Friday, December 23, 2011

रहीम के दोहे-राजा और भिखारी किसी की प्रार्थना और गर्जना नहीं सुनते (raja aur bhikhari kisi ki nahin sunte)

             हर मनुष्य को अपनी पहचान स्वयं विकसित करने के साथ ही परिश्रम से आत्मनिर्भर होने का प्रयास नहीं करना चाहिए। सामान्य लोग यह अपेक्षा करते हैं कि कोई उनकी सहायता करे या फिर जीवन में सफलता के लिये कोई ऐसा मार्ग मिल जाये जिसमें संकट उपस्थित न हो। यह संभव नहीं है। दैहिक जीवन जिस तरह सर्दी, गर्मी, बरसात तथा बसंत के मौसम के दौर से गुजरता है वैसे ही हालत भी कभी संकटपूर्ण तथा कभी खुशी देने वाले होते हैं। बुरे दौर में किसी से याचना करना केवल अपनी पहचान पर संकट लाना ही है। हम यह अपेक्षा करते हैं कि कोई धनाढ्य व्यक्ति हमारी सहायता करे तो वह व्यर्थ है। यह सोचना चाहिए कि अगर धनपति अपने धन को हाथ में पकड़ कर न रखने वाला न हो तो वह धनवान कैसे रह सकता है? यदि वह अपने धन से किसी का संकट मिटा दे तो फिर समाज में धनवान और निर्धन होने का अर्थ क्या रह जायेगा। यह अलग बात है कि कुछ दयालु धनपति दूसरे को दान आदि देकर समाज में संतुलन बनाये रखते हैं पर उनकी संख्या नगण्य होती है।
          उसी तरह हमें अपनी देह का स्वास्थ्य बनाये रखने के लिये जहां भोजन नियमित रूप से करना चाहिए वहीं योग साधना आदि के माध्यम से उसे स्वस्थ रखने का प्रयास करना चाहिए। यह बात तय है कि जब तक हम अपने शरीर के सहारे में तभी तक सब ठीक है। अगर कहीं उसमें दोष उत्पन्न हुआ तो फिर कोई सहायक नहीं मिल सकता। कोई न हमारी याचना सुनेगा न ही कोई हमसे डरेगा।
वैसे कविवर रहीम कहते हैं कि
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अरज गरज मानैं नहीं, ‘रहिमन ये जन चारि,।
रिनिया, राजा,मांगता, काम आसुरी नारि।।
‘‘कर्जदार, राजा, भिखारी तथा आसुरी प्रवृत्ति वाली नारी यह चार प्रकार के लोग न किसी की प्रार्थना सुनते हैं न किसी गर्जना को मानते हैं।’’
आदर घटै नरेस ढिंग, बसे रहे कछु नाहिं।
जो ‘रहीम’ कोटिन मिले, धिग जीवन जग माहिं।।
‘‘राजा के निकट रहने से आदर घटने के अलावा अन्य कोई फल नहीं मिलता। यदि भीड़ में शामिल हो जाये तो उसकी अपनी पहचान नहीं रहती। ऐसे में जीवन अपना ही जीवन धिक्कार योग्य लगता है।
प्रातःकाल अपनी देह, मन और विचार के विकार निकालने के बाद हमें इस संसार में जूझने के लिये निकलना चाहिए। जहां तक हो सके सत्संग करें। ऐसे लोगो से संपर्क रखें जो ज्ञानी हों। अपनी एक अलग पहचान हो। किसी की चमचागिरी कर अपना जीवन धन्य समझना एक महान मूर्खता है। प्रयास यह करना चाहिए कि हम किसी की सहायता न करें कि दूसरे पर हमारा काम या लक्ष्य निर्भर हो।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

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