Monday, April 30, 2012

चाणक्य नीति-समाज में धनवान की पूजा और गरीब की निंदा करना एक आदत है (samaj meim amri ki izzat aur garib kee beizzati hotee hai)

                  श्रीमद्भागवत गीता के अनुसार तत्वज्ञानी इस संसार में अधिक नहीं होते। सामान्य सांसरिक जीवन तो केवल धन के आधार पर ही चलता है। इसलिये सामान्य मनुष्यों से यह आशा करना एकदम व्यर्थ है कि कि लोग गरीब मगर गुणी आदमी का सम्मान करें। अधिकतर लोग अपनी भौतिक आवश्यकताओं को लेकर परेशान रहते हैं। कई लोग तो उधार की आशा में साहुकारों की चाटुकारिता करते है कि उन्होंने उनसे उधार लिया है या फिर भविष्य में उससे लेना पड़ सकता है। हमेशा ही धन की चाहत में लगे लोगों के लिये धनवान और महल आकर्षण का केंद्र बने रहते हैं। यही कारण है कि समाज का नियंत्रण स्वाभाविक रूप से धनिकों के हाथ में रहता है।
                                   चाणक्य नीति में कहा गया है कि
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                      यस्याऽर्थातस्थ्य मित्राणि यस्याऽर्थास्तस्य बान्धवाः।
                           यस्याऽर्थाः स पुमांल्लोकेयस्याऽर्था स च पंडितः।।
                  ‘‘यह इस सांसर के समस्त समाजों का सच है कि जिसके पास धन है उसके बंधु बांधव बहुत है। उसे विद्वान और सम्मानित माना जाता है। यहां तक कि अगर व्यक्ति के पास धन अधिक हो तो उसे महान ज्ञानी माना जाता है।’’
                         स्वर्गस्थितनामिह जीवलोके चत्वारि चिह्ननि वसन्ति देहे।
                        दानप्रसङ्गो मधुरा च वाणी देवाऽर्चनं ब्राह्मणतर्पणं च।।
                 "स्वर्ग से इस धरती पर अवतरित होने वाले दिव्य चार गुण पाये जाते हैं-दान देना, मधुर वचन बोलना देवताओं के प्रति निष्ठा तथा विद्वानों को प्रसन्न करना।’’
                     ऐसे में अल्पधनियों को कभी इस बात की चिंता नहीं करना चाहिए कि उनका हर आदमी सम्मान करे। उन्हें अपने सात्विक गुणों का विकास करना चाहिए। मूल बात यह है कि हम अपनी दृष्टि में बेहतर आदमी बने रहें। श्रीमद्भागवत गीता का ज्ञान दूसरों के सामने बघारना आसान है पर उसे धारण कर अपनी जीवन की राह पर चलना चाहिए। भगवान श्रीकृष्ण का गीता में दिया गया संदेश दूसरों को सुधारने की बजाय स्वयं का चेहरा दर्पण में देखने को प्रेरित करता है। वैसे हम धनी हों या अल्पधनी दूसरों से सच्चे सम्मान की अपेक्षा नहीं करना चाहिए। आम मनुष्यों के हृदय में दूसरों के लिये सम्मान की भावना कम ही रहती है। धनिक होने से भले ही समाज सम्मानीय और ज्ञानी माने पर इस कारण अपने स्वाभाविक गुणों का त्याग कर उसका पीछा नहीं करना चाहिए।
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
writer and editor-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep', Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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Saturday, April 21, 2012

मलूकदास का दर्शन-प्रभुता को सब मरे जा रहे हैं (malukdas ke dohe-prabhuta ko sab mare ja rahe hain)

          पंचतत्वों से बनी मनुष्य देह में जितनी बुद्धि और विवेक की शक्ति है उतना ही उसमें अहंकार भरा पड़ा है जिससे प्रेरित हर कोई अपने आपको श्रेष्ठ कहलाना चाहता है। देखा जाये तो अध्यात्म को विषय जहां अकेले में चिंत्तन करने का विषय है तो धार्मिक कर्मकांड भी किसी स्थान विशेष पर करने के लिये होते हैं। अगर कोई व्यक्ति अकेले में करे तो बात समझ में आती है पर देखा यह जाता है कि कुछ श्रेष्ठता के मोह में फंसे कुछ लोग गुरु की पदवी धारण कर सार्वजनिक रूप से यह काम करते हैं। कोई यज्ञ करा रहा है तो कोई प्रवचन का आयोजन कर रहा है। इतना ही नहीं कहीं गरीबों को सामूहिक रूप से खाना खिलाने का पाखंड भी हो्रता है जो कि अधर्म का ही प्रमाण है। कहा जाता है कि अपने दान और धर्म का प्रचार नहीं्र करना चाहिए। इतना ही नहीं दान देते समय आंखें झुका लेना चाहिए ताकि लेने वाले व्यक्ति के मन में हीनता न आये। जबकि सार्वजनिक रूप से धर्म का विषय बनाने वाले इन सब बातों से दूर रहकर आत्मप्रचार में लिप्त दिखते हैं।  
दास मलुक कहते हैं कि 
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प्रभुता ही को सब मरै, प्रभु को मरै न कोय। 
जो कोई प्रभु को मरै, तो प्रभुता दासी होय।। 
           ‘‘इस संसार में सभी लोग प्रभुता को मरे जा रहे हैं पर प्रभु के लिये किसी के मन में जगह नहीं है। जिस मनुष्य के मन में परमात्मा विराजते हैं प्रभुता उसकी दासी हो जाती है।’’ 
सुमिरन ऐसा कीजिए, दूजा लखै न कोय। 
ओंठ न फरकत देखिये, प्रेम राखिये गोय।। 
‘‘प्रभु के नाम का स्मरण दिखावे के लिये न करें।  इस तरह नाम जपिये कि कोई ओंठ का फड़कना भी न देख सके और हृदय के अंदर प्रभु का प्रकाशदीप जलता रहे।’’ 
           लाउडस्पीकरों के साथ भीड़ में परमात्मा के नाम का जोर जोर से स्मरण करना भी एक तरह का पाखंड है। नाम हमेशा मन में लिया जाना चाहिए। इस तरह कि कोई ओंठों का हिलना भी न देख सके। कहने का अभिप्राय यह है कि अध्यात्म और धर्म नितांत निजी विषय हैं और इनसे दैहिक और मानसिक लाभ तभी मिल सकता है जब हम उसका दिखावा न करें। यहां तक कि अपनी गतिविधि दूसरों को न बतायेे। अगर ऐसा करते हैं तो सारा लाभ अहंकार की धारा में बह जाता है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Sunday, April 15, 2012

मलूकदास का दर्शन-धर्म को लेकर वाद विवाद न करें (malukdas ka darshan-dharma par vivad n karen)

         हमारे देश के लोगों की प्रकृति इस तरह की है उनकी अध्यात्मिक चेतना स्वतः जाग्रत रहती है। लोग पूजा करें या नहीं अथवा सत्संग में शामिल हों या नहीं मगर उनमें कहीं न कहीं अज्ञात शक्ति के प्रति सद्भाव रहता ही है। इसका लाभ धर्म के नाम पर व्यापार करने वाले उठाते हैं। स्थिति यह है कि लोग अंधविश्वास और विश्वास की बहस में इस तरह उलझ जाते हैं कि लगता ही नहीं कि किसी के पास कोई ज्ञान है। सभी धार्मिक विद्वान आत्मप्रचार के लिये टीवी चैनलों और समाचार पत्रों का मुख ताकते हैं। जिसे अवसर मिला वही अपने आपको बुद्धिमान साबित करता है।
            अगर हम श्रीमद्भागवत गीता के संदेशों के संदर्भ में देखें तो कोई विरला ही ज्ञानी की कसौटी पर खरा उतरता है। यह अलग बात है कि लोगों को दिखाने के लिये पर्दे या कागज पर ऐसे ज्ञानी स्वयं को प्रकट नहीं करते। सामाजिक विद्वान कहते हैं कि हमारे भारतीय समाज एक बहुत बड़ा वर्ग धार्मिक अंधविश्वास के साथ जीता है पर तत्वज्ञानी तो यह मानते हैं कि विश्वास या अविश्वास केवल धार्मिक नहीं होता बल्कि जीवन केे अनेक विषयों में भी उसका प्रभाव देखा जाता है।
               संत मलूक जी कहते हैं कि
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               भेष फकीरी जे करै, मन नहिं आये हाथ।
             दिल फकीरी जे हो रहे, साहेब तिनके साथ।
            ‘‘साधुओं का वेश धारण करने से कोई सिद्ध नहीं हो जाता क्योंकि मन को वश करने की कला हर कोई नहीं जानता। सच तो यह है कि जिसका हृदय फकीर है भगवान उसी के साथ हैं।’’
               ‘‘मलूक’ वाद न कीजिये, क्रोधे देय बहाय।
              हार मानु अनजानते, बक बक मरै बलाय।।
          ‘‘किसी भी व्यक्ति से वाद विवाद न कीजिये। सभी जगह अज्ञानी बन जाओ और अपना क्रोध बहा दो। यदि कोई अज्ञानी बहस करता है तो तुम मौन हो जाओ तब बकवास करने वाला स्वयं ही खामोश हो जायेगा।’’
             हमारे यहां धार्मिक, सामाजिक, कला तथा राजनीतिक विषयों पर बहस की जाये तो सभी जगह अपने क्षेत्र के अनुसार वेशभूषा तो पहन लेते हैं पर उनको ज्ञान कौड़ी का नहीं रहता। यही कारण है कि समाज के विभिन्न क्षेत्रों के शिखरों पर अक्षम और अयोग लोग पहुंच गये हैं। ऐसे में उनके कार्यों की प्रमाणिकता पर यकीन नहीं करना चाहिए। मूल बात यह है कि अध्यात्मिक ज्ञान या धार्मिक विश्वास सार्वजनिक चर्चा का विषय कभी नहीं बनाना चाहिए। इस पर विवाद होते हैं और वैमनस्य बढ़ने के साथ ही मानसिक तनाव में वृद्धि होती है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Sunday, April 8, 2012

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-उपेक्षा के भाव से भी हित होता है (kautilya ka arthshastra-upeksha ka bhav hitkar)


         यह जीवन अनेक रंगों से भरा हुआ है। मनुष्य का स्वामी है उसका मन है जिस पर नियंत्रण कर लिया जाये तो फिर उसकी सारी देह हाथ आ जाती है। ज्ञानी लोग अपने मन पर नियंत्रण रखते हैं तो विषयों के व्यवसायी उनको अपने जाल में फंसा नहीं पाते पर सामान्य लोगों के चंचल मन का वश करना आसान है इसलिये अनेक लोग मनोरंजन का व्यापार कर उससे मालामाल हो जाते हैं। आजकल के आधुनिक युग में हम यह देखते हैं कि सभी प्रकार के प्रचार माध्यम हास्य, श्र्रृंगार, वीभत्स, करुणा धर्म तथा सनसनी से सजी विषय सामग्री प्रस्तुत करते हैं। अनेक प्रकार की कल्पित कहानयों से मनोरंजन के कार्यक्रमों का निर्माण जाता है। उसका परिणाम यह है कि पूरा विश्व समुदाय आज प्रचार तंत्र के मार्गदर्शन को मोहताज हो गया है। सही और गलत का निर्णय तर्क के आधार पर नहीं बल्कि शोर के आधार पर होने लगा है।
               कौटिल्य के अर्थशास्त्र में कहा गया है
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              अन्याये व्यसने युद्धे प्रवृत्तास्यान्त्विरणम्।
               इत्युपेक्षार्थकुशलैरुपेक्षा विविधा स्मृता।।
             ‘‘जब अन्याय, व्यसन तथा युद्ध के लिये तत्पर व्यक्ति से सामना हो तो कुशल पुरुष के लिये उसकी उपेक्षा करना ही एक मार्ग है।’’
              अकायसज्जमानस्तु विषयान्धीकृतेक्षणः।
                 कीचकस्तु विराटेन हन्यतामित्युपेक्षितः।।
           ‘‘जब अकार्य में फंसे होने के साथ ही जिसके नेत्र विषयासक्ति में अंधे हो रहे हो रहे थे उस कीचक की जब द्रोपदी बुरी दृष्टि पड़ी भीमसेन ने उसका वध कर दिया। उसे मरता देख राजा विराट ने उपेक्षा का भाव दिखाया और चुप बैठे रहे।’’
            अनेक लोग सवाल करते हैं कि आजकल के मनोरंजन के साधनों के दुष्प्रभाव से आखिर किस प्रकार बचा जाये? दरअसल हमारे अंदर जब मनोरंजन, उत्सकुता और द्वंद्व देखने की इच्छा का भाव चरम पर होता है तब उपेक्षा करने की प्रवत्ति समाप्त हो जाती है। इसका कारण यह है कि हम बहिमुर्खी होने के कारण यह चाहते हैं कि हमारी आंखों के सामने हमेशा कुछ न कुछ चलता रहे। इसका लाभ लोग उठाते हैं जिनका लक्ष्य ही मनुष्य मन का हरण करना है। इससे बचने का उपाय यह है कि थकान या ऊब होने पर ध्यान लगाकर अपने मन पर नियंत्रण किया जाये। जिन लोगों ने ध्यान की कला को नहीं समझा वह शायद यह पढ़कर हंसेंगे कि इससे हम अपने मन को विराम देकर जो मनोरंजन प्राप्त कर सकते हैं वह अन्यत्र संभव नहीं है। यह विराम जहां संसार के विषयों के प्रति उपेक्षा का भाव पैदा कर मन को शांति प्रदान करता है वहीं तन और मन की थकावट को भी हरता है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Friday, March 30, 2012

चाणक्य नीति-मनुष्य को शारीरिक तथा मानसिक रूप से शक्तिशाली होना चाहिए।

                कहा जाता है कि फिट है वही हिट है। दरअसल भौतिक उपलब्धियों के लिये जुटा इंसान न तो अपनी देह को स्वस्थ रखने के लिये प्रयास करता है और न ही अध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त कर आत्मबली हो पाता है। जीवन में एक बार ऐसा समय अवश्य ही आता है जब वह थक जाता है। यह थकावट उसे वृद्धावस्था में ही पहुंचा देती है। ऐसे में शारीरिक तथा आत्मिक रूप से क्षीण होकर मनुष्य के पास आर्तनाद करने के अलावा कोई मार्ग शेष नहीं रह जाता। हमारे देश में व्यायाम आदि को कभी आदत की तरह नहीं अपनाया गया। अपनी ही योग कला को केवल सिद्धों तथा नकारा लोगों के लिये आवश्यक माना गया है। यही कारण है कि आजकल हम अपने आसपास शारीरिक तथा दिमागी रूप से विकारग्रस्त लोगों का से भरा समाज देख रहे हैं।
                       महान नीति विशारद चाणक्य कहते हैं कि
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                        यस्मिन् रुष्टे भयं नास्ति तुष्टे नैंव धनऽऽगमः।
                       निग्रहोऽनुग्रहो नास्ति स रुष्टः किं करिष्यति।।
            ‘‘जिसके नाराज होने पर किसी प्रकार का भय नहीं हो और नही प्रसन्न होने पर किसी फल की आशा है और जो दण्ड देने का सामर्थ्य भी नहीं रखता वह गुस्सा होकर कर भी क्या लेगा?’’
                  पश्चिमी आधार पर किये गया व्यायाम भी बुरा नहीं है अगर नियमित रूप से किया जाये मगर हमारे देश में लोगों ने जीवन शैली तो ब्रिटेन और अमेरिका जैसी अपना ली है पर वहां जो कसरत करने का नियम है उसका पालन नहीं करते। सुविधाओं ने इतना विलासी बना दिया है कि हमारे यहां अस्वस्थ लोगों की संख्या बढ़ रही है। हमारे यहां की योग कला तो न केवल शारीरिक रूप से शक्तिशाली बनाती है वरन मानसिक रूप से दृढ़ भी बनाती है। आज के समय में जब भौतिकवाद के चलते आदमी अकेला होता जा रहा है तब यह आवश्यक है कि अपने बल को बनाये रखे। यह सभी जानते हैं कि जब तक हमारी देह में सामर्थ्य है तभी तक सारा संसार हमारे साथ है और असमर्थ होने पर अपने भी त्याग देते हैं। इसके बावजूद अगर कोई अपने स्वास्थ्य पर ध्यान नहीं देता तो उसे अज्ञानी ही माना जा सकता है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Saturday, March 17, 2012

विदुर नीति-अगर ज्ञान न हो तो बुढ़ापा भी व्यर्थ (vidur neeti-agar gyan na ho to budhapa vyarth)

           हमारे यहां धर्म की लंबी चौड़ी व्याख्यायें कही जाती हैं। इतना ही नहीं राजनीति के आचार्यों ने तो सर्वधर्म समभाव का सिद्धांत प्रतिपादित कर समाज को इस कदर भ्रमित कर दिया है कि वह धर्मनिरपेक्षता के मार्ग पर चल पड़ा है। सच बात तो यह है कि धर्म के प्रति निरपेक्षता तो भ्रष्ट, दुष्ट तथा लोभी लोगों के मन में होती है। वह अपने लाभ के लिये येनकेन प्रकरेण किसी भी व्यक्ति को लक्ष्य कर उसका शिकार करते हैं। इतना ही नहीं ऐसे लोग धर्म के नाम पर अनेक ऐसे कार्य भी करते हैं कि लोगों में उनकी छवि धर्मभीरु की रहे।
        धर्म के आठ मार्ग बताये गयें हैं-‘‘यज्ञ, अध्ययन, दान, तप, सत्य, क्षमा, दया तथा अलोभ। इनमें यज्ञ, अध्ययन, दान तथा तप का उपयोग दूसरों को दिखाने के लिये भी किया जा सकता है। यह आजकल हो भी रहा है। सार्वजनिक रूप से धार्मिक सम्मेलनों में यज्ञ और ज्ञान चर्चाओं के रूप में इसे देखा जा सकता है। दिखाने के लिये दान हो रहा है तो तमाम लोग अपने तपों का झूठा इतिहास सुनाकर अपने आपको महात्मा सिद्ध करते हैं। जबकि सत्य, क्षमा, दया तथा अलोभ ऐसी प्रवृत्तियां हैं जिनके लिये कोई कर्म करना नहीं पड़ता बल्कि व्यवहार में उनको अपनाना पड़ता है। यह एक कठिन कार्य है। जिन कथित सिद्धों पर हमें यकीन हो उनके व्यवहार में इस प्रकार की आठ प्रवृत्तियों की उपस्थिति का प्रमाणीकरण भी अवश्य कर लेना चाहिए। 
विदुर नीति में कहा गया है  कि
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इज्याध्ययनदानादि तपः सत्यं क्षमा घृणा।
अलोभ इति मार्गोऽयं धर्मस्याष्टिविधः समृतः।।
                ‘‘यज्ञ, अध्ययन, दान, तप, सत्य, क्षमा, दया तथा अलोभ यह आठ मार्ग धर्म के बताये गये हैं।’’
न सा सभा या न सन्ति युद्धा न ते वृद्धा ये न वदन्ति धर्मम्।
नासौ धर्मो यत्र न सत्यमस्ति न तत् सत्यं यच्छलेनभ्युपेतम्।।
          ‘जिस सभा में बड़े बूढ़े नहीं वह सभा नहीं कहलाती पर जो धर्म की बात न करें करें वह बूढ़े भी नहीं है। जिसमें सत्य और धर्म नहीं है और कपट से भरा हो वह सत्य नहीं है।’’
           हमारे यहां बूढ़ों के प्रति अत्यंत सद्भाव दिखाने की परंपरा है। यह अच्छी बात है पर सच यह है कि अगर आदमी बूढ़ा हो पर उसमें अगर अध्यात्म का ज्ञान नहीं है या उसका आचरण इस अहंकार से सरोबोर है कि वह बूढ़ा है और सभी उसकी बात मानेंगे तो समझ लेना चाहिए कि वह बूढ़ा नहीं है बल्कि युवावस्था का अहंकार उसमें अब भी भरा हुआ है। सच बात तो यह कि अध्यात्म के प्रति झुकाव अगर बचपन से नहीं हुआ तो बुढ़ापे में आदमी का सठियाना स्वाभाविक है। जो लोग सोचते हैं कि बुढ़ापे में वह अध्यात्म ज्ञान प्राप्त कर लेंगे उनको यह भ्रम त्याग देना चाहिए। अध्यात्मिक ज्ञान के बिना बुढ़ापा अधिक मुश्किल से कटता है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Saturday, February 25, 2012

पतंजलि योग साहित्य-दृश्य का स्वरूप दृष्टा के लिये है (patanjali yaga sahitya-drhishta aur drishya)

            देह और आत्मा को लेकर हमारे समाज में अनेक विचार प्रचलन में है पर पतंजलि योग सूत्र के अनुसार आत्मा जहां देह के लिये प्राण धारण करता है वहीं देह में कार्यरत इंद्रियों के अनुसार सक्रिय रहता है। इसके लिये यह जरूरी है कि योग के माध्यम से इसे समझा जाये। हमारे अध्यात्मिक दर्शन के कुछ विद्वान आत्मा को परमात्मा का अंश मानते हैं तो कुछ आत्मा को ही परमात्मा मानते हैं। इस तरह की राय में भिन्नता के बावजूद यह एक सत्य बात है कि आत्मा अत्यंत शक्तिशाली तत्व है जिसे समझने की आवश्यकता है। दरअसल जो लोग के माध्यम से इंद्रियों और आत्मा का संयोग करते हैं वही जानते हैं कि तत्पज्ञान क्या है और उसको सहजता से कैसे जीवन में धारण किया जा सकता है। आत्मा और परमात्मा में भेद करने जैसे विषयों में अपना दिमाग खर्च करने से अच्छा है कि अपनी आत्मा को पहचानने और उसे अपनी इ्रद्रियों को संयोजन का प्रयास किया जाये।
            पतंजलि योग साहित्य में कहा गया है कि
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            द्रष्टा दृशिमात्रः शुद्धोऽपि प्रत्ययानुपश्यः।।
          ‘‘चेतनमात्र दृष्ट (आत्मा) यद्यपि स्वभाव से एकदम शुद्ध यानि निर्विकार तो बुद्धिवृति के अनुरूप देखने वाला है।
           तदर्थ एवं दृश्यस्यात्मा।।
         ‘‘दृश्य का स्वरूप उस द्रष्टा यानि आत्मा के लिये ही है।’’
          पंचतत्वों से बनी इस देह का संचालन आत्मा से ही है मगर उसे इसी देह में स्थित इंद्रियों की सहायता चाहिए। आत्मा और देह के संयोग की प्रक्रिया का ही नाम योग है। मूलतः आत्मा शुद्ध है क्योंकि वह त्रिगुणमयी माया से बंधा नहीं है पर पंचेंद्रियों के गुणों से ही वह संसार से संपर्क करता है और बाह्य प्रभावों का उस पर प्रभाव पड़ता है।
           आखिर इसका आशय क्या है? पतंजलि विज्ञान के इस सूत्र का उपयोग क्या है? इन प्रश्नों का उत्तर तभी जाना जा सकता है जब हम इसका अध्ययन करें। अक्सर ज्ञानी लोग कहते हैं कि ‘किसी बेबस, गरीब, लाचार, तथा बीमार या बेजुबान पर अनाचार मत करो’ तथा ‘किसी असहाय की हाय मत लो’ क्योंकि उनकी बद्दुआओं का बुरा प्रभाव पड़ता है। यह सत्य है क्योंकि किसी लाचार, गरीब, बीमार और बेजुबान पशु पक्षी पर अनाचार किया जाये तो उसका आत्मा त्रस्त हो जाता है। भले ही वह स्वयं दानी या महात्मा न हो चाहे उसे ज्ञान न हो या वह भक्ति न करता हो पर उसका आत्मा उसके इंद्रिय गुणों से ही सक्रिय है यह नहीं भूलना चाहिए। अंततः वह उस परमात्मा का अंश है और अपनी देह और मन के प्रति किये गये अपराध का दंड देता है।
         कुछ अल्पज्ञानी अक्सर कहते है कि देह और आत्म अलग है तो किसी को हानि पहुंचाकर उसका प्रायश्चित मन में ही किया जा सकता है इसलिये किसी काम से डरना नहीं चाहिए। । इसके अलावा पशु पक्षियों के वध को भी उचित ठहराते हैं। यह अनुचित विचार है। इतना ही नहीं मनुष्य जब बुद्धि और मन के अनुसार अनुचित कर्म करता है तो भी उसका आत्मा त्रस्त हो जाता है। भले ही जिस बुद्धि या मन ने मनुष्य को किसी बुरे कर्म के लिये प्रेरित किया हो पर अंततः वही दोनों आत्मा के भी सहायक है जो शुद्ध है। जब बुद्धि और मन का आत्मा से संयोग होता है तो वह जहां अपने गुण प्रदान करते हैं तो आत्मा उनको अपनी शुद्धता प्रदान करता है। इससे अनेक बार मनुष्य को अपने बुरे कर्म का पश्चाताप होता है। यह अलग बात है कि ज्ञानी पहले ही यह संयोग करते हुए बुरे काम मे लिप्त नहीं होते पर अज्ञानी बाद में करके पछताते हैं। नहीं पछताते तो भी विकार और दंड उनका पीछा नहीं छोड़ते।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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Sunday, February 19, 2012

चाणक्य नीति-छात्र छात्राओं को मन बहलाने से बचना चाहिए (chankya neeti or policy-today students and education)

              आधुनिक शिक्षा जगत में पश्चिम की विचारधारा के पोषक तत्वों का बोलबाला है। आजकल के माता पिता यह अपेक्षा करते हैं कि उनके बच्चे स्कूल से संपूर्ण व्यक्तित्व के स्वामी बनकर बाहर आयें। स्वयं कोई अपने बच्चों में न संस्कार डालना चाहता है न उनमें इतनी शक्ति है कि वह स्वयं ही भारतीय अध्यात्मिक ग्रंथों का अध्ययन कर स्वयं ज्ञान अर्जित करने के साथ ही अपने परिवार को सुसंस्कृत बना सकें। सभी अर्थोपर्जान में यह सोचकर लगे हैं कि उससे ही बुद्धि, संस्कार और ज्ञान स्वतः आ जाता है। न भी आये तो समाज तो वैसे ही धनिकों को सम्मान मिलता है। इसके अलावा पालकगण बच्चों को बड़े और महंगे स्कूल भेजकर अपनी जिम्मेदारी से स्वयं को मुक्त समझते हैं। उधर स्कूलों के प्रबंधक भी अपनी छवि बनाये रखने के लिये कभी पिकनिक तो कभी पर्यटन के कार्यक्रम आयोजित कर जहां यह साबित करते है कि वह अपने यहां पढ़ रहे छात्र छात्राओं को शैक्षणिकेत्तर गतिविधियों में संलिप्त कर उनको पूर्ण व्यक्त्तिव का स्वामी बना रहे है वहीं उनको अतिरिक्त आय भी अर्जित करते हैं। शिक्षा के व्यवसायीकरण ने उसे भारतीय अध्यात्म ज्ञान से परे कर दिया है।
चाणक्य नीति में कहा गया है कि
                 
                                                 गृहाऽऽसक्त्तस्य नो विद्या नो दया मांसभोजिनः।
                                                    द्रव्यलुब्धस्य नो सत्यं स्त्रेणस्य न पवित्रता।।
                        ‘‘घर में आसक्ति रखने वाले को कभी विद्या नहीं मिलती। मांस का सेवन करने वाले में कभी दया नहीं होती। धन के लोभी में सत्य का भाव नहीं आता और दुराचार, व्याभिचार तथा भोगविलास में लिप्त मनुष्य में शुद्धता नहीं होती।’’
                                       कामं क्रोधं तथा लोभं स्वादं श्रृ्ङ्गारकौतुके।
                                         अतिनिद्राऽतिसेवे च विद्यार्थी ह्याष्ट वर्जयेत्।।
              ‘‘कामुकता, क्रोध और लालसा, बिना परिश्रम के चीजों के मिलने की आशा, स्वादिष्ट भोजन के खाने की इच्छा, सजना संवरना, खेल तमाशे, तथा मन बहलाने के लिये खेलना, बहुत सोना तथा किसी दूसरे की अत्यधिक सेवा या चाटुकारिता करना इन आठ विषयों से छात्रों को बचना चाहिये।
                विद्यालयों में अतिरिक्त गतिविधियों तो भी हों तो भी ठीक है मगर अब तो स्कूल या कॉलिज के नाम पर छात्र छात्रायें अपनी मैत्री को भी एक आनंद के रूप में फलीभूत होते देखना चाहते है। इसी कारण अनेक ऐसी अप्रिय वारदातों सामने आती है जिनसे अतंतः पालकों अपमानित होना ही पड़ता है। महाविद्यालयों में अनेक छात्र छात्रायें मैत्री और प्यार के नाम पर ऐसे संबंध बनाते हैं जो उनके लिये ऐसे संकट का कारण बनता है जिससे उनका पूरा जीवन ही तबाह हुआ लगता है।
               दरअसल शैक्षणिक जीवन केवल अध्ययन के लिये है। विद्यालयों और महाविद्यालयों में जीवन के अनुभव सीखने या सिखाने की अपेक्षा करना माता पिता का अपनी जिम्मेदारी से भागना है तो शिक्षकों के लिये एक अतिरिक्त बोझ हो जाता है। जहां तक खेलों का प्रश्न है तो उनको घरेलू विषय मानना चाहिए। जिससे बच्चे अपने आसपास के बच्चों के साथ खेलते हुए सीख सकते हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि छात्र जीवन में ऐसे विषयों से दूर रहना चाहिए जो उसमें बाधा डालते हैं।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Monday, February 6, 2012

मनुस्मृति-स्वर्ण की माला वस्त्र के बाहर न पहने (sone ki mala aur vastra-manu smruti)

         पूरे विश्व में सोना स्त्रियों की कमजोरी है तो अपराधियों के लिये आकर्षण की वस्तु  है।  देखा जाये तो सोना किसी का काम नहीं है पर फिर भी इसकी कीमत का महत्व इतना है कि किसी आदमी की प्रशंसा करनी हो तो उसे सोने के समान कहा जाता है। स्वयं को दूसरों के सामने स्वयं को श्रेष्ठ प्रमाणित करना मनुष्य का स्वभाव होता है। अनेक लोग दूसरे मनुष्यों का ध्यान अपनी तरफ खींचने के लिये उच्छृंखलता का व्यवहार करते हैं। कुछ अपनी उद्दंण्डता से स्वयं को शक्तिशाली साबित करना चाहते है। दरअसल इस प्रयास में अनेक लोग ऐसे निंदनीय कार्य करते हैं जिनका आभास ज्ञान न होने के कारण उनको नहीं होता। आमतौर से सोने का हार पहनना स्त्री जाति के लिये एक धार्मिक और सांस्कृतिक परंपरा रही है। वह भी उसे अपने वस्त्रों के पीछे छिपाये रहती हैं या उसे ऐसे पहनती हैं कि हार का पूरा भाग दूसरे को नहीं दिखाई दे। अब तो पुरुष जाति में भी सोने की चैन पहनने का रिवाज प्रारंभ हो गया है। तय बात है कि यह सब दिखाने के लिये है और इसलिये जो पुरुष सोने की चैन पहनते है उसे वस्त्रों के बाहर प्रदर्शित करते हैं। मनुस्मृति में इसे निंदनीय कार्य बताया गया है।
मनुस्मृति में कहा गया है कि
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न विगृह्य कर्था कुर्याद् बहिर्माल्यं न धारयेत्।
गवां च यानं पृष्ठेन सर्वथैव विगर्हितम्।।
               ‘‘उच्छृ्रंखल पूर्व बातचीत करने, प्रदर्शन के लिये कपड़ो के बाहर सोने की माला पहनना और बैल की पीठ पर सवारी करना निंदनीय कार्य हैं।’’
सर्वे च तिलसम्बद्धं नाद्यादस्तमिते रवी।
न च नग्न शयीतेह च योच्छिष्ट क्वच्तिद्व्रजेत्।
             ‘‘सूर्यास्त होने के बाद तिलयुक्त पदार्थों का सेवन नहीं करना चाहिए और न ही नग्न होकर पानी पीना चाहिए। जूठे मुंह यानि बिना कुल्ला किये बाहर भी नहीं जाना चाहिए।’’
          यह तो केवल एक उदाहरण है जबकि हम समाज की दिनचर्या में कई ऐसे तथ्य देख सकते हैं जिसमें लोग आचरणहीनता दर्शाने वाले विषयों को फैशन मानने लगे हैं। बातचीत में अनावश्यक रूप से उग्र भाषा का प्रयोग करना अथवा जोरदार आवाज में बोलकर अपनी बात को सही प्रमाणित करना इसी श्रेणी में आता है। अनेक लोगों की तो यह आदत है वह वार्तालाप के समय हर वाक्य के साथ गाली का प्रयोग करते हैं बिना यह जाने कि इसका उपस्थित श्रोताओं पर विपरीत प्रभाव होता है। मनुस्मृति का अध्ययन करने पर अनेक ऐसे कामों से बचा जा सकता है जिनके दुष्प्रभावों से अवगत न होने पर हम उनको करते हैं।
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संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
writer and editor-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep', Gwalior
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Friday, February 3, 2012

पतंजलि योग साहित्य-नतीजों से भी काम का अनुमान किया जा सकता है(patanjali yaog literature-word and result, kaam aur uska parinam)

               कभी हमें किसी व्यक्ति की स्थिति देखकर उसकी सक्रियता का अनुमान लग सकता है। अगर हमें योग का ज्ञान है तो हम किसी को नतीजा भोगते देखकर यह अनुमान भी लगा सकते है कि उसने किस तरह काम किया होगा। इतना ही नहीं हम जो कर्म करते हैं उसके परिणामों का भी हमें अच्छी तरह आभास हो जाता है।  आमतौर से आधुनिक विज्ञापन ज्योतिष तथा मनुष्यों की सिद्धि पर विश्वास नही करता पर पतंजलि योग के अनुसार अगर कोई योगासन, ध्यान, प्राणायाम करने के साथ ही संयम का पालन करे तो वह इतना सिद्ध हो जाता है कि उसे अपने भविष्य का ज्ञान होने लगता है। इतना ही नहीं अगर हम किसी व्यक्ति को काम करते नहीं देख पाए  पर उसे नतीजे भोगते देखकर भी यह अंदाज लगाया जा सकता है कि उसने क्या किया होगा।
पतंजलि योगशास्त्र  में कहा गया है कि
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क्रमान्यत्वं परिणामन्यत्वे हेतुः।

             ‘‘किसी कार्य करने के क्रम में भिन्नता से परिणाम भी भिन्न होता है।’’
परिणामन्नयसंयमादतीतानागतज्ञानम्।।
              ‘‘अतीत, वर्तमान तथा भविष्य का विचार करने से परिणाम का ज्ञान हो जाता है।’’

                    पतंजलि योग में न केवल भौतिक तथा दृश्यव्य संसार को जानने की विधा बताई गयी है बल्कि अभौतिक तथा अदृश्यव्य स्थितियों के आंकलन का भी ज्ञान दिया गया है। हमारे सामने जो भी दृश्य आता है वह तत्काल प्रकट नहीं होता बल्कि वह किसी के कार्य के परिणाम स्वरूप ही ऐसा होता है। कोई व्यक्ति हमारे घर आया तो इसका मतलब वह किसी राह से निकला होगा। वहां भी उसके संपर्क हुए होंगे। वह हमारे घर पर जो व्यवहार करता है वह उसके घर से निकलने से लेकर हमारे यहां पहुंचने तक आये संपर्क तत्वों से प्रभावित होता है। वह धूप में चलकर आया है तो दैहिक थकावट के साथ मानसिक तनाव से ग्रसित होकर व्यवहार करता है। कोई घर से लड़कर आया है तो उसका मन भी वहीं फंसा रह जाता है और भले ही वह उसे प्रकट न करे पर उसकी वाणी तथा व्यवहार अवश्य ही नकारात्मक रूप से परिलक्षित होती है।

            कहने का अभिप्राय यह है कि हम प्रतिदिन जो काम करते हैं या लोगों हमारे लिये काम करते हैं वह कहीं न कहीं अभौतिक तथा अदृश्यव्य क्रियाओं से प्रभावित होती हैं। इसलिये कोई दृश्य सामने आने पर त्वरित प्रतिक्रिया नहीं व्यक्त करना चाहिए। हमें यह विचार करना चाहिए कि उस दृश्य के पीछे कौन कौन से तत्व हैं। व्यक्ति, वस्तु या स्थितियों से प्रभावित होकर ही कोई धटना हमारे सामने घटित होती है। जब हमें यह ज्ञान हो जायेगा तब हमारे व्यवहार में दृढ़ता आयेगी और हम अनावश्यक परिश्रम से बच सकते हैं। इतना ही नहीं किसी दृश्य के सामने होने पर जब हम उसका अध्ययन करते हैं तो उसके अतीत का स्वरूप भी हमारे अंतर्मन में प्रकट होता है। जब उसका अध्ययन करते हैं तो भविष्य का भी ज्ञान हो जाता है।         
         हम अपने साथ रहने वाले अनेक लोगों का व्यवहार देखते हैं पर उसका गहराई से अध्ययन नहीं करते। किसी व्यक्ति के मन में अगर पूर्वकाल में से दोष रहे हैं और वर्तमान में दिख रहे हैं तो मानना चाहिए कि भविष्य में भी उसकी मुक्ति नहीं है। ऐसे में उससे व्यवहार करते समय यह आशा कतई नहीं करना चाहिए कि वह आगे सुधर जायेगा। योग साधना और ध्यान से ऐसी सिद्धियां प्राप्त होती हैं जिनसे व्यक्ति स्वचालित ढंग से परिणाम तथा दृश्यों का अवलोकन करता है। अतः वह ऐसे लोगों से दूर हो जाता है जिनके भविष्य में सुधरने की आशा नहीं होती। जब हमारा कोई कार्य सफल नहीं होता तब हम भाग्य को दोष देते हैं जबकि हमें उस समय अपने दोषों और त्रुटियों पर विचार करना चाहिए।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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Saturday, January 28, 2012

चाणक्य नीति-अधिकार संपन्न आदमी कभी कामना रहित नहीं होता (chankya neeti-adhikar sanpanna aadmi kabhee kamna rahit nahin hota)

हम इस संसार को अपने हिसाब से नहीं चला सकते यह बात समझ लेना चाहिए। अक्सर हम लोग इस गलतफहमी में रहते हैं कि हम अपने प्रभाव से दूसरे लोगों को सुधार लेंगे। श्रीमद्भागवत गीता के अनुसार इस संसार में प्राणी समुदाय त्रिगुणमयी माया से मोहित हो रहा है। हर आदमी अपने स्वाभाविक गुणों के अनुसार व्यवहार करता है। हम लाख कोशिश करें पर जब तक दूसरे आदमी में किसी कार्य या व्यवहार का गुण नहीं है वह उसे हमारे अनुसार नहीं करेगा। रिश्ते और परिवार में जिनके पास अधिकार है वह कभी भी अपना अहंकार छोड़कर व्यवहार नहीं कर सकते। व्यवसाय और नौकरी में भी हम देखते हैं कि अधिकारी लोग अपनी जिद्द नहीं छोड़ते। सच बात तो यह है कि जब हम देश में व्याप्त भ्रष्टाचार की बात करते हैं तो यह बात सामने आती है कि कुछ लोगों को समाज का भाग्यनियंता बनने का अधिकार मिल गया है जो उसका दोहन अपने अहंकार की पूर्ति तथा घर भरने के लिये करते है। राज्य का हस्तक्षेप समाज में इस तरह है कि मामूली से मामूली अधिकारी भी किसी सम्मानीय आदमी को अपमानित कर सकता है।
                                     चाणक्य नीति में कहा गया है कि
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                         निस्मृहो नाऽधिकारी स्यान्नाकारी मण्डनप्रियः।
                         नाऽविदगधः प्रियं ब्रूयात् स्पष्टवक्ता न वञ्चकः।।
                 ‘‘जिसके पास अधिकार है वह आकांक्षा रहित नहीं हो सकता। सौंदर्य का पुजारी अकाम नहीं हो सकता। मूर्ख व्यक्ति कभी प्रिय वचन नहीं बोल सकता तो हमेशा स्पष्टभाषी कभी धोखा नहीं देता।
                    ’’मूर्खाणा पण्डिता द्वेष्या अधनानां महाधनाः।
                     वाराऽंगना कुलस्त्रीणां सुभगानां च दुर्भागाः।।
               ‘‘बुद्धिहीनों के शत्रु विद्वान, निर्धनों के शत्रु धनवान, खानदानी स्त्रियों की शत्रु वैश्यायें और सुहागन की शत्रु विधवायें होती है।’’
                हमने देखा है कि भ्रष्टाचार के विरोध करने वाले भी समाज में राज्य का हस्तक्षेप करने की बजाय नये पद सृजन पर जोर देते हैं। जहां अधिक कानूनों को भ्रष्टाचार की जड़ माना जाता है वहीं वहां नये कानून बनाने पर बल देते हैं। उनको चाणक्य नीति पढ़ना चाहिए। समाज, धर्म और कानून के बारे में विचार करते समय चाणक्य जैसे महान विचारक के सिद्धांतों का अध्ययन किया जाना चाहिए।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Wednesday, January 25, 2012

पतंजलि योग सूत्र-साधन से सिद्धि में भेद आता है (sadhna se siddhi-patanjali yoga sahitya)

          इस संसार में सभी मनुष्य का जीवन एक जैसा दृष्टिगोचर नहीं होता। इसका कारण यह है कि हर मनुष्य की संकल्प शक्ति प्रथक प्रथक है। वैसे देखा जाये तो मनुष्य इस संसार से जुड़ता है जिसे योग ही कहा जा सकता है। अर्थात योग तो हर मनुष्य कर रहा है पर कुछ लोग अभ्यास के माध्यम से स्वयं ही अपनी सक्रियता तथा परिणाम निर्धारित करते हैं जबकि कुछ मनुष्य परवश होकर जीवन में चलते हैं। जो स्वयं योग करते हैं वह सहज योग को प्राप्त होते हैं जबकि अभ्यास रहित मनुष्य असहज होकर जीवन गुजारते हैं। स्वयं योग करने वालों की सिद्धि भी एक समान नहीं रहती। जिनका संकल्प प्रबल है उनके मानसिक साधन अत्यंत शक्तिशाली होते हैं और उनको सिद्धि तीव्र गति से मिलती है। जिनकी संकल्प शक्ति मध्यम अथवा निम्न है उनको थोड़ा समय लगता है।
                                            पतंजलि योग में कहा गया है कि
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                                            तीव्रसंवेगानामासन्नः।।
             ‘‘जिसके साधन की गति तीव्र है उनकी शीघ्र सिद्धि हो जाती है।’’                                   मृदुमध्याधिमात्रत्वात्तोऽपि विशेषः।।
        ‘‘साधन की मात्रा हल्की, मध्यम और तीव्र गति वाली होने से भी सिद्धि में भेद आता है।’’
                     मुख्य बात यह है कि मनुष्य को अपनी साधना में निष्ठा रखना चाहिए। यह निष्ठा संकल्प से ही निर्मित होती है। जब मनुष्य यह तय करता है कि वह योग साधना के माध्यम से ही अपने जीवन को श्रेष्ठ बनायेगा तब उसका मन अन्यत्र नहीं भटकता, ऐसे में उसका साधन शक्तिशाली हो जाता है। जहां मनुष्य ने यह माना कि अन्य साधन भी आजमाये जायें वहां उसकी साधना क्षीण होती है। जब कोई साधक केवल इसलिये योग साधना करता है कि इससे कोई अधिक लाभ नहीं होगा तब उसका संकल्प कमजोर होता है। एक बात तय है कि अभ्यास करते करते मनुष्य अंततः पूर्ण सहज योग को प्राप्त होता है पर यह उसकी मनस्थिति पर निर्भर है कि वह कितनी तेजी से इस राह पर बढ़ेगा।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Saturday, January 21, 2012

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-उपेक्षा कर अपने जीवन मे आनंद लायें (kautilya ka arthshastra-upeksha aur anand)

              राजकर्म और  निज व्यवहार में साम, दाम, दंड और भेद की नीतियों से काम लिया जाता है। जब इन चारों नीतियों का उपयोग समझ में न आये तो क्या करे? हां, ऐसा कई बार अवसर आता है कि हमारा विवेक यह तय नहीं कर पाता कि क्या करें? दरअसल यह बात समझना चाहिए कि हमारे व्यवहार में आने वाले व्यक्ति हमारा ध्यान आकर्षित करने के लिये तमाम युक्तियां अपनाते हैं जिनसे हम प्रसन्न नहीं होते। कर भी कुछ नहीं पाते।  ऐसे में उपेक्षासन करना ही श्रेयस्कर है। ऐसा हमारा मत है। इसका कारण यह है कि हमारी निष्क्रियता दूसरे को विचलित कर सकती है।  वह हमें अप्रसन्न करने वाली क्रियायें बंद कर देगा।
          आज के युग में इस तरह के आसन का विशेष महत्व है। पहले तो छोटे राज्यों की वजह युद्ध आमतौर से होते थे पर आधुनिक लोकतंत्र प्रणाली से राज्यों स्वरूप बृहद बन जाने से युद्धों की आशंका समाप्त कर दी है। जब भौतिकवाद में डूबे विश्व समाज के लोग अहंकार और मद में एक दूसरे को नीचा दिखाने में लगे हों और उनसे बहस करने का कोई परिणाम नहीं निकलता हो तब ज्ञानी आदमी के लिये उपेक्षासन एक तरह से ब्रह्मास्त्र की तरह काम कर सकता है। आपसी वार्तालाप में लोग भौतिक साधनों की चर्चा करते हुए अपनी उपलब्धियों का बखान करने से नहीं चूकते। टीवी चैनलों और समाचार पत्रों के साथ इंटरनेट में बाज़ार के विज्ञापनों से प्रेरित होकर उपभोग संस्कृति को बढ़ावा दिया जा रहा है। ऐसे में हमें अपने मन को ऐसी चर्चाओं से मन व्यथित करने की बजाय सात्विक विषयों की तरफ अपना ध्यान ले जाना चाहिए। यह अलग बात है कि इस तरह उपेक्षासन करने पर लोग आपको पौंगापंथी समझें पर सच बात यह है कि इससे आपको आराम मिलेगा। जिस तरह मोर नाचने के बाद अपने गंदे पांव देखकर रोता है उसी आजकल लोग नववर्ष, वैलंटाईन डे तथा अन्य पाश्चात्य पर्व आने पर नाच गाकर और गलत सलत खाकर एंजॉयमेंट यानि आंनद करने का पाखंड करते हैं पर उसके बाद फिर जिंदगी के तनाव उनको घेरकर अधिक दुख देते हैं। पैसा खर्च होने के साथ ही शरीर टूटता है सो अलग।
कौटिल्य के अर्थशास्त्र में कहा गया है कि
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आस्त प्रेक्ष्यारिमधिकमुपेक्षासनमुच्यते।
उपेक्षा कृतवानिन्द्र पारिजातग्रहं प्रति।।
              ‘‘जब कोई मनुक्ष्य अपने शत्रु या विरोधी को अपने से अधिक जानकर उसके प्रति उपेक्षा का भाव दिखाता है तब उसे उपेक्षासन कहा जाता है। जब भगवान श्रीकृष्ण ने सत्यभावा के लिये स्वर्ग से कल्पवृक्ष उठा लिया तो देवराज ने अपनी शक्ति को कम मानते हुए उसे युद्ध करने की बजाय उपेक्षासन किया था।"
उपेर्क्षितत्स चान्येस्तु कारणेनेह केन चित्त।
आसनं रुक्मिण इव तदुपेक्षासनं स्पुतम्।।
               ‘‘उसी तरह जिस समय रुक्मणी के भाई रुक्मी ने जब कृष्ण के साथ युद्ध में किसी ने सहायता की तो वह उपेक्षासन कर बैठ गया।’’
                 दरअसल आजकल हम चारों तरफ धन के सहारे फैल रहे आकर्षक वातावरण को देखकर अपने मन में अनेक तरह के सपने पाल लेते हैं। खासतौर से आजकल के मध्यम तथा निम्नवर्गीय युवा फिल्म, इंटरनेट तथा पत्रिकाओं में भौतिकतावाद के चलते आकर्षक संसार के उपभोग का जो सपना देखते हैं वह सभी के लिये साकार होना संभव नहीं है। जिनको विरासत में धन मिलता है वह तो चहकते हैं पर जिनको अपनी रोजी रोटी कमाने के लिये ही संघर्ष करना पड़ता है उनके लिये अपने अभावों का मानसिक तनाव झेलने के अलावा अन्य मार्ग नहीं रह जाता। ऐसे में कुछ युवा बहककर अपराध की तरफ बढ़ जाते हैं। उनके लिये बचने का तो बस यह एक ही मार्ग है कि वह भौतिक संसार के आकर्षण के प्रति उपेक्षासन कर जीवन का आनंद लें।
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
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Saturday, January 7, 2012

अथर्ववेद से संदेश-श्रद्धाहीन मनुष्य दूसरों के धन पर वक्रदृष्टि डालते हैं (aaatharva ved se sandesh-shraddhahin manushya doosron ke dhan par vakradrshiti dalte hain)

            श्रीमद्भागवतगीता को लेकर हमारे देश में अनेक भ्रम प्रचलित हैं। कहा जाता है कि यह एक पवित्र किताब है और इसका सम्मान करना चाहिए पर उसमें जो तत्वज्ञान है उसका महत्व जीवन में कितना है इसका आभास केवल ज्ञानी लोगों को श्रद्धापूर्वक अध्ययन करने पर ही हो पाता है। श्रीगीता को पवित्र मानकर उसकी पूजा करना और श्रद्धापूर्वक उसका अध्ययन करना तो दो प्रथक प्रथक क्रियायें हैं। श्रीगीता में ऐसा ज्ञान है जिससे हम न केवल उसके आधार पर अपना आत्ममंथन कर सकते हैं बल्कि दूसरे व्यक्ति के व्यवहार, खान पान तथा रहन सहन के आधार पर उसमें संभावित गुणों का अनुमान भी कर सकते हैं। गीता का ज्ञान एक तरह से दर्पण होने के साथ दूरबीन का काम भी करता है। यही कारण है कि ज्ञानी लोग परमात्मा की निष्काम आराधना करते हुए अपने अंदर ऐसी पवित्र बुद्धि स्थापित होने की इच्छा पालते हैं जिससे वह ज्ञान प्राप्त कर सकें। जब एक बार ज्ञान धारण कर लिया जाता है तो फिर इस संसार के पदार्थों से केवल दैहिक संबंध ही रह जाता है। ज्ञानी लोग उनमें मन फंसाकर अपना जीवन कभी कष्टमय नहीं बनाते।
अथर्ववेद में कहा गया है कि
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ये श्रद्धा धनकाम्या क्रव्वादा समासते।
ते वा अन्येषा कुम्भी पर्यादधति सर्वदा।।
            ‘‘जो श्रद्धाहीन और धन के लालची हैं तथा मांस खाने के लिये तत्पर रहते हैं वह हमेशा दूसरों के धन पर नजरें गढ़ाये रहते हैं।’’
भूमे मातार्नि धेहि भा भद्रया सुप्रतिष्ठतम्।
सविदाना दिवा कवे श्रियां धेहि भूत्याम्।।
         ‘‘हे मातृभूमि! सभी का कल्याण करने वाली बुद्धि हमें प्रदान कर। प्रतिदिन हमें सभी बातों का ज्ञान कराओ ताकि हमें संपत्ति प्राप्त हो।’’
          इस तत्वज्ञान के माध्यम से हम दूसरे के आचरण का भी अनुमान प्राप्त कर सकते हैं। जिनका खानपान अनुचित है या जिनकी संगत खराब है वह कभी भी किसी के सहृदय नहीं हो सकते। भले ही वह स्वार्थवश मधुर वचन बोलें अथवा सुंदर रूप धारण करें पर उनके अंदर बैठी तामसी प्रवृत्तियां उनकी सच्ची साथी हो्रती हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि तत्वज्ञान में ज्ञान तथा विज्ञान के ऐसे सूत्र अंतर्निहित हैं जिनकी अगर जानकारी हो जाये तो फिर संसार आनंदमय हो जाता है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Saturday, December 31, 2011

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-अपनी शक्ति के अनुरूप कार्य का विचार करें (kautilya ka arthshastra-apni shakti ke anurup kam karen)

              किसी काम करने की सोचना और अपनी वाणी से उसे करने का दावा करना अत्यंत सहज है पर उसका निष्पादन करना तभी संभव है जब अपने सामर्थ्य के अनुरूप हो। आजकल फिल्म, टीवी तथा पत्र पत्रिकाओं में विज्ञापनों का ऐसा प्रभाव है कि लोग उसमें बहक जाते हैं। तमाम तरह के ऐसे ख्वाब देखते हैं जिनका पूरा कर सकना उनकी सामाजिक, आर्थिक तथा व्यक्तिगत स्तर की सीमित क्षमता के कारण संभव नहीं हो सकता। इतना ही नहीं अनेक बार अपने सामर्थ्य से बड़ा लक्ष्य निर्धारित करने पर लोग अपने सारे आर्थिक संसाधन और शारीरिक ऊर्जा बर्बाद कर देते हैं पर उनके हाथ कुछ नहीं आता जिसकी वजह से उनको भारी मानसिक तनाव का सामना करना पड़ता है।
कौटिल्य का अर्थशास्त्र में कहा गया है कि
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शक्याशक्यपद्धिविछेदं कुर्याद्बुद्धया प्रसन्नया।
केवलं दन्तभङ्गायदन्तिनः शैलताडनम्।।
            ‘‘अपनी शुद्ध बुद्धि के तय करें कि कौनसा कार्य करना अपनी शक्ति के अनसार है या नहंी। इस तरह का विचार किये बिना कोई काम करना ऐसा ही है जैसे कि हाथी पर्वत पर प्रहार कर अपने केवल दांत ही तोड़ता है।’’
अशक्यारम्भवृत्तीनां कुतः क्लेशादृते फलम्।
भविन्त परितापिन्यो व्यक्तं कर्मविपतयः।।
       ‘‘अपनी शक्ति या सामर्थ्य से बाहर कार्य करने पर सिवाय क्लेश के कुछ हाथ नहीं आता। अपने कर्म से बुलाई गई आपत्ति व्यक्ति के लिये अत्यंत दुःखदायी होती है।’’
           फिल्म, टीवी और समाचार पत्रों में विज्ञापनों के माध्यम से जिस आधुनिक संसार को आम जनमानस के सामने प्रस्तुत किया जा रहा है वह केवल धन की शक्ति से बना है। जिनके पास धन है उनकी शक्ति का प्रचार इस तरह किया जा रहा है कि लोग उनकी भक्ति करने लगते हैं। किसी धनपति की संपदा के उद्गम स्त्रोत पवित्र हैं या नहीं इसकी जानकारी कभी नहीं मिलती। यही कारण है कि समाज में अपराध के प्रति युवाओं का आकर्षण बढ़ रहा है। बुरे काम का बुरा नतीजा जब सामने आता है तब लोगों को अपनी जान तक गंवानी पड़ती है। लोग आत्ममंथन नहीं करते। बस जैसा बाहर देखते हैं वैसा ही अंदर होने की इच्छा पालते हैं। अगर हम आजकल व्याप्त तनाव का अध्ययन करें तो यही सोच उसके लिये जिम्मेदार दिखाई देती है।
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संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Thursday, December 29, 2011

भर्तृहरि नीति शतक-दुष्ट लोगों के लिये संसार में कोई गुणी आदमी नहीं (bhritrihari neeti shatka-dushta logon ke liye duniya mein koyee gunee nahin)

            सामान्य मनुष्य पर उसकी संगति का प्रभाव अवश्य होता है। जो लोग चाहते हैं कि उनके अंदर कुविचार न आये, उनकी समाज में छवि सज्जन व्यक्ति की बने और उनके समक्ष कभी संकट न आये वह केवल इतना करें कि अपनी संगत पर ध्यान दें। ऐसे लोगों की संगत करें जिनसे मिलने पर प्रसन्नता होती हो। जो दुख देने वाले, निंदा करने वाले या असंतुलित मस्तिष्क के हैं उनसे दूर रहना ही श्रेयस्कर है। दुष्ट लोगों की संगत इतनी बुरी है कि वह शर्मदार को डरपोक, धर्मभीरु को पाखंडी, सत्यवादियों को कपटी और वीर को क्रूर बताते हैं। इन दुष्टों में बस एक ही गुण होता है दूसरों की निंदा करना। इतना ही नहीं न ऐसे लोगों से संगत करना चाहिए न ही इनकी संगत में रहने वाले के पास जाना चाहिए।
इस विषय में महाराज भर्तृहरि कहते हैं कि
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जाङ्यं ह्नीमति गणयते व्रतरुचौ दम्भः शुचौ कैतवं शूरे निर्घृणता मुनौ विमतिता दैन्यं प्रियालापिनि।
तेजस्विन्यवलिप्तता मुखरता वक्तर्यशक्तिः स्थिरे तत्को नाम गुणो भवेत् गुणिनां यो दुर्जनैनाकितः।।
         ‘‘दुष्ट संकोचशील पुरुषों में जड़ता, धर्मभीरुओं में पाखंड, सत्य धर्म में स्थित रहने वालों में कपट, वीरों में क्रूरता, विद्वानों में मूर्खता, नम्र लोगों में दीनता, प्रभावशालियों में अहंकार, अच्छे वक्तओं में बकवास तथा धीर गंभीर रहने वालों में असमर्थता का दुर्गुण होने का बयान करते हैं। ऐसा कौनसा गुणी आदमी है जिसमें दुष्ट लोग दोष नहीं ढूंढते।’’
              ऐसे दुष्टों की बात पर ध्यान देने से अपना ही मन खराब करना है। हम अच्छे है या बुरे इसकी पहचान हमें स्वयं ही कर सकते हैं। सीधी बात यह है कि हमारे मन में किसी के प्रति बुरा विचार नहीं आना चाहिए। दूसरा व्यक्ति अच्छा है या बुरा इसकी पहचान यह है कि भला आदमी कभी किसी निंदा नहीं करता। सज्जन आदमी हमेशा दूसरों के गुणों की प्रशंसा करता है। इतना ही नहीं दुष्ट व्यक्ति की पहचान होने पर उससे संबंध बनाये रखना ठीक नहीं है। यह सोचना बेकार है कि नियमित संबंध बनाये रखने में क्या दोष? दरअसल ऐसे दुष्ट व्यक्ति सामने कुछ न कहें पर पीठ पीछे अपने साथ का दोष बयान करने से बाज नहीं आते। अपनी छवि बनाने के लिये यह दूसरे की छवि खराब करते हैं।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Sunday, December 25, 2011

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-जिस कार्य में निंदा की संभावना हो उसे न करें (kautilya ka arthshastra-jis karya mein ninda ki sanbhawana ho vah n karen)

             आवेश, निराशा, काम और लोभवश कोई काम करना कभी ठीक नहीं है। कार्य करने के परिणामों पर विचार किये बिना उनको प्रारंभ करना जीवन के लिये अत्यंत भयावह प्रमाणित होता है। आजकल आधुनिक प्रचार युग में विज्ञापन की अत्यंत महत्ता है। वस्तुओं और सेवाओं के विज्ञापन तो प्रत्यक्ष दिखते हैं पर विचारों के विज्ञापन किस तरह फिल्म, धारावाहिकों तथा विशेष अवसरों पर बहसों या चर्चाओं के माध्यम से प्रस्तुत किये जाते हैं। इस तरह के विज्ञापन धार्मिक क्षेत्र में अधिक देखे जाते हैं जहां विशेष स्थानों, व्यक्तियों या समूहों की प्रशंसा इस तरह की जाती है जैसे कि उनसे जुड़ने पर संसार में अधिक लाभ होगा। गीत और संगीत से मोहित कर लोगों के धर्म से जोड़ा जाता है ताकि वह वर्तमान समय में मौजूद धर्म समूहों से बंधकर अपनी जेब ढीली करते रहें। इसमें फंसने वाले मनुष्यो के हाथ कुछ नहीं आता है। देखा जाये तो सभी धर्मों में कर्मकांड इस तरह जुड़े हुए हैं कि उनको अलग देखना कठिन है। इन कर्मकांडों से बाज़ार का लाभ होता है न कि आम इंसान में धार्मिक शुद्धि होती है।
कौटिल्य का अर्थशास्त्र में कहा गया है कि
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तदात्वायसिंशुद्ध शुचि शुद्धकमागतम्।
हितानुबन्धि च सदा कर्म सद्धिः प्रशस्यते।।
             ‘‘जो वर्तमान और भविष्य में शुद्ध हो तथा शुद्ध कर्म से प्राप्त होने वाला फल की दृष्टि से हितकर है बुद्धिमान लोग उसे करना ही श्रेष्ठ समझते हैं।’’
हितानुबन्धि यत्कार्य गच्छेद्येन न वाच्यातम्।
तस्मिन्कर्माणि सज्जेत तदात्व कटुकेऽपि हि।।
          ‘‘हित करने वाला जो हितकारी कार्य है वह उसे ही कहा जा सकता है जिसे करने पर कहीं किसी प्रकार की निंदा नहीं होती। हमेशा ऐसे ही कार्य को प्रारंभ करें चाहे वह वर्तमान में किसी भी प्रकार का लगे।’’
             देखा तो यह गया है कि अनेक लोग काम, लोभ और लालच में आकर अपना धर्म त्याग कर दूसरे की राह पर चलना प्रारंभ कर देते हैं। उनको मालुम नहीं कि यह बाद में अत्यंत कष्टकारी होता है। बचपन से साथ चले संस्कारों का साथ छोड़ना कठिन होता है। हमने यह देखा होगा कि हमारे देश में बाज़ार ने अपने उत्पाद बेचने के लिये अनेक तरह के त्यौहारों का जन्म दिया है। इतना ही जन्म दिन जैसी परंपरा का भी विकास किया है जो कि भारत के प्राचीन संस्कारों का भाग नहीं है। बाज़ार के प्रायोजित प्रचार में फंसे आम भारतीय ऐसे दुष्प्रचार में आसानी से फंस जाते हैं।
               मुख्य बात यह है कि हमें अपने विवेक के अनुसार काम करना चाहिए। किसी दूसरे के कहने में आकर ऐसा काम नहीं करना चाहिए जो कालांतर में निंदा के साथ ही आत्मग्लानि का कारण बने। लोगों को आनंद खरीदने के लिये प्रचार माध्यम प्रेरित करते हैं। आम आदमी उसके प्रभाव में उस पर खर्चीली राह परचलने लगते हैं। इधर उधर दौड़ते हैं फिर थकहारकर मोर की की तरह अपने पांव देखकर विलाप करते हैं। सुख की अनुभूति के लिये ध्यान के अलावा अन्य कोई क्रिया है इस पर ज्ञानी लोग यकीन करते हैं। मुश्किल यह है कि अंतर्मन में सुख की अनुभूति का प्रचार करना बाज़ार की प्रचार शैली का भाग नहीं है जबकि आजकल प्रचार देखकर ही लोग अपना मार्ग चुनते हैं।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Friday, December 23, 2011

रहीम के दोहे-राजा और भिखारी किसी की प्रार्थना और गर्जना नहीं सुनते (raja aur bhikhari kisi ki nahin sunte)

             हर मनुष्य को अपनी पहचान स्वयं विकसित करने के साथ ही परिश्रम से आत्मनिर्भर होने का प्रयास नहीं करना चाहिए। सामान्य लोग यह अपेक्षा करते हैं कि कोई उनकी सहायता करे या फिर जीवन में सफलता के लिये कोई ऐसा मार्ग मिल जाये जिसमें संकट उपस्थित न हो। यह संभव नहीं है। दैहिक जीवन जिस तरह सर्दी, गर्मी, बरसात तथा बसंत के मौसम के दौर से गुजरता है वैसे ही हालत भी कभी संकटपूर्ण तथा कभी खुशी देने वाले होते हैं। बुरे दौर में किसी से याचना करना केवल अपनी पहचान पर संकट लाना ही है। हम यह अपेक्षा करते हैं कि कोई धनाढ्य व्यक्ति हमारी सहायता करे तो वह व्यर्थ है। यह सोचना चाहिए कि अगर धनपति अपने धन को हाथ में पकड़ कर न रखने वाला न हो तो वह धनवान कैसे रह सकता है? यदि वह अपने धन से किसी का संकट मिटा दे तो फिर समाज में धनवान और निर्धन होने का अर्थ क्या रह जायेगा। यह अलग बात है कि कुछ दयालु धनपति दूसरे को दान आदि देकर समाज में संतुलन बनाये रखते हैं पर उनकी संख्या नगण्य होती है।
          उसी तरह हमें अपनी देह का स्वास्थ्य बनाये रखने के लिये जहां भोजन नियमित रूप से करना चाहिए वहीं योग साधना आदि के माध्यम से उसे स्वस्थ रखने का प्रयास करना चाहिए। यह बात तय है कि जब तक हम अपने शरीर के सहारे में तभी तक सब ठीक है। अगर कहीं उसमें दोष उत्पन्न हुआ तो फिर कोई सहायक नहीं मिल सकता। कोई न हमारी याचना सुनेगा न ही कोई हमसे डरेगा।
वैसे कविवर रहीम कहते हैं कि
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अरज गरज मानैं नहीं, ‘रहिमन ये जन चारि,।
रिनिया, राजा,मांगता, काम आसुरी नारि।।
‘‘कर्जदार, राजा, भिखारी तथा आसुरी प्रवृत्ति वाली नारी यह चार प्रकार के लोग न किसी की प्रार्थना सुनते हैं न किसी गर्जना को मानते हैं।’’
आदर घटै नरेस ढिंग, बसे रहे कछु नाहिं।
जो ‘रहीम’ कोटिन मिले, धिग जीवन जग माहिं।।
‘‘राजा के निकट रहने से आदर घटने के अलावा अन्य कोई फल नहीं मिलता। यदि भीड़ में शामिल हो जाये तो उसकी अपनी पहचान नहीं रहती। ऐसे में जीवन अपना ही जीवन धिक्कार योग्य लगता है।
प्रातःकाल अपनी देह, मन और विचार के विकार निकालने के बाद हमें इस संसार में जूझने के लिये निकलना चाहिए। जहां तक हो सके सत्संग करें। ऐसे लोगो से संपर्क रखें जो ज्ञानी हों। अपनी एक अलग पहचान हो। किसी की चमचागिरी कर अपना जीवन धन्य समझना एक महान मूर्खता है। प्रयास यह करना चाहिए कि हम किसी की सहायता न करें कि दूसरे पर हमारा काम या लक्ष्य निर्भर हो।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

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