Sunday, November 29, 2009

चाणक्य नीति-लोभी को धन दें तथा हठी को हाथ जोड़ें (lobhi aur hathi se bachen-chanakya niti)

लुब्धमथेंन गृह्णीयात् स्तब्धमंजलिकर्मणा।
मूर्ख छन्दोऽनृवृत्तेन यथार्थत्वेन पण्डितम्।।
हिंदी में भावार्थ-
नीति विशारद चाणक्य कहते हैं कि लोभी मनुष्य को धन देकर, हठी को हाथ जोड़कर, मूर्ख की इच्छा पूरी कर तथा बुद्धिमान को सही स्थिति बताकर अपने वश में किया जा सकता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-क्रोध या निराशा से जीवन में सफलता नहीं मिल सकती न ही केवल किसी की चाटुकारिता से कुछ मिलता है। जीवन में हमेशा रणनीति से काम करना चाहिये। वैसे तो अपने आसपास हमें लोभियों का समुदाय दिख ही रहा है। जिसे देखो वही अपने लिये धन जुटाना चाहता है। लोग इतना धन जुटा रहे हैं कि उनका पूरे जीवन में स्वयं उपयोग नहीं कर सकते पर फिर भी उनका मन नहीं भरता। अतः अपना काम करने पर किसी को पैसा देकर उसे करवाया जा सकता है। लोभ ने ही लोगों को मूर्ख बना रखा है अतः उनकी इच्छा पूर्ति कर ही उनसे काम निकाला जा सकता है। इसमें एक दूसरी समस्या है कि धन आने से लोगों में हठ आ जाता है। अपने समान वह किसी को कुछ नहीं समझते। अतः ऐसे लोगों से वाद विवाद करना भी ठीक है। वह कहते हैं कि ‘हम बड़े हैं’ तो उनसे बहस करने की बजाय हाथ जोड़कर उनकी बात स्वीकार कर लें। लोभियों मूर्खों तथा हठियों से बचना कठिन है क्योंकि उनका अस्तित्व सभी जगह है। ऐसे में अपने संपर्क बुद्धिमानों से अपने संबंध बनायें। अपने बुद्धिमान मित्रों को अपनी स्थिति से अवगत कराकर उनसे सलाह आदि लेना चाहिये। उनसे झूठ या मक्कारी करने अपने आपको धोखा देना है। इस तरह अगर जीवन में रणनीति से काम किया जाये तो क्रोध और निराशा से बचा जा सकता है।
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Saturday, November 28, 2009

मनुस्मृति-भ्रष्टाचारी के विरुद्ध कड़ी कार्यवाही करना चाहिए (manu smriti-bhrashtachar jaghnya apradh)

उपाधनिश्च यः कश्चित्परद्रव्यं हरेन्नरः।
न सहायः स हन्तव्यः प्रकाशंविविधैर्वधेः।।
हिंदी में भावार्थ-
जो राज्य कर्मचारी अपने आपको राज्य प्रमुख का प्रिय जताकर तथा राज्य कृपा का आश्वासन देकर प्रजा से धन लेता है उसे सभी के सामने अनेक प्रकार की यातनायें देकर मृत्यु दंड देना चाहिये।
यौ निक्षेपं नार्पयति यश्चानिक्षिप्य याचते।
तावुभौ चैरवच्चासयो दाप्यौ या तस्समं दभम्।।
हिंदी में भावार्थ-
किसी की धरोहर नहीं लौटाने वाले तथा बिना ही रखे उसे मांगने वालो को चोर के समान दंड देना चाहिये। धरोहर की राशि के बराबर ही उन पर दंड लगाना चाहिये।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-कहना कठिन है कि भ्रष्टाचार के लिये शायद संस्कृत में कोई पर्यायवायी शब्द नहीं है या फिर राज्य कर्मचारियों द्वारा प्रजा से अनावश्यक रूप से धन ऐंठने को भ्रष्टाचार से अधिक घृणित अपराध माना गया है जिसके कारण उसके लिये भारी संताप देने के बाद मृत्युदंड का प्रावधान है। यहां अपने देश में भ्रष्टाचार का बोलबाला है और भारतीय अध्यात्मिक दर्शन को शिक्षा पद्धति से दूर शायद इसलिये रखा गया है कि लोग प्राचीन भारत को न जान सकें जिसमें आचरण और वैचारिक दृढ़ता को बहुत महत्व दिया जाता है। मनुस्मृति में नारी तथा जाति विषय श्लोकों लेकर इसकी आलोचना करने वाले बहुत मिल जायेंगे पर इसमें भ्रष्टाचार के लिये जो सजा है उसकी कोई जानकारी नहीं देता। भ्रष्टाचार को एक मामूली अपराध की तरह लेना ही हमारे समाज के नैतिक पतन का परिचायक है। हालत तो यह है कि आदमी स्वयं कहीं ने अनाधिकार धन लेता है तो उसे वह अपनी मौलिक आय लगती है और अगर दूसरा करे तो भ्रष्टाचार नजर आता है। वैचारिक रूप से अक्षम हो चुके समाज को जगाने के लिये अनेक प्रकार के लोग अभियान चलाते हैं पर उनका ध्येय केवल नारे लगाकर अपनी उपस्थिति प्रचार माध्यमों के द्वारा दर्ज कराना होता है न कि बदलाव लाना।
एक सामान्य व्यक्ति अगर किसी की धरोहर को वापस नहीं करता या फिर बिना रखे मांगता है तो उस पर उसकी नियत राशि के बराबर जुर्माना किया जा सकता है पर जनता की धरोहर के रूप में प्राप्त धन का दुरुपयोग करने वाले राज्य कर्मचारियों को मामूली सजा नहीं बल्कि भारी पीड़ा देकर मौत जैसी सजा देने का प्रावधान करना इस बात का प्रमाण है कि मनुस्मृति की कुछ बातें आज भी प्रासंगिक हैं। अपने आपको राज्य का प्रिय बताकर या उसकी कृपा का आश्वासन देकर धन लेने वाले के लिये हत्या जैसे जघन्य आरोप की सजा देने का प्रावधान करने से तो यही जाहिर होता है कि मनुस्मृति में भ्रष्टाचार को राष्ट्रद्रोह जैसा अपराध मानते हैं। हालांकि आज के इस कथित सभ्य युग में मृत्युदंड को पाशविक माना जाता है पर उन अपराधों के बारे में क्या कहा जाये जो आज भी प्रासंगिक हैं? क्या इस बात का मतलब यह समझा जाये कि प्रजा से अनावश्यक रूप से धन ऐंठने को सहज अपराध मान जाये क्योंकि आज के समाज में कुछ रूप में प्रासंगिक है? क्या यह समझा जाये कि आज विश्व में सक्रिय राजकीय व्यवस्थाओं में इसका होना अनिवार्य है और लोगों को इसके साथ जीने की आदत पड़ गयी है?
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Saturday, November 21, 2009

मनुस्मृति-चांदी दान करने से सौम्य रूप प्राप्त होता है (chandi ka dan aur sundarta- manu smriti)

वारिदस्तृप्तिमाष्नोति सुखमक्षयमन्वदः।
तिलप्रदः प्रजामिष्टां दीपश्चक्षरुत्तमम्।।
भूमिदो भूमिमाश्नोति दीर्घमायुर्हिरण्यदः।
गृहदोऽयाणि वेश्मानि रूपमृत्तमम्।।
हिन्दी में भावार्थ-
प्यासे को जल प्रदान करने वाले बहुत तृप्ति मिलती है। अन्न देने वालो को स्थिर सुख, तिल का दान करने वाले को प्रिय संतान, दीपक का दान को उत्तम दृष्टि,भूमि का दान करने वालो को धरती, सोने का दान करने वाले दीर्घायु, मकान का दान करने वाले को सुंदर महल एवं चांदी दान करने वालो को सौम्य और सुंदर रूप की प्राप्ति होती है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हमारे अध्यात्मिक दर्शन के अनुसार दान की महिमा अपरंपार है। इसके दैहिक तथा मानसिक लाभ दोनों ही होते हैं। मुख्य बात यह है कि हम अगर मनुष्य हैं तो अपने परिवार और मित्रों के लिये काम करते हुए यह समझते हैं कि हम अच्छा काम रहे हैं जबकि यह तो केवल हम अपने स्वार्थ की वजह से करते हैं। इतना ही नहीं हम किसी से कुछ पाने की इच्छा करते हुए भी उसका काम करते हैं। यह स्वार्थपूर्ण जीवन व्यतीत करना सभी को अच्छा लगता है पर मन में शांति किसी को नहीं मिलती। वैसे हमारे यहां सारे संदेश धर्म के आधार पर इसलिये ही दिये गये हैं क्योंकि यहां आदमी बहुत धर्मभीरु है पर इन संदेशों का मुख्य उद्देश्य समाज में समरसता का भाव पैदा करना है।
दान करने से स्वर्ग मिलता है या नहीं यह बहस का विषय हो सकता है परंतु धनी लोगों द्वारा गरीबों को कुछ देने से उनका कोई खजाना खत्म नहीं होता बल्कि गरीबों को उनके प्रति सौहार्द बढ़ता है। समाज में रहने के लिये लोगों के सौहार्द भाव की जरूरत सभी को होती है-चाहे वह गरीब हो या अमीर। जैसे जैसे अमीर लोग इससे विमुख हुए हैं उनके लिये ही असुरक्षा का वातावरण बना है। सुरक्षा के लिये पहरेदार उन्होंने ही लगाये हैं। बंदूकों के लायसेंस उन्होंने लिये हैं। वजह यह है कि अपना धन और अपने प्राण बचाने के लिये उनको चिंता रहती है। यह जीवन के प्रति आत्मविश्वास की कमी इसलिये ही है क्योंकि वह जानते हैं कि समाज का एक वर्ग उनसे नाखुश है। यह नाखुशी कभी कभी अपराधी के रूप में भी प्रकट होती है। इसका मुख्य कारण यह है कि पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव में समाज हित का काम राज्य के भरोसे छोड़ दिया गया है। दान और कल्याण के कार्यक्रम संस्थागत रूप पा गये हैं जिनसे पनपा है केवल भ्रष्टाचार। एक व्यक्ति के रूप में दान और कल्याण का काम बहुत कम लोग करते हैं।

आज हम अपने देश में चारों तरफ जो अशांति का वातावरण देख रहे हैं उसका मुख्य कारण यही है कि धनी लोगों के संचय की प्रवृत्ति तो है पर दान की नहीं। गरीब तो चाहे जैसे जी लेता है पर अमीरों की नींद केवल इसलिये ही हराम है क्योंकि वह दान और कल्याण के काम को अपना दायित्व नहीं समझते।
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Monday, November 16, 2009

भर्तृहरि शतक-सज्जनता का व्रत किसने बताया (hindu dharm sandesh-sjjanta ka vrat)

प्रदानं प्रच्छन्नं गृहमुपगते सम्भ्रमविविधः प्रिय कृत्वा मौनं सदसि कथनं चाप्युपकृते।
अनुत्सेको लक्ष्म्यांनभिभवगन्धाः परकथाः सतां केनोद्दिष्टं विषमसिधाराव्रतमिदम्।।
हिंदी में भावार्थ-
गुप्त दान देना, घर पर आये मेहमान का सम्मान करना, दूसरे का काम कर चुप रहना, अन्य के उपकार को समाज में सभी को बताना। धन वैभव पाकर भी गर्व न करना, दूसरों की कभी निंदा न करना जैसे गुणों का अपनाना तलवार के धार पर चलने जैसा व्रत है। यह व्रत सज्जन पुरुषों को किसने बताया है?
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अधिकतर मनुष्य तो दान देकर प्रचार करते, घर आये मेहमान को दुत्कारते, दूसरे का काम करते कम गाते अधिक हैं। इससे भी अधिक यह है कि दूसरा उपकार करे तो उसे तो सुनाते नहीं बल्कि उसका काम अपने नाम से दिखाते हैं। जिसे देखो वही दूसरों की निंदा में व्यस्त है।
दरअसल सज्जनता का व्रत कठोर होता है जिसका पालन हर कोई नहीं करता। अधिकतर लोग बहिर्मुखी होकर आत्मप्रचार करते हुए निम्नकोटि का व्यवहार करते हैं। स्थित यह है कि अब तो सम्मान उसी आदमी का रह गया जिसके पास धन, पद और बाहुबल है। उनके नाम पर ही सारे श्रेष्ठ कार्य दर्ज किये जाते हैं भले ही काम उनके मातहतों ने किया हो। इतना ही नहीं गरीब और आम इंसान द्वारा किये गये कार्य को समाज को सुनाने में बड़े लोग संकोच करते हैं चाहे भले ही उनका कितना भी हित उससे हुआ हो।
यही कारण है कि हमारा समाज जड़ हो गया है। हर क्षेत्र में वंशवाद का बोलबाला है। स्थापित वंश केवल आत्मप्रचार कर रहे हैं कि वही श्रे्रष्ठ है। आम इंसान के कार्य को तो मामूली मान लिया जाता है। क्या साहित्य, क्या फिल्म और क्या पत्रकारिता, सभी में स्तुति गान हो रहे हैं पर रचनाधर्मिता के नाम पर सब जगह शून्य है। कहते हैं कि फिल्म अच्छी नहीं बनती? कहानी अच्छी नहीं लिखी जा रही । देश में कोई अविष्कार नहीं हो रहा। किसी भी विषय में सजावट का काम आम इंसान करता है पर हमारे समाज की प्रवृत्ति है कि वह उपलब्धि का आधार पहले से प्राप्त परिलब्धियों के आधार पर तय करता है। यही इस समाज की जड़ता का कारण है।
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Sunday, November 15, 2009

रहीम के दोहे-लोग तो अपने मतलब के अनुसार नज़र रखते हैं (matlab aur nazar-rahim ke dohe in hindi)

स्वारथ रचत रहीम सब, औगुनहूं जग मांहि
बड़े बड़े बैठे लखौ, पथ रथ कूबर छांहि।।
कविवर रहीम कहते हैं कि लोग अपने स्वार्थ के अनुसार दूसरे में गुण और अवगुण ढूंढते रहते हैं। जो कभी अपना स्वाथ साधने के लिये रथ के हरसो को टेढ़ा मेढ़ी छाया को अशुभ कहते हैं वह लोग उसकी छाया में भी बैठ जाते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अगर आपको अपने जीवन में तरक्की करनी हैं तो फिर लोगों के कहने सुनने की परवाह छोड़ दो। लोग तो अपने स्वार्थ के अनुसार गुण और अवगुण देखते हैं। अगर आपका कार्य किसी के अनुकूल नहीं है तो वह कभी आपको उसे करने के लिये प्रेरित नहीं करेगा। यदि प्रतिकूल हुआ तो वह जमकर आलोचना करेगा। यह मनुष्य स्वभाव है। कभी कभी ऐसा भी होता है कि एक आदमी दूसरे की तरक्की को रोकने के लिये उसके लक्ष्य से भटकाते हुए अनेक दोष गिनाता है। जब कोई मनुष्य वास्तव में समाज सेवा के लिये प्रेरित होता है तो लोग उसे पागल तक कहते हैं। लोगों के कहने की परवाह करने वाले कभी भी विकास नहीं कर पाते। इसलिये जब आपने कोई लक्ष्य तय कर लिया है तो उस पर बढ़ चलिये। जब उसमें आपको सफलता मिलेगी तो वही लोग प्रशंसा कर आपकी छाया में बैठने का प्रयास करेंगे जिन्होंने आपकी आलोचना की थी। यह इस संसार की प्रकृति है कि वह गरीब को देता नहीं है और अमीर को सहन नहीं करता। गुणवान की गाता नहीं वरन् अवगुणी का बखान कर अपनी प्रशंसा कराना चाहता है। इसलिये अपने पथ पर चलते रहो। किसी की परवाह न करो।
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Saturday, November 14, 2009

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-शिक्षित व्यक्ति करता हैं सैंकड़ों शिकार (economics of kautilya ka -educated parson)

अशिक्षितनयः सिंहो हन्तीम केवलं बलात्।
तच्च धीरो नरस्तेषां शतानि जतिमांजयेत्।।
हिंदी में भावार्थ-
सिंह किसी नीति की शिक्षा लिये बना सीधे अपने दैहिक बल से ही आक्रमण करता है जबकि शिक्षित एवं धीर पुरुष अपनी नीति से सैंकड़ों को मारता है।
पश्यदिभ्र्दूरतोऽप्रायान्सूपायप्रतिपत्तिभिः।
भवन्ति हि फलायव विद्वादभ्श्वन्तिताः क्रिया।।
हिन्दी में भावार्थ-
विद्वान तो दूर से विपत्तियों को आता देखकर पहले ही से उसकी प्रतिक्रिया का अनुमान कर लेता है और इसी कारण अपनी क्रिया से उसका सामना करता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-सिंह बुद्धि बल का आश्रय लिये बिना अपने बल पर एक शिकार करता है पर जो मनुष्य ज्ञानी और धीरज वाला है वह एक साथ सैंकड़ों शिकार करता है। महाराज कौटिल्य का यह संदेश आज के संदर्भ में देखें तो पता लगता है कि हमारे देश में लोगों की समझ इसलिये कम है क्योंकि वह अपने अध्यात्मिक साहित्य आधुनिक शिक्षा में पढ़ाया नहीं जाता। अंग्रेज हिंसा से इस देश में राज्य नहीं कर पा रहे थे तब उन्होंने अपने विद्वान मैकाले का यह जिम्मेदारी दी कि वह कोई मार्ग निकालें। उन्होंने ऐसी शिक्षा पद्धति निकाली कि अब तो अंग्रेज ब्रिटेन में हैं पर अंग्रेजियत आज भी राज्य कर रही है। अब तलवारों से लड़कर जीतने का समय गया। अब तो फिल्म, शिक्षा, धारावाहिक, समाचार पत्र, किताबें तथा रेडियो से प्रचार कर भी सैंकड़ों लोगों को गुलाम बनाया जा सकता है। इनमें फिल्म और टीवी तो एक बड़ा हथियार बन गया है। आप फिल्में और टीवी की विषय सामग्रंी देखकर उसका मनन करें तो पता लग जायेगा कि जाति, धर्म, और भाषा के गुप्त ऐजेडे वहीं से लागू किये जा रहे हैं। फिल्म और टीवी वाले तो कहते हैं कि समाज में जो चल रहा है वही दिखा रहे हैं पर सच तो यह है कि उन्होंने अपनी कहानियों में ईमानदार लोगों का परिवार समेत तो हश्र दिखाया वह कहीं नहीं हुआ पर उनकी वजह से समाज डरपोक होता चला गया और आज इसलिये अपराधियों में सार्वजनिक प्रतिरोध का भय नहीं रहा। वजह यह थी कि इन फिल्मों में अपराधियों का पैसा लगता रहा था। फिल्मों के अपराधी पात्र गोलियों से दूसरों को निशाना बनाते थे पर उनको नायक के हाथ से पिटते हुए दिखाया गया। स्पष्टतः संदेश था कि आप अगर नायक नहीं हो तो आतंक या बेईमानी से लड़ना भूल जाओ। इस तरह समाज को डरपोक बना दिया गया और अब तो पूरी तरह से अपराधियों को महिमा मंडन होने लगा है।
अगर आप कभी फिल्म या टीवी धारवाहिकों की पटकथा तथा अन्य सामग्री देखें और उस पर चिंतन करें तो हाल पता लग जायेगा कि उसके पीछे किस तरह के प्रायोजक हैं? यह एक चालाकी है जो धनवान और शिक्षित लोग करते हैं। अंग्रेज लोग हमारे धार्मिक ग्रंथों को खूब पढ़ते रहे होंगे इसलिये उन्होंने एसी शिक्षा पद्धति थोपी कि उनसे यह देश अपनी प्राचीन विरासत से दूर हो जाये। अब क्या हालत है कि जो अंग्रेज जो कहें वही ठीक है। वह अपनी परंपराओं तथा भाषा के कारण आज भी यहां राज्य कर रहे हैं। उनकी दी हुई शिक्षा पद्धति यहां गुलाम पैदा करती है जो अंग्रेजों की सेवा के लिये वहां जाकर उनकी सेवा के लिये तत्पर रहते हैं।
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Friday, November 13, 2009

चाणक्य नीति-आय से अधिक व्यय करने वाला संकट में पड़ता है (chankya neeti-amdani aur kharchaa)

अनालोक्य व्ययं कर्ता ह्यनाथःः कलहप्रियः।
आतुर सर्वक्षेत्रेपु नरः शीघ्र विनश्चयति ।।
हिंदी में भावार्थ-
नीति विशारद चाणक्य कहते हैं कि बिना विचारे ही अपनी आय के साधनों से अधिक व्यय करने वाला सहायकों से रहित और युद्धों में रुचि रखने वाला तथा कामी आदमी का बहुत शीघ्र विनाश हो जाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय-आज समाज में आर्थिक तनावों के चलते मनुष्य की मानसिकता अत्यंत विकृत हो गयी है। लोग दूसरों के घरों में टीवी, फ्रिज, कार तथा अन्य साधनों को देखकर अपने अंदर उसे पाने का मोह पाल लेते हैं। मगर अपनी आय की स्थिति उनके ध्यान में आते ही वह कुंठित हो जाते हैं। इसलिये कहीं से ऋण लेकर वह उपभोग के सामान जुटाकर अपने परिवार के सदस्यों की वाहवाही लूट लेते हैं पर बाद में जहां ऋण और ब्याज चुकाने की बात आयी वहां उसके लिये आय के साधनों की सीमा उनके लिये संकट का कारण बन जाती है। अनेक लोग तो इसलिये ही आत्महत्या कर लेते हैं क्योंकि उनको लेनदार तंग करते हैं या धमकी देते हैं। इसके अलावा कुछ लोग ठगी तथा धोखे की प्रवृत्ति अपनाते हुए भी खतरनाक मार्ग पल चल पड़ते हैं जिसका दुष्परिणाम उनको बाद में भोगना पड़ता है। इस तरह अपनी आय से अधिक व्यय करने वालें जल्दी संकट में पड़ जाने के कारण अपने जीवन से हाथ धो बैठते हैं। समझदार व्यक्ति वही है जो आय के अनुसार व्यय करता है।
यही स्थिति उन लोगों की भी है जो नित्य ही दूसरों से झगड़ा और विवाद करते हैं। इससे उनके शरीर में उच्च रक्तचाप और हृदय रोग संबंधी विकास अपनी निवास बना लेते हैं। अगर ऐसा न भी हो तो कहीं न कहीं उनको अपने से बलवान व्यक्ति मिल जाता है जो उनके जीवन ही खत्म कर देता है या फिर ऐसे घाव देता है कि वह उसे जीवन भर नहीं भर पाते। अतः प्रयास यही करना चाहिये कि शांति से अपना काम करें।



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Wednesday, November 11, 2009

विदुर नीति: जैसे लोगों के बीच आदमी रहता है वैसा ही हो जाता है


  1. बोलने से न बोलना अच्छा बताया गया है, किन्तु सत्य बोलना भी एक गुण है। चुप या मौन रहने से सत्य बोलना दो गुना लाभप्रद है। सत्य मीठी वाणी में बोलना तीसरा गुण है और धर्म के अनुसार बोला जाये यह उसका चौथा गुण है।
  2. मनुष्य जैसे लोगों के साथ रहता है और जिन लोगों की सेवा में रहता है और जैसी उसकी कामनाएं होतीं है वैसा ही वह हो भी जाता है।
  3. मनुष्य जिन विषयों से मन हटाता है उससे उसकी मुक्ति हो जाती है। इस प्रकार यदि सब और से निवृत हो जाये तो उसे कभी भी दुख प्राप्त नहीं होगा।
  4. जो न तो स्वयं किसी से जीता जाता है न दूसरों को जीतने के इच्छा करता है न किसी से बैर करता और न दूसरे को हानि पहुंचाता है और अपनी निंदा और प्रशंसा में भी सहज रहता है वह दुख और सुख के भाव से परे हो जाता है।
  5. विदुर नीति-दूसरे में दोष देखने वाली जल्दी नष्ट होता है
    असूयको दन्दशूको निष्ठुरो वरकृच्छठः। सं कृच्छ्रम् महदाप्नोति न चिरात् पापमाचरन्।।
    हिंदी में भावार्थ-दूसरे व्यक्ति के गुणों में भी दोष देखने वाला, दूसरे के मर्म को आघात पहुंचाने वाला, निर्दयता और शत्रुतापूर्ण व्यवहार करने वाले शठ मनुष्य अपने आचरण करे कारण शीघ्र नष्ट हो जाता है। अनूसूयुः कृतयज्ञः शोभनान्याचरन् सदा। न कृष्छ्रम महादाप्नोति सर्वत्र च विरोचते।। हिंदी में भावार्थ-जिसकी दृष्टि दोष रहित है ऐसा व्यक्ति हमेशा ही शुभ कर्म करता हुआ महान सुख प्राप्त करने के सर्वत्र ही प्रशंसा का पात्र बनता है। वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- कहा जाता है कि जैसा दूसरे से व्यवहार करोगे वैसा स्वयं को भी मिलेगा। उसी तरह जिस दृष्टि से यह संसार देखोगे वैसे ही सामने दृश्य भी प्रस्तुत होंगे। कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनमें ज्ञान और अनुभव तो नाममात्र का होता है पर आत्मप्रचार की इच्छा उनको कुंठित कर देती है। किसी दूसरे की प्रशंसा देखकर वह उसके प्रतिकुल टिप्पणी करते हैं। भले ही दूसरे में गुण हो पर उसमें वह दोष निकालते हैं। जैसे मान लो कोई अच्छा लिखता है तो वह उसके विषय में दोष निकालेंगे या उसे गौण प्रमाणिम करेंगे। कोई अच्छा खाना बनाता है तो वह उसके लिये मसालों को श्रेय देंगे। कहने का तात्पय यह है कि उनकी दृष्टि दोष देखने की आदी होती है। ऐसे लोग न हमेशा कष्ट उठाते हैं बल्कि उनकी जीवन भी जल्दी नष्ट होता है। इसके विपरीत दूसरे के गुण देखकर उनसे सीखने वाले विकास पथ पर चलते हैं। वह अपने कार्य से न केवल उपलब्धियां प्राप्त करते हैं बल्कि समाज में उनको सम्मान भी प्राप्त होता है। इसलिये अपना रवैया हमेशा सकारात्मक रखते हुए जीवन पथ पर बढ़ना चाहिये।

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Tuesday, November 10, 2009

विदुर नीति-दूसरों में दोष देखने वाला कष्ट को प्राप्त होता है (hindi sandesh-doosron me dosh dekhna nahin)

विदुर नीति में कहा गया है कि
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असूय को दन्दशू को निष्ठुरो वैरकृच्छठः।
स कृच्छम् महदाप्नोति न चिरात् पापमाचरन्।।

       हिन्दी में भावार्थ-गुणों में दोष देखने वाला, दूसरे के मर्म को छेदने वाला, निर्दयी, शत्रुता का व्यवहार रखने वाला और शठ मनुष्य शीघ्र ही अपने आचरण के कारण महान कष्ट को प्राप्त होता है।
अनूसयुः कृतप्रज्ञ शोभनान्याचरन् सदा।
न कृच्छ्रम् महदाप्नोति सर्वत्र च विरोचते।।

      हिन्दी में भावार्थ-दोषदृष्टि से रहित शुद्ध मंतव्य वाला सदा अनुष्ठान तथा पवित्र कार्य करते हुए महान सुख के साथ सम्मान भी प्राप्त करता है।
       चाहे कोई कितना भी कहे कि आजकल बुरे काम और गलत मार्ग अपनाये बिना कुछ नहीं मिलता पर यह उसका भ्रम है। जो मार्ग कुऐं की तरफ जाता है और कोई अज्ञानी उस पर चलता चला जायेगा तो वह उसमें गिरेगा ही-वह कोई आकाश में उड़ने का विमान प्राप्त नहीं कर लेगा। यही स्थिति कर्म, व्यवहार और दृष्टि की है।
      दूसरे में दोष देखते रहकर उसकी चर्चा करने रहने से वह दुर्गुण हमारे अंदर भी आ जाता है। हमारे मन में जिस प्रकार का स्मरण होता है वैसे ही दृश्य सामने आते हैं। दूसरे के दोषों का स्मरण करने मात्र से भी वह दोष हमारे अंदर आ जाता है। दूसरे को मर्म भेदने वाली बात कहकर उसे कष्ट देना बहुत बुरा है। किसी के दुःख को उभारने उसके मन में जो कष्ट आता है उसका प्रभाव कहीं न कहीं हम पर भी पड़ता है। इस तरह का नकारत्मक व्यवहार करने वाले लोग न केवल अपने जीवन में विकास से वंचित रहते हैं बल्कि उनको महान कष्ट भी प्राप्त होता है।
जो सदा दूसरों में गुण देखते हुए सभी का सम्मान करते हैं उनको अपने काम में न केवल सफलता मिलती है बल्कि समाज में उनको सम्मान भी प्राप्त होता है।संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,gwalior
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Monday, November 9, 2009

मनुस्मृतिः गाली का उत्तर गाली से नहीं देना चाहिए (gaalie ke badle gaali n den-hindi sandesh)

अति वादांस्तितिक्षेत नावमन्येत कञ्चन
न चेमं देहमाश्रित्य वैरं कुर्वीत केनचित्
न क्रुद्धयंन्तं प्रतिक्रुध्येदाक्रृष्टः कुशलं वदेत्
सप्तद्वाराऽवकीर्णां च न वाचमनृतां वदेत्


हिंदी में भावार्थ-दूसरे के कड़वे वचनों को सहना करना चाहिये। अभद्र शब्द (गाली)का उत्तर कभी वैसा ही नहीं देना चाहिये। न ही किसी का अपमान करना चाहिये। यह शरीर तो नश्वर है इसके लिये किसी से शत्रुता करना ठीक नहीं माना जा सकता।
अध्यात्मरतिरासीनो निरपेक्षो निरामिषः
आत्मनैव सहायेन सुखार्थी विचरेदिह

हिंदी में भावार्थ-अध्यात्म विषयों में अपनी रुचि रखते हुए सभी वस्तुओं और व्यक्तियों के प्रति निरपेक्ष भाव रखना चाहिये। इसके साथ ही शाकाहारी तथा इद्रियों से संंबंधित विषयो में निर्लिप्त भाव रखते हुए अपने अध्यात्म उत्थान के लिये अपने प्रयास करते रहना चाहिये। इससे मनुष्य सुखपूर्वक इस दुनियां में विचरण कर सकता है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-खानपान और रहन सहन में आई आधुनिकता ने लोगों की सहनशीलता को कम कर दिया है। लोग जरा जरा सी बात पर उत्तेजित होकर झगड़ा करने पर आमादा है। स्वयं के पास कितना भी बड़ा पद,धन और वैभव हो पर दूसरे का सुख सहन नहीं कर पाते। गाली का जवाब गाली से देना के लिये सभी तत्पर हैं। अध्यात्म विषय के बारे में लोगों का कहना है कि उसमें तो वृद्धावस्था में ही जाकर दिलचस्पी रखना चाहिये। इस अज्ञानता का परिणामस्वरूप आदमी वृद्धावस्था में अधिक दुखी होता हैं। अगर बचपन से ही अध्यात्म में रुचि रखी जाये तो फिर बुढ़ापे में आदमी को अकेलापन नहीं सताता। जिसकी रुचि अध्यात्म में नहीं रही वह आदमी वृद्धावस्था में चिढ़चिढ़ा हो जाता है। ऐसे अनेक वृद्ध लोग हैं जो अपना जीवन शांतिपूर्वक व्यतीत करते हैं क्योंकि वह बचपन से मंदिर आदि में जाकर अपने मन की शुद्धि कर लेते हैंं और अध्यात्म विषयों पर चिंतन और मनन भी करते हैं।

बदले की भावना इंसान को पशु बना देती हैं और वह तमाम तरह के ऐसे अपराध करने लगता है जिससे समाज में उसे बदनामी मिलती है। कई लोग ऐसे हैं जो गाली के जवाब में गाली देकर अपने लिये शत्रुता बढ़ा लेते है। कुछ लोग ऐसे हैं जिनको अभद्र शब्द बोलने और लिखने में मजा आता है जबकि यह अंततः अपने लिये ही दुःखदायी होता है। अपने मस्तिष्क में अच्छी बात सोचने से रक्त में भी वैसे ही कीटाणु फैलते हैं और खराब सोचने से खराब। यह संसार वैसा ही जैसा हमारा संकल्प होता है। अतः अपनी वाणी और विचारों में शुद्धता रखना चाहिये। दूसरे के व्यवहार या शब्दों से प्रभावित होकर उनमें अशुद्धता लाना अपने आपको ही कष्ट देना है।
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Saturday, November 7, 2009

चाणक्य नीति-फन फैलाने का दिखावा तो करना चाहिए (chankya niti-adambar)

प्रातद्र्यूतप्रसंगेन मध्याह्ये स्त्रीप्रसंगतः।
रात्रौ चैर्यप्रसंगेन कालो गच्छत्यधीमातम्।।
हिंदी में भावार्थ-
मूर्ख लोगों का समय प्रातःकाल जुआ, दोपहर प्रेम प्रसंग और रात्रि चोरी करने में व्यतीत होता है।
निर्विषेणाऽपि सर्पेण कत्र्तव्या महती फणा।
विषमस्तु न चाष्यस्तु घटाटोपो भयंकरः।।
हिंदी में भावार्थ-
भले ही अपने पास विष न हो पर विषहीन सर्प को फिर भी फन फैलाने का आडंबर करना चाहिये। उसके बचाव के लिये यह जरूरी होता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्य को अपने हृदय में दूसरों के प्रति स्वच्छता, स्नेह और दया का भाव रखना चाहिये। जहां तक हो सके दूसरे का भला करें पर यह भी आवश्यक है कि अपनी रक्षा के लिये सतर्कता बरतें। इस संसार में मनुष्य में ही देवता और राक्षस बैठा है। पता नहीं कब किस मनुष्य में राक्षसत्व का भाव पैदा हो इसलिये सभी लोगों से सतर्कता आवश्यक है। वैसे कुछ लोगों में तो हमेशा ही दुष्टता का भाव भरा होता है। ऐसे लोग जिसे कमजोर या असहाय समझते हैं उससे परेशान करने लगते हैं। हालांकि उनके द्वारा संकट पैदा करने पर लोगों पर प्रतिकार भी कर सकते हैं पर वह हमला ही न करें इसलिये अपनी शक्ति का प्रदर्शन समय आने पर करना पहले ही चाहिए। इस प्रदर्शन से दुष्ट हम पर हमला करने का दुस्साहस ही न करे। स्वयं किसी को हानि पहुंचाने का विचार करना भी दुष्टता है पर बाह्य विरोधी से निपटने के लिये अपने पास शक्ति का संचय अवश्य करते रहना चाहिये। इतना ही नहीं कोई अन्य आक्रमण न करे ताकि शक्ति का व्यर्थ उपयोग करने से बचें इस उद्देश्य से समय समय पर उसका प्रदर्शन भी करना चाहिये। जरूरत पड़े तो गुस्सा भी दिखाना चाहिए ताकि दुष्ट लोग सहमें रहें। इस बात का ध्यान रहे कि हमारे व्यवहार या गुस्से से किसी सज्जन का दिल न दुखे। अलबत्ता व्यवहार मे अपने शक्तिशाली होने का आभास लोगों को कराते रहना चाहिये ताकि लोग आपकी बात को हल्का न लें।
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Thursday, November 5, 2009

भर्तृहरि नीति शतक-दुश्मन से दया और मित्र से धन न मांगें (daya aur dhan-bhartrihari niti shatak in hindi)

असन्तो नाम्यथ्र्याः सुहृदपि न याच्यः कृशधनः प्रियान्याच्या वृत्तिर्मलिनमुसुभंगेऽप्यसुकरं।
चिपद्युच्चैः स्थेयं पदमनृविधेयं च महतां सत्तां केनाद्दिष्टं विषमममसिधाराव्रतमिदम्?
हिंदी में भावार्थ-
दुष्ट लोगों से दया के लिये प्रार्थना और अमीर मित्रों से याचना न कर केवल सत्य आचरण से ही जीवन पथ पर आगे बढ़ना चाहिये-ऐसे विचार का प्रतिपादन सज्जन लोगों के लिये किसने किया? मृत्यु के समक्ष भी उच्च विचारों की रक्षा की जाती है और महापुरुषों के मार्ग का ही अनुसरण करना पड़ता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जीवन के अनेक नियम हैं जिनमें यह भी है कि जो व्यक्ति दुष्ट प्रवृत्ति का है उससे दया की याचना करने का कोई अर्थ नहीं है। उससे अपनी दुष्टता का प्रदर्शन करना ही है। दया दिखाने पर हो सकता है वह कुछ देर अपने दुष्कर्म से रुक जाये पर फिर उसे उसी मार्ग पर जाना है। अतः दुष्ट प्रकृति के लोगों का प्रतिकार करने का सामर्थ्य हमेशा अपने पास रखना चाहिये या फिर उस स्थान से ही चले जाना चाहिये जहां वह निवास करते है।
उसी तरह अपने धनी मित्र से किसी प्रकार की याचना कर अपने संबंध बिगाड़ने की आशंकायें पैदा करना व्यर्थ है। धन एक माया का रूप है और वह सभी को भ्रम, लालच और लोभ की प्रवृत्तियों के कारण अपने बंधन में जकड़े रहती है। अतः अपने धन बंधु-बांधवों और मित्रों से यह आशा करना व्यर्थ है कि वह याचना करने पर आर्थिक सहायता देंगे। जहां तक आर्थिक सहायता का प्रश्न है तो जिसके मन में यह उदार भाव होता है वह बिना याचना ही करता है और जिसका हृदय संकीर्ण मानसिकता वाला है उससे कितना भी आग्रह करें वह आर्थिक सहायता नहीं करेगा।
जीवन में अपने आत्म सम्मान की रक्षा के लिये जरूरी है कि उसके कुछ नियमों को समझाया जाये। महापुरुष द्वारा ने अपने अनुभवों से जो सत्य का मार्ग दिखाया है उस पर चलकर ही सामान्य मनुष्य जीवन में स्वस्थ और प्रसन्न रह सकता है। उससे पृथक चलना अपने आपको ही शारीरिक और मानसिक कष्ट देना है। अगर हम आज के समाज की मुख्य समस्या यही है कि लोग सोच विचार कर न तो संबंध बनाते हैं और उनको निभाने के लिए विचार करते हैं।
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Tuesday, November 3, 2009

चाणक्य नीति-कुछ पुरुषों में भी विवेक नहीं होता (purush aur vivek-chankya niti)

मातृवत् परदारांश्चय परद्रव्याणि लोष्ठवत्।
आत्मवत् सर्वभूतानि यः पश्यति स नरः।।

हिंदी में भावार्थ-दूसरों की पत्नी को माता तथा धन को मिट्टी के ढेले की भांति समझना चाहिये। इस संसार में वह यथार्थ रूप से मनुष्य है जो सारे प्राणियों को अपनी आत्मा की भांति देखने वाला मानता है।
यो मोहन्मन्यते मूढो रक्तेयं मयि कामिनी।
स तस्य वशगो मूढो भूत्वा नृत्येत् क्रीडा-शकुन्तवत्।।

हिंदी में भावार्थ-नीति विशारद चाणक्य के अनुसार कुछ पुरुषों में विवेक नहीं होता और वह सुंदर स्त्री से व्यवहार करते हुए यह भ्रम पाल लेते हैं कि वह वह उस पर मोहित है। वह भ्रमित पुरुष फिर उस स्त्री के लिये ऐसे ही हो जाता है जैसे कि मनोरंजन के लिये पाला गया पक्षी।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हर व्यक्ति को अपने अंदर विवेक धारण करना चाहिये। कुछ लोग स्त्रियों के विषय में अत्यंत भ्रमित होते हैं। उनको लगता है कि कोई स्त्री उनसे अच्छी तरह बात कर रही है तो इसका आशय यह है कि वह उन पर मोहित है-यह उनका केवल एक भ्रम है। स्त्रियों का स्वभाव तथा वाणी कोमल होती है और इसी कारण वह हमेशा मृदभाषा से पुरुषों का मन मोह लेती हैं पर कुछ अज्ञानी और अविवेकी पुरुष यह भ्रम पाल कर अपने आपको ही कष्ट देते हैं कि वह उनके प्रति आकर्षित है।
नीति विशारद चाणक्य ऐसे व्यक्तियों की तरफ संकेत करते हुए कहते हैं कि दूसरे की स्त्री को माता के समान समझना चाहिये। उसी तरह दूसरे के धन को मिट्टी का ढेला समझना चाहिये। वह यह भी कहते हैं कि इस संसार में वही मनुष्य श्रेष्ठ है जो सभी लोगों को देह नहीं बल्कि इस संसार में दृष्टा की तरह उपस्थित आत्मा ही मानता है।

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Sunday, November 1, 2009

विदुर नीति-अकल का पैसे से कोई संबंध नहीं (akal aur paisa-vidur niti in hindi)

असंविभागो दुष्टात्मा कृतघ्नो निरपत्रपः।
तादृंनारिधपो लोके वर्जनीवो नारधिपः।।

           
हिंदी में भावार्थ-अपने व्यक्ति अपने आश्रितों में अपनी धन संपत्ति को ठीक से बंटवारा नहीं करे तो दुष्ट कृतघ्न और निर्लज्ज है उसे इस लोक में त्याग देना चाहिए।

न बुद्धिर्धनलाभाय न जाह्यमसद्धये।
लोकपर्यावृतांत प्राज्ञो जानाति नेतरः।।

           
हिंदी में भावार्थ- धन केवल बुद्धि से ही प्राप्त होता है या मूर्खता के कारण आदमी दरिद्र रहता है, ऐसा कोई नियम नहीं है। इस संसार के नियमों को केवल विद्वान पुरुष ही जानते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जिन लोगों के पास धन नहीं है या अल्पमात्रा में है उन्हें धनवान लोग मूर्ख और अज्ञानी मानते हैं। अक्सर धनवान  लोग कहते हैं कि अक्ल की कमी के कारण लोग गरीब होते हैं। इतना ही नहीं इन धनवानों के इर्दगिर्द अपने स्वार्थ कि वजह से मंडराने वाले चाटुकार लोग भी उनकी बुद्धि का महिमामंडन करते हुए नहीं थकते|
      उनका यह तर्क गलत और बेहूदा है। अगर उनका तर्क सही माना जाए तो सवाल उठता है कि  अनेक धनवान अपनी बौद्धिक त्रुटियों का कारण गरीब क्यों हो जाते हैं? जिनके पास धन और संपत्ति विपुल मात्रा में वह अपने व्यवसाय में हानि उठाने या अपने बच्चों की गलत संगत के कारण उनके द्वारा किये जा रहे अपव्यय कि वजह से संकटग्रस्त होकर निर्धनता को प्राप्त हो जाते हैं। तब उनके बारे में क्या यह कहना चाहिये किवह अक्ल के कारण ही अमीर हुए और अब उसके न रहने से गरीब हो गये।या अब धन नहीं है तो उनके पास अक्ल भी नहीं होगी।
      कहने का तात्पर्य है कि यह धारणा भ्रांत है कि बुद्धि या अक्ल के कारण कोई अमीर या गरीब बनता है। संसार का अपना एक चक्र है। शाश्वत सत्य कभी नहीं बदलता पर माया तो महाठगिनी है। आज इस घर में सुशोभित है तो कल वह किसी दूसरे दरवाजे पर जायेगी। लक्ष्मी के नाम का एक पर्यायवाची शब्द चंचलाभी है। वह हमेशा भ्रमण करती हैं। अतः हमेशा ही अमीरों को बुद्धिमान और गरीबों को बुद्धिहीन मानने वालों को अपने विचार बदलना चाहिए।
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Saturday, October 31, 2009

रहीम के दोहे-पेड़ कभी अपना फल नहीं खाते, तालाब पानी नहीं पीता (Couplets of Rahim - trees sometimes do not eat fruit, drink pond water)

तन रहीम है कर्म बस, मन राखो ओहि ओर।
जल में उल्टी नाव ज्यों, खैंचत गुन के जोर।
कविवर रहीम कहते हैं कि अपना शरीर तो कर्म के फल के नियंत्रण में है पर मन को भगवान की भक्ति में लीन रखा जा सकता है। जैसे जल में उल्टी नाव को रस्सी से खींचा जाता है वैसे ही मन को भी खींचना चाहिए।
तरुवर फल नहिं खात है, सरवर पियहि न पान।
कहि रहीम पर काज हित, संपति संचहि सुजान।।
कविवर रहीम कहते हैं कि जिसत तर पेड़ कभी स्वयं अपने फल नहीं खाते और तालाब कभी अपना पानी नहीं पीते उसी तरह सज्जनलोग दूसरे के हित के लिये संपत्ति का संचय करते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय-सामान्य मनुष्य स्वभाव का यह मूल स्वभाव होता है कि वह अपने लिये आवश्यक वस्तुओं का संग्रह करता है पर जो दूसरे के हित का विचार करते हैं उनका उद्देश्य दूसरों का हित भी करना होता है। अपने अपने सोचने का तरीका है। कुछ लोग अपने लिये धन संचय करते चले जाते हैं यह सोचकर कि उनकी सात पीढ़ियां उनको याद करेंगीं। समाज में वैमनस्य फैल रहा है तो उसकी वह परवाह नहीं करते। गरीब के साथ अन्याय और मजदूरी के शोषण से धन संचय करने में उनको हिचक नहीं होती। वह सोचते हैं कि उनका और आने वाली पीढ़ियाों का जीवन इसी तरह ही चलता रहेगा। उनके कृत्यों से समाज में जो विद्रोह फैलता है उसकी आशंका से परे होकर वह केवल अपने स्वार्थ पूरे करने में लगते हैं। मगर जब उनके पापों और कृत्यों की अति हो जाती है तब वह उसका परिणाम भोगते हैं और कभी कभी यह दुष्परिणाम उनकी पीढ़ियों को भोगना पड़ता है।
समझदार मनुष्य समाज को देखभाल कर ही आगे बढ़ते हैं। मिल बांटकर खाओ की नीति अपनाकर न केवल वह अपने लिये सुविधायें जुटाते हैं बल्कि उसके उपभोग में समाज को भागीदार बनाकर यश प्राप्त करते हैं। एक बात तय है कि शरीर की आवश्यकता भौतिक पदार्थों से ही पूरी होती है अतः यह समझना चाहिये कि किसी दूसरे को भी ऐसी सुविधा देकर ही उसका हृदय जीता जा सकता है।
यह शरीर तो सांसरिक कर्म फल के अधीन है। इसकी पूर्ति के लिये भौतिक वस्तुओं को प्राप्त करना जरूरी है पर भगवान भक्ति और परोपकार से जो आत्मिक सुख मिलता है उसकी अनुभूति अगर नहीं की तो यह जीवन व्यर्थ है। मन तो केवल साधनों के संग्रह में ही रहना चाहता है और उस पर नियंत्रण तभी किया जा सकता है जब हम अपने अंदर दृढ़ता पूर्वक संकल्प लेकर भक्ति तथा परोपकार के काम करें।
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Friday, October 30, 2009

रहीम के दोहे-मैंढक जब बोलें तो कोयल चुप हो जाती (koyal ki khamoshi-rahim ke dohe)

पावस देखि रहीम मन, कोइल साधे मौन।
अब दादुर वक्ता भए, हम को पूछत कौन।
कविवर रहीम कहते हैं कि जब वर्षा का मौसम आता है तब कोयल मौन धारण कर लेती है क्योंकि उस समय मैंढक बोलने लगते हैं। वह यह सोचकर खामोश हो जाती है कि अब इस टर्र टर्र की आवाज में उसकी बात कौन सुनेगा?
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-सरलता, सहजता और ईमानदारी का गुण हर मनुष्य में नहीं होता। चतुराई, ढौंग और बेईमानी से काम करने वालों को सहजता से ही ख्याति मिल जाती है। यह देखकर भलेमानसों को खामोश हो जाना चाहिए-यह सोचकर कि उस तरह की कलाकारी वह नहीं कर सकते। जिस तरह वर्षा का मौसम आता है तब पानी के गड्ढों में मैंढकों की संख्या बढ़ जाती है और दिन रात उनका ही गायन होता है तब कोयल चुप्पी साध लेती है। यही स्थिति समाज में भले विद्वानों की है। सामान्य आदमी स्वतः अभिव्यक्त होने वाले लोगों की तरफ ध्यान देता है न कि खामोश रहने वालों की तरफ देखता है। मुश्किल यह है कि जिनके पास गीत, संगीत, साहित्य, शिक्षा तथा अध्यात्मिक ज्ञान का खजाना है वह हमेशा उसके संचय में ही व्यस्त रहते हैं जबकि अल्पज्ञानी, विषयों को रटने वाले तथा दूसरे की रचना सामग्री को अपने नाम से प्रस्तुत करने वाले लोग समाज के सामने स्वयं को रचनाकार या ज्ञानी जताकर प्रस्तुत होते हैं। केवल इतना ही उनके लिये पर्याप्त नहीं होता बल्कि उनको समाज के प्रभावशाली लोगों की चाटुकारिता भी करनी पड़ती है। इस कारण वह यश और सम्मान अर्जित करते हैं जबकि भलेमानस रचनाकार और ज्ञानियों की हमेशा ही इस तरह के सम्मान से वंचित रहते हैं। कुछ तो स्वतः ही इनसे अपने को दूर रखते हैं। ढौंगी लोगों का सम्मान देखकर जो स्वतः अल्पज्ञानी हैं वह तो विचलित हो जाते हैं पर जो वास्तव में ज्ञानी है वह खामोशी से सब देखते हैं-उनका मन विचलित नहीं होता। वैसे भी ज्ञानी लोग सम्मान आदि का मोह नहीं पालते बल्कि उनका लक्ष्य अपना सृजन प्रक्रिया का सतत रखना होता है। यह मौन ही उनके ताकतवर होने का प्रमाण होता है। कहना चाहिये कि जो मौन है वही सच्चा ज्ञानी है-बिल्कुल कोयल की तरह।
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Monday, October 26, 2009

मनु स्मृति-कीर्ति के लिये झूठा आचरण करने वाला ‘बिडाल’ (kirti pane ke liye jhooth-manu smriti in hindi)

धर्मघ्वजी सदा लुब्धश्छाद्यिको लोकदम्भका।
बैडालवृत्ति को ज्ञेयो हिस्त्रः सर्वाभिसन्धकः।।
हिंदी में भावार्थ-
अपनी कीर्ति पाने की इच्छा पूर्ति करने के लिये झूठ का आचरण करने वाला, दूसरे के धरन कर हरण करने वाला, ढौंग रचने वाला, हिंसक प्रवृत्ति वाला तथा सदैव दूसरों को भड़काने वाला ‘बिडाल वृत्ति’ का कहा जाता है।’
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-आजकल ऐसे लोगों की बहुतायत है जो अपनी कीर्ति पाने के लिये झूठ और ढौंग के आचरण का अनुकरण करते हुए दूसरे के धन और रचनाकर्म का अपहरण करते हैं। इतना ही नहीं समाज के विद्वेष फैलाने के लिये दूसरो को भड़काते हैं। आज जो हम समाज में वैमनस्य का बढ़ता हुआ प्रभाव देख रहे हैं वह ऐसे ही ‘बिडाल वृत्ति’ के लोगों के दुष्प्रयासों का परिणाम है। अनेक लोग ऐसे हैं जो दूसरों का धन हरण कर शक्ति और पद प्राप्त कर लेते हैं। वह काम तो दूसरों से करवाते हैं पर उन पर अपने नाम का ठप्पा लगवाते हैं। अनेक बार ऐसी शिकायते अखबारों में छपने को मिलती है कि किसी के शोध या अनुसंधान को किसी ने चुरा कर अपने नाम से कर लिया। इसके अलावा ऐसे भी समाचार आते हैं कि सार्वजनिक और सामाजिक धन संपदा खर्च कहीं की जानी थी पर कहीं अन्यत्र उसका स्थानांतरण कर दिया-सीधी सी बात कहें तो भ्रष्टाचार भी ‘बिडाल वृत्ति’ है।

इसके अलावा अनेक रचना तथा अनुसंधानकर्मी भी यह शिकायत करते हैं कि उनकी रचना या अनुसंधान की चोरी कर ली गयी है। यह मनोवृत्ति आजकल बढ़ गयी है। इसके पीछे कारण यह है कि लोगों के अंदर मान पाने की वृत्ति श्वान की तरह हो गयी है जिसकी चर्चा माननीय संत कवि कबीरदास जी भी करते हैं। मजे की बात यह है कि जो लोग वास्तव में रचना और अनुसंधान करने वाले होते हैं वह इस तरह के प्रपंच में नहीं पड़ते। अगर हम यह कहें कि जो वास्तव में रचनात्मक भाव वाले हैं वह मान की चाहते से परे होते हैं और जो मान पाने की इच्छा रखते हैं वह दूसरे के धन की चोरी और रचनाकर्म के अपहरण का मार्ग अपनाते हैं। इसलिये हमें ऐसे लोगों की पहचान करना चाहिये। जो व्यक्ति सम्मानित होते दिखे उसके पीछे क्या है यह जरूर देखना चाहिये।
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Saturday, October 24, 2009

रहीम के दोहे-पानी निभाता है दूध से मित्रता (milk and water-rahim ke dohe)

जलहि मिलाइ रहीम ज्यों, कयों आपु सग छीर
अगवहि आपुहि आप त्यों, सकल आंच की भीर।।
भावार्थ-
कविवर रहीम कहते हैं कि दूध अपने साथ पानी को मिलाकर अंतरंग बना लेता है। जब आग की आंच आती है तो पानी अपना साथ निभाते हुए दूध को तब तक बचाता है जब तक स्वयं स्वाह नहीं हो जाता।
जहां गांठ तहं रस नहीं, यह रहीम जग जोय।
मंडप तर की गांठ में, गांठ गांठ रस होय।।
भावार्थ
-कविवर रहीम कहते हैं कि सभी लोग जानते हैं जहां गांठ होती है वहां रस नहीं होता किन्तु विवाह मंडप में गांठ ही गांठ होती है तब भी उसमें रस होता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-लोग रिश्ते तो बड़ी आसानी से बना लेते हैं पर निभाने की क्षमता सभी में नहीं होती। स्वार्थ से बने संबंध विपत्ति के समय लापता हो जाते हैं। व्यवसाय और नौकरी वाले स्थानों पर अनेक लोग प्रतिदिन मिलते है। उनके बोलने के तरीके और व्यवहार से ऐसा लगता है कि वह हमारे अच्छी साथी हैं पर यह केवल भ्रम होता है। जब तक सब ठीक है सभी लोग हमेशा ही साथ निभाने का वादा करते हैं पर पर विपत्ति आये तो सभी खामोशी से देखते हैं। अगर उनसे मदद की याचना की जाये तो वह साफ इंकार कर देते हैं। कई तो कह देते हैं कि ‘काम की वजह से हमारी निकठता है। घर के मामले में हम क्या जानते हैं?
इसके अलावा लोग जरा जरा बात पर झगड़कर अपने संबंध खराब कर लेते हैं। तनाव का समय आने वह यह नही सोचते कि थोड़ा सब्र कर समझ के साथ संबंध बढ़ायें। यही कारण है कि आजकल सभी के आसपास मित्रों और रिश्तेदारों की भीड़ है फिर भी लोग अपने अंदर अकेलापन अनुभव करते हैं। लोग यह नहीं समझ पाते कि एक बार विश्वास टूट गया या संबंध में गांठ पड़ गयी तो फिर वह सामान्य नहीं हो सकते।
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Thursday, October 22, 2009

विदुर नीति-आठ महीने अच्छे काम कर चार महीने आराम से रहें (vidur niti-achchhe kam se neend aati hai)

दिवसैनैव कुर्याद् येन रात्रौ सुखं वसेत।
अष्टामासेन तत् कुर्याद् येन वर्षा सुखं वसेत्।।
हिंदी में भावार्थ-
नीति विशारद विदुर कहते हैं कि पूर दिन में वह कार्य करें जिससे रात में आराम से नींद आ सके और आठ महीनों में वह कार्य करें जो चार महीने सुख से व्यतीत हो सकें।

जीर्णमन्नम् प्रशंसंति भार्या च गतयौवनम्।
शूरंविजितसंग्रामं गतयारं तपस्विनम्।।
हिन्दी में भावार्थ-
नीति विशारद विदुर कहते हैं कि सज्जन आदमी पच जाने पर पर अन्न , युवावस्था बेदाग बीत जाने पर स्त्री, युद्ध विजयी होने पर वीर और तत्व ज्ञान प्राप्त करने पर तपस्वी किया प्रशंसा करते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-आमतौर से प्राचीन काल में वर्षा के चार मास मनुष्य के लिये अवकाश का काल माने जाते थे। उस समय चूंकि पक्के मार्ग नहीं हुआ करते थे इसलिये वर्षाकाल में यात्रायें वर्जित थीं। शायद इसलिये ही विदुर महाराज ने यह संदेश दिया कि आठ मास में अधिक परिश्रम कर इतना धनर्जान कर लें कि बाकी चार मास में आराम से रोजी रोटी चल सके। वर्षाकाल में उमस के कारण थोड़ा कार्य करने से भी शरीर से ऊर्जा पसीने के रूप में बाहर आने लगती है और फिर उस समय खाना भी इतनी आसानी से हजम नहीं होता इसलिये बीमारी का प्रकोप बना रहता है इसी कारण वर्षा में अधिक परिश्रम वर्जित किया गया है। वर्षाकाल में देह में ऊर्जा निर्माण की प्रक्रिया भी कठिन होती है।

उन्होंने यह बात बहुत महत्वपूर्ण कही है कि हमें दिन में ऐसे ही काम करना चाहिये जिससे्र रात को निश्चिंत होकर निद्रा का आनंद ले सकें। देखा जाये तो इसमें ही इस दैहिक जीवन का बहुत बड़ा रहस्य छिपा हुआ है। दिन में क्रोध या लोभवश किये काम का रात को अपने ही दिमाग पर जो तनाव रहता है उससे निद्रा नहीं आती। अगर किसी से हमने बैर लिया होता है तो उसके प्रहार की चिंता से एक नहीं बल्कि कई रातों की नींद हराम हो जाती है। कहीं प्रमाद या विलासिता के वशीभूत मजे लेने के लिये किया गया कार्य इसलिये भी रात को नींद में सताता है कि उसका कहीं किसी को पता न चल जाये। इस बात को ध्यान में रखते हुए दिन में ही सतर्कता बरतना चाहिए कि हमारे हाथ से ऐसा कोई कार्य न हो जाये जिससे रात की नींद हराम हो। ऐसा करने से मनुष्य स्वतः ही पापकर्म से विरक्त रहेगा। अगर आप अच्छा काम करेंगे तो रात को नींद अपने आप अच्छे तरह आयेगी।
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Wednesday, October 21, 2009

चाणक्य नीति-जस की तस नीति में दोष नहीं (jaise ko taisa-chankya niti in hindi)

संसार विषवृक्षस्य द्वे फले अमृतोपमे।
सुभाषितं च सुस्वादु संगतिः सुजने जनै।।

हिन्दी में भावार्थ-नीति विशारद चाणक्य जी कहते हैं कि इस विषरूपी संसार में दो तरह के फल अमृत की तरह लगते हैं। एक तो सज्जन लोगों की संगत और दूसरा अच्छी वाणी सुनना।
कृते प्रतिकृतं कुर्याद् हिंसने प्रतिहिसंनम्।
तत्र दोषो न पतति दुष्टे दुष्टे सामचरेत्
हिंदी में भावार्थ-
अपने प्रति अपराध और हिंसा करने वाले के विरुद्ध प्रतिकार और प्रतिहिंसा का भाव रखने में कोई दोष नहीं है। उसी तरह दुष्ट व्यक्ति के साथ वैसे ही व्यवहार करना कोई अपराध नहीं है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इस संसार में वैसे तो दुःख और विष के अलावा अन्य कुछ नहीं दिखता पर दो तरह के फल अवश्य हैं जिनका मनुष्य अगर सेवन करे तो उसका जीवन संतोष के साथ व्यतीत किया जा सकता है। इसमें एक तो है ऐसे स्थानो पर जाना जहां भगवत्चर्चा होती हो। दूसरा है सज्जन और गुणी लोगों से संगत करना। दरअसल इस स्वार्थी दुनियां में निष्काम भाव से कुछ समय व्यतीत करने पर ही शांति मिलती है और यह तभी संभव है जब हम स्वार्थ की वजह से बने रिश्तों से अलग ऐसे संतों और सत्पुरुषों की संगत करें जिनका हम में और हमारा उनमें स्वार्थ न हो। इसके अलावा आत्मा को प्रसन्न करने वाली कहीं कोई बात सुनने को मिले तो वह अवश्य सुनना चाहिये।
कहते हैं कि मन में बुरा भाव नहीं रखना चाहिये पर अगर कोई हमारे साथ बुरा बर्ताव करता है तो उससे चिढ़ हो ही जाती है। पंच तत्व से बनी इस देह में बुद्धि, मन और अहंकार ऐसी प्रकृतियां हैं जिन पर चाहे जितना प्रयास करो पर नियंत्रण हो नहीं पाता। सज्जन लोग किसी अन्य द्वारा बुरा बर्ताव करने पर उससे मन में चिढ़ जाते हैं पर बाद में वह इस बात से पछताते हैं कि उनके मन में बुरी बात आई क्यों? अगर किसी बुरे व्यक्ति के बर्ताव से गुस्सा आता है तो उससे विचलित होने की आवश्यकता नहीं है। वैसे जीवन में सतर्कता और सक्रियता आवश्यक है। कोई व्यक्ति हमारे अहित के लिये तत्पर है तो उसका वैसा ही प्रतिकार करने में कोई बुराई नहीं है। बस! इतना ध्यान रखना चाहिये कि उससे हम बाद में स्वयं मानसिक रूप से स्वयं प्रताड़ित न हों।
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Tuesday, October 20, 2009

रहीम के दोहे-चिंता के समान मनुष्य का कोई दूसरा शत्रु नहीं (rahim ke dohe in hindi)

रहिमन करि सम बल नहीं, मानत प्रभु की धाक।
दांत दिखावत दीन है, चलत घिसावत नाक।।


कविवर रहीम कहते हैं की हाथी के समान किसी में शक्ति नहीं है परन्तु वह भी परमात्मा के महत्त्व को स्वीकार करता है और दोनों दंत दिखाता हुआ पृथ्वी पर नाक रगड़कर चलता है।
रहिमन कठिन चितान ते, चिंता को चित चेत।
चिता दहति निर्जीव को, चिंता जीव समेत ।।

कविवर रहीम कहते हैं की कठोर चिंताओं के से अपने को मुक्त कर अपने चित पर नियंत्रण करो क्योंकि चिता तो प्राणहीन प्राणी को जलाकर राख कर देती है परन्तु चिंता तो जिंदा प्राणी को ही जलाकर भस्म कर देती है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-चिंता के समान मनुष्य का कोई दूसरा शत्रु नहीं है। इसका कारण यह है कि सामान्य मनुष्य अपने को कर्तापन के अहंकार से स्वयं को मुक्त नहीं कर पाता। इसलिये अपने सांसरिक कार्य के बनने पर प्रसन्न होता है तो बिगड़ने पर भारी संताप का शिकार बन जाता है। सच बात तो यह है कि आदमी अकेला आया है और अकेला ही उसे जाना है-इस तथ्य को जानते हुए भी लोग भूल जाते हैं। अपने परिवार तथा समाज को अपने कर्म पर ही आधारित मानना मनुष्य का एक ऐसा भ्रम है जिससे अगर वह मुक्त हो जाये तो फिर कहना ही क्या? हमने देखा होगा कि जीवन नश्वर है और जब इंसान इस संसार को छोड़ जाता है तो उसके साथ उसका कोई आश्रित नहीं जाता। दो चार दिन रोकर सभी अपने काम में लग जाते हैं। सब देखते हुए हुए भी सामान्य मनुष्य आंख बंद कर अपने को विश्वास दिलाता है कि वही अपने संसार की नाव का खेवनहार है और इसी चिंता में अपनी पूरी जिंदगी गुजार देता है।
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Monday, October 19, 2009

रहीम के दोहे-दो फांक हो जाने वाला प्रेम न करना ही अच्छा (aisa prem n karen-rahim ke dohe)

रहिमन प्रीत न कीजिए, जस खीरा ने कीन।
ऊपर से तो दिल मिला, भीतर फांके तीन।।
भावार्थ-
कविवर रहीम कहते हैं कि कभी भी खीरे जैसी प्रीति न कीजिए। ऐसी दिखावटी प्रीति से क्या लाभ जिसमें आदमी मन ही मन एक दूसरे से जलते हों।
रहिमन नीच प्रसंग ते, नित प्रति लाभ विकार।
नीर चोरावै संपुटी, भारू सहै धरिआर।।
भावार्थ-
कविवर रहीम के मतानुसार नीच व्यक्ति की संगत या विचार करने से आदमी को नित नये संकटों का सामना करना के साथ ही मानसिक संताप भी झेलना पड़ता है। पानी जलघड़ी की संपुटी चुराता है और उसका दंड घड़ियाला को भोगना पड़ता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-सच बात तो यह है कि इस संसार में शायद ही कोई किसी से सच्चा प्रेम करता हो। अधिकतर लोग एक दूसरे से दिखावटी प्रेम करते हैं। वैसे तो प्रेम के गीत बहुत गाये जाते हैं पर क्षणिक आवेश या काम वासना से युक्त आकर्षण में प्रेम का तत्व नहीं मिल सकता। जब तक काम नहीं निकला तब तक लोग एक दूसरे के प्रति प्रेम भाव का प्रदर्शन करते हैं और जैसे ही काम निकला पहचानते नहीं या फिर आपस में झगड़े करने लगते हैं। जिस समय स्वार्थयुक्त प्रेम का भाव चरम पर होता है उस समय लगता है कि लोग एक हैं पर जैसे ही सच सामने आता है उनका झुंड की दो फांक साफ दिखाई देती हैं। सच बात तो यह है कि प्रेम कभी भी स्वार्थ पूर्ति के लिये नहीं होता। जब करें तो ऐसा ही प्रेम करें वरना दिखावा कर एक दूसरे को धोखा देकर अपना नाम न बदनाम करें। निस्वार्थ प्रेम ही जीवन में सहजता का बोध कराता है। स्वार्थ की वजह से हुआ प्रेम उसके पूरा होते ही समाप्त होता है और अगर स्वार्थ नहीं पूरा होता तो उससे मानसिक संताप दिल में छा जाता है।
उसी तरह जीवन में न तो नीच प्रकृत्ति के इंसान से संगत करना चाहिये न विचारों में कलुषिता का भाव रखें। दोनों ही स्थितियां अपने लिये बुरी होती हैं। नीच प्रकृत्ति के आदमी की संगत कभी न कभी अपने साथ संकट लाती है और अगर विचार बुरे हों तो उससे सारी दुनियां ही बुरी लगती है और इससे जीवन का आनंद जाता रहता है।
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Sunday, October 18, 2009

चाणक्य नीति-दुष्ट से निपटने के लिये खड्ग हाथ में लेना ही पड़ता है (chankya niti in hindi)

तुष्यन्ति भोजने विप्रा मयूरा धनगर्जिते।
साधवः परसम्पतिौ खलः परविपत्तिषुः।।
हिंदी में भावार्थ-
विद्वान अच्छा भोजन, मेघों की गर्जना से मोर तथा साधु लोग दूसरों की संपत्ति देखकर प्रसन्न होते हैं वैसे ही दुष्ट लोग दूसरों को संकट में फंसा देखकर हंसते हैं।

हस्ती अंकुशमात्रेण वाजी हस्तेन ताडयते।
श्रृङगी लगुडहस्तेन खङगहस्तेन दुर्जनः।।

हिंदी में भावार्थ-
जिस तरह अंकुश से हाथी तथा चाबुक से घोड़ा, बैल तथा अन्य पशु नियंत्रित किये जाते हैं वैसे ही दुष्ट से निपटने के लिये खड्ग हाथ में लेना ही पड़ता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इस संसार में भांति भांति प्रकार के लोग हैं। जो ज्ञानी और विद्वान है उनको रहने, खाने,पीने और पहनने के लिये अच्छी सुविधा मिल जाये तो वह संतुष्ट हो जाते हैं। जो सच्चे साधु और सज्जन हैं वह दूसरों की भौतिक उपलब्धियों देखकर प्रसन्न होते हैं क्योंकि उनकी मान्यता होती है कि आसपास के लोग प्रसन्न होंगे तो उनके स्वयं के पास अच्छा वातावरण रहेगा और वह शांति से रह सकेंगे। इसके विपरीत कुछ लोग दुष्ट प्रवृत्ति के भी होते हैं जो स्वयं तो विपत्ति में पड़े रहते हैं पर उनका खेद तब कम हो जाता है जब कोई दूसरा भी विपत्ति में पड़ता है। ऐसे लोग अपने दुःख से अधिक दूसरे के सुख से अधिक दुःखी होती हैं। इसके अलावा अपने सुःख से अधिक दूसरे का दुःख उनको अधिक प्रसन्न करता है।
वैसे तो जीवन में हिंसा कभी नहीं करना चाहिये क्योंकि फिर प्रतिहिंसा का सामना करने पर स्वयं को भी कष्ट उठाना पड़ा सकता है, पर इस संसार में कुछ ऐसे दुष्ट लोग भी हैं जिनको कितना भी समझाया जाये वह दैहिक आक्रमण से बाज नहीं आते। उनसे शांति और अहिंसा की अपील निरर्थक साबित होती है। ऐसे लोगों से मुकाबला करने के लिये अपने अस्त्रों शस्त्रों तथा अन्य साधनों उपयोग करने में कोई झिझक नहीं करना चाहिये। ऐसे लोगों के लिये धर्म और ज्ञान एक निरर्थक वस्तु हैं। देहाभिमान से ग्रस्त ऐसे लोगों के विरुद्ध लड़ना पड़े तो संकोच त्याग देना चाहिए।  अपनी देह और आत्मसम्मान की   रक्षा करना भी अपना धर्म है यह समझ लेना चाहिए।
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Thursday, October 15, 2009

मनु स्मृति-धर्म का नाम नहीं पर पहचान हैं दस लक्षण (ten point of hindu religion-manu smriti in hindi)

मनु स्मृति में कहा गया है कि
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धृति क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रिवनिग्रहः।
धीविंद्या सत्यमक्रोधी दशकं धर्मलक्षणम्।।

      हिंदी में भावार्थ-धैर्य, क्षमा, मन पर नियंत्रण, चोरी न करना, मन वचन तथा कर्म में शुद्धता,इंद्रियों पर नियंत्रण, शास्त्र का ज्ञान रखना,ब्रह्म ज्ञान प्राप्त करना, सच बोलना, क्रोध और अहंकार से परे होकर आत्मप्रवंचना से दूर रहना-यह धर्म के दस लक्षण है।
दक्ष लक्षणानि धर्मस्य व विप्राः समधीयते।
अधीत्य चानुवर्तन्ते वान्ति परमां गतिम्।।

      हिंदी में भावार्थ-जो विद्वान दस लक्षणों से युक्त धर्म का पालन करते हैं वे परमगति को प्राप्त होते हैं।
      वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हमारे अध्यात्मिक ग्रंथों में किसी धर्म का नाम देखने को नहीं मिलता है। अनेक स्थानों पर कर्म को ही धर्म माना गया है अनेक जगह मनुष्य के आचरण तथा  लक्षणों से पहचान की जाती है। कहने को तो यह भी कहा जाता है कि हमारा धर्म पहले सनातन धर्म से जाना जाता था पर इसे हम यूं भी कह सकते हैं कि इंसान को इंसान की तरह जीने की कला सिखाने वाला हमारा धर्म ही सनातन काल से चला आ रहा है। धर्म का कोई नाम नहीं होता बल्कि इंसानी कि स्वाभाविक वृत्तियां ही धर्म की पहचान है। इस संसार में विभिन्न प्रकार के इंसान हैं पर वह  मनु द्वारा बताये गये धार्मिक लक्षणों पर चलते हैं  तभी वह धर्म मार्ग पर स्थित माने  जा सकते हैं। हमें इन लक्षणों का अध्ययन करना चाहिये। इसका ज्ञान होने पर यह देखने का प्रयास नहीं करना चाहिए  कि कोई दूसरा व्यक्ति धर्म मार्ग पर स्थित है या नहीं  वरन् हमें स्वयं देखना है कि हमारा अपना  मार्ग कौनसा है?
      वैसे हमारे देश में जगह जगह ज्ञानी मिल जायेंगे। बड़ों की बात छोड़िये आम आदमियों में भी ऐसे बहुत लोग हैं जो खाली समय बैठकर धर्म की बात करते हैं। ज्ञान की बातें इस तरह करेंगे जैसे कि उनको महान सत्य बैठ बिठाये ही प्राप्त हो गया है। मगर जब आचरण की बात आती है तो सभी कोरे साबित हो जाते हैं। कहते हैं कि जैसे लोग और जमाना है वैसे ही चलना पड़ता है। अपने मन पर नियंत्रण करना बहुत सहज है पर उससे पहले यह संकल्प करना पड़ता है कि हम धर्म का मार्ग चलेंगे। धर्म की लंबी चैड़ी व्याख्यायें नहीं होती। परिस्थतियों के अनुसार खान पान में बदलाव करना पड़ता है और उससे धर्म की हानि या लाभ नहीं होता। वैसे खाने, पीने में स्वाद और पहनावे से आकर्षक  दिखने का विचार छोड़कर इस बात पर ध्यान देना चाहिये कि हमारे स्वास्थ्य के लिये क्या हितकर है? दूसरा क्या कर रहा है इसे नहीं देखना चाहिये और जहां तक हो सके अन्य लोगो के कृत्य पर टिप्पणियां करने से भी बचें। जहां हम किसी की निंदा करते हैं वहां हमारा उद्देश्य बिना कोई परोपकार का काम किये बिना स्वयं को श्रेष्ठ साबित करना होता है। यह निंदा और आत्मप्रवंचना धर्म विरुद्ध है। सबसे बड़ी बात यह है कि एक इंसान के रूप में अपने मन, विचार, बुद्धि तथा देह पर निंयत्रण करने की कला का नाम ही धर्म है और मनु द्वारा बताये गये दस लक्षणों से अलग कोई भी दृष्टिकोण धर्म नहीं हो सकता। .........................................
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Wednesday, October 14, 2009

विदुर नीति-दूसरे के अधिकार का हनन अनुचित (doosre ka haq marna galat-vidur niti)

विदुर नीति में कहा गया है कि
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हरणं च परम्वानां परदाराभिमर्शनम्।
सुहृदश्चय परित्यागस्त्रयो दोषाः क्षमावहा।।

           
हिंदी में भावार्थ-दूसरे के धन का हरण,  परायी स्त्री से संपर्क रखना तथा सहृदय मित्र का त्याग-यह तीन दोष आदमी का नाश कर देते हैं।

द्वाविमौ पुरुषौ राजन् स्वर्गस्योपरि तिष्ठतः।
प्रभुश्चक्षमया युक्तो दरिद्रश्च प्रदानवान्।।

           
हिंदी में भावार्थ-शक्तिशाली होने पर भी क्षमा करने तथा दरिद्र होने पर भी दान करने वाला मनुष्य स्वर्ग से भी ऊपर स्थान पाता है।

            वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-आजकल सबसे बड़ी समस्या यह है कि आदमी अपने गुण दोषों पर ध्यान नहीं देता। दूसरे के हक मारने से लोग तब रुकें जब उनके पास इतनी चिंतन क्षमता हो कि वह अच्छाई बुराई का निर्णय कर सकें। सभी को अपने स्वार्थ का भान है दूसरे के अधिकार पर कौन ध्यान देता है? हमने कई बार सुना होगा कि किसी ने अनुसंधान से कोई अविष्कार किया तो किसी दूसरे ने अपने नाम से उसे प्रचारित किया। उसी तरह अनेक लोग दूसरों की मौलिक रचनायें अपने नाम से छापकर गर्व महसूस करते हैं। कई लोग दूसरे के परिश्रम के रूप में देय मूल्य से मूंह फेरे जाते हैं या फिर कम देते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि दूसरे का अधिकार मारने में कोई नहीं झिझकता। यह कोई नहीं समझता कि इसका परिणाम कहीं न कहीं भोगना पड़ता है।
      मनुष्य की शक्ति की पहचान उसकी सहनशीलता में है न कि हिंसा का प्रदर्शन करने में। जिसमें शारीरिक शक्ति और मानसिक दृढ़ता की कमी होती है वह बहुत जल्द हिंसक हो उठते हैं। जिन लोगों के पास शक्ति और धीरज है वह क्षमा करने में अधिक विश्वास करते हैं। उसी तरह आजकल धनलोलुपों का हाल है। सभी धन के पीछे अंधे होकर भाग रहे हैं। दिखाने के लिये वह धन का दान भले ही करते हों पर उनके लिये पुण्य कमाना दुर्लभ है क्योंकि उनका धन उचित मार्गों से नहीं अर्जित किया गया। सच तो यह है कि जो मिलबांटकर खाते हैं उनको ही पुण्य मिलता है। जो दरिद्र है वह जब दान करता है तो उसका स्थान स्वर्ग से भी ऊंचा हो जाता है। संकलक एवं  व्याख्याकार-दीपक भारतदीप
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