अब दादुर वक्ता भए, हम को पूछत कौन।
कविवर रहीम कहते हैं कि जब वर्षा का मौसम आता है तब कोयल मौन धारण कर लेती है क्योंकि उस समय मैंढक बोलने लगते हैं। वह यह सोचकर खामोश हो जाती है कि अब इस टर्र टर्र की आवाज में उसकी बात कौन सुनेगा?
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-सरलता, सहजता और ईमानदारी का गुण हर मनुष्य में नहीं होता। चतुराई, ढौंग और बेईमानी से काम करने वालों को सहजता से ही ख्याति मिल जाती है। यह देखकर भलेमानसों को खामोश हो जाना चाहिए-यह सोचकर कि उस तरह की कलाकारी वह नहीं कर सकते। जिस तरह वर्षा का मौसम आता है तब पानी के गड्ढों में मैंढकों की संख्या बढ़ जाती है और दिन रात उनका ही गायन होता है तब कोयल चुप्पी साध लेती है। यही स्थिति समाज में भले विद्वानों की है। सामान्य आदमी स्वतः अभिव्यक्त होने वाले लोगों की तरफ ध्यान देता है न कि खामोश रहने वालों की तरफ देखता है। मुश्किल यह है कि जिनके पास गीत, संगीत, साहित्य, शिक्षा तथा अध्यात्मिक ज्ञान का खजाना है वह हमेशा उसके संचय में ही व्यस्त रहते हैं जबकि अल्पज्ञानी, विषयों को रटने वाले तथा दूसरे की रचना सामग्री को अपने नाम से प्रस्तुत करने वाले लोग समाज के सामने स्वयं को रचनाकार या ज्ञानी जताकर प्रस्तुत होते हैं। केवल इतना ही उनके लिये पर्याप्त नहीं होता बल्कि उनको समाज के प्रभावशाली लोगों की चाटुकारिता भी करनी पड़ती है। इस कारण वह यश और सम्मान अर्जित करते हैं जबकि भलेमानस रचनाकार और ज्ञानियों की हमेशा ही इस तरह के सम्मान से वंचित रहते हैं। कुछ तो स्वतः ही इनसे अपने को दूर रखते हैं। ढौंगी लोगों का सम्मान देखकर जो स्वतः अल्पज्ञानी हैं वह तो विचलित हो जाते हैं पर जो वास्तव में ज्ञानी है वह खामोशी से सब देखते हैं-उनका मन विचलित नहीं होता। वैसे भी ज्ञानी लोग सम्मान आदि का मोह नहीं पालते बल्कि उनका लक्ष्य अपना सृजन प्रक्रिया का सतत रखना होता है। यह मौन ही उनके ताकतवर होने का प्रमाण होता है। कहना चाहिये कि जो मौन है वही सच्चा ज्ञानी है-बिल्कुल कोयल की तरह।
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संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://rajlekh.blogspot.com
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