरुषों की श्रेणी में आ जाते हैं उनको देखकर अन्य लोग भी यही प्रयास करते हैं कि उनकी पूजा हो। यह केवल अज्ञान का प्रमाण है अलबत्ता अपने देश में धार्मिक प्रवचन एक व्यवसाय के रूप में चलता रहा है। इस कारण तोते की तरह किताबों को रटकर लोगों को सुनाते हुए खूब कमाते हैं। उनको देखकर कुछ लोग यह सोचते हुए भक्ति का दिखावा करते हैं कि शायद उनको भी ऐसा ही स्वरूप प्राप्त हो। अनेक लोग संतों की सेवा में इसलिये जाते हैं कि हो सकता है कि इससे उनको किसी दिन उनकी गद्दी प्राप्त हो जाये। ऐसे में भक्ति और ज्ञान तो एक अलग विषय हो जाता है और वह मठाधीशी के चक्कर में राजनीति करने लगते हैं। किताबों को रटने की वजह से उनको शब्द ज्ञान याद तो रहता है ऐसे में वह थोड़ा बहुत प्रवचन भी कर लेते हैं पर उनकी भक्ति और ज्ञान प्रमाणिक नहीं है। वैसे भी अपने पौराणिक ग्रंथों का अध्ययन हर आदमी इतना तो कर ही लेता है कि उसे सारी कथायें याद रहती हैं। नहीं भी अध्ययन करे तो इधर उधर सुनकर उसे बहुत सारी कथायें याद आ ही जाती हैं। । किसी आदमी ने वह भी नहीं किया हो तो अपने अध्यात्मिक दर्शन के कुछ सूक्ष्म सत्य-निष्काम कर्म करो, परोपकार करो, दया करो और माता पिता की सेवा करे जैसे जुमले- सुनाते हुए श्रोताओं और दर्शकों की कल्पित कहानियों से मनोरंजन करता है। उनको सम्मानित होते देख अन्य लोग भक्ति में जुट जाते हैं यह अलग बात है कि कामना सहित यह भक्ति किसी को भौतिक फल दिलाती है किसी को नहीं।
      फिर भक्ति हो या ज्ञानार्जन अगर कामना सहित किया जाये और सफलता न मिले तो आदमी संसार में दोष ढूंढने लगता है। यह केवल भक्ति या ज्ञान के विषय में नहीं है बल्कि साहित्य और कला के विषयों में भी यही होता है। आदमी आत्ममुग्ध होकर अपना काम शुरु करता है पर जब उसे सफलता नहीं मिलती तो वह निराश हो जाता है। निष्कर्ष यह है कि सम्मान पाने का मोह आदमी के लिये दुःख का कारण बनता है। एक बात याद रखें सम्मान पाने की चाह पूरी नहीं हुई तो दुःख तो होगा और अगर पूरी भी हो गयी तो अपमान भी हो सकता है। जहां सुख है वहां दुःख भी है। जहां आशा है वहां निराशा भी है। जहां सम्मान है वहां अपमान भी है। अगर सम्मान मिल गया तो चार लोग आपके दोष निकालकर अपमान भी कर सकते हैं।
      इसलिये अच्छा यही है कि अपने कर्म निष्काम भाव से करें। इस संसार में निर्विवाद सम्मान पाने का बस एक ही तरीका है कि आप गरीब को धन और अशिक्षित को शिक्षा प्रदान करें। प्रयोजन रहित दया करें। ऐसे काम बहुत कम लोग करते हैं। जो सभी कर रहे हैं उसे आप भी करें तो कैसा सम्मान होगा? सम्मान तो उसी में ही संभव है जो दूसरे लोग न करते हों। 
----------------------- मान बड़ाई देखि कर, भक्ति करै संसार।
जब देखैं कछु हीनता, अवगुन धरै गंवार।
संत कबीरदास जी कहते हैं कि दूसरों की देखादेखी कुछ लोग सम्मान पाने के लिये परमात्मा की भक्ति करने लगते हैं पर जब वह नहीं मिलता वह मूर्खों की तरह इस संसार में ही दोष निकालने लगते हैं।
मान बड़ाई ऊरमी, ये जग का व्यवहार।
दीन गरीबी बन्दगी, सतगुरु का उपकार।।
संत शिरोमणि कबीरदास का कहना है कि जिस तरह दुनियां का व्यवहार है उससे देखकर तो यही आभास होता है कि मान और बड़ाई दुःख का कारण है। सतगुरु की शरण लेकर उनकी कृपा से जो गरीब असहाय की सहायता करता है, वही सुखी है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इस संसार में ऐसे अनेक लोग हैं जो अपनी धार्मिक छबि बनाये रखने के लिये भक्ति का दिखावा करते हैं। इनमें से कुछ तो ऐसे हैं जो गुरु बनकर अपने लिये शिष्य समुदाय का निर्माण कर अपनी रोजी रोटी चलाते हैं। ऐसे दिखावे की भक्ति करने वाले अनेक लोग हैं। इसके विपरीत जो भगवान की वास्तव में भक्ति करते हैं वह उसका प्रयार नहीं करते न ही अपना ज्ञान बघारते हैं।
भक्त और ज्ञानी की पहचान यह है कि वह कभी अपनी भक्ति और ज्ञान शक्ति का बखान नहीं करते बल्कि निर्लिप्त भाव से समाज सेवा करते हुए अपना जीवन यापन करते हैं। अपनी सच्ची भक्ति और ज्ञान के कारण कुछ लोग महापुरुषों की श्रेणी में आ जाते हैं उनको देखकर अन्य लोग भी यही प्रयास करते हैं कि उनकी पूजा हो। यह केवल अज्ञान का प्रमाण है अलबत्ता अपने देश में धार्मिक प्रवचन एक व्यवसाय के रूप में चलता रहा है। इस कारण तोते की तरह किताबों को रटकर लोगों को सुनाते हुए खूब कमाते हैं। उनको देखकर कुछ लोग यह सोचते हुए भक्ति का दिखावा करते हैं कि शायद उनको भी ऐसा ही स्वरूप प्राप्त हो। अनेक लोग संतों की सेवा में इसलिये जाते हैं कि हो सकता है कि इससे उनको किसी दिन उनकी गद्दी प्राप्त हो जाये। ऐसे में भक्ति और ज्ञान तो एक अलग विषय हो जाता है और वह मठाधीशी के चक्कर में राजनीति करने लगते हैं। किताबों को रटने की वजह से उनको शब्द ज्ञान याद तो रहता है ऐसे में वह थोड़ा बहुत प्रवचन भी कर लेते हैं पर उनकी भक्ति और ज्ञान प्रमाणिक नहीं है। वैसे भी अपने पौराणिक ग्रंथों का अध्ययन हर आदमी इतना तो कर ही लेता है कि उसे सारी कथायें याद रहती हैं। नहीं भी अध्ययन करे तो इधर उधर सुनकर उसे बहुत सारी कथायें याद आ ही जाती हैं। । किसी आदमी ने वह भी नहीं किया हो तो अपने अध्यात्मिक दर्शन के कुछ सूक्ष्म सत्य-निष्काम कर्म करो, परोपकार करो, दया करो और माता पिता की सेवा करे जैसे जुमले- सुनाते हुए श्रोताओं और दर्शकों की कल्पित कहानियों से मनोरंजन करता है। उनको सम्मानित होते देख अन्य लोग भक्ति में जुट जाते हैं यह अलग बात है कि कामना सहित यह भक्ति किसी को भौतिक फल दिलाती है किसी को नहीं।
फिर भक्ति हो या ज्ञानार्जन अगर कामना सहित किया जाये और सफलता न मिले तो आदमी संसार में दोष ढूंढने लगता है। यह केवल भक्ति या ज्ञान के विषय में नहीं है बल्कि साहित्य और कला के विषयों में भी यही होता है। आदमी आत्ममुग्ध होकर अपना काम शुरु करता है पर जब उसे सफलता नहीं मिलती तो वह निराश हो जाता है। निष्कर्ष यह है कि सम्मान पाने का मोह आदमी के लिये दुःख का कारण बनता है। एक बात याद रखें सम्मान पाने की चाह पूरी नहीं हुई तो दुःख तो होगा और अगर पूरी भी हो गयी तो अपमान भी हो सकता है। जहां सुख है वहां दुःख भी है। जहां आशा है वहां निराशा भी है। जहां सम्मान है वहां अपमान भी है। अगर सम्मान मिल गया तो चार लोग आपके दोष निकालकर अपमान भी कर सकते हैं।
इसलिये अच्छा यही है कि अपने कर्म निष्काम भाव से करें। इस संसार में निर्विवाद सम्मान पाने का बस एक ही तरीका है कि आप गरीब को धन और अशिक्षित को शिक्षा प्रदान करें। प्रयोजन रहित दया करें। ऐसे काम बहुत कम लोग करते हैं। जो सभी कर रहे हैं उसे आप भी करें तो कैसा सम्मान होगा? सम्मान तो उसी में ही संभव है जो दूसरे लोग न करते हों। 
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Saturday, July 31, 2010

पतंजलि योग शास्त्र-ध्यान में बहुत बड़ी शक्ति है (Patanjali yoga shastra-Power of Dhyan)

तदेवार्थमात्रनिर्भसं स्वरूपशून्यमिव समाधिः।।
हिन्दी में भावार्थ-
जब केवल अपना ही लक्ष्य दिखता है और चित्त में जब शून्य जैसा अनुभव होता वही समाधि हो जाता है।
त्रयमेकत्र संयम्।।
हिन्दी में भावार्थ-
किसी एक विषय पर ध्यान केंद्रित हो जाने तीनों का होना संयम् है।
तज्जयात्प्रज्ञालोकः।।
हिन्दी में भावार्थ-
उस विषय में जीत होने से बुद्धि का प्रकाश होता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-ध्यान मनुष्य के लिये एक श्रेष्ठ स्थिति है। चंचल मन तो मनुष्य को हर भल चलाता है इसलिये किसी लक्ष्य में संलिप्त होते ही उसका ध्यान उससे इतर विषयों पर चला जाता है। अनेक लोग एक लक्ष्य के साथ अनेक लक्ष्य निर्धारित करते हैं। इससे मस्तिष्क असंयमित हो जाता है और मनुष्य न इधर का रहता है न उधर का।
जब कोई मनुष्य एकाग्र होकर किसी एक विषय में रम जाता है तब वह ध्यान का वह चरम प्राप्त कर लेता है जिसकी कल्पना केवल सहज योगी ही कर पाते हैं। मूलत यह स्थिति मस्तिष्क से खेले जाने वाले खेलों शतरंज, ताश और शतरंज में देखी जा सकती है जब खेलने वाले किसी अन्य काम का स्मरण तक नहीं कर पाते। हालांकि शारीरिक खेलों-बैटमिंटन, क्रिकेट, हॉकी तथा फुटबाल में इसकी अनुभूति देखी जा सकती है पर अन्य अंग चलायमान रहने से केवल खेलने वाले को ही इसका आभास हो सकता देखने वाले को नहीं। हम अक्सर खेलों के परिणामों का विश्लेषण करते हैं पर इस बात पर दृष्टिपात नहीं कर पाते कि जिसका अपने खेल में ध्यान अच्छा है वही जीतता है। हम केवल खिलाड़ी के हाथों के पराक्रम, पांवों की चंचलता तथा शारीरिक शक्ति पर विचार करते हैं पर जिस ध्यान की वजह से खिलाड़ी जीतते हैं उसे नहीं देख पाते। यहां तक कि अभ्यास से अपने खेल में पारंगत खिलाड़ी भी इस बात की अनुभूति नहंी कर पाते कि उनका ध्यान ही उनकी शक्ति होता है जिससे उनको विजय मिलती है। जो पतंजलि येाग शास्त्र का अध्ययन करते हैं उनको ही इस बात की अनुभूति होती है कि यह सब ध्यान का परिणाम है। यही कारण है कि जिन लोगों का स्वाभाविक रूप से ध्यान नहीं लगता उनको इसका अभ्यास करने के लिये कहा जाता है।
इसका अभ्यास करने पर बुद्धि तीक्ष्ण होती है और अपने विषय में उपलब्धि होने पर मनुष्य के अंदर एक ऐसा प्रकाश फैलता है जिसके सुख की अनुभूति केवल वही कर सकता है।
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Thursday, July 29, 2010

मनुदर्शन-दूसरों पर निर्भर काम प्रारंभ न करें (apna hath jagnnath-manu darshan)

मनुष्य स्वभाव से ही अहंकारी होता है ऐसे में जब उसे कहीं अपने व्यक्तित्व के कमजोर होने की अनुभूति पर वह हताश होता है। आजकल लोगों ने अपनी जरूरतें इतनी बढ़ा ली हैं कि उसके लिये उनको दूसरों की सहायता लेनी पड़ती है जो कालांतर में उनके स्वाभिमान पर आघात पहुंचाती है। जब कोई मनुष्य अपना काम दूसरे पर छोड़ता है तब उसे इस बात का ज्ञान नहीं होता कि उसका बदला भी उसे चुकाना है। ऐसे में जब उसे प्रत्युत्तर में काम करना या दाम देना होता है तब उसका दम फूलने लगता है। शायद इसलिये कहा गया है कि अपना हाथ जगन्नाथ। इसलिये जहां तक हो सके दूसरों पर निर्भर होने वाला काम शुरु ही नहीं करना चाहिए।
सर्वे परवशं दुःखं सर्वमात्मवशं सुखम्।
एतद्विद्यात्समासेन लक्षणं सुखदुःखयोः।।
हिन्दी में भावार्थ-
जो कार्य दूसरे के अधीन है वह दुःखदायी होता है। जिस काम पर अपना पूरी तरह से नियंत्रण हो उसी से ही सुख मिलता है। यही सुख और दुःख का लक्षण है।
यत्कर्मकुर्वतोऽस्य स्यात्परितोषोऽन्तरात्मनः।
तत्प्रयतनेन कुर्वीत विपरीतं तु वर्जयेत्।
हिन्दी में भावार्थ-
जिस काम को करने से मन और अंतरात्मा को शांति मिलती हो वही करना चाहिए। जिससे इसके विपरीत स्थिति हो तो उस काम को त्याग देना चाहिए।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जब भी हमारे सामने कोई कार्य उपस्थित होता है तो उसके परिणामों, प्रकृति तथा स्वरूप पर अवश्य विचार करना चाहिए। कभी कोई कार्य दबाव या परप्रेरणा से नहीं करना चाहिऐ। इसके अलावा जो कार्य पूरे या आंशिक रूप से दूसरे पर निर्भर हो उसे अपने हाथ में न लें तो ही अच्छा। क्योंकि तब लक्ष्य की प्राप्ति दूसरे की गतिविधि पर निर्भर हो जाती है। अनेक बार ऐसा भी होता है कि दूसरा आदमी अगर अंदर ही अंदर द्वेष रखता है तो वह जानबूझकर उस काम का अपना पूरा या आंशिक दायित्व नहीं निभाता तब अपना लक्ष्य या अभियान संकट में पड़ जाता है।
इसके अलावा किसी भी कार्य को करते हुए इस बात पर भी विचार करना चाहिए कि उससे अपने मन और अंतरात्मा को संतोष मिलेगा या नहीं। जिस काम को करने से मन और अंतरात्मा में क्लेश होता हो उससे करने का विचार ही छोड़ दें तो ही अच्छा होगा। कहने का अभिप्राय यह है कि अपने हाथ से किये जाने वाले कार्यों पर विचार करना चाहिए ताकि उनके परिणामों को लेकर बाद में पछताना न पड़े। बुद्धिमान व्यक्ति किसी भी काम को करने से पहले उसके हर पहलू पर विचार कर लेते हैं।
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Wednesday, July 28, 2010

पतंजलि योग सूत्र-प्राणवायु अंदर बाहर निकालने से मन शुद्ध होता है (pranvayu aur man-Patanjli Yog Sootra)

            तंजलि योग सूत्र एक प्रमाणिक कला और विज्ञान है। आज जब हम अपने देश में अस्वस्थ और मनोरोगों के शिकार लोगों की संख्या को देखते हैं तो इसको अपनाने की आवश्यकता अधिक अनुभव होती है। पतंजलि योग एक बृहद साहित्य है और इसमें केवल आसनों से शरीर को स्वस्थ ही नहीं रखा जा सकता बल्कि प्राणायाम तथा वैचारिक योग से मन को भी प्रसन्न रखा जा सकता है। यह अंतिम सत्य है कि दवाईयां मनुष्य की बीमारियां दूर सकती हैं पर योग तो कभी बीमार ही नहीं पड़ने देता।

पतंजलि योग सूत्र में  कहा गया है
प्रच्छर्दनविधारणाभ्यां वा प्राणस्य।

     हिन्दी में भावार्थ-प्राणवायु को बाहर निकालने और अंदर रोकने के निरंतर अभ्यास चित्त निर्मल होता है।

विषयवती वा प्रवृत्तिरुपन्न मनसः स्थितिनिबन्धनी।।

हिन्दी में भावार्थ-विषयवाली प्रवृत्ति उत्पन्न होने पर भी मन पर नियंत्रण रहता है।
विशोका वा ज्योतिवस्ती।
हिन्दी में भावार्थ-इसके अलावा शोकरहित प्रवृत्ति से मन नियंत्रण में रहता है।
वीतरागविषयं वा चित्तम्।
हिन्दी में भावार्थ-वीतराग विषय आने पर भी मन नियंत्रण में रहता है।
     वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-भारतीय योग दर्शन में प्राणायाम का बहुत महत्व है। योगासनों से जहां देह के विकार निकलते हैं वहीं प्राणायाम से मन तथा विचारों में शुद्धता आती है। जैसा कि स्वास्थ्य विशेषज्ञ बताते आ रहे हैं कि इस विश्व में मनोरोगियों का इतना अधिक प्रतिशत है कि उसका सही आंकलन करना संभव नहीं है। अनेक लोगों को तो यह भी पता नहीं कि वह मनोविकारों का शिकार है। इसका कारण यह है कि आधुनिक विकास में भौतिक सुविधाओं की अधिकता उपलब्धि और उपयेाग के कारण सामान्य मनुष्य का शरीर विकारों का शिकार हो रहा है वहीं मनोरंजन के नाम पर उसके सामने जो दृश्य प्रस्तुत किये जा रहे है वह मनोविकार पैदा करने वाले हैं।
    ऐसी अनेक घटनायें आती हैं जिसमें किसी फिल्म या टीवी चैनल को देखकर उनके पात्रों जैसा अभिनय कुछ लोग अपनी जिंदगी में करना चाहते हैं। कई लोग तो अपनी जान गंवा देते हैं। यह तो वह उदाहरण सामने आते हैं पर इसके अलावा जिनकी मनस्थिति खराब होती है और उसका दुष्प्रभाव मनुष्य के सामान्य व्यवहार पर पड़ता है उसकी अनुभूति सहजता से नहीं हो जाता।
प्राणायाम से मन और विचारों में जो दृढ़ता आती है उसकी कल्पना ही की जा सकती है मगर जो लोग प्राणायाम करते और कराते हैं वह जानते हैं कि आज के समय में प्राणायाम ऐसा ब्रह्मास्त्र है जिससे समाजको बहुत लाभ हो सकता है।
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