मनु स्मृति में कहा गया है कि
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धृति क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रिवनिग्रहः।
धीविंद्या सत्यमक्रोधी दशकं धर्मलक्षणम्।।
धीविंद्या सत्यमक्रोधी दशकं धर्मलक्षणम्।।
हिंदी में भावार्थ-धैर्य, क्षमा, मन पर नियंत्रण, चोरी न करना, मन वचन तथा कर्म में शुद्धता,इंद्रियों
पर नियंत्रण, शास्त्र का ज्ञान रखना,ब्रह्म ज्ञान प्राप्त करना, सच बोलना, क्रोध और अहंकार से परे होकर आत्मप्रवंचना से दूर रहना-यह धर्म के दस लक्षण
है।
दक्ष लक्षणानि धर्मस्य व विप्राः समधीयते।
अधीत्य चानुवर्तन्ते वान्ति परमां गतिम्।।
अधीत्य चानुवर्तन्ते वान्ति परमां गतिम्।।
हिंदी में भावार्थ-जो विद्वान दस लक्षणों से युक्त धर्म का पालन करते हैं वे परमगति को प्राप्त होते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हमारे अध्यात्मिक ग्रंथों में
किसी धर्म का नाम देखने को नहीं मिलता है। अनेक स्थानों पर कर्म को ही धर्म माना गया
है अनेक जगह मनुष्य के आचरण तथा लक्षणों
से पहचान की जाती है। कहने को तो यह भी कहा जाता है कि हमारा धर्म पहले सनातन धर्म से
जाना जाता
था पर इसे
हम यूं भी कह सकते हैं कि इंसान को इंसान की तरह जीने की कला सिखाने वाला हमारा धर्म
ही सनातन काल से चला आ रहा है। धर्म का कोई नाम नहीं होता बल्कि इंसानी कि स्वाभाविक वृत्तियां
ही धर्म की पहचान
है। इस
संसार में विभिन्न प्रकार के इंसान हैं पर वह मनु द्वारा बताये गये धार्मिक लक्षणों पर चलते हैं तभी वह धर्म मार्ग पर स्थित माने जा सकते हैं। हमें इन लक्षणों का अध्ययन करना चाहिये।
इसका ज्ञान होने पर यह देखने का प्रयास नहीं करना चाहिए कि कोई दूसरा व्यक्ति धर्म मार्ग पर स्थित है या
नहीं वरन् हमें स्वयं देखना है कि हमारा अपना
मार्ग कौनसा है?
वैसे हमारे
देश में जगह जगह ज्ञानी मिल जायेंगे। बड़ों की बात छोड़िये आम आदमियों में भी
ऐसे बहुत लोग हैं जो खाली समय बैठकर धर्म की बात करते हैं। ज्ञान की
बातें इस तरह करेंगे जैसे कि उनको महान सत्य बैठ बिठाये ही प्राप्त हो गया
है। मगर जब आचरण की बात आती है तो सभी कोरे साबित हो जाते हैं। कहते हैं कि
जैसे लोग और जमाना है वैसे ही चलना पड़ता है। अपने
मन पर नियंत्रण करना
बहुत सहज है पर उससे पहले यह संकल्प करना पड़ता है कि हम धर्म का मार्ग चलेंगे। धर्म
की लंबी चैड़ी व्याख्यायें नहीं होती। परिस्थतियों के अनुसार खान
पान में बदलाव करना पड़ता है और उससे धर्म की हानि या लाभ नहीं होता। वैसे
खाने, पीने में
स्वाद और पहनावे से आकर्षक दिखने का विचार
छोड़कर इस बात पर
ध्यान देना चाहिये कि हमारे स्वास्थ्य के लिये क्या हितकर है? दूसरा क्या
कर रहा है इसे नहीं देखना चाहिये और जहां तक हो सके अन्य लोगो के कृत्य
पर टिप्पणियां करने से भी बचें। जहां हम किसी की निंदा करते हैं वहां
हमारा उद्देश्य बिना कोई परोपकार का काम किये बिना स्वयं को श्रेष्ठ साबित करना
होता है। यह निंदा और आत्मप्रवंचना धर्म विरुद्ध है। सबसे
बड़ी बात यह है कि एक इंसान के रूप में अपने मन, विचार, बुद्धि
तथा देह पर निंयत्रण करने की कला का नाम ही धर्म है और
मनु द्वारा बताये गये दस लक्षणों से अलग कोई भी दृष्टिकोण धर्म नहीं हो
सकता। .........................................संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप, Gwlior
http://rajlekh.blogspot.com
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2 comments:
सुन्दर पोस्ट!
अगली बार अधर्म के लक्षण भी लगा देना जी!
धनतेरस, दीपावली और भइया-दूज पर आपको ढेरों शुभकामनाएँ!
दीपक जी दीपावली की हार्दिक बधाई .
आपका कहना बिल्कुल उचित है. यदि कोई लेख से कुछ लेता है तो उसे मूल श्रोत की जानकारी ज़रूर देनी चाहिए.
सारे ब्लॉग जगत के सर्वोत्तम ब्लोगों मे से एक है ये ब्लॉग.
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