दांत दिखावत दीन है, चलत घिसावत नाक।।
कविवर रहीम कहते हैं की हाथी के समान किसी में शक्ति नहीं है परन्तु वह भी परमात्मा के महत्त्व को स्वीकार करता है और दोनों दंत दिखाता हुआ पृथ्वी पर नाक रगड़कर चलता है।
रहिमन कठिन चितान ते, चिंता को चित चेत।
चिता दहति निर्जीव को, चिंता जीव समेत ।।
कविवर रहीम कहते हैं की कठोर चिंताओं के से अपने को मुक्त कर अपने चित पर नियंत्रण करो क्योंकि चिता तो प्राणहीन प्राणी को जलाकर राख कर देती है परन्तु चिंता तो जिंदा प्राणी को ही जलाकर भस्म कर देती है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-चिंता के समान मनुष्य का कोई दूसरा शत्रु नहीं है। इसका कारण यह है कि सामान्य मनुष्य अपने को कर्तापन के अहंकार से स्वयं को मुक्त नहीं कर पाता। इसलिये अपने सांसरिक कार्य के बनने पर प्रसन्न होता है तो बिगड़ने पर भारी संताप का शिकार बन जाता है। सच बात तो यह है कि आदमी अकेला आया है और अकेला ही उसे जाना है-इस तथ्य को जानते हुए भी लोग भूल जाते हैं। अपने परिवार तथा समाज को अपने कर्म पर ही आधारित मानना मनुष्य का एक ऐसा भ्रम है जिससे अगर वह मुक्त हो जाये तो फिर कहना ही क्या? हमने देखा होगा कि जीवन नश्वर है और जब इंसान इस संसार को छोड़ जाता है तो उसके साथ उसका कोई आश्रित नहीं जाता। दो चार दिन रोकर सभी अपने काम में लग जाते हैं। सब देखते हुए हुए भी सामान्य मनुष्य आंख बंद कर अपने को विश्वास दिलाता है कि वही अपने संसार की नाव का खेवनहार है और इसी चिंता में अपनी पूरी जिंदगी गुजार देता है।
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संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप, Gwlior
http://rajlekh.blogspot.com
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