Saturday, April 24, 2010

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-भंवरा मरने के लिये ही हाथी के कान में ध्वनि करता है (hathi aur bhavra-kautilya darshan)

कौटिल्य का अर्थशास्त्र में कहा गया है कि
-----------------------------------
स्निग्धदीपशिखालोकविलेभितक्लिचनः।
मृत्युमृच्छत्य सन्देहात् पतंगः सहसा पतन्।।

     हिन्दी में भावार्थ-दीपक की स्निग्ध शिखा के दर्शन से जिस पतंगे के नेत्र ललचा जाते हैं और वह उसमें जलकर जान देता है। यह रूप का विषय है इसमें संदेह नहीं है।

गन्धलुब्धो मधुकरो दानासवपिपासया।
अभ्येत्य सुखसंजवारां गजकर्णझनज्झनाम्||

     हिन्दी में भावार्थ-गंध की वजह से लोभी हो चुका दान मद रूपी आसव पीने की इच्छा करने वाला भंवरा सुख का अनुभव कराने वाली झनझन ध्वनि हाथी के कान के समीप जाकर मरने के लिये ही करता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इस संसार में रहकर विषयों से परे तो रहा नहीं जा सकता। देह तथा मन की क्षुधायें इस बात के लिये बाध्य करती हैं जीवन में निरंतर सक्रिय रहा जाये। विषयों से परे नहीं रहा जा सकता पर उनमें आसक्ति स्थापित करना अपने लिये ही कष्टकारक होता है। यही आसक्ति मतिभ्रष्ट कर देती है और मनुष्य गलत काम कर बैठता है।
सच बात यह है कि पेट देने वाले ने उसमें पड़ने वाले अन्न की रचना भी कर दी है पर मनुष्य का यह भ्रम है कि वह इस संसार के प्राणियों द्वारा ही दिया जा रहा है। जो ज्ञानी लोग दृष्टा की तरह इस जीवन को देखते हैं वह विषयों से लिपटे नहीं रहते। कथित रूप से अनेक संत मनुष्यों को विषयों से परे रहने का उपदेश जरूर देते हैं पर स्वयं भी उससे मुक्त नहीं हो पाते। दरअसल विषयों से दूर रहने की आवश्यकता नहंी बल्कि उनमें लिप्त नहीं होना चाहिये। अज्ञानी लोग आसक्ति वश ऐसे काम करते हैं जिनमें उनकी स्वयं की हानि होती है। धनी, बाहूबली, तथा उच्च पदारूढ़ लोगों के पास जाकर चाटुकारिता इस भाव से करते हैं जैसे कि कोई उन पर मुफ्त में कुपा करेगा। नतीजा यह होता है कि उनके हाथ निराशा हाथ लगती है और कभी कभी तो अपमानित भी होना पड़ता है।
      इस संसार में सुंदर दिखने वाली हर चीज एक दिन पुरानी पड़ जाती है। सुखसुविधाओं के साधन चाहे जितने जुटा लो एक दिन कबाड़ में बदल जाते हैं। अलबत्ता यह साधन मनुष्य को आलसी बना देते हैं जो समय आने पर मनुष्य को तब शत्रु लगता है जब विपत्ति आती है क्योंकि उनका सामना करने का सामर्थ्य नहीं रह जाता। अतः जीवन की इन सच्चाईयों को समझते हुए एक दृष्टा की तरह समय बिताना चाहिये।संकलक,लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior http://anant-shabd.blogspot.com
------------------------

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

Thursday, April 22, 2010

मनुस्मृति-वेद मंत्रों के जाप से इच्छित फल प्राप्त होता है (manu smriti-ved mantra ka jap)

इदं शरणमज्ञानामिदमेव विजानताम्।
इदमन्विच्छतां स्वर्गमिदमानन्त्यमिच्छताम्।।
हिन्दी में भावार्थ-
मनुष्य ज्ञानी हो या अज्ञानी वेद मंत्रों को जपने से उसे इच्छित फल प्राप्त होता है। उसी तरह इनके जाप से स्वर्ग की इच्छा करने वालो को स्वर्ग तथा मोक्ष प्राप्त करने की इच्छा करने वाले को मोक्ष प्राप्त करता है।
अधियज्ञं ब्रह्म जपेदाधिदैविकमेव च।
आध्यात्मिकं च सतत। वेदान्ताभिहितं च यत्।।
हिन्दी में भावार्थ-
वेदों में वर्णित यज्ञ तथा पूजा से संबंधित, आत्मा के विषय में संबंधित तथ वेदांत से संबंधित मंत्रों का धार्मिक मनुष्य को हमेशा जाप करते रहना चाहिए।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-वेदों का विषय बहुत व्यापक है। यह किसी एक काल में नहीं लिखे गये और न ही उनका कोई एक रचनाकार है। वेदों में उस हर कथन को स्थान दिया गया है जो विद्वानों द्वारा व्यक्त किया गया है। अतः अनेक जगह विरोधाभास है। इसके अलावा विभिन्न विद्वानों द्वारा अपनी तात्कालिक मनस्थिति क अनुसार प्रस्तुत विचारों के कारण वर्तमान समय में वह अप्रासंगिक भी दिखार्इ्र देते हैं। एक तरफ वेदों में दूसरों से कर्ज लेने का विरोध किया गया है तो वहीं चार्वाक ऋषि द्वारा कर्ज लेकर घी पियो जैसा संदेश भी दिखाई देता है-यह अलग बात है कि कुछ लोग उसका मजाक उड़ाते हैं पर उसका रहस्य कम लोग ं ही समझ पाये।
कहा जाता है कि वेदों में अस्सी फीसदी श्लोक सकाम भक्ति (अर्थात स्वर्ग दिलाने का लाभ)तथा बीस प्रतिशत मोक्ष (निष्काम भक्ति) से संबंधित हैं। श्रीमद्भागवत गीता में भगवान श्रीकृष्ण स्वर्ग से प्रीति रखने वाले वेदवाक्यों का उल्लंघन करने का संदेश देते हैं। समाज ने जिस तरह श्रीमद्भागवत गीता को स्वीकार किया उससे केवल बीस फीसदी वेदवाक्य ही उपयुक्त रह जाते हैं। उसके अलावा भी दैहिक जीवन सुविधा से गुजारने के लिये उसमें अनेक मंत्र है जिनके जाप से इस भौतिक संसार में लाभ होता है। सबसे बड़ी बात यह है कि श्रीमद्भागवत ने सभी जाति, वर्ण, तथा स्त्री पुरुष में भेद से दूर रहने का संदेश दिया है इसलिये जाति, वर्ण तथा स्त्रियों के विषय में जो विरोधाभासी कथन है उनका महत्व अब नहीं रह गया है। भारतीय अध्यात्म दर्शन के विरोधी अभी भी उन संदेशों को गा रहे हैं जबकि श्रीमद्भागवत गीता ने उनके उल्लंधन करने का आदेश दिया गया है और समाज भी ऐसे विरोधाभासी संदेशों से दूर हो गया है। अतः आलोचकों की परवाह न करते हुए अपने जीवन के लिये उपयुक्त वेदमंत्रों का जाप करते रहना चाहिये जिनसे मन को शांति के साथ ही इच्छित फल भी प्राप्त होता है।
संकलक,लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://anant-shabd.blogspot.com
------------------------

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

Sunday, April 18, 2010

संत कबीर वाणी-खोटी हाट में गांठ का हीरा न खोलें (sant kabir vani-heera aur hat)

हीरा परखै जौहरी, शब्दहि परखै साध।
कबीर परखै साधु को, ताका मता अगाध।।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि हीरे की परख जौहरी करता है तो शब्द की परख साधु ही कर सकता है। जो साधु को परख लेता है उसका मत अगाध हो हो जाता है।
हीरा तहां न खोलिए, जहं खोटी है हाट।
कसि करि बांधो गांठरी, उठि करि चलो वाट।
संत शिरोमणि कबीर दास जी के मतानुसार हीरा वहां न खोलिये जहां दुष्ट लोगों का वास हो। वहां तो अपनी गांठ अधिक कस कर बांध लो और वह स्थान ही त्याग दो।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-यहां कबीर दास जी अपनी बात व्यंजना विधा में कह रहे हैं-भारतीय अध्यात्म ग्रंथों की यह खूबी रही है कि उसमें व्यंजना विधा में बहुत कुछ लिखा गया है।
सामान्य अर्थ तो इसका यह है कि आपके पास अगर धन या अन्य कीमती सामान है तो उसे वहां कतई न दिखाओ जहां दुष्ट या बेईमान लोगों की उपस्थिति का संदेह हो। दूसरा यह कि आप अपने ज्ञान और भक्ति की चर्चा वहां न करें जहां केवल सांसरिक विषयों की चर्चा हो रही हो। इसके अलावा उन लोगों से अपनी भक्ति के बारे में न बतायें जो केवल निंदात्मक वचन बोलते हैं या दूसरों में दोष देखते हैं।
आजकल तो यह देखा जा रहा है कि अनेक कथित शिक्षित लोग अपने आपको आधुनिक ज्ञानी साबित करने के लिये भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान का मजाक उड़ाते हैं। आप उनको कितना भी समझायें वह समझेंगे नहीं। अतः ऐसे लोगों के सामने जाकर अपने ज्ञान या भक्ति की चर्चा करना सिवाय समय नष्ट करने के अलावा कुछ नहीं है। ऐसे लोगों से किसी भी प्रकार की चर्चा अपने मन तथा विचारों में तनाव पैदा कर सकती है। अतः सत्संगी लोगों के साथ ही विचार विमर्श करना चाहिए।
-------------
संकलक,लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://anant-shabd.blogspot.com
------------------------

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

Saturday, April 17, 2010

मनुस्मृति-तस्करों और करचोरों को कठोर दंड दिया जाये (manusmriti-taskar air karchoron ko dand)

राज्ञः प्रख्यातभाण्डानि प्रतिधिद्धानि यानि च।
तानि निर्हरतो लोभार्त्स्वहारं हरेन्नृपः।।
हिन्दी में भावार्थ-
अगर राज्य का कोई बेईमान व्यावसायी राजा के निजी पात्रों व विक्रय के लिये प्रतिबंधित पात्रों को लोभवश दूसरे स्थान पर जाकर व्यापार करता है तो उसकी सारी संपत्ति अपने नियंत्रण में कर लेना चाहिए।
शुल्कस्थानं परिहन्नकाले क्रयविक्रयी।
मिथ्यावादी संस्थानदाष्योऽष्टगुणमत्ंययम्।
हिन्दी में भावार्थ-
यदि कोई व्यवसायी या व्यक्ति कर न देकर अपना धना बचाता है, छिपकर चोरी की वस्तुओं को खरीदता और बेचता है, मोल भाव करता है एवं माप तौल में दुष्टता दिखाता है तो उस पर बचाये गये धन का आठ गुना दंड देना चाहिये।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-यह देखकर आश्चर्य होता है कि भारत के प्राचीन ग्रंथों का जमकर विरोध होता है। देश में जिस तरह व्यवसाय और अपराध का घालमेल हो गया है उसे देखकर तो ऐसा लगता है जैसे कि तस्करी, करचोरी तथा अन्य गंदे धंधे करने वाले लोग अपने ही चेले चपाटों से इन ग्रंथों विरोध कराते हैं क्योंकि उनमें अपराध के लिये कड़े दंड का प्रावधान है। राज्य द्वारा प्रतिबंधित वस्तुओं का व्यापार तथा कर चोरी करने वालों के लिये यह दंड डराने का काम करते हैं। जिस तरह आजादी के बाद देश में अपराधिक व्यापार बढ़ा है और गंदे धंधों में पैसा अधिक आने लगा है उसे देखकर लगता है कि जैसे धनवानों और बुद्धिमान लोगों का एक गठजोड़ बन गया है जो आधुनिक सभ्यता के नाम पर मानवीय दंडों की अपने ढंग से व्याख्या करता है।
तस्करी, जुआ, सट्टा तथा अवैध शराब के कारोबार करने वालों के पास जमकर धन आता है। इसके अलावा करचोरों के लिये तो पूरा विश्व स्वर्ग हो गया है। उदारीकरण के नाम पर एक देश से दूसरे देश में धन लगता है जिनके बारे आर्थिक विशेषज्ञ यह संदेह करते हैं कि वह अपराध से ही अर्जित है। विदेशी धन का अर्जन की स्त्रोत कोई नहीं पूछता और समझदार व्यवसायी अपने देश में विनिवेश करता नहीं है। आधुनिक सभ्यता में अवैध व्यापार तथा धन की प्रधानता हो गयी है इसका कारण यही है कि मानवता के नाम पर अनेक अपराधों को हल्का मान लिया गया है तो समाज सेवा और धर्म के नाम पर छूट भी दी जाने लगी है। जिनके पास धन है उनके पास बुद्धिजीवी चाटुकारों की सेना भी है जो भारतीय धर्म ग्रंथों में वर्णित कठोर दंडों से भयभीत अपने स्वामियों को खुश करने के लिये उसके कुछ ऐसे श्लोकों और दोहों का विरोधी करती है जो समय के अनुसार अप्रासंगिक हो गये हैं और समाज में उनकी चर्चा भी कोई नहीं करता।
मनुस्मृति का विरोध तो जमकर होता है। जैसे जैसे समाज में अवैध धनिकों की संख्या बढ़ रही है वैसे वैसे ही भारत के वेदों के साथ ही मनुस्मृति का विरोध बढ़ रहा है। स्पष्टतः यह ऐसे धनिकों के बुद्धिजीवियों द्वारा प्रायोजित है जो तस्करी, करचोरी, तथा सट्टा जुआ तथा अन्य कारोबार से जमकर धन कमा रहे हैं। ऐसे में स्वतंत्र और मौलिक बुद्धिजीवियों का यह दायित्व बनता है कि वह अपने प्राचीन धर्म ग्रंथों के अप्रासंगिक विषयों को छोड़कर वर्तमान में भी महत्व रखने वाले तथ्यों को मानस पटल पर स्थापित करने का प्रयास करें। यह जरूरी नहीं कि मनुस्मृति या वेदों का विरोध करने वाले सभी प्रायोजत हों पर इतना तय है कि उनमें ऐसे कुछ लोग सक्रिय हो सकते हैं जो जाने अनजाने उनका हित साधते हों।
--------------------------
संकलक,लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://anant-shabd.blogspot.com
------------------------

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

Friday, April 16, 2010

मनुस्मृति-जुआ और सट्टा राष्ट्र में डकैती के समान (juaa aur satta desh ke liye bura-manu smruti)

प्रकाशमेतत्तास्कर्य यद्देवनसुराहृयौ।
तयोर्नित्यं प्रतीवाते नृपतिर्यत्नवान्भवेत्।।
हिन्दी में भावार्थ-
द्युत और समाहृय (जुआ और सट्टा)दिनदहाड़े डकैती के समान माने जाने चाहिए। यह देवता और असुर दोनों का विनाश कर देते हैं। अतः राज्य को इन पर रोक लगाने का प्रयास करना चाहिए।
एते राष्ट्रे वर्तमाना राज्ञः प्रच्छन्नतस्कराः।
विकर्म क्रियवानित्य वाधन्ते भद्रिकाः प्रजाः।
हिन्दी में भावार्थ-
जुआ तथा सट्टे में लोग राज्य के लिये एक तरह से प्रच्छन्न डाकू की तरह होते हैं। इससे खिलाड़ियों में शत्रुता बढ़ती है। अतः विवेकवान लोगो को ऐसे खेलों से दूर रहना चाहिए जिसमे जुआ या सट्टा खेला जाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-पश्चिम की आधुनिक सभ्यता को शायद यहां लाया ही इसलिये आ गया है कि यहां की प्राचीन संस्कृति, संस्कार तथा राजकीय नीति को विलोपित कर असुरों का राज्य कायम किया जाये। पश्चिम के अनेक देशों में जुआ और सट्टा वैध माना जाता है। इतना ही नहीं अनेक शहर तो अपने जुआघरों के कारण ही विश्व में लोकप्रिय हैं। इससे पूंजीपति वर्ग आसानी से पैसा कमाता है। यही कारण है कि धीरे धीरे भारत के प्राचीन ग्रंथों के संदेशों को अप्रासंगिक कहकर उनको आम शिक्षा से बाहर कर दिया गया। विदेशों की विचारधारायें यह लायी गयी जो कि मनुष्य में आत्म नियंत्रण पैदा करने की बजाय उसे डंडे के जोर पर नियंत्रित करने की प्रवर्तक हैं। राज्य के लिये वैचारिक स्वरूप कैसा भी हो पर उसमें ईमानदारी का कोई स्थान नहीं रह गया है। ऐसा लगता है कि विदेशी आक्रांता यहां पहले चरित्र को तहस नहस कर यहां के लोगों का आर्थिक दोहन करने के लिये ऐसे विचारक लाये जो आम आदमी को केवल हाथ उठाकर भगवान की तरफ ताकने के लिये प्रेरित करे रहे और समाज सुधार और कल्याण का जिम्मा राज्य पर छोड़ दिया। कहने को तो कहते हैं कि मुगल और अंग्रेज यहां पर आधुनिक सभ्यता लाये पर सच यह है कि इनके आने के बाद इस देश में शोषण, जुआ तथा हिंसा की मनोवृत्ति बढ़ी है क्योंकि उसके बाद ही भारत के प्राचीन ग्रंथों से यहां के लोगों के विरक्त करने की योजनायें बनीं
आजकल तो हालत यह है कि अनेक खेलों में सट्टे का बोलाबाला हो गया है। टेनिस, फुटबाल, कार रेस, घुड़दौड़, कुश्ती तथा क्रिकेट में अनेक बार सट्टे की बात सुनाई देती है। अनेक विदेशी खिलाड़ी तो स्वयं ही सट्टा चलाने वाली कंपनियों से जुड़े हैं। हैरानी की बात यह है कि भारत में उनकी पैठ हो गयी है। जुआ और सटटे के लिये मनुस्मृति में कठोर प्रावधान है और शायद इसलिये ही इसके कुछ विवादास्पद श्लोक(कुछ लोग मानते हैं कि वह मनु द्वारा रचित नहीं है) रटकर सुनाये जाते हैं कि उसमें महिलाओं, दलितों तथा अन्य कमजोर वर्गों के लिये अपमान भरा पड़ा है ताकि लोग इसे पढ़कर यह न समझें कि जुआ और सट्टा कितने बड़े अपराध है। आधुनिक शिक्षा के बाद जिस तरह भारत में अपराध बढ़े हैं उससे तो यही लगता है कि उसको जारी रखने के लिये वह वर्ग प्रयत्नशील है जो बुरे धंधों में लिप्त रहकर आसानी से पैसा कमाना चाहता है। सट्टा और जुआ को डकैती जैसा जुर्म माना गया है पर पाश्चात्य सभ्यता को अंगीकार कर चुका हमारा समाज उसे एक फैशन मानकर उसके दुष्परिणामों से अनभिज्ञ हो गया है।
--------------
संकलक,लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://anant-shabd.blogspot.com
------------------------

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

Thursday, April 15, 2010

मनुस्मृति-गायत्री मंत्र का जाप सुबह शाम करना चाहिए (manu smirit-gyatri mantra ka jaap)

पूर्वी संध्या जपंस्तिष्ठनैशमेनो व्यपोहति।
पश्चिमां तु समासीनो मलं हन्ति दिवाकृतम्।
हिन्दी में भावार्थ-
प्रातःबेला में गायत्री मंत्र का जाप करने से रात्रिभर के तथा सायंकाल में जाप करने से दिन भर के पाप नष्ट होते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-गायत्री मंत्र की हमारे भारतीय अध्यात्मिक दर्शन में बहुत महिमा है। यह गायत्री मंत्र इस प्रकार है
ॐ  भूर्भवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गोदेवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
इसका हिन्दी में अनुवाद है कि ‘हम उस देवस्वरूप, दुःखनाशक तथा सुखस्वरूप परमात्मा को अपने हृदय में धारण करें जो हमारा मार्ग प्रशस्त करें।’
इस श्लोक को संस्कृत में कहने के बाद हिन्दी में भी कहा जा सकता है। श्रीमद्भागवत गीता में गायत्री मंत्र की को सर्वोत्तम बताया गया है। इसके अलावा शब्दों में ॐ (ओम) शब्द को सबसे पवित्र बताया गया है। अधिकतर लोग मंत्रों का महत्व नहीं समझते। अनेक लोग मंत्रों के जाप को जादू टाईप की सिद्धियों से जोड़ते हैं। यह उनका एक वहम है। ओम शब्द या गायत्री मंत्र के जाप से मनुष्य के मन में शुद्धि होती है तथा जीवन में काम करने के प्रति आत्मविश्वास बढ़ता है। जब मन शुद्ध होता है तब बौद्धिब तीक्ष्णता तथा आत्मबल की वृद्धि होने पर सारे काम स्वयं ही सिद्ध होते हैं और इसमें जादू जैसा कुछ नहीं है। मुख्य बात संकल्प करने की है। जैसा संकल्प होता है वैसे ही मनुष्य की जिंदगी होती जाती है।
इसलिये ओम शब्द तथा गायत्री मंत्र का जाप सुबह शाम अवश्य करना चाहिये। मनुष्य न भी चाहे तो पंचभूत के वशीभूत उसकी देह से कुछ आप अनजाने हो ही जाते हैं। जिनका निवारण इन मंत्रों से हो जाता है।
--------------------
संकलक,लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://anant-shabd.blogspot.com
------------------------

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

Wednesday, April 14, 2010

मनुस्मृति-धर्म की हत्या करने वाले का नाश होता है

धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः।
तस्माद्धर्मो न हन्तव्यो मा नोधर्मोहतोऽवधीत्।।
हिन्दी में भावार्थ-
जो मनुष्य धर्म की हत्या करता है, धर्म उसका नाश करता है। इसलिये धर्म की रक्षा करना चाहिए ताकि हमारी रक्षा हो सके।
यद्राष्टं शूद्रभूयिष्ठं नास्तिकाक्रान्मद्धजम्।
विनश्यत्याशु तत्कृत्प्नं दुर्भिक्षव्याधिपीडितम्।।
हिन्दी में भावार्थ-
जिस राज्य में आस्तिक विद्वानों के स्थान पर निम्न कोटि तथा नास्तिक लोगों की अधिकता के साथ उनका प्रभाव होता है वह शीघ्र ही भुखमरी तथा रोग आदि जैसी प्राकृतिक विपत्तियों का शिकार हो जाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- धर्म की नाम से कोई पहचान नहीं है, बल्कि उसका आधार कर्म समूह है। अपना कर्म करते हुए परमात्मा की भक्ति निष्काम भाव से करना, गरीब, मजदूर तथा लाचार के प्रति सम्मान का भाव रखना, किसी भी काम को छोटा नहीं समझना, दूसरों पर निष्प्रयोजन दया करना तथा अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण करते हुए जीवन व्यतीत करना वह लक्षण है जो धर्म के कर्मसमूह का मुख्य भाग है।
जो मनुष्य लोभ, लालच, क्रोध तथा अहंकार वश दूसरे व्यक्ति को कष्ट पहुंचाता है उसे अंततः उसका दुष्परिणाम भोगना पड़ता है। कहने का अभिप्राय यह है कि अगर हम सत्कर्म करते हुए अपना धर्म निभायेंगे तो वह हमारी रक्षा करेगा। इसके विपरीत अधर्म का मार्ग पकड़ेंगे तो वह तबाही की तरफ ले जायेगा। कहा जाता है कि ‘जैसी करनी वैसी भरनी’ यह वाक्य धर्म का मूल मंत्र है तो अधर्म का भी। अगर सत्कर्म करेंगे तो वह धर्म होगा जिसका परिणाम अच्छा होगा और अगर दुष्कर्म करेंगे तो वह अधम्र है जिसकी सजा भी जरूर मिलेगी।
जिस समाज या राष्ट्र में धार्मिक विद्वानों को संरक्षण नहीं मिलता वहां लालची, लोभी तथा अहंकारी लोग अपना नियंत्रण कायम कर लेते हैं। नास्तिक लोग अपनी ताकत वहां दिखाते हैं। एक तरफ नास्तिक दुनियां में भगवान के न होने की बात करते हैं तो दूसरी तरफ वह कथित रूप से गरीब तथा बेबस लोगों के हित की बात करते हैं। उनका लक्ष्य इस आड़ में अपना प्रभाव करने के अलावा अन्य कुछ नहीं होता। जब वह भगवान को नहीं मानते तो फिर किसको खुश करने के लिये किसी भी प्रकार का सत्कर्म करते हैं। तय बात है कि उनका लक्ष्य केवल शक्ति प्राप्त कर उसका दुरुपयोग करना ही होता है। जहां धर्मज्ञ तथा सत्पुरुषों को हतोत्साहित कर अच्छे काम करने से उनको उन्मुख किया जाता है वहां नास्तिक लोग समाज हित का दिखावा करते हुए नियंत्रण कायम कर लेते हैं और फिर उनसे जीतना कठिन हो जाता है।
------------
संकलक,लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://anant-shabd.blogspot.com
------------------------

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

Monday, April 12, 2010

भर्तृहरि शतक-जब तक काम का हमला न हो तभी तक रहती है सज्जनता (sex and religion-hindi sandesh)

संसार! तव पर्यन्तपदवी न दवीयसी।
अन्तरा दुस्तराः न स्युर्यदि ते मदिरेक्षणा।।
हिन्दी में भावार्थ-
यहां भर्तृहरि महाराज कहते हैं कि ‘ओ संसार, तुझे पार पाना कोई कठिन काम नहीं था अगर मदिरा से भरी आखों में न देखा होता।
तावन्महत्तवं पाण्डितयं केलीनत्वं विवेकता।
यावज्जवलति नांगेषु हतः पंचेषु पावकः।।
हिन्दी में भावार्थ-
किसी भी मनुष्य में सज्जनता, कुलीनता, तथा विवेक का भाव तभी तक रहता है जब उसके हृदय में कामदेव की ज्वाला नहीं धधकी होती। कामदेव का हमला होने पर पर सारे अच्छे भाव नष्ट हो जाते है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-श्रीमद्भागवत गीता में लिखा हुआ है कि ‘गुण ही गुणों में बरतते है।’ इस सूत्र में बहुत बड़ा विज्ञान दर्शन अंतर्निहित हैं। इस संसार में जितने भी देहधारी जीव हैं सभी को रोटी और काम की भूख का भाव घेरे रहता है अलबत्ता पशु पक्षी कभी इसे छिपाते नहीं पर मनुष्यों में कुछ लोग अपने को सचरित्र दिखने के लिये अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण का झूठा दावा करते है। सच तो यह है कि पंचतत्वों से बनी इस देह मे तन और मन दोनों प्रकार की भूख लगती है। भूख चाहे रोटी की हो या कामवासना की चरम पर आने पर मनुष्य की बुद्धि और विवेक को नष्ट कर देती है। मनुष्य चाहे या नहीं उसे अपनी भूख को शांत रखने का प्रयास करना पड़ता है। जो लोग दिखावा नहंी करते वह तो सामान्य रूप से रहते हैं पर जिनको इंद्रिय विेजेता दिखना है वह ढेर सार नाटकबाजी करते हैं। देखा यह गया है कि ऐसे ही नाटकबाज धर्म के व्यापार में अधिक लिप्त हैं और उन पर ही यौन शोषण के आरोप लगते हैं क्योंकि वह स्वयं को सिद्ध दिखाने के लिये छिपकर अपनी भूख मिटाने का प्रयास करते हैं और अंतत: उनका रास्ता अपराध की ओर जाता है।
संकलक,लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://anant-shabd.blogspot.com
------------------------

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

Saturday, April 10, 2010

मनुस्मृति-क्रोध आने पर भी डंडा न उठायें (manu smriti-krodh par kabu rakhen)

परस्यं दण्डं नोद्यच्छेत्क्रुद्धोनैनं।
अन्यत्र पुत्राच्छिष्याद्वा शिष्टयर्थ ताडयेत्तु तौ।।
हिन्दी में भावार्थ-
कभी क्रोध भी आये तब भी किसी अन्य मनुष्य को मारने के लिये डंडा नहीं उठाना चाहिये। मनुष्य केवल अपने पुत्र या शिष्य को ही पीटने का हक रखता है।
ताडयित्त्वा तृपोनापि संरम्भान्मतिपूर्वकम्।
एकविंशतिमाजातोः पापयेनिषु जायसे।।
हिन्दी में भावार्थ-
अपनी जाग्रतावस्था में जो व्यक्ति अपने गुरु या आचार्य को तिनका भी मारता है तो वह इक्कीस बार पाप योनियों में जन्म लेता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-क्रोध मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है। अनेक बार यह क्रोध इतना बढ़ जाता है कि मनुष्य स्वयं ही अपने अपराधी को दंड देने के लिये तैयार हो जाता है। यह अपराध है। किसी भी मनुष्य को दंड देने का अधिकार केवल राज्य के पास है। मनुष्य केवल अपने शिष्य या पुत्र को पीट सकता है। अन्य व्यक्ति को सजा दिलाने के लिये उसे राज्य या अदालत की शरण लेना चाहिए। दूसरी बात यह है कि किसी भी व्यक्ति से वाद विवाद होने पर अपने पास कोई अस्त्र या शस्त्र नहीं रखना चाहिये क्योंकि जब क्रोध आता है तब उसकी उपस्थिति के कारण वह अपना विवेक खो बैठता है। मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि जब आदमी के पास अन्य पर प्रहार करने वाली कोई वस्तु होती है तो वह क्रोध आने पर उसका उपयोग कर ही बैठता है। अगर वह अपने पास वैसी वस्तु ही न रखे तो वह स्वयं ही एक ऐसे अपराध से बच जाता है जिसके करने पर बाद में पछतावा होता है।
अगर हम अपने आसपास हो रही हिंसक घटनाओं को देखें तो वह होती इसी कारण है क्योंकि मनुष्यों के पास हथियार होता है और उनका उपयोग अनावश्यक रूप से हो जाता है जबकि मामला शांति से भी सुलझ सकता था। अतः दूसरे व्यक्ति पर क्रोध होने पर अपने पास डंडा या हथियार होने पर भी उसके उपयोग से बचना चाहिए।
संकलक,लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://anant-shabd.blogspot.com
------------------------

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

Friday, April 9, 2010

मनुस्मृति-वेदों की निंदा न करें (ved ninda n karen-manu smruti in hindi)

नास्तिक्यं वेदनिंदा च देवतानां च कुत्सनम्।
द्वेषं दम्भं च मानं च क्रोधं तैक्ष्ण्यं च वर्जयेत्।
हिन्दी में भावार्थ-
भगवान के अस्तित्व पर अविश्वास, वेदों की निंदा, देवताओं का अपमान, अन्य लोगों से शत्रुता तथा विरोध रखना, पाखंड, अहंकार, क्रोध तथा स्वभाव में उग्रता होना ऐसे दोष हैं जिनका त्याग करना ही श्रेयस्कर है।
न पाणिपादचपलो नेत्रचपलोऽनृजुः।
न स्वाद्वाक्वंपलश्चैव न परद्रोहकर्मधीः।।
हिन्दी में भावार्थ-
अपने शरीर और आंखों को अकारण नहीं मटकाना चाहिये। स्वभाव से कुटिल तथा दूसरों की निंदा करने वाला भी नहीं बनना चाहिये।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हमारे देश में कुछ लोगों को केवल इसलिये ही प्रसिद्धि मिली है क्योंकि वह वेदों की निंदा करते हैं। इससे भी अधिक यह बात कि करते हो वह सभी धाार्मिक विचाराधाराओं के सम्मान की बात पर भारतीय अध्यात्मिक ग्रंथों-खासतौर से वेद-की आलोचना करने के अलावा उनको कोई काम नहीं है। विदेशों में पनपी धार्मिक विचाराधाराओं की आलोचना में उनको घबड़ाहट होती है और तब वह सभी धार्मिक विचाराधाराओं के सम्मान का नारा लगाकर बचकर निकल लेते हैं। यह हमारे समाज की कमजोरी है कि यहां निंदा और स्तुति में ही लोग अपना समय खराब करते हैं। एक तो वह है जो स्वयं करते हैं दूसरे वह लोग हैं जो स्वयं ही इन कार्यों में लिप्त हो जाते हैं।
मुख्य बात यह है कि आप किसी भी धार्मिक विचारा धारा को माने या सभी को अस्वीकार कर दें पर आपको किसी के ग्रंथ पर टीका टिप्पणियां नहीं  करना चाहिए। उसी तरह किसी के इष्ट का मजाक उड़ाना भी भारी पाप है। आप भगवान के किसी स्वरूप का न माने पर अपने आपको नास्तिक बताकर अपनी श्रेष्ठता न बघारें-यह पाखंड, अहंकार और मक्कारी की श्रेणी में आता है। संभव है कि किसी के सामने उसके इष्ट की आप निंदा करें तो उसे क्रोध में आकर अपमानित करे। तब आप भी क्रोध में आयेंगे।
सच बात तो यह है कि नास्तिकता तथा आस्तिकता का विचार अपने मन में रखने लायक है। दोनों ही स्थितियों में जब आप उसे बाहर व्यक्त करते हैं तो इसका आशय यह है कि आप अहंकार तथा पाखंड का शिकार हो रहे हैं। ऐसी बुराई को त्याग करना ही श्रेयस्कर है ताकि समाज में वैमनस्य न फैले। कहा भी जाता है कि धर्म एकदम निजी विषय है इसलिये उसके बारे में जो विचार है उनकी अभिव्यक्ति करना ढोंग करने जैसा ही है।
संकलक,लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://anant-shabd.blogspot.com
------------------------

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

Wednesday, April 7, 2010

श्रीगुरु ग्रंथ साहिब-दहेज में केवल हरि का नाम दान दें (dahej men hari ka nam-shriguru granth sahib)

‘हरि प्रभ मेरे बाबुला, हरि देवहु दान में दाजो।’
हिन्दी में भावार्थ-
श्री गुरुग्रंथ साहिब में दहेज प्रथा का आलोचना करते हुए कहा गया है कि वह पुत्रियां प्रशंसनीय हैं जो दहेज में अपने पिता से हरि के नाम का दान मांगती हैं।
दहेज प्रथा पर ही प्रहार करते हुए यह भी कहा गया है कि
होर मनमुख दाज जि रखि दिखलाहि,सु कूड़ि अहंकार कच पाजो
इसका आशय यह है कि ऐसा दहेज दिया जाना चाहिए जिससे मन का सुख मिले और जो सभी को दिखलाया जा सके। ऐसा दहेज देने से क्या लाभ जिससे अहंकार और आडम्बर ही दिखाई दे।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-दहेज हमारे समाज की सबसे बड़ी बुराई है। चाहे कोई भी समाज हो वह इस प्रथा से मुक्त नहीं है। अक्सर हम दावा करते हैं कि हमारे यहां सभी धर्मों का सम्मान होता है और हमारे देश के लोगों का यह गुण है कि वह विचारधारा को अपने यहां समाहित कर लेते हैं। इस बात पर केवल इसलिये ही यकीन किया जाता है क्योंकि यह लड़की वालों से दहेज वसूलने की प्रथा उन धर्म के लोगों में भी बनी रहती है जो विदेश में निर्मित हुए और दहेज लेने देने की बात उनकी रीति का हिस्सा नहीं है। कहने का आशय यह है कि दहेज लेने और देने को हम यह मानते हैं कि यह ऐसे संस्कार हैं जो मिटने नहीं चाहे कोई भी धर्म हो? समाज कथित रूप से इसी पर इतराता है।
इस प्रथा के दुष्परिणामों पर बहुत कम लोग विचार करते हैं। इतना ही नहीं आधुनिक अर्थशास्त्र की भी इस पर नज़र नहीं है क्योंकि यह दहेज प्रथा हमारे यहां भ्रष्टाचार और बेईमानी का कारण है और इस तथ्य पर कोई भी नहीं देख पाता। अधिकतर लोग अपनी बेटियों की शादी अच्छे घर में करने के लिये ढेर सारा दहेज देते हैं इसलिये उसके संग्रह की चिंता उनको नैतिकता और ईमानदारी के पथ से विचलित कर देती है। केवल दहेज देने की चिंता ही नहीं लेने की चिंता में भी आदमी अपने यहां धन संग्रह करता है ताकि उसकी धन संपदा देखकर बेटे की शादी में अच्छा दहेज मिले। यह दहेज प्रथा हमारी अध्यात्मिक विरासत की सबसे बड़ी शत्रु हैं और इससे बचना चाहिये। यह अलग बात है कि अध्यात्मिक, धर्म और समाज सेवा के शिखर पुरुष ही अपने बेटे बेटियों की शादी कर समाज को चिढ़ाते हैं।
---------
संकलक,लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://anant-shabd.blogspot.com
------------------------

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

Sunday, April 4, 2010

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-शत्रुओं पर दंड का प्रयोग अवश्य करें (kautilya darshan-shatru aur dand)

उत्साहदेशकालेस्तु संयुक्तः सुसहायवान्।
युधिष्ठिर इवात्यर्थ दण्डेनास्तन्रयेदरन्।।
हिन्दी में भावार्थ-
अपने अंदर उत्साह का निर्माण तथा देश काल का ज्ञान प्राप्त करते हुए बलवान युधिष्ठर के समान शत्रु को परास्त करें।
आत्मनः शक्तिमुदीक्ष्य दण्दमभ्यधिकं नयेत्।
एकाकी सत्वसंपन्नो रामः क्षत्रं पुराऽवधीत्।।
हिन्दी में भावार्थ-
अपनी शक्ति को देखते हुए दण्ड का प्रयोग अवश्य करना चाहिये। शक्ति संपन्न होने पर ही अकेले परशुराम ने इक्कीस बार क्षत्रियों को नष्ट किया था।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हर सामान्य मनुष्य शांति से जीवन बिताना चाहता है पर मनुष्यों मे भी कुछ तामस प्रवृत्ति के होते हैं जिनका दूसरे व्यक्ति को परेशान करने में मजा आता है। ऐसे दुष्टों का सामना जीवन में करना ही पड़ता है। आजकल पूरे विश्व में आतंकवाद और अन्य अपराध इसलिये फैल रहे हैं क्योंकि राजकाज से जुड़े व्यक्तियों में उनका सामना करने की इच्छा शक्ति नहीं है। अधिकतर देशों में आधुनिक लोकतंत्र है। राजशाही में कहा जाता था कि ‘यथा राजा तथा प्रजा’ पर आधुनिक लोकतंत्र में तो यह कहा जाना चाहिये कि ‘जैसी प्रजा वैसा ही राज्य’। एक तरफ हम कहते हैं कि भारत में अंग्रेजों की शिक्षा ऐसी रही जिससे यहां का आदमी कायर हो गया तो दूसरी तरफ हम देखते हैं कि इसी शिक्षा पद्धति को अपनाने वाले ब्रिटेन और अमेरिका में भी कोई अधिक अच्छी स्थिति नहीं है। सच बात तो यह है कि इस विश्व में खतरा दुष्टों की हिंसा से अधिक सज्जनों की कायरता के कारण बढ़ा है। लोग अपनी रक्षा के लिये न तो प्रारंभिक सतर्कता बरतते हैं और न ही चालाकी कर पाते हैं। दूसरी बात यह है कि दुष्टों के कमजोर होने के बावजूद उनके विरुद्ध कदम उठाने से घबड़ाते हैं।
यदि सभी यह चाहते हैं कि विश्व में शान्ति  का वर्चस्व रहे और लोग आजादी से सांस ले सकें तो दुष्टों का संहार तो करना ही पड़ेगा। उनके विरुद्ध कठोर कार्यवाही करना जरूरी है ताकि सज्जन लोगों में आत्म विश्वास आये। जो लोग राजकाज से जुड़े हैं उनको यह बात समझ लेना चाहिये कि दुष्ट व्यक्तियों या राष्ट्रों के विरुद्ध दंडात्मक कार्यवाही के बिना अपनी राज्य की प्रजा को सुखी नहीं रखा जा सकता और न ही उसका विश्वास मिल सकता है।
संकलक,लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://anant-shabd.blogspot.com
------------------------

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

Saturday, April 3, 2010

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-उपाय करने से सफलता मिलती है

सहस्त्रात्पृलुत्य दुष्टेभ्यो दुष्करं सम्पदर्ज्जनम्।
उपायेन पदं मूघर्िल् न्यस्यते मतहस्तिनाम्।।
हिन्दी में भावार्थ-
हजार दुष्टों पर आक्रमण कर भी संपत्ति प्राप्त करना कठिन है पर उपाय किया जाये तो मतवाले हाथी पर भी अपना पैर रखा जा सकता है।
वाळ्मानमयः खण्डं स्कन्धनैवापि कृन्तति।
तदल्पमपि धारावभ्दवतीप्सितसिद्धये।।
हिन्दी में भावार्थ-
कोई मनुष्य कंधे पर बोझा ले जाता है पर वह उसे नहीं काटता पर अगर वह धारवाले लोहे को छू भी ले तो खरोंच आ जाती है। इतना ही नहीं धारवाले से किसी की भी गर्दन काटी जा सकती है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या--जीवन संघर्ष में बहुत बार मनुष्य को अपने धीरज का परिचय देना होता है। किसी व्यक्ति से विवाद होने पर या कोई संकट सामने आने पर अपनी धीरज कभी नहीं खोना चाहिए। उतावले पन से अपना कार्य या अन्य के साथ व्यवहार करने पर हमेशा आशंका रहती है। बांहों की शक्ति की बजाय वैचारिक अभ्यास के आधार पर अपने कार्य का उपाय ढूंढना चाहिये। अगर सही ढंग से लादा जाये तो आदमी अपने कंधे पर पेड़ खींचकर ले जाता है पर अगर उसी पर बैठकर डालियां काटी जाये तो अपने गिरने का खतरा भी रहता है। किसी एक पेड़ की लकड़ी से इंसान को मारा भी जा सकता है पर जबकि किसी एक पूरे पेड़ को युक्ति पूर्वक घसीटा भी जा सकता है। कहने का अभिप्राय यह है कि किसी लक्ष्य या अभियान को पूर्ण करने के लिये आर्थिक, दैहिक तथा बौद्धिक शक्ति होेते हुए भी उसका योजना पूर्वक उपयोग करने पर ही सफलता मिल सकती है। जहां अतिआत्मविश्वास में सीधे अपना काम शुरु कर दिया वहां सफलता का दावा नहीं किया जा सकता। अतः अपने शिक्षा, व्यवसाय तथा रचनाकर्म के दौरान उत्तेजना अथवा जल्दबाजी से काम करने की बजाय योजना के साथ आगे बढ़ना चाहिए।
संकलक,लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://anant-shabd.blogspot.com
------------------------

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

Friday, April 2, 2010

चाणक्य नीति-विद्वान एकाग्रता से अपना काम स्वयं करते हैं (kam aur dhyan-chankya neeti)

इन्द्रियाणि च संयम्य बकवत् पण्डितो नरः
देशकालबलं ज्ञात्वा सर्वकायणि साधयेत्।।
हिन्दी में भावार्थ-
ज्ञानी मनुष्य को बगुले की तरह एकाग्रता के साथ अपने मन और इंद्रियों पर नियंत्रण करते हुए अपनी शक्ति के अनुसार ही अपना काम करना चाहिये।
प्रभूतं कार्यमल्पं वा यन्नरः कर्तुमिच्छति।
सर्वारम्भेण तत्कार्य सिंहादकं प्रचक्षते।।
हिन्दी में भावार्थ-
मनुष्य को चाहिये कि वह सिंह की तरह किसी कार्य को छोटा या बड़ा न मानकर अपनी पूरी शक्ति से अपना दायित्व संपन्न करे।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-वैसे तो किसी भी चालाक या धूर्त व्यक्ति को बगुला भगत कहकर उसका अपमान किया जाता है। बगुले को धूर्तता का प्रतीक भी माना जा सकता है, पर लक्ष्य की प्राप्ति के लिये उसकी एकाग्रता और धीरज का गुण मनुष्य को अपनाना चाहिये। समय बलवान है इसलिये हर मनुष्य को अपने संक्रमण काल में भी पथभ्रष्ट न होते हुए अपना धैर्य बनाये रखना चाहिये। लक्ष्य पवित्र हो और उस पर से अपनी दृष्टि तब तक न हटायें जब तक वह प्राप्त न हो जाये। आजकल संक्षिप्त मार्ग अपनाने की जो प्रवृत्ति निर्मित होती है वह आत्मघाती है और उससे कोई बड़ी सफलता नहीं मिल पाती।
उसी तरह किसी काम को छोटा या निम्न कोटि का नहीं समझना चाहिये। इतना ही नहीं किसी भी प्रकार के श्रम करने वाले व्यक्ति को भी छोटा नहीं मानना चाहिये। सिंह तो सिंह है पर वह हर काम स्वयं ही करता है। किसी का झूठा नहीं खाता-उसके बारे में कहा जाता है कि वह अपना शिकार कर ही भोजन खाता है। उसी तरह हर मनुष्य को चाहिये कि वह अपना काम स्वयं करे। सच बात तो यह है कि स्वयं काम करने से जीवन में आत्मविश्वास बढ़ता है। जो व्यक्ति श्रम से बचते हैं वह धीरे धीरे भय तथा कुंठा का शिकार हो जाते हैं।
----------
संकलक,लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://anant-shabd.blogspot.com
------------------------

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

Thursday, April 1, 2010

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-विष के प्रतिदिन दर्शन से मन कलुषित होता है (hindi adhyamik gyan sandesh-vish darshan)

चकोरस्य विरज्येत नयने विषदर्शनात्।
सुव्यक्तं माघति क्रोंचो प्रियते कोकिलः किल।
हिन्दी में भावार्थ-
विष को देखने मात्र से चकोर पक्षी की आंख लाल हो जाती है और कोकिल तो मृत्यु के गाल में ही समाज जाता है।
नित्यं जीवस्य च ग्लानिर्जायते विषदर्शनात्।
एषामन्यतमेनापि समश्नीयत्परीक्षितम्।
हिन्दी में भावार्थ-
प्रतिदिन विष को देखने से ही मन में ग्लानि हो जाती है इसलिये इनके सहयोग से भोजन की परीक्षा करें।
वर्तमानं संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-कौटिल्य का अर्थशास्त्र राजाओं के लिये लिखा गया है पर एक बात याद रखने लायक है कि हमारे प्राचीन ग्रंथों में व्यंजना विद्या में ही विषय प्रस्तुत किया जाता है जिससे हर वर्ग के मनुष्य के लिये उसका कोई न कोई अर्थ निकले। उनके राजा और प्रजा के लिये समान अर्थ हैं पर उनका भाव प्रथक हो सकता है। हर मनुष्य कहीं न कहीं राजा या प्रमुख पद पर प्रतिष्ठत होता है। आखिर परिवार भी तो राज्य की तरह चलते हैं। यहां कौटिल्य महाराज के विष को अन्य विषयों के साथ व्यापक रूप में लेना चाहिये।
यह विष खाने के साथ अन्य सांसरिक विषयों से संबंधित भी है। कुछ विषय विष प्रदान करते हैं-जैसे परनिंदा, ईर्ष्या तथा दूसरे का दुःख देकर मन में हंसना। कुछ ऐसे स्थान भी होते हैं जहां जाकर हमारा मन खराब होता है। उसी तरह कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जिनसे मिलने पर हमारे अंदर विकार पैदा होते हैं जिससे दुष्कर्म करने की प्रेरणा आती है। कहने का अभिप्राय यह है कि मन में विष पैदा करने वाले विषयों से संपर्क नहीं रखना चाहिये।
इसलिये समय समय पर आत्म मंथन अवश्य करते हुए यह देखना चाहिये कि कौनसे व्यक्ति, विषय या स्थान हमारी मनस्थिति को डांवाडोल करते हैं। जहां तक हो सके उनसे दूर रहें। प्रतिदिन उनसे संपर्क रखने से न केवल अपना मन कलुषित होता है जिससे जीवन में आचरण में कलुषिता आती है और जो अंततः कर्ता के लिये ही संकट का कारण बनती है। जहां मन में प्रसन्नता रूपी अमृत मिलता हो वहीं जाना चाहिये। जिससे हृदय में पवित्रता, निर्मलता तथा दृढ़ता का भाव बना रहे उन्हीं विषयों की संगति करना ही उचित है। जिनसे विष का अनुभव हो उनसे दूर रहना ही अच्छा है।
संकलक,लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://anant-shabd.blogspot.com
------------------------

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

Saturday, March 27, 2010

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-काम पर पड़ने पर दुर्जन की भी प्रशंसा करें (kautilya darshan in hindi)

कार्यस्य हि गरीबस्त्वात्रोचानामपि कालचित्।
सतोऽपि दोषान् गुणानप्यसतो वदेत्।।
हिन्दी में भावार्थ-
अपने कार्य के लिये आवश्यकता पड़ने पर समय को जानने वाला मनुष्य निम्न प्रवृत्ति के मनुष्य के अवगुणों को छिपाकर उसके असत् गुणों का वर्णन करे। चाहे भले ही उसमें अनेक दोष हों पर अपने स्वार्थ की वजह से केवल उसके गुणों का ही वर्णन करे।
प्रायो मित्राणि कुर्वीत सर्वावस्थानि भूपतिः।
बहुमित्रो हिं शक्तोति वशे स्यापयितः रिपून्।।
हिन्दी में भावार्थ-
प्रायः राजा लोग अपने लिये मित्र ही बनाते हैं। बहुत मित्रों वाला ही शत्रु को अपने वश में रख सकता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हर मनुष्य को अपने जीवन की रक्षा के लिये चतुर तो होना ही चाहिये। अधिकतर लोग होते भी हैं पर इसके बावजूद अनेक मनुष्यों में दूरदृष्टि का अभाव होता है। अपने तात्कालिक स्वार्थों की पूर्ति के लिये हर मनुष्य चतुराई दिखाता है पर दीर्घकालीन समय के लिये वही मनुष्य योजना बना सकता है जो ज्ञानी हो। सच्चा ज्ञानी वही है जो किसी की कभी निंदा नहीं करता बल्कि दूसरे के गुणों का ही वर्णन करता है। इसके उसे दो लाभ होते हैं एक तो वह अपने लिये मित्र अधिक बनाता है और दूसरा यह कि काम पड़ने पर उसका सभी लोग सहयोग करते हैं। कुछ लोग अहंकार वश अपनी ही हानि करते हैं। वह काम पड़ने पर भी किसी व्यक्ति की प्रशंसा नहीं करते उल्टे उसके दुुर्गुणों का बखान करते हैं इससे उनका बनता काम बिगड़ जाता है।
आदमी को ज्ञानी और परोपकारी होना चाहिये पर यह अपेक्षा अन्य लोगों से नहीं करना चाहिये। कोई दूसरा प्रशंसा न करे तब भी ज्ञानी उसका काम कर देते हैं पर अपना काम दूसरे में फंसे तो उसके दोषों की चर्चा न कर उसकी प्रशंसा कर अपना हित साधने का काम उनको भी करना चाहिये। इसमें कोई दोष नहीं है। इसे ज्ञान कहें या चतुराई यह एक अलग विचार का विषय है। हां, अपने अंदर यह गुण अवश्य रखना चाहिये कि कोई प्रशंसा भले ही न करे या अपने मुख से संकोच होने पर भी काम न कहे तब भी उसका हित बिना प्रयोजन के पूरा करना चाहिये। यह ज्ञानी मनुष्य की पहचान है। यही कारण है कि ज्ञानी लोग अधिक से अधिक मित्र बनाकर सुरक्षित हो जाते हैं।
संकलक,लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://anant-shabd.blogspot.com
------------------------

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

Friday, March 26, 2010

मनुस्मृति-अधर्म का प्रतिकार न करना भी अनुचित (manu smriti in hindi-Dharam & adharm)

यत्र धर्मेह्यहृधर्मेण सत्यं यत्राऽनृतेन च।
हन्यते प्रेक्षमाणानां हतास्तत्र सभासदः।।
हिन्दी में भावार्थ-
जहां असत्य सत्य को तथा अधर्म धर्म को दबाता है उस सभा में जाने पर सभासद भी नष्ट हो जाता है।
धर्मो विद्धस्त्वधर्मेण सभां यत्रोपतिष्ठते।
शल्यं चास्य न कृन्तन्ति विद्धास्तत्र सभासदः।।
हिन्दी में भावार्थ-
जिस सभा में धर्म को अधर्म दबाता है और अन्य लोग उसे नहीं रोकते तो अधर्म का पाप सभी सदासदों को लगता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-यहां सभा का आशय व्यापक करते हुए पूरे समाज को ही लेना चाहिये। हमारे देश में समस्या इस बात की नहीं है कि दुर्जन अधिक सक्रिय है बल्कि सज्जन लोग डरपोक हैं इसलिये ही इस देश में भ्रष्टाचार और दुराचार बढ़ रहा है। अंग्रेजी शिक्षा पद्धति का अध्ययन तथा ब्रिटिश शासन काल में बनाये गये अनेक नियमों का पालन करते हुए हमारा समाज अत्यंत डरपोक हो गया है। अधिकतर लोग यह सोचकर संतोष करते हैं कि हम स्वयं कोई बुरा काम नहीं कर रहे पर उन्हें यह सोचना चाहिये कि यही पर्याप्त नहीं है। अपने सामने कदाचार, दुराचार तथा भ्रष्टाचार होते देखकर उससे मुंह फेरना भी अपराध है। अगर हम ऐसा करते हैं तो वह भी पाप कर्म जैसा है।
देश में व्याप्त बुरी हालत को देखते हुए अनेक लोग बहसें करते हैं पर निष्कर्ष कोई नहीं निकलता। मुख्य बात यह है कि जहां सतर्कता, दृढ़ता और साहस की आवश्यकता है वहां निष्कियता का वातावरण निर्मित कर दिया गया है। सभ्रांत और बुद्धिजीवी देश की हालत पर शाब्दिक शोक ऐसे जताते हैं जैसे कि उनसे कोई उनका प्रत्यक्ष वास्ता ही नहीं है। यह ठीक है कि सारा देश भ्रष्ट, कदाचारी और दुराचारी नहीं है पर यह भी एक तथ्य है कि लोग अपनी तरफ से समस्याओं के प्रतिकार के लिये कोई सक्रिय भूमिका नहीं निभा रहे जिसकी सबसे अधिक आवश्यकता है।
संकलक,लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://anant-shabd.blogspot.com
------------------------

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

Thursday, March 25, 2010

भर्तृहरि नीति शतक-जीवन में आत्मबल को होना आवश्यक (jivan aur atmabal-hindu dharma sandesh)

नाऽस्ति मेघसमं तोयं नाऽस्ति चात्मसमं बलम्।
नाऽस्ति चक्षुःसमं तेजो नाऽस्ति धन्यसमं प्रियम।।
हिन्दी में भावार्थ-
बादलों के जल के अलावा कोई दूसरा जल नहीं है। उसी तरह आत्मबल के अलावा कोई दूसरा बल नहीं है। आंख जैसी कोई अन्य शक्तिशाली इंद्रिय नहीं है और अन्न के अलावा अन्य कोई वस्तु प्रिय नहीं है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय-महाराज भर्तृहरि के इस श्लोक में ज्ञान और विज्ञान दोनों ही तत्व शामिल है। मनुष्य अपनी भौतिक उपलब्धियों के लिये इतनी उछलकूद करता है पर उसकी मूलभूत आवश्यकतायें अत्यंत तुच्छ वस्तुओं से ही पूर्ण होती हैं। तुच्छ इस मायने में कि मनुष्य यही समझता है वरना तो वह वस्तुऐं जीवन का आधार होती हैं। सिख गुरु श्री गोविंद सिंह भी कहते हैं कि आदमी के लिये धन जरूरी चीज है पर उसकी भूख तो दो रोटी में ही शांत होती हैं। उनका अभिप्राय यही है कि धन के लिये इंसान व्यर्थ ही मारामारी करता है जबकि उसके लिये परमात्मा ने आवश्यकता पूर्ति के लिये रोटी का इंतजाम कर दिया है।
मनुष्य अपना सारा जीवन ही धन संपदा जुटाने की भागदौड़ में समाप्त कर देता है और उसे अपने अंदर चरित्र और विचार निर्माण का अवसर ही उसे नहीं मिल पाता। एकांत साधना न करने से मनुष्य आत्मिक रूप से कमजोर हो जाता है जबकि जीवन में सहजता के लिये उसमें आत्मिक बल होना आवश्यक है। यह तभी प्राप्त हो सकता है जब मनुष्य कुछ समय भगवान भक्ति और ध्यान साधना में लगाये। इससे जो आत्मबल मिलता है वह बहुत लाभदायी होता है और फिर ऐसी उपलब्धियां स्वतः प्राप्त होने पर भी तुच्छ लगती हैं जिनको पहले हम बहुत बड़ी समझते हैं।
आजकल लोग अपनी आंखें टीवी पर फोड़ रहे हैं उनको यह आभास ही नहीं है कि यही इंद्रिय हमारी सबसे अधिक शक्तिशाली है और इसके क्षीण होने पर हम शक्तिहीन और निराश्रित हो जाते हैं। इन सब बातों को देखते हुए यही लगता है कि आधुनिक और अमीर दिखने की दौड़े में भागने की बजाय अध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने में भी रुचि ली जानी चाहिए।
संकलक,लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://anant-shabd.blogspot.com
------------------------

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

Tuesday, March 23, 2010

श्री गुरुग्रंथ साहिब-मांगने वालों के पांव न छूऐं

‘गुरु पीरु सदाए मंगण जाइ।
त के मूलि न लगीअै पाई।।’
हिन्दी में भावार्थ-
श्री गुरुग्रंथ साहिब की वाणी के अनुसार कुछ लोग अपने को गुरु और पीर कहते हुए अपने भक्तों से धन आदि की याचना करते हैं ऐसे लोगों के पांव कभी नहीं छूना चाहिये।
‘पर का बुरा न राखहु चीत।
तम कउ दुखु नहीं भाई मीत।
हिन्दी में भावार्थ-
दूसरे के अहित का विचार मन में भी नहीं रखना चाहिये। दूसरे के हित का भाव रखने वाले मनुष्य के पास कभी दुःख नहीं फटकता।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- महान संत भगवान श्री गुरुनानक देव जी ने अपने समय में देश में व्याप्त अंधविश्वास और रूढ़िवादिता पर जमकर प्रहार कर केवल अध्यात्मिक ज्ञान की स्थापना का प्रयास किया। उनके समकालीन तथा उनके बाद भी अनेक संत और कवियों ने धर्म के नाम पर पाखंड का जमकर प्रतिकार किया पर दुर्भाग्यवश इसके बावजूद भी हमारे देश में अंधविश्वास का अब भी बोलाबाला है। इतना ही अनेक संत कथित रूप से गुरु या पीर बनकर अपने भक्तों का दोहन करते हैं। हैरानी की बात यह है कि आजकल उनके जाल में अनपढ़ या ग्रामीण परिवेश के काम बल्कि शिक्षित लोग अधिक फंसते हैं। आज से सौ वर्ष पूर्व तक तो अंधविश्वास तथा रूढ़िवादिता के लिये देश की अशिक्षा तथा गरीबी को बताया जाता था मगर आजकल तो धनी और शिक्षित वर्ग अधिक जाल में फंसता है और हम जिनको अनपढ़, अनगढ़ और गंवार कहते हैं वही समझदार दिखते हैं।

आधुनिक शिक्षा में अध्यात्मिक ज्ञान को स्थान नहीं मिलता। लोग तकनीकी तथा उच्च शिक्षा को सर्वोपरि मानते हैं पर मन की शांति और अध्यात्मिक ज्ञान के लिये वह ऐसे अनेक ढोंगियों महात्माओं और संतों के जाल में फंस जाते हैं जो खुलेआम पैसा मांगने के साथ ही धर्म का खुलेआम व्यापार करते हैं। आश्चर्य तब होता है जब उच्च शिक्षा प्राप्त और धनीवर्ग उनके चरण स्पर्श करने के लिये भागता नज़र आता है।
जीवन में खुश रहने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि सबके हित की कामना करें। किसी के लिये बुरा विचार मन में न लायें। कभी कभी तो यह भी होता है कि जैसा अब दूसरे के लिये बुरा सोचते हैं वैसा ही अपने साथ ही हो जाता है। अतः सभी के लिये अच्छा सोचा जाये ताकि अपने साथ भी अच्छा हो।
-----------------
संकलक,लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://anant-shabd.blogspot.com------------------------

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

Wednesday, March 17, 2010

भर्तृहरि शतक- हंसों द्वारा दूध और पानी अलग करने के समान शास्त्रों से ज्ञान का सार ग्रहण करें (ved aur shastra-hindi sandesh)

अनन्तशास्त्रं बहुलाश्चय विद्याः अल्पश्च कालो बहुविघ्नता च।
यत्सारभूतं तदुपासनीयं हंसो यथा क्षरमिवाम्बुपमध्यात्
हिन्दी में भावार्थ-
शास्त्र और विद्या अनंत है। शास्त्रों में बहुत कुछ लिखा गया है। मनुष्य का जीवन संक्षिप्त है। उसके पास समय कम है जबकि जीवन में आने वाली बाधायें बहुत हैं। इसलिये उसे शास्त्रों का सार ग्रहण कर वैसे ही जीवन में आगे बढ़ना चाहिये जसे कि दूध में से हंस पानी को अलग ग्रहण करता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हमारे देश में जीवन दर्शन का रहस्य और ज्ञान का भंडार समेटे अनेक वेद, पुराण और उपनिषदों के साथ ही अनेक महापुरुषों की पुस्तकें हैं। हमारे देश पर प्रकृति की ऐसी कृपा रही है कि हर काल में एक अनेक महापुरुष एक साथ उपस्थित रहते हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि हमारे अध्यात्मिक ग्रंथों में ज्ञान का अपार भंडार भरा पड़ा है पर उसमें कथा और उदाहरणों से विस्तार किया गया है। मूल ज्ञान अत्यंत संक्षिप्त है और उसके निष्कर्ष भी अधिक व्यापक नहीं है। अतः ऐसे बृहद ग्रंथों को पढ़ने में समय लगाना एक सामान्य व्यक्ति के लिये संभव नहीं पर अनेक विद्वानों ने इसमें डुबकी लगाकर इन व्यापक ग्रंथों का सार समय समय पर प्रस्तुत किया है। इतना ही नहीं कुछ विद्वानों ने तो लोगों के हृदय में महापुरुष की उपाधि प्राप्त कर ली।
वैसे वेद, पुराण, और उपनिषदों के साथ अन्य अनेक पावन ग्रंथों का ज्ञान और सार तत्व श्रीमद्भागवत गीता में मिल जाता है। अगर जीवन में शांति और सुख प्राप्त करना है तो उसमें वर्णित ज्ञान को ग्रहण करना ही श्रेयस्कर है। वैसे प्राचीन ग्रंथों की कथायें और उदाहरण सुनने में बहुत अच्छे लगते हैं और समय हो तो सत्संग में जाकर उनका भी श्रवण करना अच्छी बात है। जहां समय का अभाव हो वहां श्रीमद्भागवत गीता का अध्ययन अत्यंत फलदायी है। अगर श्रीगीता का अध्ययन और श्रवण करेंगे तो हंस के समान वैसे ही ज्ञान प्राप्त करेंगे जैसे वह दूध से पानी अलग कर ग्रहण करता है। एक बात निश्चित है कि उसका ज्ञान न तो गूढ़ है न कठिन जैसा कि कहा जाता है। उसे ग्रहण करने के लिये उसे पढ़ते हुए यह संकल्प धारण करना चाहिये कि उस ज्ञान को हम धारण कर जीवन में अपनायेंगे तभी उसे समझा जा सकता है।
संकलक,लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://anant-shabd.blogspot.com------------------------

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

Saturday, March 13, 2010

पतंजलि योग दर्शन-प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम ये तीन प्रमाण हैं (patanjali yoga darshan-teen prakar ke praman)

प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि।।
हिन्दी में भावार्थ-
प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम ये तीन प्रमाण हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय-हमारे जीवन में अनेक बार ऐसे अवसर आते हैं जब किसी कार्य या व्यक्ति को लेकर संशय होता है तथा अनेक बार हम किसी विषय पर विचार करते हुए निर्णायक स्थिति में नहीं पहुंच पाते। दरअसल सोचने का भी एक तरीका होता है। हम अपने कर्म तथा परिणामों में इतना लिप्त होते हैं कि हमें अपने ही द्वारा की जा रही क्रियाओं का ध्यान नहीं रहता। कल्पना करिये हमने किताब अल्मारी से निकालने का प्रयास किया। किताब निकालना एक कर्म है और हम उसे पढ़ना चाहते है यानि कर्ता है। मगर वहां से निकालने का जो प्रयास किया उसे क्रिया कहा जाता है। आप पूछेंगे कि इसमें खास बात क्या है? दरअसल हम जब हाथ अल्मारी की तरफ बढ़ा रहे हैं तो पहले उससे खोलना है, फिर वहां से किताब निकालते हुए इस बात का ध्यान रखना है कि दूसरी किताब वहां से गिर न जाये तथा जो किताब हमने निकली है वह किताब हमारे हाथ से फटे नहीं ताकि उसे हम सुरक्षित अल्मरी में रख सकें। ऐसा तभी हो सकता है जब हमें अपनी क्रियाओं पर ध्यान देने की आदत हो। वरना हम किताब निकालते हुए कहीं दूसरी जगह ध्यान दे रहे हैं तो पता लगा कि किताबा जमीन पर गिर कर फट गयी या फिर दूसरी किताब हाथ में आ गयी। दरअसल यहां बात ध्यान की ही हो रही है जिसका हमारे जीवन में बहुत महत्व है।
जब हम संशयों में होते हैं तब हम निर्णय करने वाले कर्ता है और जिस व्यक्ति या वस्तु पर निर्णय करना है वह एक लक्ष्य है। जब हम किसी वस्तु या व्यक्ति को प्रत्यक्ष देख रहे हैं तो उसके अच्छे या बुरे का निर्णय तुरंत ले सकते हैं। पर यदि कोई वस्तु या व्यक्ति प्रत्यक्ष है पर उसकी क्रिया तथा कर्म की प्रमाणिकता नहीं है तो उस पर अनुमान किया जा सकता है। ऐसे में वस्तु या व्यक्ति का व्यवहार देखकर उसके बारे में निर्णय किया जा सकता है। इसके लिये जरूरी है कि सामने जो प्रत्यक्ष दिख रहा है उसकी क्रियाओं और कर्मों कास विश्लेषण करने के लिये हम अपने ज्ञान चक्षु खोलें और वस्तु या व्यक्ति के व्यवहार को देखकर अनुमान करें। जब हम प्रत्यक्ष कि कियाओं को समझकर निर्णय करते हैं तो वह एक प्रमाण बन जाता है।
उसी तरह कुछ विषयों पर हम निर्णय नहीं ले पाते तो उसके लिये पुस्तकों आदि में पढ़कर निर्णय लेना चाहिये। इसे आगम कहा जाता है। जैसे हम आत्मा को न देख पाते हैं न अनुमान कर पाते हैं तो इसके लिये हमें प्राचीन धर्म ग्रंथों की बातों पर यकीन करना पड़ेगा। इस तरह प्रमाणों की पक्रिया को समझेंगे तो हमें अपने निर्णयों में कठिनाई नहीं आयेगी।
संकलक,लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://anant-shabd.blogspot.com------------------------

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

Thursday, March 11, 2010

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-पानी में चंद्रमा के बिम्ब के समान मन होता है चंचल (hindu dharma sandesh-man to chanchal)

सतः शीलोपसम्पन्नानकस्मादेव दुज्र्जनः।
अन्तः प्रविश्य दहति शुष्कवृक्षानिवालः।।
हिन्दी में भावार्थ-
पर्वत के समान दृढ़ चरित्र वाले सत्पुरुषों के अंतःकरण में दुर्जन भाव प्रविष्ट होकर अग्नि के समान उनको जला कर नष्ट कर डालता है। यह भाव सज्जन व्यक्ति के लिये आत्मघाती होता है।
जलान्तश्वन्द्रवशं जीवनं खलु देहिनाम्
तथा विद्यमति ज्ञात्वा शशवत्कल्याणमाचारेत्।।
हिन्दी में भावार्थ-
पानी के के भीतर लहलहाते हुए चंद्रमा के बिम्ब के समान चंचल स्वभाव ही समस्त जीवों का जीवन है। यह विचार ज्ञान लोग निरंतर सत्कर्म में लिप्त रहते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-समस्त जीवों की देह पंचतत्वों के संयोग से निर्मित होती है और मन उसकी एक ऐसी प्रकृत्ति है जो उसका संचालन करती है। पानी से भी पतले इस मन की चाल विरले ही ज्ञानी देख पाते हैं। अपने जीवन में कार्यरत रहते हुए हमारे मन में अनेक विचार आते हैं-वह अच्छे भी हो सकते हैं और बुरे भी। दरअसल हर जीव को उसका मन चलाता है पर वह यह भ्रम पालता है कि स्वयं चल रहा है। इस मन में काम, क्रोध, लोभ, लालच और घृणा के भाव स्वाभाविक रूप से विचरते रहते हैं। अगर वहां सत्विचारों की स्थापना करनी है तो उसके लिये यह आवश्यक है कि योगासन, ध्यान, मंत्रजाप और नाम स्मरण किया जाये। कहना आसान है पर करना कठिन है। मुख्य बात है कि संकल्प मनुष्य किस प्रकार का करता है। जो मनुष्य दृढ चरित्र के होते हैं वह मन में आये विचार का अवलोकन करते हैं और जिनको ज्ञान नहीं है वह उसी राह चलते हैं जहां मन प्रेरित करता है।
यह मन इतना चंचल होता है कि अनेक बार सज्जन आदमी को भी दुर्जन बना देता है। यह उन्हीं सज्जन लोगों के साथ होता है जो स्वाभाविक रूप से भले होते हैं पर उनके पास अध्यात्मिक ज्ञान नहीं रहता। जब उनके अंदर दुर्जन भाव का प्रवेश होता है तब वह अपराध कर बैठते हैं।
अतः योगाभ्यास तथा सत्संग में निरंतर लगे रहना चाहिये ताकि अपने अंदर ज्ञान का प्रादुर्भाव हो और सज्जन प्रकृत्ति होने के बावजूद कभी किसी भी स्थिति में मन में उत्पन्न कुविचार मार्ग से विचलित न कर सकें।
संकलक,लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://anant-shabd.blogspot.com------------------------

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

Monday, March 8, 2010

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-विषयों रूपी शत्रु से महात्मा भी विचलित हो जाते हैं

महावाताहृतभ्त्रान्ति मेघमालातिपेलवैः।
कष्टां नाम महात्मानो हियन्ते विषयारिभिः।।
हिन्दी में भावार्थ-
जिस तरह बादलों का समूह वायु की तीव्र गति से डांवाडोल होता है उसी तरह महात्मा लोग भी विषयरूपी शत्रुओं के प्रहार से विचलित हो ही जाते हैं।
आधिव्याधिविपरीतयं अद्य श्वो वा विनाशिने।
कोहि नाम शरीराय धम्मपितं समाचरेत्।।
हिन्दी में भावार्थ-
तमाम तरह के दुःखों से भरे और कल नाश होने वाले इस शरीर के लिये धर्म रहित कार्य केवल कोई मूर्ख आदमी ही कर सकता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इस संसार के विषयों की भी अपनी महिमा है। मनुष्य देह में चाहे सामान्य व्यक्ति हो या योगी इन सांसरिक विषयों के चिंतन से बच नहीं सकते। जैसे ही उनका चिंतन शुरु हुआ नहीं कि आसक्ति घेर लेती है और तब सारा का सारा ज्ञान धरा रह जाता है। सामान्य मनुष्य हो या योगी विषयों से प्रवाहित तीव्र आसक्ति की वायु से उसी तरह डांवाडोल होते हैं जैसे संगठित बादलों का समूह तेज चलती हवा के झौंकों से विचलित हो जाते हैं।
किसी ज्ञान को रटने और धारण करने में अंतर है। यह शरीर नश्वर है तथा अनेक प्रकार के रोगाणु उसमें विराजमान हैं। ऐसे शरीर से अधर्म का काम करना मूर्खता है पर सबसे मुख्य बात यह है कि इस बात को समझते कितने लोग हैं? अनेक लोग धार्मिक संतों का प्रभाव देखकर उन जैसा बनने के लिये शब्द ज्ञान ग्रहण कर उसे दूसरों को सुनाने का अभ्यास करते हैं। जब वह अभ्यास करते हैं तो उनके अंदर यह एक व्यवसायिक गुण निर्मित हो ही जाता है कि वह दूसरे पर अपना प्रभाव कायम कर सकें, मगर ऐसे लोग केवल ज्ञान का बखान करने वाले होते हैं पर उस राह पर कभी चले नहीं होते। नतीजा यह होता है कि कभी न कभी उनको विषय घेर लेते हैं और तब वह इसी नश्वर देह के लिये अधर्म का काम करते हैं। यही कारण है कि अपने देश में बदनाम होने वाले संतों की भी कमी नहीं है।
यह जरूरी नहीं है कि सभी सन्यासी हमेशा ही ज्ञानी हों। उसी तरह यह भी कि सभी गृहस्थ अज्ञानी भी नहीं होते। जो तत्व ज्ञान को समझता है वह चाहे गृहस्थ ही क्यों न हो, योगियों और सन्यासियों की श्रेणियों में आता है। अपने सांसरिक कार्य करते हुए विषयों में आसक्ति न होना भी एक तरह से सन्यास है।
संकलक,लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://anant-shabd.blogspot.com------------------------

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

Monday, March 1, 2010

मनुस्मृति-ओम शब्द और गायत्री मंत्र के जाप से वेदाध्ययन का लाभ (om shabda and gayatri mantra-manu smriti)

अकारं चाप्युकारं च मकारं च प्रजापतिः।
वेदत्रयान्निरदुहभ्दूर्भूवः स्वारितीतिच।।
हिन्दी में भावार्थ-
प्रजापित ब्रह्माजी ने वेदों से उनके सार तत्व के रूप में निकले अ, उ तथा म् से ओम शब्द की उत्पति की है। ये तीनों भूः, भुवः तथा स्वः लोकों के वाचक हैं। ‘अ‘ प्रथ्वी, ‘उ‘ भूवः लोेक और ‘म् स्वर्ग लोग का भाव प्रदर्शित करता है।
एतदक्षरमेतां च जपन् व्याहृतिपूर्विकाम्।
सन्ध्ययोर्वेदविविद्वप्रो वेदपुण्येन युज्यते।।
हिन्दी में भावार्थ-
जो मनुष्य ओंकार मंत्र के साथ गायत्री मंत्र का जाप करता है वह वेदों के अध्ययन का पुण्य प्राप्त करता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-श्रीगीता में गायत्री मंत्र के जाप को अत्यंत्र महत्वपूर्ण बताया गया है। उसी तरह शब्दों का स्वामी ओम को बताया गया है। ओम, तत् और सत् को परमात्मा के नाम का ही पर्याय माना गया है। श्रीगायत्री मंत्र के जाप करने से अनेक लाभ होते हैं। मनु महाराज के अनुसार ओम के साथ गायत्री मंत्र का जाप कर लेने से ही वेदाध्ययन का लाभ प्राप्त हो जाता है। हमारे यहां अनेक प्रकार के धार्मिक ग्रंथ रचे गये हैं। उनको लेकर अनेक विद्वान आपस में बहस करते हैं। अनेक कथावाचक अपनी सुविधा के अनुसार उनका वाचन करते हैं। अनेक संत कहते हैं कि कथा सुनने से लाभ होता है। इस विचारधारा के अलावा एक अन्य विचाराधारा भी जो परमात्मा के नाम स्मरण में ही मानव कल्याण का भाव देखती है। मगर नाम और स्वरूप के लेकर विविधता है जो कालांतर में विवाद का विषय बन जाती है। अगर श्रीमद्भागवत गीता के संदेश पर विचार करें तो फिर विवाद की गुंजायश नहीं रह जाती। श्रीगीता में चारों वेदों का सार तत्व है। उसमें ओम शब्द और गायत्री मंत्र को अत्यधिक महत्वपूर्ण बताया गया है।
आजकल के संघर्षपूण जीवन में अधिकतर लोगों के पास समय की कमी है। इसलिये लोगों को व्यापक विषयों से सुसज्ज्ति ग्रंथ पढ़ने और समझने का समय नहीं मिलता पर मन की शांति के लिये अध्यात्मिक विषयों में कुछ समय व्यतीत करना आवश्यक है। ऐसे में ओम शब्द के साथ गायत्री मंत्र का जाप कर अपने मन के विकार दूर करने का प्रयास किया जा सकता है। ओम शब्द और श्रीगायत्री मंत्र के उच्चारण के समय अपना ध्यान केवल उन पर ही रखना चाहिये-उनके लाभ के लिये ऐसा करना आवश्यक है।
संकलक,लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://anant-shabd.blogspot.com------------------------

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

Sunday, February 28, 2010

विदुर नीति-दिन के उजाले में वह काम करें, जिससे रात को नींद अच्छी आये (hindi sandesh-din aur raat)

गुरुरात्मवतां शास्ता शास्ता राजा दुरात्मनाम्।
अथ प्रच्छन्नपापानां शास्तां वैवस्वतौ यमः।।
हिन्दी में भावार्थ-
अपने मन और इंद्रियों को वश में करने वाले शिष्यों के शासक उनके गुरु, दुष्टों के शासक राजा और छिपकर पाप करने वालों शासक सूर्य होते हैं।
दिवसेनैव तत् कुर्यातफ येन रात्री सुखं वसेत।
अष्टामासेन तत् कुर्यात् येन वर्षाः सुखं वसेत्।।
हिन्दी में भावार्थ-
नीति विशारद विदुर जी के अनुसार पूरे दिन वही काम करें जिससे रात्रि को आराम से नींद आ सकें और आठ महीने वह काम करें जिससे चार मास बरसात के आराम से व्यतीत हों।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-रात्रि को चैन से नींद आना ही प्रतिदिन का मोक्ष प्राप्त करना है। जब हम मोक्ष की प्राप्त करते हैं तो वह केवल मृत्यु के बाद का ही विषय नहीं है बल्कि जीवन में रात्रि का पहर भी मोक्ष के रूप में ही व्यतीत होता है जब हम नींद लेकर अपनी देह और मन को अगले दिन के लिये तैयार करते हैं। अनेक बार क्रोध या निराशा आने पर हम अपने व्यवहार में उग्रता लाते हैं जिससे हमारी मुट्ठियां भिंच जाती हैं। उस समय आवेश में आकर हम विचार नहीं करते पर बाद में पछतावा होता है। यह पछतावा इतना होता है कि हमें रात भर नींद नहीं आती। एक बात तय रही कि हम अगर किसी के लिये तनाव पैदा करेंगे तो वह भी यही करेगा और हम शांति से नहीं बैठ सकते।
इसलिये बेहतर यही है कि हमेशा अपना व्यवहार अच्छा रखें, मीठी वाणी बोले तथा समर्थ होने पर दूसरे की मदद कर अपने मित्र बनायें। एक बात याद रखें मुट्ठी बहुत देर तक कोई भी बंद नहीं रख सकता क्योंकि इससे पैदा खिंचाव देह का अस्थिर करता है। इसलिये ही हाथ तो खोलने ही पड़ते हैं ताकि सहजता पैदा हो। जीवन सहजता से जीने का यही उपाय है कि अपने व्यवहार में हमेशा सात्विकता बनाये रखें।
संकलक,लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://anant-shabd.blogspot.com------------------------

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

Saturday, February 27, 2010

वेदांत दर्शन-चंदन के वृक्ष की तरह है आत्मा (bedant darshan-atma aur chandan)

नाणुरतच्छ्रुतेरिति चेन्नेतराधिकारात्।
हिन्दी में भावार्थ-
यदि हम कहें कि जीवात्मा अणु नहीं है क्योंकि श्रुतियों में उसे महान और व्यापक बताया गया है तो ठीक नहीं लगता क्योंकि संभवतः वहां आशय परमपिता परमात्मा से है।
अविरोधष्चन्नवत्।
हिन्दी में भावार्थ-जिस प्रकार एक क्षेत्र या देश में लगाया हुआ चंदन अपने गंध रूपी गुण को सब ओर फैलाता है वैसे ही आत्मा पूरे शरीर का संचालन करता है तो इसमें विरोध नहीं है।
वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-आत्मा अजन्मा और अमर है। वह अणु रूप है या नहीं कहना कठिन है। श्रुतियों में उसे महान बताया गया है पर संभवतः उनका आशय परमात्मा से है। आत्मा की तुलना तो चंदन से की जा सकती है। जिस तरह चंदन का वृक्ष अपने सुगंध से पूरे क्षेत्र में फैलाता है वैसे ही आत्मा पूरे शरीर में स्थित रहकर उसका संचालन करता है। इसका आशय यह है कि वह अणु रूप है। श्रीगीता में भी वर्णित है कि जब आत्मा जब अपनी देह से अलग होता है तो वह उस देह से इंद्रियों के गुण भी ले जाता है। वैसे पश्चिम वैज्ञानिकों का यह दावा है कि आत्मा का वजन 21 ग्राम है। उनका आशय यह है कि जब आदमी जीवित रहता है और जब मरता है तब उसके वजन में 21 ग्राम की कमी आती है। कहना कठिन है कि सच क्या है, पर इतना तय है कि उसका अस्तित्व हमारी देह में रहता है। अगर हम उसकी अनदेखी कर अच्छे कर्म नहीं करते तो हमारी इंद्रियां दुर्गुणों का संग्रह करती हैं। वहीं अगर हम अच्छे काम करें तो सद्गुणों का संचय होता है जिनको अंततः आत्मा ग्रहण करता है। शायद इसलिये कहते हैं कि जिसका लोक सुधरता है वही परलोक में भी सुख पाता है।
संकलक,लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://anant-shabd.blogspot.com------------------------

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

Thursday, February 25, 2010

संत कबीर वाणी-प्रसन्नता देने वाले मनुष्य कम ही मिलते हैं

मानुस खोजत मैं फिरा, मानुस बड़ा सुकाल।
जाको देखत दिल घिरे।, ताक पड़ा दुकाल।।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि मैंने खूब ढूंढा तो मनुष्य बहुत मिले पर ऐसा कोई नहीं दिखा जिसे देखकर मन प्रसन्न हो जाये।
देखा देखी सुर चढ़े, मर्म न जानै कोय।
सांई कारन सीस दे, सूरा जानी सोय।।
कबीरदास जी का कहना है दूसरों की देखा देखी लोग भक्ति तो करने लग जाते हैं पर परमात्मा का नाम धारण कर पूरा जीवन उसे अर्पित कर कर दे, ऐसा कोई बहादुर योद्धा नहीं मिलता।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इस संसार में हर मनुष्य अपने स्वार्थ की पूर्ति में लगा हुआ है। लोग एक दूसरे के साथ तभी संपर्क करते हैं जब उनका काम पड़ता है। ऐसे में हार्दिक रूप से मित्रता करने वाले तो लोग कम ही मिलते हैं और जिसे मिल जायें वह अपना सौभाग्य समझे। लोग एक दूसरे से मिलते हैं पर उनका व्यवहार औपाचारिकता की सीमाओं में बंधा होता है। आपस में मिलकर कोई एक दूसरे को प्रसन्नता प्रदान करे, ऐसा बहुत कम होता है।
दूसरे को देखकर भक्ति करने का भाव अनेक लोगों में जाग्रत होता है। उनका यह भाव हृदय के शुद्ध विचारों की बजाय केवल दूसरों को दिखाने के कारण प्रवाहित होता है। कुछ लोग तो केवल इसलिये ही भक्ति करते दिखते हैं ताकि उनका प्रचार एक भक्त के रूप में हो। अनेक शिक्षित लोग अध्यात्मिक किताबों से ज्ञान रटकर उसको सुनाने निकल पड़ते हैं ताकि उनको ज्ञानी समझा जाये। ऐसे ही अनेक लोग गुरु के पद पर भी प्रतिष्ठत हो जाते हैं।
दिखावा करने से न तो अपने व्यक्तित्व में निखार आता है न ही हृदय को संतोष मिलता है। इसलिये जब भक्ति करें तो हृदय से करें ताकि मन में निर्मलता का भाव आये। यही निर्मलता का भाव चेहरे पर प्रकट होता है और तब अगर दूसरा व्यक्ति देखता है तो वह प्रभावित हुए बिना नहीं रहता-उसे आपका चेहरा देखकर ही प्रसन्नता होगी।

संकलक,लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://anant-shabd.blogspot.com------------------------

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

Tuesday, February 23, 2010

श्रीगुरुग्रंथ साहिब से-आदमी अपने कर्म से पीछा नहीं छुड़ा सकता

चित्रगुप्त सभ लिखते लेखा।
भगत जना कउ दृस्टि न पेखा।।
हिन्दी में भावार्थ-
मनुष्य के सारे कर्मों का लेख चित्रगुप्त रखते हैं पर जो भगवान भक्ति में लीन रहते हैं।
देइ किवाड़ अनिक पड़दे महि, परदारा संग फाकै।
चित्रगुप्तु जब लेखा मागहि, तब कउशु पड़दा तेरा ढाकै।।
हिन्दी में भावार्थ-
चाहे हम दरवाजा बंद करके या परदा कर बुरे कर्म करें पर उसका हिसाब चित्रगुप्त महाराज रखते हैं। मनुष्य अपने कर्मों से मरने पर भी पीछा नहीं छुड़ा सकता।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्य के मन में कुछ होता है और वह बोलता कोई दूसरी बात है। देखता कुछ है बताता दूसरे ढंग से है। पाखंड और ढोंग का जीवन जीने की मानव की सहज प्रवृत्ति है। वह दरअसल अपने आप से भागता है पर छिप नहीं पाता। झूठ बोलते हुए मनुष्य यह सोचता है कि उसे कोई नहीं देख रहा है पर वह स्वयं को तो देखता है। इस धरा पर जीवन चलाने वाले उस परमात्मा को किसने देखा है? वह सभी को देखता है। इसलिये अपने कर्म करते समय यह विचार अवश्य करना चाहिये कि उनका लेखा कोई रख रहा है।
झूठ, बेईमानी, भ्रष्टाचार और ठगी का कर्म करने वाले यह सोचते हैं कि उनको कोई नहीं देख रहा है तो उनका वहम है। हर आदमी अपने आपको देख रहा है यानि उसके अंदर परमात्मा का अंश आत्मा भी उसका आभास देता है कि वह कौनसा काम कर रहा है। बुरे काम करने वाले को पता होता है कि वह गलती कर रहा है पर खालीपीली अपने आपको दिलासा देता है कि कोई नहीं देख रहा है।
इस संसार में जहां अच्छे काम का परिणाम मिलता है तो बुरे काम की सजा भी सामने आती है। इतना ही नहीं मनुष्य का कर्म उसके मरने के बाद भी पीछा नहीं छोड़ते। इसलिये अपने अंदर हमेशा ही सात्विक कार्य करने का विचार करना चाहिए।

संकलक,लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://anant-shabd.blogspot.com------------------------

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

Sunday, February 21, 2010

मनुस्मृति-आदमी अपने कर्म के लिये स्वयं ही दायी (men self responsible for his work-hindu dharma sandesh)

एकःप्रजायते जन्तुरेक एव प्रलीयते।
एकोऽनुभुंक्ते सृकृतमेक ज्ञातिर्धर्मस्तिष्ठति केवलः।।
हिन्दी में भावार्थ-
इस संसार में हर मनुष्य अकेले आता और जाता है। उसे अपने अच्छे और बुरे कर्म का फल भी अकेले ही भुगतना है। यह अकाट्य सत्य है।
मृतं शरीरमुत्सृज्य काष्ठलोष्ठसमं क्षितौ।
विमुखः बान्धवाः यान्ति धर्मस्तमनुगच्छति।।
हिन्दी में भावार्थ-
मरे हुए मनुष्य की देह को उसके बंधु लोग मिट्टी का मानकर उसे गाड़ देते हैं या जलती हुई लकड़ियों में छोड़ जाते हैं। उस समय धर्म ही जीव का अनुगमन करता है।
वर्तमान सन्दर्भ में संपादकीय व्याख्या -चाहे कोई अपने को कितना भी समझाये पर सच यह है कि जब तक देह है सभी लोग एक दूसरे के आत्मीय बनते हैं पर जैसे ही इसमें से आत्मा निकल गया वैसे ही यह बंधु बान्धवों के लिये यह देह मिट्टी का ढेला हो जाती है। वह इसे गाड़कर या जलती लकड़ियों में छोड़कर मुंह फेर चले जाते हैं। कहने कहा अभिप्राय यह है कि आदमी इस धरती पर अकेला ही है। वह कर्म करते हुए धन संग्रह यह सोचकर करता है कि वह अपने और परिवार का भला कर रहा है? अनेक लोग तो धन के लोभ में कदाचरण करते हुए भी नहीं हिचकिचाते। अपने साथ परिवार, रिश्तेदार और मित्रों के होने की अनुभूति उनके अंदर यह भाव नहीं आने देती कि वह हर प्रकार के अपराध के लिये अकेले ही जिम्मेदार हैं। आपने देखा होगा कि अनेक लोग भ्रष्टाचार, हत्या, तथा अन्य अपराधों में अकेले ही फंसते हैं और जिनके लिये काम करने का दावा करते हैं वह बाहर ही बैठे रहते हैं। परिवार, रिश्तेदार, या मित्रों में कोई भी आदमी उनके साथ कारावास में नहीं जाता।
अपराध, भ्रष्टाचार तथा कदाचरण से धन कमाने वाले अनेक लोग यह कहते हैं कि अपना परिवार पालने के लिये यह कर रहे हैं पर वह स्वयं को ही धोखा देते हैं। सबका दाता तो परमात्मा है। यहां भला कोई परिवार क्या पालेगा? जो गलत काम कर रहा है वही बदनाम होता है। इसके विपरीत जो भले काम कर अपना धर्म निभाते हैं उनकी छबि अच्छी बनती है। दोनों ही स्थितियों में आदमी जिम्मेदारी स्वयं ही होता है। अगर बुरे काम करेगा तो मरने के बाद वह उसके साथ ही जायेंगे। अच्छा काम किया है तो देहावसान के बाद धर्म साथ चलेगा।
संकलक,लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://anant-shabd.blogspot.com------------------------

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

Saturday, February 20, 2010

श्रीगुरुग्रंथ साहिब-परमात्मा की भक्ति प्राप्त की तो समझ लो तीर्थ नहा लिया

तीरथ नावा जे तिस भावा।’
हिन्दी में भावार्थ-
जिस भक्त ने परमात्मा का स्मरण कर उसे पा लिया समझो उसने तीर्थ में स्नान कर लिया
‘मैंने सुरति होवै मनि बुद्धि।
मैंन संगल भवण की सुधि।।
हिन्दी में भावार्थ-
मनुष्य की मन और बुद्धि में परमात्मा का नाम यदि स्थापित हो गया तो फिर वह इस संसार के भंवर की परवाह से मुक्त हो जाता है।
मैंने मुहि चोटा न खाई
मैंने जम क साथ न जाइ।।
हिन्दी में भावार्थ-
भक्ति से मनुष्य को इतनी शक्ति मिल जाती है कि वह कहीं भी मुंह की नहीं खाता और न यमराज उसे ले जा सकते हैं-अर्थात उसकी आत्म तो परमात्मा स्वरूप को प्राप्त हो जाती है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-सांसरिक भव सागर से पार होने से आशय केवल यही नहीं होता कि मनुष्य को मृत्यु के बाद मोक्ष प्राप्त हो जाए बल्कि इस संसार में रहते हुए आनंद से जीवन व्यतीत करना भी है। अध्यात्मिक ज्ञान के बिना यह संभव नहीं है। आजकल हम अनेक लोगों को अनाप शनाप हरकतें या बकवास करते हुए देखते हैं। उनमें यह दोष अध्यात्मिक ज्ञान के अभाव के कारण ही उत्पन्न होता है। कहने को अनेक लोग धर्म में आस्था होने या पवित्र ग्रंथों को पढ़ने की बात करते जरूर हैं पर उनका आचरण इस बात का प्रमाण नहीं होता है। उनका यह दावा केवल अपनी छबि बनाने के लिये होता है ताकि वह लोगों के जज़्बातों का दोहन कर सकें।
किसी भी मनुष्य के भक्त होने का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि वह जिंदगी के प्रति लापरवाह हो जाता है। दुःख सुख में समान रहता है। जिसने घर में रहते हुए शांति प्राप्त कर ली समझ लो उसने तीर्थ नहा लिया। वरना चाहे जितने जतन कर लो अगर हृदय में परमात्मा का नाम नहीं धारण किया मन को शांति नहीं मिल सकती।
संकलक,लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://anant-shabd.blogspot.com------------------------

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

Friday, February 19, 2010

भर्तृहरि शतक-उच्च पद पाने की इच्छा अनंत

दुराराध्याश्चामी तुरगचलचित्ताः क्षितिभुजो वयं तु स्थूलेच्छाः सुमहति फले बद्धमनसः।
जरा देहं मृत्युर्हरति दयितं जीवितमिदं सखे नान्यच्छ्रेयो जगति विदुषेऽन्यत्र तपसः।।
हिन्दी में भावार्थ-
राजाओं का चित तो घोड़े की गति से इधर उधर भागता इसलिये उनको भला कब तक प्रसन्न रखा जा सकता है। हमारे अंदर भी ऊंचे ऊंचे पद पाने की लालसा हैं। इधर शरीर को बुढ़ापा घेर रहा है। ऐसे में लगता है कि विवेकवान पुरुषों के लिये तप बल के अलावा अन्य कोई उद्धार का मार्ग नहीं है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इस संसार में धनी, उच्च पदस्थ, तथा बाहुबली आदमी की कितनी भी सेवा कर लीजिये पर उनको प्रसन्न नहीं किया जा सकता क्योंकि उनका मन तो घोड़े की तरह दौड़ता है। उनकी सेवा में रत इंसान को लगता है कि स्वामी उनकी तरफ देख रहा है पर सच तो यह है कि राजसी लोगों के पास ढेर सारे सेवक होते हैं और उनमें किसी को वह विशिष्ट नहीं मानते। इतना ही नहीं अगर उनकी सेवा कोई ऐसा व्यक्ति करे जो उनके यहां कार्यरत न हो, उसको लेकर भी उनके मन में यह शंका उत्पन्न होती है कि वह भविष्य में हमारी सेवा पाने का प्रयास कर रहा है।
किसी आदमी को एक पद मिल गया तो फिर उससे बड़े पद की चाहत उसमें होने लगती है। वह भी मिल गया तो फिर उससे ऊंचे पद की आस करने लगता है। यह इच्छा अनंत है और इसका कहीं अंत नहीं है। आदमी अपने भौतिक लक्ष्यों की पूर्ति में लगा रहता कि उसे बुढ़ापा घेर लेता है। ऐसे में तो केवल एक ही बात उचित लगती है कि अपना समय सत्संग, भक्ति तथा अध्यात्मिक ज्ञान ग्रहण करने में भी बिताना चाहिये ताकि तत्व ज्ञान होने पर इस संसार में दुःख तथा मानसिक संताप से छुटाकारा पाया जा सके।
संकलक,लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://anant-shabd.blogspot.com------------------------

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

Tuesday, February 16, 2010

चाणक्य नीति-दुष्ट से संबध रखने पर सज्जन का भी पतन हो जाता है

दुराचारी च दृर्दृष्टिर्दुराऽऽवासी च दुर्जनः।
यन्मैत्री क्रियते पुम्भिर्नरः शीध्रं विनश्यति।।
हिन्दी में भावार्थ-
दुराचारी, दुष्ट, कुदृष्टि रखने वाले, गंदे स्थान का निवासी दुर्जन आदमी से मित्रता करने पर सज्जन का भी शीघ्र पतन हो जाता है।
दुर्जनस्य च सर्पस्य वरं सर्पो न दुर्जनः।
सर्पो दंशति कालेन दुर्जनस्तु पदे पदे।।
हिन्दी में भावार्थ-
नीति विशारद चाणक्य महाराज का कहना है कि सर्प की अपेक्षा दुष्ट और बुरी नीयत वाला मनुष्य खतरनाक होता है।  सर्प तो समय आने पर अपनी रक्षा के लिये भयभीत होने पर ही काटता है जबकि दुष्ट आदमी तो अपने अंदर बिना किसी बैर के ही दूसरे को हानि पहुंचाने का विचार पाले रहता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हमारे समाज में ऐसी मनोवृत्ति बन गयी है कि लोग दादाओं, गुंडों और तथा पेशेवर अपराधियों की संगत में स्वयं को सुरक्षित अनुभव करते हैं।  स्थित यह है कि जो कारावास से होकर लौटा हो समाज उससे डरने लगता है और उनसे संबंध रखकर लोग अपने लिये सुरक्षा का प्रबंध करते हैं।   इतना ही नहीं भ्रष्टाचार, ठगी और धर्म के नाम पर धंधा करने वालों को भी सम्मान दिया जाता है।  इसी कारण धीरे धीरे पूरा समाज विकृत मानसिकता की चपेट में आता जा रहा है।  सभी जानते हैं कि मृत्य निश्चित है फिर भी आदमी आतंकियों से डरते हैं। अब तो ऐसा भी होने लगा है कि अपराधियों, आतंकियों और व्यसनियों को भी उनके जाति, धर्म, भाषा तथा क्षेत्रीय समूहों द्वारा संरक्षण और समर्थन दिया जा रहा है जिससे निरंतन अपराध और आतंक बढ़ रहा है।
इस तरह की मानसिकता स्वयं के लिये ही खतरनाक है।  अगर आप यह सोचते हैं कि अपनी जाति, भाषा, धर्म, और क्षेत्रीय समूह के अपराधियों और आतंकियों से समाज की रक्षा होगी तो यह मूर्खतापूर्ण है।  अपराधी, आतंकी, भ्रष्टाचारी तथा ठगी लोग तो सांप से अधिक खतरनाक हैं जो हर पल दूसरे को काटने की फिराक में रहते हैं और ऐसा करते हुए वह जाति, धर्म, भाषा तथा अन्य आधार पर कोई विचार नहीं करते और विरोध करने पर अपने ही आदमी को हानि पहुंचाने से भी नहीं चूकते।
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://anant-shabd.blogspot.com
------------------------
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

Monday, February 15, 2010

पतंजलि योग दर्शन-आसन सिद्ध होने पर सांसरिक द्वंद्वों से मुक्ति संभव (yog sadhna-asanon se tanav mukti)

स्थिरसुखमासनम्।
हिन्दी में भावार्थ-
स्थिर होकर सुख से बैठने का नाम आसन है।
प्रयत्नशैथिल्यानन्तसमापतिभ्याम्।
हिन्दी में भावार्थ-
आसन के समय प्रयत्न रहित होने के साथ परमात्मा का स्मरण करने से ही वह सिद्ध होता है।
ततोद्वन्द्वानभिघातः।।
हिन्दी में भावार्थ-
आसनों से सांसरिक द्वंद्वों का आघात नहीं लगता।
तस्मिन् सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेदः प्राणायामः।।
हिन्दी में भावार्थ-
आसन की सिद्धि हो जाने पर श्वास ग्रहण करने और छोड़ने की गति रुक जाती है उसे प्राणायाम कहा जाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-योग साधना कोई सामान्य व्यायाम नहीं है बल्कि ऐसी कला है जिसे जीवन में हमेशा ही आनंद का अनुभव किया जा सकता है। सबसे पहली बात तो यह है कि हम सुखपूर्वक अपने मन और इंद्रियों का निग्रह कर बैठ सकें वही आसन है। इस दौरान अपने हाथ से कोई प्रयत्न न कर केवल परमात्मा का स्मरण करना चाहिये।  उस समय अपनी श्वास को आते जाते एक दृष्टा की तरह देखें न कि कर्ता के रूप में स्थित हों।  बीच बीच में उसे रोकें और फिर छोड़ें। इस प्राणायाम कहा जाता है। यह प्राणायाम मन और बुद्धि के विकारों को निकालने में सहायक होता है। इससे इतनी सिद्धि मिल जाती है कि आदमी गर्मी, सर्दी तथा वर्षा से उत्पन्न शारीरिक द्वंद्वों से दूर हो जाता है।  इतना ही नहीं संसार में आने वाले अनेक मानसिक कष्टों को वह स्वाभाविक रूप से लेता है। दूसरे शब्दों में कहें तो वह दुःख और सुख के भाव से परमानन्द भाव को प्राप्त होता है।
इस संसार में दो ही मार्ग हैं जिन पर इंसान चलता है। एक तो है सहज योग का दूसरा असहज योग।  हर इंसान योग करता है। एक वह हैं जो सांसरिक पदार्थों में मन को फंसाकर कष्ट उठाते हैं दूसरे उन पदार्थों से जुड़कर भी उनमें लिप्त नहीं होते। इसलिये कहा जाता है कि योग जीवन जीने की एक कला है और यह भी अन्य कलाओं की तरह अभ्यास करने पर ही प्राप्त होती है।
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://anant-shabd.blogspot.com
------------------------
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

Saturday, February 13, 2010

रहीम के दोहे-उस सुख से क्या लाभ जो बाढ़ के पानी की तरह बह जाये (rahim ke dohe-sukh aur pani)

तासो ही कछु पाइए, कीजै जाकी आस।
रीते सरवर पर गए, कैसे बुझे पियास।
कविवर रहीम कहते हैं कि जिससे कुछ पाने की संभावना हो उससे ही कोई आशा करना चाहिये। खाली तालाब के पास जाकर कोई प्यास नहीं बुझती।
तेहि प्रमाण चलिबो भलो, जो सब दिन ठहराइ।
उमड़ि चलै जल पार तें, जो रहीम बढ़ि जाइ।।
कविवर रहीम का कहना है कि जिससे सब दिन आनंद प्राप्त हो वही सुख प्रमाणिक माना जाना चाहिये।  ऐसे सुख से क्या लाभ जो क्षणिक हो और वह ऐसे ही उतर जाये जैसे बाढ़ का पानी।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-यह जरूरी नहीं है कि जिसे धन, पद और अन्य भौतिक साधन हों वह समय पड़ने पर सहायता करने वाला हो। सबसे बड़ी बात यह है कि इंसान में दूसरे की मदद करने का भाव होना चाहिये। यही भाव मदद चाहने वाले के लिये रस बनकर प्रवाहित होता है।  जिस व्यक्ति के पास ढेर सारा धन हो पर अगर उसमें उदार भाव नहीं है तो उससे कोई आशा करना स्वयं को धोखा देना है।  कहने का अभिप्राय यही है कि अपने आसपास ऐसे लोगों का संग्रह करना चाहिये जिनके हृदय में शुद्धता और स्नेह का भाव हो वरना उनसे दूरी ही भली क्योंकि उनसे संकट में सहायता की आशा करना व्यर्थ है।
आजकल विज्ञापन का युग है और हर तरफ सुख बिक रहा है। कहीं कोई व्यक्ति हृदय का नायक बनाकर प्रस्तुत किया जा रहा है तो कहीं जिंदगी भर का आराम दिलाने वाली वस्तुओं का प्रदर्शन हो रहा है।  यह केवल जेब से पैसा निकालने की नीति है जिस पर वणिक वर्ग चल रहा है।  याद रखिये हर मनुष्य में दोष होता है अतः कोई इतना पवित्र नहीं हो सकता कि उसे फरिश्ता मान लिया जाये। उसी तरह हम अपने सुख के लिये जो चीजें खरीदते हैं वह कभी न कभी खराब हो जाती हैं और तब हम जो काम हाथ से करते हैं वह नहीं हो पाता और हमारे लिये तनाव का कारण बनता है। उल्टे इन कथित सुख प्रदान करने वाले साधनों से हमारी देह काम करने की आदी नहीं रहती और इससे बीमारियां तो पैदा ही होती हैं मानसिक रूप से भी हम पंगु होते चले जाते हैं।  कहने का अभिप्राय यह है कि इस तरह के सुख क्षणिक हैं और फिर समय आने पर वह विदा हो जाते हैं। अतः जितना हो सके स्वावलंबी बने।


संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://anant-shabd.blogspot.com
------------------------
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

Thursday, February 11, 2010

वेदांत दर्शन-परमात्मा को इंद्रिय युक्त मानना ठीक नहीं है (vedant darshan-parmatma aur indriyan)

करणवच्चेन्न भोगादिभ्यः।

हिन्दी में भावार्थ-
यदि परमात्मा को देह इंद्रिय आदि करणोें से युक्त मान लिया गया तो भोग आदि से उनका संबंध सिद्ध हो जायेगा जो कि ठीक नहीं है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-वेदांत दर्शन में एक एक शब्द की स्वतंत्र व्याख्या है और उसे समझ पाने के लिये यह आवश्यक है कि उसके आशय पर थोड़ा चिंतन अवश्य करें।  अक्सर लोग यह कहते हैं कि परमात्मा सब देखता, सुनता और समझता है। भक्तों का यह भाव बुरा नहीं है पर इससे होता यह है कि वह सांसरिक उपलब्धियों कासारा श्रेय भगवान को देते हैं तो दुःख के लिये उसे जिम्मेदार भी मानते हैं। यह अलग बात है कि अपने कर्तापन का अहंकार भी उनमें होता है। सच तो यह है कि सर्वशक्तिमान परमात्मा त्रिगुणमयी माया से परे है।  वह इस संसार का निर्माता और नियंत्रणकर्ता है पर यहां विचरण करने वालों जीवों के कर्म का कारण नहीं है अतः उसके फल का भी उस पर दायित्व नहीं आता।
इस संसार में मनुष्य को अपने ही कर्म के अनुसार क्रम से फल मिलता है। सुविधाओं का सेवन और दुविधाओं में फंसने के लिये उसकी बुद्धि और विवेक जिम्मेदार होता है।

सकाम भक्ति वाले हर अच्छी और बुरी बात में परमात्मा का तत्व ढूंढने लगते हैं जबकि इसके विपरीत  निष्काम भक्त तो अपने साथ होने वाली हर घटना को इस जगत का परिणाम मानते हैं। दूसरी बात यह कि वह दुःख सुख में समान रहते हैं क्योंकि उनको इस बात का आभास होता है कि यह संसार निरंकार परमात्मा की रचना है और यहां अच्छा या बुरा केवल जीव की अनुभूति और दृष्टिकोण पर निर्भर करता है।  अतः वह निरंकार परमात्मा को इंद्रियों से रहित मानते हैं क्योंकि इद्रियों का गुण भोगना है और वह इससे दूर है।
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://anant-shabd.blogspot.com
------------------------
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

Wednesday, February 10, 2010

पतंजलि योग दर्शन-विषयों से परे रहना है चतुर्थ प्राणायाम (patanjali yoga darshan in hindi)

ब्राह्माभ्यन्तरविषयाक्षेपी चतुर्थ।
हिन्दी में भावार्थ-
बाहर और भीतर के विषयों का त्याग कर देना स्वयं में ही चतुर्थ प्राणायाम है।
तत क्षीयते प्रकाशावरणम्।।

हिन्दी में भावार्थ-इस प्राणायाम से अज्ञान क्षीण होने के साथ ही  ज्ञान का दीप प्रज्जवलित हो जाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हम इसे ध्यान का ऐसा चरम स्वरूप मान सकते हैं जो वास्तव में  प्राणायाम के तुल्य है।  सच बात तो यह है कि योगसाधना, मंत्रोच्चार तथा प्रार्थना अपने मन और देह को पवित्र करने के साधन हैं जिससे ध्यान के समय अधिक दुविधा न रहे। अक्सर लोग यह शिकायत करते हैं कि उनका ध्यान नहीं लगता क्योंकि मन में विचार आते जाते हैं।  यही कारण है योगासनों के समय हर आसन के साथ अपने सात चक्रों पर दृष्टि रखने के लिये कहा जाता है ताकि उससे ध्यान के समय सुविधा हो।  यही स्थिति प्राणायाम की भी है।  इनसे मन और बुद्धि के विकार निकाले जाते हैं।  अगर कुछ लोग योगासन और प्राणायाम नहीं करना चाहते तो वह ध्यान के माध्यम से अध्यात्मिक लाभ कर सकते हैं।  इसमें उन्हें आखें बंद कर आसन पर बैठना चाहिये और फिर अपनी दृष्टि भृकुटि के बीच में रखना चाहिये। विचार आते है, आने दें पर अपना प्रयास न छोड़ें। धीरे धीरे आप देखेंगे कि आपका ध्यान लगता जा  रहा है। योगासन, प्राणायाम, मंत्रोच्चार और प्रार्थना केवल आठ प्रकृतियों की शुद्धता के लिये मुख्य लक्ष्य तो ध्यान का चरम शिखर चढ़ना है।  यही ध्यान भारतीय अध्यात्मिक की शक्ति माना जाता है।  योगासन और प्राणायाम तो इस ध्यान के लक्ष्य को प्राप्त करने के साधन मात्र हैं जबकि ज्ञान के लिये ध्यान में सफलता प्राप्त करना आवश्यक है। भीतर और बाहर के विषयों से परे रहने की प्रक्रिया को ही  चतुर्थ प्राणायाम के साथ ध्यान भी कहा जा सकता है।
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://anant-shabd.blogspot.com
------------------------
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

Sunday, February 7, 2010

संत कबीर वाणी-आग में जलकर भी सोना चमक नहीं खोता (fire and gold-sant kabir vani)

सोने रूप धाह दइ, उत्तम हमारी जात।
वन ही में की घूंघची, तोली हमरे साथ।

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि सोने  की परख के लिये उसे आग में जलाया जाता है पर फिर भी  अपनी श्रेष्ठता प्रमाणित करते हुए सोना मानो शिकायत करता है कि कहां मेरी तुलना वन में पैदा हुई घुंघची से की?
तोल बराबर घूंघची, मोल बराबर नांहि।
मेरा तेरा पटतरा, दीजै आगी मांहि।।
संत कबीरदास जी कहते हैं कि तोल में घूंघची सोने की बराबरी कर सकती है पर मोल में नहीं।  इनकी असलियत का पता तब चलता है जब आग में जलने पर सोने की श्रेष्ठता प्रमाणित हो जाती है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-आदमी का बाह्य रूप चाहे कितना भी आकर्षक हो पर उसमें बुद्धि और विवेक की शुद्धता नहीं है तो वह किसी काम का नहीं है।  सोना का मूल गुण चमक है और वह उसे अग्नि में जलकर भी बचाये रहता है उसी तरह मनुष्य का मुख्य गुण परोपकार और भक्ति करना है।  कोई मनुष्य चाहे कितने भी अच्छे कपड़े पहनता हो, धनवान हो, उच्च पदारूढ़ हो या बाहूबली, अगर वह समाज के काम का नहीं है तो उससे कुछ सीखने का प्रयास नहीं करना चाहिये क्योंकि अपने लिये उपभोग की सामग्री तो पशु भी जुटा लेते हैं अगर किसी मनुष्य ने दूसरों की अपेक्षा अधिक  समृद्धि जुटा ली तो कौनसा तीर मार लिया?
दूसरी बात हम  यह भी देखें कि हमारी दैनिक समस्याओं के हल में ऐसे लोग ही मदद करते हैं जिनको हम तुच्छ या गरीब कहते हैं। अनेक पूंजीपति  अपने यहां काम करने वाले श्रमिकों या कर्मचारियों को छोटा जरूर समझते हैं पर दैहिक या मानसिक संकट आने पर वही लोग उनके सबसे पहले सहायक बनते हैं।  हमारे देश में लोगों की प्रवृत्ति है कि वह धनवान, उच्च पदारूढ़ तथा बाहूबली लोगों की चाटुकारिता इस आशा से करते हैं कि पता नहीं उनमें कब काम फंस जाये, पर जब विपत्ति काल आता है तो उनको छोटे लोगों से ही सहायता मिलती है।
कहने का अभिप्राय यह है कि हम अपने बाह्य रूप में निखार करने की बजाय अपने अंदर आंतरिक गुणों का विकास करें ताकि समाज में हमारी उत्कृष्ट छबि  का निर्माण हो सके।  इसके अलावा बाह्य रूप देखकर किसी के बारे में अच्छी राय कायम नहीं करना चाहिये जब तक उसके आंतरिक गुणों की पहचान न हो जाये।
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://anant-shabd.blogspot.com
------------------------
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

Saturday, February 6, 2010

श्रीगुरु ग्रंथ साहिब-इस संसार में केवल परमात्मा का नाम ही सच है (shri guru granth sahib-pramatma ka naam sach)

‘आदि सच जुगादि सच।
हे भी सच, नामक होसी भी सच।।’
हिन्दी में भावार्थ-उसका नाम सत्य सत्य परमात्मा है, यह अतीत के युगों में भी सत्य था, वर्तमान काल में भी सत्य है और आने वाले अनेक युगों तक यह सत्य बना रहेगा।
‘सच पुराणा होवे नाही।’
हिन्दी में भावार्थ-
दुनियां में समय के साथ हर चीज पुरानी पड़ जाती है लेकिन परमात्मा का नाम कभी पुराना नहीं पड़ता।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या -हम इस संसार में जितनी भी वस्तुऐं और व्यक्ति देख रहे हैं समय के साथ सभी पुराने पड़ते हैं।  इसलिये उनमें मोह डालना या उनके आकर्षण के वशीभूत होकर उनको पाने के लिये अपना पूरा जीवन नष्ट करने कोई लाभ नहीं है।  व्यक्ति समय के हिसाब से भ्रुण, शिशु, बालक, युवा, अधेड़ तथा वृद्धावस्था को प्राप्त होता है।  कोई मनुष्य चाहे कितना भी श्रृंगार कर अपने को युवा दिखाये पर दैहिक रूप से उसमें समय के साथ शिथिलता आती है।  यही हाल वस्तुओं का है। कोई वस्तु हम अगर किसी दुकान से जिस भाव में खरीदते हैं उसी भाव में उसे घर लाकर नहीं बेच सकते।  इतना ही नहीं हम आजकल के आधुनिक विद्युतीय साधनों को बड़े चाव से खरीदते हैं पर जल्द ही उनका नया माडल आ जाता है और लोग उसे पुराने फैशन का कहना प्रारंभ कर देते हैं। 

अतः संसार के भौतिक पदार्थों के प्रति आकर्षण और मनुष्यों में मोह एक सीमा तक ही रखना चाहिये।  यहां केवल सच केवल परमात्मा का नाम है जिसे चाहे बरसों तक लेते रहे पर उसके पुराने होने का अहसास नहीं होता। भक्ति जितनी करो उतनी थोड़ी लगती है बल्कि दिन ब दिन उसमें नवीनता का अनुभव होता है।  दूसरी चीजों या मनुष्यों से स्वार्थ की पूर्ति न होने पर निराशा मन में आती है पर निष्काम भक्ति से कभी हृदय में तनाव नहीं आता बल्कि उससे दुनियां के दुःख दर्द को सहने की शक्ति आती है।

संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://anant-shabd.blogspot.com
------------------------
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

समस्त ब्लॉग/पत्रिका का संकलन यहाँ पढ़ें-

पाठकों ने सतत अपनी टिप्पणियों में यह बात लिखी है कि आपके अनेक पत्रिका/ब्लॉग हैं, इसलिए आपका नया पाठ ढूँढने में कठिनाई होती है. उनकी परेशानी को दृष्टिगत रखते हुए इस लेखक द्वारा अपने समस्त ब्लॉग/पत्रिकाओं का एक निजी संग्रहक बनाया गया है हिंद केसरी पत्रिका. अत: नियमित पाठक चाहें तो इस ब्लॉग संग्रहक का पता नोट कर लें. यहाँ नए पाठ वाला ब्लॉग सबसे ऊपर दिखाई देगा. इसके अलावा समस्त ब्लॉग/पत्रिका यहाँ एक साथ दिखाई देंगी.
दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका


इस लेखक की लोकप्रिय पत्रिकायें

आप इस ब्लॉग की कापी नहीं कर सकते

Text selection Lock by Hindi Blog Tips

हिंदी मित्र पत्रिका

यह ब्लाग/पत्रिका हिंदी मित्र पत्रिका अनेक ब्लाग का संकलक/संग्रहक है। जिन पाठकों को एक साथ अनेक विषयों पर पढ़ने की इच्छा है, वह यहां क्लिक करें। इसके अलावा जिन मित्रों को अपने ब्लाग यहां दिखाने हैं वह अपने ब्लाग यहां जोड़ सकते हैं। लेखक संपादक दीपक भारतदीप, ग्वालियर

विशिष्ट पत्रिकायें

Blog Archive

stat counter

Labels