Saturday, February 26, 2011

बुरी कमाई को छोड़ देना चाहिए-हिन्दी धार्मिक संदेश (buri kamai n karen-hindi dharmik sandesh)

हर मनुष्य में स्वाभाविक रूप से यह ज्ञान रहता है कि कौनसा धन धर्म की कमाई है और कौनसा पाप की! दूसरा कोई आदमी यह नही बता सकता है आप पाप की कमाई कर रहे हो या नहीं उसी तरह किसी दूसरे को कहना भी नहीं चाहिये कि उसकी कमाई पाप की है। धन या माया तो सभी के पास आती है पर अपने परिश्रम, ज्ञान तथा कार्य के अभ्यास से कमाने वाले लोग वास्तव में धर्म का निर्वाह करते हैं जबकि झूठ, बेईमानी तथा अनाधिकारिक प्रयासों से धन कमाने वाले पाप की खाते हैं।
कहा जाता है कि जैसा आदमी खाये अन्न वैसा ही होता है उसक मन। अगर हम इसका शब्दिक अर्थ लेें तो इसका आशय यह है कि हम भोजन में मांस और मदिरा का सेवन करेंगे तो धीरे धीरे हमारी प्रकृति तामसी हो जायेगी। इसका लाक्षणिक अर्थ लें तो हमारी सेवा और व्यवसाय के प्रकार से है। जो लोग ऐसी जगहों पर काम करते हैं जहां का वातावरण अत्यंत दुर्गंधपूर्ण तथा गंदगी से भरा है तो चाहे वहा भले ही एक नंबर की कमाई करें पर उनकी देह में भरे विकार उनके अंदर सात्विक प्रवृत्तियां नहीं आने देतें। अपने कर्मस्थल से मिली पीड़ा उनका पीछा नहीं छोड़ती। इसका अगर व्यंजना विधा में अर्थ देखें तो यह स्पष्ट है कि जो धन दूसरे के शोषण, भ्रष्टाचार या अपराध से प्राप्त करते हैं वह चाहे अच्छी जगह पर रहे और शाकाहारी भोजन भी करें तब भी आसुरी प्रवृत्ति के हो जाते हैं।
इस विषय पर कौटिल्य का अर्थशास्त्र में कहा गया है
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दुष्यस्यादूषणार्थंचच परित्यागो महीयसः।
अर्थस्य नीतितत्वज्ञरर्थदूषणमुच्यते।।
"दुष्य तथा दूषित अर्थ का अवश्य त्याग करना चाहिये। नीती विशारदों ने अर्थ की हानि को ही अर्थदूषण बताया है।"
अतः हमें इस अपने जीवन में सतत आत्ममंथन करना चाहिए। जिंदगी तो सभी जीते हैं पर कुछ लोग ऐसे हैं जो अपने पास कुछ न होते ही हुए भी प्रसन्न रहते हैं और कुछ सब कुछ होते हुए भी दुःखी रहते हैं। जीवन जीने की कला सभी को नहीं आती इसके लिये जरूरी है कि ध्यान, चिंतन और मनन करते हुए अपनी आय के साधन तथा कार्यस्थलों में पवित्रता लाने का प्रयास करें।
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संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

Sunday, February 20, 2011

लोगों को अपमानित करने वालों का पतन शीघ्र होता है-हिन्दू धार्मिक चिंत्तन (logon ka apaman na karen-hindu dharmik chittan)

कुछ लोग ऐसे होते हैं कि दूसरों के दोषों का बयान करके खुश होते हैं। कुछ ऐसे भी होते हैं जो दूसरों का अपमान करके प्रसन्नता की अनुभूति करते हैं। ऐसे अज्ञानियों का समर्थन करना या उनसे व्यवहार रखना अपने लिये संकट को दावत देना है। आज समाज में तो स्थिति यह है कि लोग दूसरे का अपमान कर यह दिखाते हैं कि वह कितने शक्तिशाली हैं। उसी तरह निर्धन, मज़दूर तथा असहाय आदमी की मजाक उड़ाकर कुछ लोग अपनी शक्ति की पहचान कराते हैं। वह यही नहीं जानते कि गरीब की हाय कितनी ताकतवर होती है।
इस विषय पर मनु महाराज अपनी स्मृति में कहते हैं कि
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सुखं द्वावमतः शेते सुखं च प्रतिबुध्यते।
सुखं चरति लोकेऽस्मिनन्मन्ता विनश्तिं।
"अन्य व्यक्तियों द्वारा अपमान किये जाने पर उनको माफ करने वाला मनुष्य सुखी की नींद लेनें के साथ संसार में सहजता से विचरता है परंतु दूसरों का अपमान करने वाला मनुष्य स्वयं ही नष्ट होता है।"
सच तो यह है कि कुछ लोग अक्षम होने के साथ ही अहंकारी भी होते हैं। उनको पद, प्रतिष्ठा और पैसा विरासत में मिल जाता है। ऐसे लोग गरीब और मज़दूर का दर्द नहीं समझते। उन्होंने कभी परिश्रम किया नहीं होता इसलिये परिश्रमी लोगों को हेय समझकर उनका अपमान करते हैं। अंततः कहीं न कहीं वह अपने आपको ही मानसिक और शारीरिक रूप से कमजोर करते हैं और फिर समय आने से पहले ही तकलीफ भी झेलते हैं। इस तरह के पाप और उसके दंड से बचने का केवल यही उपाय है कि दूसरों के साथ मधुर व्यवहार करें। अपनी वाणी से दूसरों को प्रसन्न रखते अपने लिये दुआओं का भंडार जुटाते रहें। दूसरों को अपमानित कर या कटुवाणी बोलकर अपने लिये पाप ही जुटाया जा सकता है पर मीठी वाणी बोलकर सारे संसार का दिल जीतने के साथ ही अपने आपको हमेशा प्रसन्न रखने का लाभ प्राप्त होता है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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Saturday, February 19, 2011

विष फैलाने वालों को अमृत सृजक न बतायें-हिन्दू धार्मिक विचार (vish aur amrit-hindu dharmik vichar)

उच्च पदस्थ, धनवानों तथा बलिष्ठ लोगों को समाज में सम्मान से देखा जाता है और इसलिये उनसे मित्रता करने की होड़ लगी रहती है। जब समाज में सब कुछ सहज ढंग से चलता था तो जीवन के उतार चढ़ाव के साथ लोगों का स्तर ऊपर और नीचे होता था फिर भी अपने व्यवहार से लोगों का दिल जीतने वाले लोग अपने भौतिक पतन के बावजूद सम्मान पाते थे। बढ़ती आबादी के साथ राज्य करने के तौर तरीके बदले। समाज में राज्य का हस्तक्षेप इतना बढ़ा गया कि अर्थ, राजनीति तथा सांस्कृतिक क्षेत्र में राजनीति का दबाव काम करने लगा है। इससे समाज में लोकप्रियता दिलाने वाले क्षेत्रों में राज्य के माध्यम से सफलता पाने के संक्षिप्त मार्ग चुनने की प्रक्रिया लोग अपनाने लगे। स्थिति यह हो गयी है कि योग्यता न होने के बावजूद केवल जुगाड़ के दम पर समाज में लोकप्रियता प्राप्त कर लेते हैं। दुष्ट लोग जनकल्याण का कार्य करने लगे है। हालत यह हो गयी है कि दुष्टता और सज्जनता के बीच पतला अंतर रह गया है जिसे समझना कठिन है। व्यक्तिगत जीवन में झांकना निजी स्वतंत्रा में हस्तक्षेप माना जाता है पर सच यही है कि जिनका आचरण भ्रष्ट है वही आजकल उत्कृष्ट स्थानों पर विराजमान हो गये है। उनसे समाज का भला हो सकने की आशा करना स्वयं को ही धोखा देना है।
इस विषय में भर्तृहरि महाराज कहते हैं कि
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आरंभगुर्वी क्षयिणी क्रमेण लघ्वी पुरा वृद्धिमति च पश्चात्।
दिनस्य पूर्वाद्र्धपराद्र्ध-भिन्ना छायेव मैत्री खलसज्जनानाम्।।
"जिस तरह दिन की शुरूआत में छाया बढ़ती हुई जाती है और फिर उत्तरार्द्ध में धीरे-धीरे कम होती जाती है। ठीक उसी तरह सज्जन और दुष्ट की मित्रता होती है।"
दुर्जनः परिहर्तवयो विद्ययाऽलङ्कृतोऽपि सन्।
मणिनाः भूषितः सर्पः किमसौ न भयंकर।।
"इसका आशय यह है कि कोई दुर्जन व्यक्ति विद्वान भी हो तो उसका साथ छोड़ देना चाहिए। विषधर में मणि होती है पर इससे उससे उसका भयंकर रूप प्रिय नहीं हो जाता।"
कभी कभी तो ऐसा लगता है कि विद्वता के शिखर पर भी वही लोग विराजमान हो गये हैें जो इधर उधर के विचार पढ़कर अपनी जुबां से सभाओं में सुनाते हैं। कुछ तो विदेशी किताबों के अनुवाद कर अपने विचार इस तरह व्यक्त करते हैं जैसे कि उनका अनुवादक होना ही उनकी विद्वता का प्रमाण है। उनके चाटुकार वाह वाह करते हैं। परिणाम यह हुआ है कि अब लोग कहने लगे हैं कि शैक्षणिक, साहित्यक तथा धार्मिक क्षेत्रों में अब नया चिंतन तो हो नहीं रहा उल्टे लोग अध्ययन और मनन की प्रक्रिया से ही परे हो रहे हैं। जैसे गुरु होंगे वैसे ही तो उनके शिष्य होंगे। शिक्षा देने वालों के पास अपना चिंतन नहीं है और जो उनकी संगत करते हैं उनको भी रटने की आदत हो जाती है। ज्ञान की बात सभी करते हैं पर व्यवहार में लाना तो विरलों के लिऐ ही संभव हो गया है।
अब तो यह हालत हो गयी है की अनेक लोगों को मिलने वाले पुरस्कारों पर ही लोग हंसते हैं। जिनको समाज के लिये अमृतमय बताया जाता है उनके व्यवसाय ही विष बेचना है। सम्मानित होने से वह कोई अमृत सृजक नहीं बन जाते। इससे हमारे समाज की विश्व में स्थिति तो खराब होती है युवाओं में गलत संदेश जाता है। फिल्मों में ऐसे गीतों को नंबर बताकर उनको इनाम दिये जाते हैं जिनका घर में गाना ही अपराध जैसा लगता है। फिल्म और टीवी में माध्यम से समाज में विष अमृत कर बेचा जा रहा है। ऐसे में भारतीय अध्यात्म दर्शन से ही यह आशा रह जाती है क्योंकि वह समाज में ज्ञान का प्रकाश फैलाये रहता है।
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संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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Wednesday, February 16, 2011

अपने मुंह मियां मिट्ठु न बने-हिन्दी चिंत्तन आलेख (apni tarif khud na karen-hindi chittan aalekh)

सम्मान पाने की चाह हर मनुष्य में होती है पर परोपकार करने का भाव तो विरले ही लोगों के होता है। सच तो यह है कि हृदय से ईश्वर भक्ति करने वाले ही परोपकार का काम करते हैं पर मान पाने का विचार तक नहीं करते। इसके विपरीत अपने स्वार्थ पूर्ति में ही जीवन गुज़ारने वाले कुछ लोग अपने मुंह से ही अपनी प्रशंसा करते हैं। अपनी व्यक्तिगत उपलब्धियों का बिना पूछे ही गुणगान करने लगते हैं भले ही उससे कोई दूसरा प्रभावित नहीं होता। एक बात निश्चित है कि अपनी प्रशंसा स्वयं तो कदापि नहीं करना चाहिए और कोई अन्य व्यक्ति करता है तो समझ लीजिए उसने ऐसा कोई काम नहीं किया जिसकी सराहना दूसरे लोग करें।
नीति विशारद चाणक्य कहते हैं कि
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पर-प्रोक्तगुणो वस्तु निर्गृणऽपि गुणी भवेत्।
इन्द्रोऽ लघुतां याति स्वयं प्रख्यापितैर्गृणैः।।
"चाहे कोई मनुष्य कम ज्ञानी हो पर अगर दूसरे उसके गुणों की प्रशंसा करते हैं तो वह गुणवान माना जायेगा किन्तु जो पूर्ण ज्ञानी है और स्वयं अपना गुणगान करता है तो भी वह प्रशंसनीय नहीं माना जा सकता चाहे भले ही स्वयं देवराज इंद्र हो।"
अपने मुंह से अपनी प्रशंसा करने की बजाय बेहतर यह है कि हम स्वयं भी कोई अच्छा काम करें। जिंदगी के फुरसत के क्षणों अध्यात्मिक ज्ञान संग्रह तथा परमार्थ में लगायें। अपनी स्वार्थपूर्ति के लिये जीवन गुजारना सहज तो है पर कहीं न कहीं  आत्मिक शांति का अभाव सभी को खलता है। वह तभी संभव है जब परमार्थ करने के साथ ही ईश्वर की भक्ति की जाये।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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Saturday, February 12, 2011

आयु के छोटे शिक्षक का भी सम्मान करना चाहिए-हिन्दू धार्मिक लेख (age,teachar and computer education-hindu dharmik article)

मनुष्य को विनम्रता का भाव हमेशा अपना चाहिए पर इसका मतलब यह नहीं है कि अक्षम, नकारा, भ्रष्ट तथा अहंकारी लोगों की संगत में जाने की सामाजिक शर्त का पालन भी करें। अंततः संगत का प्रभाव पड़ता है। जैसे लोगों के बीच बैठेंगे उनकी वाणी तथा सक्रियता के प्रभाव से बचना संभव नहीं है चाहे कितना कोई आम इंसान ज्ञानी क्यों न हो।
पैसा, पद तथा प्रतिष्ठा अर्जित करने वाले अनेक लोग मदांध हो जाते हैं और अपने साथ अभिवादन करने की प्रक्रिया को वह अपनी चाटुकारिता समझकर इठलाते हैं। वह अभिवादन का उत्तर देते नहीं है और देते हैं तो उनका अहंकार भाव प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होता है। ऐसे लोग सम्मान के योग्य नहीं होते। उनकी तरफ से मुंह फेरना ही एक श्रेष्ठ उपाय है।
इस विषय में मनुमहाराज मनुस्मृति में कहते हैं-
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यो न वेत्यभिवादस्य विप्रः प्रत्यभिवादनम्।
नाभिवाद्य स विदुषा यथा शूर्दस्तथैव सः।।
"जो अभिवादन का उत्तर देना नहीं जानता उसे प्रणाम नहीं करना क्योंकि वह इस सम्मान के अयोग्य होता है।"
अवाच्यो तु या स्त्री स्वादसम्बद्धा य योनितः।
भोभवत्पूर्वकं त्वनेमभिभाषेत धर्मवित्।।
"धर्म का ज्ञान रखने वाले को चाहिए कि वह दूसरे ज्ञानी को कभी भी नाम से संबोधित न करे भले ही वह उससे छोटी आयु का क्यों न हो। उसको हमेशा सम्मान से संबोधित करना चाहिए।"
उसी तरह अगर कोई ज्ञानी है और आयु में छोटा हो भी उसका सम्मान किया जाना चाहिये। इसका उदाहरण आज के कंप्यूटर युग में लिया जा सकता है। जब कंप्यूटर का उपयोग आम लोगों ने शुरु किया तो उसे सीखने के लिये अपने से छोटी आयु के लड़कों से सीखना प्रारंभ करना पड़ा। वह एक छात्र के रूप में अपने शिक्षक को सम्मानीय संबोधन देने लगे। यह हमारी महान सांस्कृतिक परंपराओं का ही प्रमाण है। फिर कंप्यूटर की शिक्षा ऐसी है कि संभव है कुछ बच्चे पहले शिक्षा या अधिक अभ्यास से अपने से बड़े बच्चों से पहले दक्ष हो जाते हैं। इतना ही नहीं वह शिक्षक भी बन अपने दायित्व निभाते हैं। ऐसे में उनको सर या श्रीमान् का संबोधन देने से अपने अंदर कभी कुंठा अनुभव नहीं करना चाहिए।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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Sunday, February 6, 2011

वैचारिक योग की स्थिति-हिन्दी धार्मिक लेख (vaicharik yog ki sthati-hindi dharmik lekh)

वैचारिक योग की भी एक स्थिति है।  जब हमें लगे कि क्रोध का हमला हम पर हो गया है तब शांति की कल्पना करें, जब किसी वस्तु के प्रति लालच का भाव आ गया है तब त्याग का विचार करें।  इससे हमें अपने अंतर्मन में चल विचार की प्रतिपक्ष में स्थिति क्या है, यह समझ मे आयेगा।  हम सामने खड़े होकर अपने व्यक्त्तिव को निहारें तब पता लगेगा कि हम दूसरों को कैसे दिख रहे हैं। 
आधुनिक सभ्यता के विशेषज्ञ अक्सर सकारात्मक भाव को जीवन की सफलता का मूल मंत्र बताते हैं। अनेक अनुभवी लोग भी सभी को सकारात्मक विचाराधारा रखने की सलाह देते हैं पर यह भाव आये कैसे इसे कोई नहीं बता सकता क्योंकि इसके लिये मनुष्य मन के रहस्य को समझना जरूरी है जिसे कोई विरले ही समझ पाते हैं। पतंजलि योग सूत्र को विज्ञान इसलिये भी कहा जाता है क्योंकि वह मनुष्य की देह, मन तथा विचारों में शुद्धता लाने का मार्ग भी बताता है।
इस विषय में पतंजलि योगा साहित्य में कहा गया है कि 
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वितर्का हिंसादयः कृतकारितानुमोदिता लोभक्रोधमोहपूर्वका मृदुमध्याधिमात्रा।
दुःखज्ञानान्तफला इतिप्रतिक्षभावनम्।।
"हिंसा आदि का भाव वितर्क कहलाते हैं जिन पर आधारित बुरे कर्म स्वयं या दूसरों से करवाये जाते हैं या उनका अनुमोदन किया जाता है। यह वितर्क वाला भाव लोभ, क्रोध और मोह के कारण पैदा होता है। यह भाव दुःख और अज्ञान के रूप में फल प्रदान करते हैं अतः उनके लिये प्रतिपक्षी विचार करना चाहिए।"
वितर्कबाधने प्रतिपक्षभावनाम्।
"जब वितर्क और यम नियम में बाधा पहुंचाये तब उनके प्रतिपक्षी विचारों का ध्यान करना चाहिए।"
मनुष्य का मन चंचल और बुद्धि में कुटिलता का भाव स्वाभाविक रूप से रहता है। इसलिये ही अज्ञानी मनुष्य व्यसनों की तरफ आकर्षित होता है जो कि उसके लिये देह के लिये हानिकारक हैं और वह जरा जरा बात पर क्रोध का शिकार होता है जो कि उसके लिये मानसिक तनाव का कारण बनता है। इन पर नियंत्रण करने के लिये राय देना आसान है पर इसका मार्ग जाने बिना कोई भी आत्मनियंत्रण नहीं कर सकता। इसके लिये अभ्यास की आवश्यकता है। इस अभ्यास का तरीका यह है कि जब हमारे अंदर आवेश, निराशा या अस्थिरिता का भाव आता है तब हमें अपने समक्ष उपस्थित प्रसंग पर विपरीत दृष्टिकोण पर भी विचार करना चाहिए। जब किसी की बात पर गुस्सा आता है तब हमें यह भी देखना चाहिए कि कहीं सामने वाले की बात सही तो नहीं है, अगर वह गलत है तो यह भी जानने का प्रयास करना चाहिए कि वह किसी अन्य की प्रेरणा से तो यह नहीं कह रहा। इसके बाद उस बात को अनसुना करने का प्रयास भी करना अच्छा रहता है। उसी समय यह भी विचार करना चाहिये कि आखिर क्रोध करने के परिणाम क्या होंगे। उसके बाद इस बात पर भी चिंतन करना चाहिये कि इस जीवन में प्रसन्नता लाने के लिये अन्य विषय भी हैं जिससे ध्यान अच्छी बात की तरफ चला जाये। कोई गाली दे तब अपने अंदर ओम शब्द का ध्यान करें और जब कोई लड़ने आये तो विनम्रता और मौन का मार्ग अपनायें जिससे तत्काल न केवल तनाव समाप्त होता है बल्कि एक प्रकार से अलौकिक प्रसन्नता भी प्राप्त होती है।

हमारे जीवन में अनेक लोग संपर्क में आते हैं। कई लोग दुःख देते हैं तो कोई प्रसन्नता देते हैं। जो दुःख का हेतु हैं उनका स्मरण होने पर अपना ध्यान प्रसन्न करने वाले लोगों की तरफ लाना चाहिये। इसके कष्ट आने पर आनंद के गुजरे पलों का स्मरण कर अपने अंदर यह दृढ़ भाव स्थापित हो जाता है कि समय की बलिहारी है वह अच्छा समय नहीं रहा तो यह बुरा भी नहीं रहेगा। इसी तरह अभ्यास करने से ही सकारात्मक भाव पैदा किया जा सकता है।
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संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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Saturday, February 5, 2011

शांत आसन का अभ्यास करें-हिन्दी अध्यात्मिक लेख (hindi adhyatmik aaelkh)

खुश लोग अक्सर खामोश दिखते हैं पर खुश भी वही रहते हैं। जिन लोगों को बहस सुनने या करने की आदत है वह हमेशा तकलीफ उठाते हैं। अनेक बार तो हम देखते हैं कि लोगों के बीच अनावश्यक विषयों पर वाद विवाद होने पर खूनखराबा हो जाता है। ऐसे वाद विवाद अक्सर अपने लोगों के बीच ही होते हैं। कई बार रिश्ते और मित्रता शत्रुता में परिवर्तित हो जाती है।
मनुष्य का स्वभाव कुछ ऐसा होता है कि वह बचपन से लेकर बुढ़ापे तक एक जैसा ही रहता है। युवावस्था में तो यह सब पता नहीं चलता पर बुढ़ापे में शक्ति क्षीण होने पर मनुष्य के लिये ज्यादा बोलना अत्यंत दुःखदायी हो जाता है। उस समय उसे मौन रहना चाहिए पर कामकाज न करने तथा हाथ पांव न चलाने की वजह से उसे बोलकर ही अपना दिल बहलाना पड़ता है और परिणाम यह होता है कि उसे अपमानित होने के साथ ही मानसिक तकलीफ झेलनी पड़ती है। दरअसल शांत बैठने की प्रवृत्ति का विकास युवावस्था में ही करना चाहिए जिससे उस समय भी व्यर्थ के वार्तालाप में ऊर्जा के क्षीण होने के दोष से बचा जा सकता है और बुढ़ापे में भी शांति मिलती है। शांत बैठना भी एक तरह से आसन है। 
इस विषय  पर मनु महाराज कहते हैं कि 
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क्षीणस्य चैव क्रमशो दैवात् पूर्वकृतेन वा।
मित्रस्य चानुरोधेन द्विविधं स्मृतमासनम्।।
"जब शक्ति क्षीण हो जाने पर या अपनी गलतियों के कारण चुप बैठना तथा मित्रों की बात का सम्मान करते हुए उनसे विवाद न करना यह दो प्रकार के शांत आसन हैं।"

उसी तरह मित्रों से भी जरा जरा बात पर विवाद नहीं करना श्रेयस्कर है। आपसी वार्तालाप में मित्र ऐसी टिप्पणियां भी करते हैं जो नागवार लगती हैं पर उस पर इतना गुस्सा जाहिर नहीं करना चाहिए कि मित्रता में बाधा आये। घर परिवार के सदस्यों को उनकी गल्तियों पर समझाना चाहिये कि अगर कोई न माने तो शांत ही बैठ जायें क्योंकि यह जीवन हरेक की स्वयं की संपदा है और जिसका मन जहां जाने के लिये प्रेरित करेगा उसकी देह वहीं जायेगी। यह अलग बात है कि परिणाम बुरा होने पर लोग रोते हैं पर यहां कोई किसी की बात नहीं मानता। ऐसे में शांत आसन का अभ्यास बुरा नहीं है।
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