Saturday, December 5, 2009

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-समय पर अग्नि की तरह प्रज्जवलित हो जायें (samay aur aag-economics of kautilya ka arthshastra)

असत्यता निष्ठुरता कृताज्ञता भयं प्रमादोऽलसता विषादिता।

वृथाभिमानों ह्यतिदीर्घसूत्रतातथांनाक्षदिविनाशनंश्रियः।।

हिन्दी में भावार्थ
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असत्य बोलने, निष्ठुरता बरतने, कृतज्ञता न दिखाने, भय, प्रमाद, आलस्य, विषाद, वृथा प्रयास, अभिमान, अतिदीर्घसूत्रता निरंतर  स्त्री समागम तथा पासे खेल से लक्ष्मी का विनाश होता है।

काले सहिष्णुगिंरिवदसहिश्णुश्चय वह्वित्।।

स्कन्धेनापि वहेच्छत्रन्प्रियाणि समुदाहरन्।।

हिन्दी में भावार्थ-
समय आने पर पर्वत के समान सहनशील और अग्नि के समान असहनशील हो जायें। समय पर मित्र के कंधे पर हाथ रखें तो शत्रु पर भी उसका प्रयोग करें।

वर्तमान समय में संपादकीय व्याख्या-जीवन में उतार चढ़ाव तो आते हैं। इन उतार चढ़ावों तथा अन्य घटनाक्रमों का अच्छा या बुरा परिणाम हमारे कर्म, विचार तथा  संकल्प के अनुसार ही प्राप्त होता है।  झूठ बोलने, क्रूरता का भाव रखने, दूसरे के उपकार का आभार न मानने, आलस्य करने वाले तथा थोड़े कष्ट में ही आर्तनाद करने वाले लोग अपनी लक्ष्मी का विनाश कर डालते हैं।  कुछ लोग तो ऐसे होते हैं जो छोटी छोटी बातों पर भयभीत हो जाते हैं।  अगर आज हम सभी तरफ राक्षसी वृत्तियों का शासन देख रहे हैं तो वह केवल इसलिये कि भले लोग भय के कारण निष्क्रिय हो गये हैं।  समाज अपने ही अध्यात्मिक ज्ञान से विमुख हो गया है। अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति का मोह तथा अभाव का भय उसे आशंकित किये रहता है। यही कारण है कि वह अपने समाज के प्रति एकता नहीं दिखाता या दिखाता है तो केवल तब तक जब शांति है और संकट आने पर हर कोई अपने घर में दुबक जाता है।  इतना ही नहीं दूसरे के उपकार सदाशयता तथा अनुसंधान का कोई आभार ज्ञापित नहीं करता। कृत्घनता चालाकी का प्रमाण मान ली गयी है।

मृत्यु तय है यह सभी जानते हैं पर उसका भय ऐसा है कि लोग मर मर की जीने को तैयार हैं।  नतीजा यह है कि कायरों पर महाकायर राज कर रहे हैं जो शीर्ष पर इसलिये पहुंचते हैं क्योंकि उनको भय रहता है कि अगर वहां नहीं रहे तो कोई भी उनको क्षति पहुंचा सकता है। कहने का तात्पर्य यह है कि अध्यात्मिक ज्ञान के बिना समाज पशुओं का समूह बन गया है।  कब मित्र से निभाना है या कब शत्रु पर प्रहार करना है इसका ज्ञान लोगों को नहीं रहा।  आत्म प्रवंचना करना तथा प्रशंसा पाने के मोह लोगों को चोर बना दिया है। वह दूसरे का धन, अविष्कार तथा विचार चुराकर अपने नाम से प्रस्तुत करते हैं।  कहने को समाज देवताओं को मानता है पर कृत्य दानवों जैसे हो गये हैं। मगर सभी लोग ऐसे नहीं है। यही कारण है कि आज भी यह समाज इतने सारे हमलों और दबावों के बाद जिंदा है। आज भी दानवीर, कर्मवीर तथा धर्मवीर हैं जो निष्काम कर्म में लिप्त रहते हुए निष्प्रयोजन दया करते हैं।



 

संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://anantraj.blogspot.com
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3 comments:

Anil Kumar said...

ये अतिदीर्घसूत्रता क्या होती है? कृपया बतायें! धन्यवाद!

दीपक भारतदीप said...

@अनिल जी
अति दीर्घसुत्रता से आशय यही है कि अपनी योग्यता और क्षमता से अधिक लक्ष्य प्राप्ति की सोचकर लंबी चौड़ी योजनायें बनाना। जैसे कि मान लीजिये कि किसी के पास पैसा कम है और वह कर्जा लेकर कहीं ऐसी जगह दुकान खरीदे जहां अभी नयी कालोनी बनी होने से आबादी कम हो। वह वहां पर बहुत बड़ा शोरुम इस आशय से खोले कि वह भी आगे चलकर अन्य बडे़ व्यापारियों की तरह कमायेगा। यह काम कोई बड़ा व्यवसायी तो कर सकता है क्योंकि उसकी प्रतिष्ठा वहां से दूसरी जगह से ग्राहक ले आयेगी फिर वह मुनाफे के लिये इंतजार भी कर सकता है। पर जो नया है उसके लिये सिवाय धन गंवाने के कुछ नहीं है। उसके लिये तो यही अच्छा है कि वह अपना काम छोटे स्तर पर कर अपने दैनिक आय के बारे में सोचे। आपने देखा होगा कि देश में बनी अनेक कालोनियों में लोग घर के बाहर दुकानें यह सोचकर बनाते हैं कि उनसे किराया आयेगा पर आप देखेंगे कि वह बंद रहती हैं और न तो पैसा आता है न जगह काम आती है। मकान का शो खराब होता है सो अलग। इनसे मिलते जुलते उदाहरण आप बहुत देख सकते हैं। एक अन्य उदाहरण आप खेलों पर सट्टा खेलने वालों को भी ले सकते हैं जो करोड़ो कमाने के चक्कर में अपने बाप की दौलत बरबाद करते हैं। मैंने जो आशय समझा वह स्पष्ट कर दिया। आपने प्रश्न किया इसके लिये धन्यवाद।
दीपक भारतदीप

Anil Kumar said...

विस्तृत विवेचना के लिये धन्यवाद दीपक जी!

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