Friday, September 19, 2008

संत कबीर वाणी:कर्म कांडों का सिर पर बोझ उठाये आदमी अहंकार में फूलता है

‘कबीर’ मन फूल्या फिरै, करता हूं मैं ध्रंम
कोटि क्रम सिरि ले चल्या, चेत न देखै भ्रम

संत शिरोमणि कबीर दास जी कहते हैं कि आदमी अपने सिर पर कर्मकांडों का बोझ ढोते हुए फूलता है कि वह धर्म का निर्वाह कर रहा है। वह कभी अपने विवेक का उपयोग करते हुए इस बात का विचार नहीं करता कि यह उसका एक भ्रम है।
त्रिज्ञणा सींची ना बुझै, दिन दिन बधती जाइ
जवासा के रूष ज्यूं, घण मेहां कुमिलाइ


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि मन में जो त्रृष्णा की अग्नि कभी बुझती नहीं है जैसे उस पर पानी डालो वैसे ही बढ़ती जाती है। जैसे जवासे का पौधा भारी वर्षा होने पर भी कुम्हला जाता है पर फिर हरा भरा हो जाता है।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-संत कबीरदास जी ने अपने समाज के अंधविश्वासों और कुरीतियों पर जमकर प्रहार किये हैं। कितने आश्चर्य की बात है कि अनेक संत और साधु उनके संदेशों को ग्रहण करने का उपदेश तो देते हैं पर समाज में फैले अंधविश्वास और कर्मकांडों पर खामोश रहते हैं। आदमी के जन्म से लेकर मृत्यु तक ढेर सारे ऐसे कर्मकांडों का प्रतिपादन किया गया है जिनका कोई वैज्ञानिक तथा तार्किक आधार नहीं है। इसके बावजूद बिना किसी तर्क के लोग उनका निर्वहन कर यह भ्रम पालते हैं कि वह धर्म का निर्वाह कर रहे हैं। किसी कर्मकांड को न करने पर अन्य लोग नरक का भय दिखाते हैं यह फिर धर्म भ्रष्ट घोषित कर देते हैं। इसीलिये कुछ आदमी अनचाहे तो कुछ लोग भ्रम में पड़कर ऐसा बोझा ढो रहे हैं जो उनके दैहिक जीवन को नरक बनाकर रख देता है। कोई भी स्वयं ज्ञान धारण नहीं करता बल्कि दूसरे की बात सुनकर अंधविश्वासों और रूढि़यों का भार अपने सिर पर सभी उसे ढोते जा रहे हैं। इस आर्थिक युग में कई लोग तो ऋण लेकर ऐसी परंपराओं को निभाते हैं और फिर उसके बोझ तले आजीवन परेशान रहते हैं। इससे तो अच्छा है कि हम अपने अंदर भगवान के प्रति भक्ति का भाव रखते हुए केवल उसी कार्य को करें जो आवश्यक हो। अपना जीवन अपने विवेक से ही जीना चाहिए।

2 comments:

Udan Tashtari said...

आभार व्याख्या के लिए.

seema gupta said...

इससे तो अच्छा है कि हम अपने अंदर भगवान के प्रति भक्ति का भाव रखते हुए केवल उसी कार्य को करें जो आवश्यक हो।
" very nice and true thought"

Regards

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