मानुस खोजत मैं फिरा, मानुस बड़ा सुकाल।
जाको देखत दिल घिरे।, ताक पड़ा दुकाल।।
जाको देखत दिल घिरे।, ताक पड़ा दुकाल।।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि मैंने खूब ढूंढा तो मनुष्य बहुत मिले पर ऐसा कोई नहीं दिखा जिसे देखकर मन प्रसन्न हो जाये।
देखा देखी सुर चढ़े, मर्म न जानै कोय।
सांई कारन सीस दे, सूरा जानी सोय।।
सांई कारन सीस दे, सूरा जानी सोय।।
कबीरदास जी का कहना है दूसरों की देखा देखी लोग भक्ति तो करने लग जाते हैं पर परमात्मा का नाम धारण कर पूरा जीवन उसे अर्पित कर कर दे, ऐसा कोई बहादुर योद्धा नहीं मिलता।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इस संसार में हर मनुष्य अपने स्वार्थ की पूर्ति में लगा हुआ है। लोग एक दूसरे के साथ तभी संपर्क करते हैं जब उनका काम पड़ता है। ऐसे में हार्दिक रूप से मित्रता करने वाले तो लोग कम ही मिलते हैं और जिसे मिल जायें वह अपना सौभाग्य समझे। लोग एक दूसरे से मिलते हैं पर उनका व्यवहार औपाचारिकता की सीमाओं में बंधा होता है। आपस में मिलकर कोई एक दूसरे को प्रसन्नता प्रदान करे, ऐसा बहुत कम होता है।
दूसरे को देखकर भक्ति करने का भाव अनेक लोगों में जाग्रत होता है। उनका यह भाव हृदय के शुद्ध विचारों की बजाय केवल दूसरों को दिखाने के कारण प्रवाहित होता है। कुछ लोग तो केवल इसलिये ही भक्ति करते दिखते हैं ताकि उनका प्रचार एक भक्त के रूप में हो। अनेक शिक्षित लोग अध्यात्मिक किताबों से ज्ञान रटकर उसको सुनाने निकल पड़ते हैं ताकि उनको ज्ञानी समझा जाये। ऐसे ही अनेक लोग गुरु के पद पर भी प्रतिष्ठत हो जाते हैं।
दिखावा करने से न तो अपने व्यक्तित्व में निखार आता है न ही हृदय को संतोष मिलता है। इसलिये जब भक्ति करें तो हृदय से करें ताकि मन में निर्मलता का भाव आये। यही निर्मलता का भाव चेहरे पर प्रकट होता है और तब अगर दूसरा व्यक्ति देखता है तो वह प्रभावित हुए बिना नहीं रहता-उसे आपका चेहरा देखकर ही प्रसन्नता होगी।
संकलक,लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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1 comment:
बहुत अच्छा आलेख है धन्यवाद्
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