मन से कहां रहीम प्रभु, दृग सों कहां दीवान
देखि दृगन जो आदरै, मन तोहि हाथ बिकान
कविवर रहीम कहते हैं कि मन जैसा कहां स्वामी और कहां किले जैसा अभेद्य दीवान! जो चतुर व्यक्ति उस किले के दीवान का आदर करता है तो स्वामी उसके हाथ बिक जाता है।
वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-कविवर रहीम के समय में भी राजकाज कोई बादशाह स्वयं नहीं देखते थे बल्कि उनके मंत्री और दीवान ही सारे राज्य के भाग्य नियंता थे। सच तो यह है राजा या बादशाह तो बस देखने भर की उपाधि है। असल राज्य तो मंत्रियों और दीवानों के इशारे पर ही चलता है। राजा या बादशाह के नाम पर तो सभी जगह मुखौटे ही बैठे दिखाई देते हैं। बड़े पद पर बैठै व्यक्ति को अपने बड़प्पन के कारण किसी पर दया भी आती हो तो यह जरूरी नहीं है कि उसके मातहत भी यही भाव अपनायें। कई बार तो राजा या राज्य प्रमुख उदारता से प्रजा की हितार्थ कोई बात कह भी दे पर यह जरूरी नहीं है कि उसके मातहत या चमचे वह काम होने दें।
कहने को कहा जाता है कि अमुक व्यक्ति ने अमुक देश पर इतने बरस राज्य किया पर वास्तविकता यह है कि वह केवल मुखौटे थे। राजकाज के लिये तो मंत्री और दीवान ही निर्णय करते रहे थे। राजशाही बहुत बदनाम हो गयी पर सच तो यह है राज्य की ताकत तो सामंतों और साहुकारों के हाथ में होती और राजा के मातहत चाहे जैसे अपने निर्णय करते थे। वह अपने राजा को भोग विलास में या अन्य व्यर्थ के कामों में लगाये रहते ताकि उसका ध्यान प्रजा की तरफ नहीं जाये। प्रजा भी इसी भ्रम में रहती है कि अमुक उनका राजा है जबकि वास्तविकता यह है कि वह नाम भर का है। राज्य तो दीवानों और मंत्रियों का ही चलता है और वह भी अपने मातहतों के अधीन ही रहते हैं। आज भी यह संच्चाई बदल गयी हो लगता नहीं है। यह अलग बात है कि आजकल दीवानों की जगह चमचों ने ले ली है।
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संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप
1 comment:
सही है...
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