Thursday, September 1, 2011

वसिष्ठ स्मृति से-तृष्णा कभी वृद्ध नहीं होती (vashshtha smriti se-trishna kabhee bodhin nahin hotee)

          आधुनिक युग में भौतिकतावाद की चलते अधिकतर अध्यात्म से विरक्त हो गये है। सांसरिक विषयों में प्रवीणता और विशेषज्ञता प्राप्त करने वाले अनेक लोग मिल जायेंगे पर अध्यात्मिक ज्ञान में दक्ष लोगों की संख्या अत्यंत नगण्य है। यह अलग बात है कि हर मनुष्य एक आत्मा है जो देह में विराजमान मन को कचोटता है कि वह अध्यात्मिक रूप से कोई कार्य करे। चूंकि अध्यात्मिक ज्ञान का रूप नहीं समझा इसलिये अनेक लोग उन कथित गुरुओं के शिष्य बन जाते हैं जिन्होंने भारतीय अध्यात्मिक ग्रंथों का सतही अध्ययन केवल इसलिये किया होता है ताकि वह उनको सुनाकर अपना व्यवसाय कर सकें। ऐसे गुरु स्वयं ही तृष्णाओं के दास होते हैं।
        मनुष्य मन का यह स्वभाव है कि वह हमेशा ही तृष्णाओं के जाल में फंसा रहता है। उनसे ऊबता है पर फिर भी ऐसा कोई दूसरा मार्ग नहीं जानता जिस पर चलकर वह मुक्त भाव से जीवन व्यतीत कर सके। तत्वज्ञानी यह बात जानते हैं कि तृष्णाओं से कभी मुक्ति संभव नहीं है पर उनका दासत्व स्वीकार करने की बजाय वह उस पर शासन करते हैं। सांसरिक विषयों में उतना ही लिप्त रहते हैं जितना देह के लिये आवश्यक है।
वसिष्ठ स्मृति में कहा गया है कि
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जीर्यन्ति जीर्यतः केशा दन्ता जीर्यन्ति जीर्यतः।
जीवनाशा धनाशा च जीर्यतोऽपि न जीर्यति।।
       ‘‘मनुष्य जब बूढ़ा हो जाता है तब उसके केश, दांत और अन्य अंग में बूढ़े हो चुके होते हैं पर उसकी तृष्णाऐं बूढ़ी नहीं होती। तरूण पिशाचिनी की तरह यह तृृष्णाऐं नुष्य का खून चूसकर उसे पथभ्रष्ट करती हैं।’’
या दुस्त्य दुर्मतिभियां न जीर्यति जीर्यतः।
योऽसौ प्राणान्ति रोगस्तां तृष्णां त्यजतः सुखम्।।
           ‘‘दुषित बुद्धिवाले इस तृष्णा से चिढ़ते है किन्तु चाहकर भी उसे छोड़ नहीं पाते। मनुष्य कितना भी बूढ़ा हो जाये पर उसकी तृष्णा हमेशा ही युवा बनी रहती है। यह तृष्णा वह रोग है जो प्राण लेकर ही छोड़ती है।
      आधुनिक पश्चिमी शिक्षा पद्धति के कारण हमारे देश में लोेग अपने प्राचीन अध्यात्मिक ज्ञान से विरक्त हो गये हैं। फिर आजकल मायाजाल की विकटता के चलते उनकी व्यसततायें इतनी बढ़ गयी हैं कि अपनी नियमितता से परे हटकर नवीन आनंद की की दृष्टि से वह उन गुरुओं के शरण में चले जाते हैं जिनको यह नहीं पता कि तत्वज्ञान क्या है? उनकी वाणी में शब्द रटे हुए हैं, मन में अर्थ भी है पर हृदय में भाव नहीं है। शब्द तभी ज्ञान बनते हैं जब भाव हो। ऐसा न होने पर सारी सत्संग चर्चा व्यर्थ है। अतः जब किसी को अध्यात्मिक ज्ञान के लिये गुरु बनाना है तो पहले यह देखना चाहिए कि वह तृष्णा रूपी सुंदरी के जाल में फंसा हुआ तो नहीं है। इसकी सबसे बड़ी पहचान यह है कि अपने गुरु के जीवन और आचरण पर दृष्टि डालना चाहिए। यह नहीं देखना चाहिए कि उसने अध्यात्मिक ज्ञान के चलते पाया क्या? बल्कि इस तथ्य पर दृष्टिपात करना चाहिए कि उसने त्यागा क्या है? अगर वह भी अन्य सांसरिक मनुष्यों की तरह तृष्णाओं रूप मायाजाल में फंसा है तो उससे दूर रहना ही बेहतर है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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