दुःख सुख कोई व्यापै नहीं, सब दिन एक समान
संत कबीरदास जी कहते हैं कि हम उस देश क निवासी है जहां परमात्मा रूपी पुरुश की मर्यादा रखी जाती है। यहां पर कोई दुःख सख नहीं है। एक दिन एक समान हैं।
हम वासी वा देश के, जहां ब्रह्म का कृप
अविनासी विनसै नहीं, आवै जाय सरूप
संत शिरोमणि कबीरदास जी का आशय यह है कि हमारा देश अन्य देशों से कही अधिक सौभाग्यशाली है जहां ब्रह्म की अत्यधिक कृपा है। जहां उस अविनाशी तत्व का कभी विनाश नहीं होता। देह का क्षय और मरण तो होता रहता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- आज से चार सौ वर्ष पूर्व ही श्री कबीरदास जी ने यह अनुभव कर लिया था कि प्राकृतिक दृष्टि से अपना देश अन्य देशों से कहीं अधिक संपन्न है और जो अध्यात्म ज्ञान है उस आभास भी यहीं के लोगों में हैं। अगर देखा जाये तो जलवायु,खनिज और कृषि संपदा से अपने यहां संपन्नता है जो अन्य कहीं नहीं है। इस देश को किसी अन्य देश से सहायता की आवश्यकता नहीं है। इसके साथ ही किसी प्रकार का विचार या अध्यात्म ज्ञान भी कहीं से नहीं चाहिये। संत कबीरदास जी ने अपने जीवन में इस बात की अनुभूति कर ली थी कि विदेशी लोग इस देश में अपना मायाजाल फैला रहे हैं क्योंकि उनकी दृष्टि इसी प्राकृतिक संपदा पर थी। उन्होंने देखा कि कहीं जाति तो कही गरीबी के नाम पर इस देश में भेद पैदा किया जा रहा है। इसलिये उन्होंने अपने देश के लोगों को चेताया कि किसी भी चक्कर में मत पड़ो।
इसके बावजूद उनकी बातों पर लोगों ने ध्यान नहीं दिया और परिणाम यह हुआ कि तात्कालिक लाभ की खातिर यहां के अनेक लोगों ने विदेशियों को यहां न केवल आने दिया बल्कि उनको सम्मान देने के साथ उनके विचारों का अनुकरण किया। आज हालत यह है कि न केवल अपनी प्राकृतिक संपदा निरंतर लुटती रही है और पश्चिमी सभ्यता और विचारा धारा को भी ढोना पड़ रहा है जबकि अपने देश का अध्यात्म ज्ञान का कहीं मुकाबला नहीं है।
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