Monday, June 9, 2008

संत कबीर वाणी:नाव में जल और घर में धन बढ़ने लगे तो दोनों हाथ से निकालो


बाले जैसी किरकिरी, ऊजल जैसी धूप
ऐसी मीठी कछु नहीं, जैसी मीठी चूप


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि रेत के समान किसी अन्य वस्तु में किरकिराहट (चिकनाहट)नही है। धूप के समान कोई अन्य वस्तु उजली नहीं है। ऐसे ही चुप या मौन रहने से अधिक कोई अन्य वस्तु मीठी नहीं है।

जो जल बाढ़े नाव में, घर में बाढ़ै दाम
दोनों हाथ उलीचिये, यही सयानों का काम

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते है। कि जब नाव में जल और घर में धर बढ़ने लगे तो उसे दोनों हाथ से बाहर निकालना ही सयानों का काम है।

रितु बसंत याचक भया, हरखि दिया द्रुम पात
ताते नव पल्लव भया, दिया दूर नहिं जात


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि बसंतु ऋतु जब याचना करता है तब वृक्ष अपने पत्ते खुशी से देता है और फिर उसमें शीघ्र ही नये और ताजे हरे पत्ते आ जाते हैं। अतः यह सत्य बात है कि कभी किसी को कुछ निष्फल नहीं जाता।

संक्षिप्त व्याख्या-मनुष्य में संचय की प्रवृत्ति अधिक होती है और वही उसके दुःख का कारण भी है। इस संसार में वही व्यक्ति सुखी है जो किसी को कुछ देता है। देने मं एक सुख है उसे वही अनुभव कर पाता है जो दान करता है। यह कई लोगों का मतिभ्रम होता है कि किसी को कुछ देने से धन कम हो जाता है। पाने का मोह आदमी को अंसयमित बनाता है। धन आ भी जाता है तो मन की शांति नहीं आती। क्योंकि जिस धन को हम कमा रहे हैं उसकी कोई उपयोगिता अधिक नहीं रह जाती। उससे हम उतनी ही खुशी पा सकते हैं जितने से हमारी आवश्यकताएं पूरी होती हैं। बाकी बचा हुआ धन सड़ता है और उसकी अनुयोगिता हमारा मन त्रस्त करती है। अगर उसमें से सुपात्र को धन दिया जाये तो मन में एक अजीब प्रकार की सुखद अनुभूति होती है। सयाने लोग इसलिये ही दान की महिमा का बखान करते है।

2 comments:

Anonymous said...

maun rehna hmmmmmm jyada karke achha hi hai,magar kabhi kuch jagah bol bhi dena padhta hai

jal aur paise wala doha ek dam sahi haisundar

Udan Tashtari said...

आभार इस व्याख्या के लिए.

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