Monday, July 28, 2008

संत कबीर वाणीः भक्त के लिये देह होती है विदेश समान

तीन गुनन की बादरी, ज्यों तरुवर की छांहि
बाहर रहै सो ऊबरै, भींजै मन्दिर मांहि

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि इस त्रिगुणमयी बादलों की माया भी वैसे ही जैसे वृक्ष की छाया जो कभी स्थिर नहीं रहती। इस दुनियां में उसी व्यक्ति का उद्धार हो सकता है जो इसमें हृदय से लिप्त नहीं होता।

पंछि उड़ानी गगन को, पिंड रहा परदेस
पानी पीया, चोंच बिन, भूलि गया वह देस

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं जब अपना हृदय भगवान में लग जाता है शरीर भी एक तरह से विदेश की तरह लगता है। जब मनुष्य ध्यान और स्मरण के द्वारा परमात्मा की अनुभूति का रस बिना चोंच के पीने लगता है तब वह इस शरीर का भूल जाता है।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-सात्विक, राजस और तमास इन तीन गुणों की माया में यह संसार बसा हुआ है। इन तीनों गुणों से पर होकर परमात्मा में मन लगाने वालों को इनसे कोई मतलब नहीं रहा जाता। इन तीनों के वशीभूत होकर कोई भी कर्म किया जाये वह सकाम होता है। इनके आधार पर की गयी भक्ति भी सकाम होती है। निष्काम भाव का आशय यही है कि इन तीनों गुणों से परे होकर केवल परमात्मा में मन लगाया जाये। इस संसार में देह है तो उसे जीवित रखने के लिये कार्य करना है यह जानते हुए ही जो कार्य करते हैं वही प्रसन्न रहता है। ‘यह देह मैं नहीं हूं, बल्कि परमात्मा का अंश आत्मा हूं’ यह भाव रखने वाला ही निष्काम भाव से इस संसार का आनंद उठा पाता है। उसके लिये यह देश ऐसे ही जैसे विदेश में रहना।

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1 comment:

Udan Tashtari said...

बहुत आभार.

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