Friday, October 10, 2008

संत कबीर संदेशः दूसरों की निंदा कर वैमनस्य न बढ़ायें

संत श्री कबीरदास जी के अनुसार
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काहू का नहिं निन्दिये, चाहै जैसा होय
फिर फिर ताको बन्दिये, साधु लच्छ है सोय


किसी भी व्यक्ति का दोष देखकर भी उसकी निंदा न करें। अपना कर्तव्य तो यही है कि जो साधु और गुणी हो उसका सम्मान करें और उसकी बातों को समझें

तिनका कबहू न निंदिये, पांव तले जो होय
कबहुं उडि़ आंखों पड़े, पीर घनेरी होय


आशय यह है कि दूसरे के दोष देखकर उसकी निंदा से बचने का प्रयास करना चाहिये। तिनके तक की निंदा भी नहीं करना चाहिये। पता नहीं कब आंखों में गिरकर त्रास देने लगे।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जिसे देखो वही दूसरों की निंदा करने में लगा है। इसी प्रवृत्ति के कारण एक दूसरे से दूर हो जाते हैं। सक एक दूसरे की सामने तो प्रशंसा करते हैं पर पीठ पीछे निंदा पर आमादा हो जाते हैंं। यही कारण है कि किसी का किसी पर यकीन नहीं हैंं। अगर हम किसी की यह सोचकर निंदा करते हैं कि उससे क्या डरना वह कुछ नहीं कर सकता। यह भ्रम है। इस जीवन में पता नहीं कब किसकी आवश्यकता पड़ जाये-यही सोचकर किसी की निंदा नहीं करना चाहिये। दोष सभी में होते हैं। मानव देह तो दोषों का पुतला है फिर निंदा कर दूसरे लोगों से अपना वैमनस्य क्यों बढ़ाया जाये?

बजाय दूसरों की निंदा करने के ऐसे लोगोंे से संपर्क रखना चाहिये जो साधु प्रवृत्ति के हों। उनके सद्गुणों की चर्चा करना चाहिये। यह तय बात है कि हम अपने मूंह से अगर किसी के लिये बुरे शब्द निकालते हैं तो उसका हमारी मानसिकता पर ही बुरा प्रभाव पड़ता है। अगर किसी के बारे मे सद्चर्चा की जाये तो उसका सकारात्मक प्रभाव दिखता है।
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2 comments:

राजेश चौधरी said...

बहुत खूब!

Smart Indian said...

काहू का नहिं निन्दिये, चाहै जैसा होय
फिर फिर ताको बन्दिये, साधु लच्छ है सोय

सत्य वचन - साधुओं के लक्षण हैं.

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