सीतलता तब जानिये, समता रहै समाय।
विष छोड़ै निरबिस रहै, सब दिन दूखा जाय।।
संत शिरोमणि कबीरदास के अनुसार अपने हृदय में शीतलता तभी अनुभव कर सकते हैं जब मन वचन तथा प्रत्येक कर्म के प्रति समता का भाव मन में आ जाये। अपने अंदर यह दृढ़ भाव रखते अहंकार रूप विष का त्याग कर देना चाहिये भले ही हमारे दिन दुःख में बित रहे हों।
विष छोड़ै निरबिस रहै, सब दिन दूखा जाय।।
संत शिरोमणि कबीरदास के अनुसार अपने हृदय में शीतलता तभी अनुभव कर सकते हैं जब मन वचन तथा प्रत्येक कर्म के प्रति समता का भाव मन में आ जाये। अपने अंदर यह दृढ़ भाव रखते अहंकार रूप विष का त्याग कर देना चाहिये भले ही हमारे दिन दुःख में बित रहे हों।
खोद खाद धरती सहै, काट कूट बनराय।
कुटिल वचन साधू सहै, और से सहा न जाय।
संत कबीरदास जी का कहना है कि इस धरती पर कितने भी फावड़े चलाओ पर सहन कर जाती है। कितने भी कुल्हाड़े चलाओ पर वन सह जाते हैं। उसी प्रकार दुर्जनों के वचन साधु और संत सह जाते हैं जबकि अज्ञानी पुरुष वाद विवाद करने लगते हैं।
कुटिल वचन साधू सहै, और से सहा न जाय।
संत कबीरदास जी का कहना है कि इस धरती पर कितने भी फावड़े चलाओ पर सहन कर जाती है। कितने भी कुल्हाड़े चलाओ पर वन सह जाते हैं। उसी प्रकार दुर्जनों के वचन साधु और संत सह जाते हैं जबकि अज्ञानी पुरुष वाद विवाद करने लगते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हर व्यक्ति चाहता है कि उसका हृदय शांत रहे पर ऐसा हो नहीं पाता क्योंकि अंदर अहंकार का विष इस तरह रहता है जो कभी भी सहजत का अमृत पान नहीं करने देता। हमारे अंदर किसी व्यक्ति या कर्म के छोटे बड़े होने का आभास इस कदर रहता है जो स्वयं के लिये कष्टकारक होता है। कोई व्यक्ति छोटा है उसकी उपेक्षा करनी है और कोई काम छोटा है उसे करने से हम छोटे हो जायेंगे-यह सोच हमारे अंदर अनेक प्रकार के तनावों को जन्म देता है। अंग्रेजी शिक्षा पद्धति ने समाज में अनेक तरह के भेद पैदा कर दिये हैं-मंत्री, अधिकारी, लिपिक और चपरासी, उच्च, निम्न, अमीर तथा गरीब जैसी संज्ञाओं को अपने साथ चिपकाये लोग हमेशा अपने भविष्य को लेकर आशंकित रहते हैं। समाज में पहले से भी अनेक प्रकार के भेद है जिस कारण आपसी वैमनस्य रहता है। भाषा, जाति, धर्म और क्षेत्र के आधार पर बने समाज अपनी श्रेष्ठता के अहंकार में जीते हैं। यही कारण है कि लोगों में तनाव बढ़ रहा है।
हृदय में शीतलता का भाव तो आदमी तब अनुभव करे जब उसे इस बात का ज्ञान हो कि यह मायावी संसार है और वह स्वयं ही अपनी दैहिक आवश्यकताओं के अधीन है। वह जान ले कि इंद्रियों के अपने गुण हैं जिनसे वह संचालित हैं। छोटा बड़ा मनुष्य तो होता ही नहीं क्योंकि यह तो माया का खेल है-किसी के पास कम है तो किसी के पास ज्यादा। उसी तरह हम बुद्धि से करें या श्रम से, कोई भी काम हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये है। हमें दिमागी काम के साथ ही शारीरिक श्रम भी करना चाहिये। इसके विपरीत अगर हम भेदात्मक बुद्धि धारण करते हैं तो वह हमारे लिये ही चिंता का कारण बनेगा। जहां हमने सोचा कि हम बड़े हैं वहां छोटे होने का भय सतायेगा और जब हम अपने को श्रेष्ठ समझेंगे तो अपनी छवि धूमिल हो की आशंका घेर लेगी। इससे बचने का एक ही उपाय है कि जीवन में सहरसता का भाव धारण करें।
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwaliorhttp://anant-shabd.blogspot.com
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