Thursday, March 5, 2009

भर्तृहरि शतकः कामदेव का दंड भी कम नहीं होता ( hindu dharm and thought on sex in hindi)

स्त्रीमुद्रां कुसुमायुधस्य जविनीं सर्वार्थस्म्पत्करीं ये मूढ़ा प्रविहाय यान्ति कुधियो मिथ्याफलान्वेषणः।
ते तेनैव निहत्य निर्दयतरं नग्नीकृता मुण्डिताः केचित्तपंचशिखीकृताश्च जटिलाः कापालिश्चापरे।।

हिंदी में भावार्थ- जो मूर्ख लोग काम पर विजय प्राप्त करने के लिये स्त्री का त्याग करते हैं उनको कामदेव दंड देकर ही रहते हैं। उसमें कोई कोई वस्त्रहीन होकर धर्म का पालन करने लगता है तो कोई सिर मुंडवा लेता है। कोई बड़े बालों की जटा बना लेता है तो कोई भीख मांगने ही लग जाता है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय-भर्तृहरि जी का यह संदेश बहुत रोचक तथा प्रेरणादायक है। कितनी विचित्र बात है कि हमारे देश में कुछ लोग अध्यात्म ज्ञान का गलत अर्थ लेकर काम से बचने के लिये ब्रह्मचर्य का व्रत लेते हैं। ऐसे लोग वैराग्य वेश धारण करते हैं। इनमें से कोई जीवन भर वस्त्र नहीं पहनता तो कोई अपने बाल मुंडवा लेता है। कोई सिर पर जटा धारण कर लेता है। यह सभी लोग अर्थाजन तो करते नहीं इसलिये पेट पालने के लिये उनको दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है। यही कारण है कि उन्हें शिष्य बनाकर उनसे दान लेना ही पड़ता है। यह सभी अध्यात्म ज्ञान के गलत अर्थ लेने के कारण है। सच बात तो यह है कि हमारी श्रीमद्भागवत गीता आदमी को त्याग के लिये प्रेरित करती है पर उसका आशय यह नहीं है कि वह सांसरिक कार्यों से वैराग्य लिया जाये। सांसरिक कार्य करते हुए उनके फल में लिप्त न होना ही वास्तविक त्याग है। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि मनुष्य अपने मूल स्वभाव के अनुकूल कर्म करने को बाध्य होता है-जिसका साीधा आशय यह है कि मनुष्य को अपने तन,मन और विचारों की तृष्णा शांत करने के लिये जीवन में कार्य तो करना ही है। श्रीगीता में सांख्यभाव की चर्चा है पर यह भी कहा गया है कि वह एक असंभव काम है। सांख्यभाव का मतलब यह है कि इंद्रियों पर पूर्ण नियंत्रण-यानि आंखों से देखें ही नहीं, नाक से सांस ही न लें और कान से सुने ही नहीं। यह एक कठिन त्याग है और इसे विरले योगी ही कर पाते हैं। सभी के लिये यह संभव नहीं है। इसके बावजूद कुछ लोग सांस लेते, आंख से देखते,पांव से चलते और मुख से खाते हुए वैराग्य का ढोंग करते हैं और उनको अंततः दूसरे लोगों का आसरा लेना पड़ता है। एक तरह से कामदेव उनको दंड देते हैं।

देखा जाये तो भर्तृहरि के काल में भी ढोंगी थे और आज अधिक ही हो गये हैं। कहने को अनेक लोग वैरागी हैं पर उनके यौन प्रकरण अक्सर चर्चा में आते हैं। अनेक लोग तो वैराग्य का दिखावा करते हुए विवाह तक कर लेते हैं पर सार्वजनिक रूप से अपनी पत्नी को मानने से इंकार करते हैं। एक तरह से यह उनके स्वयं के लिये भी दुःखदायी है। वह कामदेव पर विजय प्राप्त करने का ढोंग करते हैं तो कामदेव भी उनको एक तरह से चोर और भिखारी बना देते हैं।
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2 comments:

Smart Indian said...

सही कहा है. अच्छइयां और बुराइयां हमेशा रही हैं इसी तरह योगी-संन्यासी भी थे और ढोंगी बाबा आज भी हैं.

Anonymous said...

ओशो ने कहा है की ब्रह्मचर्य का अर्थ है ब्रह्म (ईश्वर) की चर्या, जब चेतना ईश्वर से एकाकार हो जायेगी तो संसार से स्वतः ही मन हट जायेगा. वर्ना जो कुछ भी ब्रह्मचर्य के नाम पर प्रचलित है वह 'वीर्य की कंजूसी मात्र है' और ईश्वर कंजूस तो कतई नहीं है. भगवान श्री कृष्ण योगिराज एवं पूर्णावतार थे पर पूरी तरह सांसारिक थे, और यह संसारिकता उनकी आध्यात्मिकता में कभी बाधक नहीं बनी.

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