Sunday, June 6, 2010

सत्य और भ्रम-विशेष रविवारीय लेख (satya aur bhram-special hindi features and article)

भारत का अध्यात्मिक ज्ञान सत्य के निकट क्यों है? सीधी सी बात है कि दुनियां के सबसे अधिक भ्रमित लोग यहीं रहते हैं। जिस तरह कमल कीचड़ में खिलता है गुलाब कांटों में सांस लेते हुए जिंदा रहता है उसी तरह सत्य का प्रकाश वहीं सबसे अधिक वहीं दिखता है यहां भ्रम का अंधेरा है। अपने देश में जाति पाति को लेकर दिनोंदिन बहस बढ़ती जा रही है। जातियों को मिटाना है एक समाज बनाना है-जैसे नारे गूंज रहे हैं। क्या इस देश में जाति पाति है? सवाल यह है कि जाति यानि क्या? जन्म से जाति की बात करें तो वह अस्तित्व में ही नही है क्योंकि सभी का जन्म एक ही तरीके से होता हैं-यह अलग बात है कि लोग विवाह आदि के लिये उनको बनाये रखते हैं। कर्म के आधार पर जाति की बात करें तो वह बनती बिगड़ती है।
कुछ विद्वान तो कहते हैं कि मनुष्य एक ही दिन में चारों वर्ण से गुजरता है। सुबह जब आदमी शौच स्नान करता है तब अपने शरीर की गंदगी की सफाई करता है तब वह क्षुद्र, जब पूजा वगैरह करता है तब ब्राह्म्ण, दोपहर अर्थोपार्जन करता तब वैश्य और जब सायं मनोरंजन करने के साथ जब किसी का भला करने के लिये काम करता है तब क्षत्रिय होता है-वैसे आजकल जो लोग गृहस्थी को सुरक्षित बचाये रखे हुए हैं उन सभी को क्षत्रिय ही मानना चाहिये क्योंकि जीवन बहुत संघर्षमय हो गया हैै।
सवाल यह भी है अपनी जाति से कौन खुश है और कौन कितना मतलब रखता है? मूलतः मनुष्य स्वार्थी है, जिससे काम पड़ता है उसे बाप बना लेता है-लोग तो गधे को बाप बनाने की भी बात करते है। अगर कोई इंसान गरीब और लाचार है तो उसे अपनी जाति में क्या परिवार में ही सम्मान नहीं मिलता समाज में क्या मिलेगा?
आज तक यह कोई बता नहीं पाया कि जिन जातियों को हम मिटाने निकले हैं वह बनी कैसे? अनेक लोग इतिहास सुनाते हैं पर उसमें झूठ के अलावा अब कुछ नहंी दिखता। दूसरी बात यह है कि नस्लीय भिन्नताओं का सही वैज्ञानिक मूल्यांकन नहीं हुआ जिससे पता लगे कि कुछ जातियों के लोग गोरे और कुछ के काले क्यों होते हैं?
श्रीमद्भागवत गीता में कर्म और स्वभाव के आधार पर जाति की संरचना की बात है पर कहीं जन्म के आधार का उल्लेख नहीं है। उसमें भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि ‘जो मुझे भजेगा वही मुझे पायेगा।’
फिर यह जातियों का मामला इतना जटिल है कि समझ में नहीं आता कि आखिर इसको मिटाने या उठाने की शुरुआत कहां से करना चाहिये और सबसे पहले किस जाति को निशाने पर लेना चाहिए। मुख्य बात यह है कि भ्रम पर जिंदा रहने का आदी हो चुका यह समाज है और उसके शिखर पुरुष अंग्रेजी शैली से राज्य कर रहे हैं‘फूट डालो और राज करो’ की तर्ज पर सभी अपनी साामजिक, आर्थिक और धार्मिक साम्राज्य बचा रहे हैं ताकि उनकी पीढ़ियों का भविष्य सुरक्षित रहे और समाज उनको ढोता रहे।
आप देख लीजिये सभी जगह वंशवाद का बोलबाला है। कहते हैं कि फिल्म साहित्य, संगीत, पत्रिकारिता तथा कला जैसे क्षेत्र तो आदमी की योग्यता के आधार पर चलते हैं पर वहां भी वंशवाद बैठ गया। अब आर्थिक क्षेत्र की बात करें तो पुरानी पद्धति के व्यापार तो वंश के आधार पर ही विरासत में मिलते थे और वह स्वीकार्य भी है पर उसमें भी पश्चिम से कंपनी पद्धति आ गयी जिसमें आदमी अपनी योग्यता के आधार पर सर्वोच्च पद पर पहुंचता है पर उसमें भी हमारे भारत के शिखर पुरुषों ने ऐसी व्यवस्था की कि अब उनकी पीढ़ियां ही उस पर सर्वाच्च पद पर विराजमान हों। आम शेयर धारकों का पैसा उनके प्रबंध निदेशकों की जागीर मानकर गिना जाता है। धार्मिक क्षेत्र जो ज्ञान के आधार पर चलता है वहां भी पिता अपने पुत्र को विरासत की तरह सौंपने लगे है। कहने का अभिप्राय यह है कि शिखर पुरुष और उनके प्रायोजित बुद्धिजीवी समाज को आधुनिक बनाने की मुहिम केवल आम लोगों को भरमाने और बांटने के लिये ही चला रहे हैं ताकि यथास्थिति बनी रहे।
देश के आर्थिक,सामाजिक तथा धार्मिक शिखर पुरुषों का साम्राज्य इतना बड़ा है कि उससे लड़ना कथित अमेरिकी साम्राज्य से लड़ना अधिक कठिन है-जो बुद्धिजीवी ऐसा दावा करते हैंे उन्हें अपनी बात पर फिर से विचार करना चाहिए।
अब बात करें मार्क्सवाद की। ‘दुनियां के मजदूरों का एक हो जाआ0े’ का नारा इतना भ्रम पैदा करने वाला है कि उस पर जितना लिखा जाये कम है। जनवादी और प्रगतिशील लेखकों एक बहुत बड़ा समूह इस नारे के तले सपने बुने जा रहा है। मज़दूर एक हो जायें पर उनका नेता होगा ही न! इतना ही नहीं उनके काम को देखने वाला एक निरीक्षक भी होगा। उनको वेतन देने वाला एक अधिकारी भी होगा। जहां वह काम करेंगे वहां भी एक प्रबंधक होगा! यह पद भी जाति पाति जैसे ही है। प्रबंधक कभी नहीं कहेगा कि ‘मैं मज़दूर हू।’ लेखापाल और लिपिक तथा निरीक्षक भी अपने आपको शासित नहीं शासक दिखाने का प्रयास करेंगे। जिस तरह एक उच्च जाति का आदमी अपनी बेटी निम्न जाति में नहीं देना चाहता वैसे ही प्रबंधक भी मज़दूर के बेटे को नहीं देगा।
कार्ल मार्क्स ने बड़े आराम से अपनी ‘पूंजी’ किताब लिखी क्योंकि उसका प्रायोजक एक पूंजीपति एंजिल्स था। मार्क्स ने किताब लिखी और उसने प्रकाशित की क्योंकि दुनियां के मज़दूरों को भ्रम में रख उन पर शासन करने के लिये एक ऐसी किताब का होना जरूरी था। उस पूंजीपति का नाम भी हुआ और कार्ल मार्क्स का भी। मार्क्सवाद को ढोने वाला एक देश सोवियत संघ बिखर गया तो इधर चीन भी अब धीरे धीरे पूंजीवाद की तरफ जा रहा है। दरअसल अनेक बार तो लगता है कि कामरेड लोग पूंजीपतियों के शासन के संवाहक है। उन्होंने अनेक तरह के आंदोलन चलाये पर एक भी ऐसा कोई बता दे जिसने मज़दूर और गरीब के लिये अच्छा परिणाम दिया हो। उल्टे जिन कारखानों के पूंजीपति उसे बंद करना चाहते थे उन्होंने कामरेडों की सहायता लेकर वहां हल्ला मचवाया और बंद करने में सफलता पायी।

हम जिसे जाति पाति कहते हैं उनके निर्धारण में आदमी के व्यवसाय का स्वरूप, अर्थिक स्थिति, वैचारिक स्तर तथा चिंतन क्षमता का बहुत बड़ा योगदान होता है। पश्चिम के काले गोरे का भेद मिटाने की तर्ज पर यहां जाति पाति मिटाने का जो प्रयास करते हैं वह एकदम अप्राकृतिक है। जिस तरह एक गोरे दंपति की संतान गोरी होती है और काले की काली वही स्थिति जातियों की भी है क्योंकि आदमी की दैहिक स्थिति का संबंध जल, वायु तथा प्राकृतिक वातावरण से है। सच बात तो यह है कि किसी भी प्रकार के भेदभाव को मिटाने का प्रयास ही नकारात्मक संदेश देता है। इसके विपरीत लोगों में श्रीमद् भागवत् गीता का समदर्शिता के भाव का प्रचार किया जाना चाहिए। कार्ल मार्क्स के चेले भारतीय अध्यात्म का विरोध करते हैं पर उसके लिखित पुस्तक को मज़दूरों की गीता कहते हैं। यह एकदम हास्यास्पद बात है और भारत के गरीबों के धार्मिक भावना का दोहन कर अपने इर्दगिर्द उनकी भीड़ जुटाने के प्रयास के अलावा अन्य कुछ नहीं है। इससे अच्छा है कि असली श्री गीता को पढ़कर उसके अध्यात्म संदेश का प्रचार करें जो संक्षिप्त हैं पर समाजवाद के नारे कहीं अधिक चिंतन लिये हुए हैं।
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संकलक,लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://anant-shabd.blogspot.com
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2 comments:

Vinashaay sharma said...

कबीर दास जी कह गयें हैं ।
जात,पात पूछे ना कोई
हरि का जो भजन करे हरी का होई ।

Smart Indian said...

कार्ल मार्क्स ने बड़े आराम से अपनी ‘पूंजी’ किताब लिखी क्योंकि उसका प्रायोजक एक पूंजीपति एंजिल्स था। मार्क्स ने किताब लिखी और उसने प्रकाशित की क्योंकि दुनियां के मज़दूरों को भ्रम में रख उन पर शासन करने के लिये एक ऐसी किताब का होना जरूरी था। उस पूंजीपति का नाम भी हुआ और कार्ल मार्क्स का भी। मार्क्सवाद को ढोने वाला एक देश सोवियत संघ बिखर गया तो इधर चीन भी अब धीरे धीरे पूंजीवाद की तरफ जा रहा है। दरअसल अनेक बार तो लगता है कि कामरेड लोग पूंजीपतियों के शासन के संवाहक है। उन्होंने अनेक तरह के आंदोलन चलाये पर एक भी ऐसा कोई बता दे जिसने मज़दूर और गरीब के लिये अच्छा परिणाम दिया हो। उल्टे जिन कारखानों के पूंजीपति उसे बंद करना चाहते थे उन्होंने कामरेडों की सहायता लेकर वहां हल्ला मचवाया और बंद करने में सफलता पायी।

Excellent observation.

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