Wednesday, November 30, 2011

तुलसी दर्शन-वाणी और वेश से किसी को जानना संभव नहीं (tulsi darshan-vani aur vesh aur aadmi)

                  आधुनिक समाज में लोगों की नज़रों में सौंदर्य, चतुराई तथा बुद्धिमानी के मायने ही बदल गये हैं। रसायनिक पदार्थों से व्यक्तियों तथा वस्तुओं का सौंदर्य निखारा जा रहा है। बाज़ार के सौदागर तथा उनके प्रचारक मिलकर समाज की बुद्धि का हरण करते जा रहे हैं। किसी वस्तु के उपभोग को विज्ञापनो से प्रेरित करने के प्रयास में उनको आकर्षक शाब्दिक शोर तथा संगीत से इस तरह भरा जाता है कि उसके माध्यम से आम जनमानस का विवेक तथा बुद्धि का हरण किया जा सके। यही कारण है कि उपभोग की वस्तुओं के उपयोग को चतुराई माना जाता है। लोहे लकड़ी और प्लास्टिक की चीजों के रंगे होने से उनमें जो सौंदर्य उभरकर इस तरह आता है कि लोग उस पर मोहित हो जाते हैं।
संत कवि तुलसी दास जी कहते हैं कि
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बचन बेष क्या जानिए, मनमलीन नर नारि।
सूपनखा मृग पूतना, दस मुख प्रमुख विचारि।।
         ‘‘वाणी और वेश से किसी मन के मैले स्त्री या पुरुष को जानना संभव नहीं है। सूपनखा, मारीचि, रावण और पूतना ने सुंदर वेश धरे पर उनकी नीचत खराब ही थी।’’
मार खोज लै सौंह करि, करि मत लाज न ग्रास।
मुए नीच ते मीच बिनु, जे इन के बिस्वास।।
          ‘‘वह निबुर्द्धि मनुष्य ही कपटियों और ढोंगियों का शिकार होते हैं। ऐसे कपटी लोग शपथ लेकर मित्र बनते हैं और फिर मौका मिलते ही वार करते हैं। ऐसे लोगों भगवान का न भगवान का भय न समाज का, अतः उनसे बचना चाहिए।
          आधुनिक शिक्षा पद्धति में रचाबसा समाज आपनी बुद्धि तथा विवेक का इस्तेमाल करना फालतू तनाव मोल लेना समझता है। यही कारण है कि हमारे यहां दैहिक विकारों के साथ मानसिक रोगों का भी विस्तार हो रहा है। हम जब देश की जनंसख्या 121 करोड़ होने के दावे पर इतराते हैं तब इस बात की जानकारी एकत्रित नहीं करते कि उसमें शारीरिक तथा मानसिक विकारों से रहित कितने लोग हैं? मानसिक तथा दैहिक स्वास्थ्यय विशेषज्ञ देश में बढ़ रहे रोगियो की संख्या अब चालीस और पचास प्रतिशत से ऊपर बताने लगे हैं। इसका कारण यह है कि हम लोग अपने अध्यात्मिक दर्शन को प्राचीन मानकर उसकी अवहेलना करते हैं जबकि वह प्रकृत्ति तत्वों के सत्य पर आधारित है जो कभी नहीं बदलते भले ही हमारी नज़र में कथित रूप से जमाना बदल जाये।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

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