Wednesday, July 23, 2008

संत कबीर वाणी-चिंतामणि ही चित्त में बसे तो चिंता किस बात की

हरिजन गांठि न बाधहीं, उदर समाना लेय
आगे पीछे हरि खड़े, जो मांगै सो देय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि कि परमात्म की सच्ची भक्ति करने वाले लोग कभी धन का संचय करने का विचार नहीं करते। अपनी भक्ति के कारण उनको यह दृढ़ विश्वास होता है कि उनके साथ तो हर जगह परमात्मा है जो उनक उदर की पूर्ति करता रहेगा।

चिन्तामनि चित में बसै, सोइ चित्त में आनि
बिना प्रभु चिन्ता करै, यह मूरख का बानि


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि सबकी चिंता करने करने वाले परमात्मा तो चित्त में बसते हैं और जो लोग उसका स्मरण न कर अपने जीवन की चिंता करते हैं वह तो निर्बुद्धि हैं।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-धन और वैभव तो एक माया का बहुत बृहद रूप है। धनी और प्रतिष्ठित लोगों को देखकर सभी उनका अनुकरण करना चाहते हैं पर यह संभव नहीं है। फिर भी लोग माया के पीछे लगे रहते हैं और अपने को ही दिखाने के लिये परमात्मा की भक्ति करते हैं पर उनकी यह भक्ति विश्वास रहित है क्योंकि वह अपने फल का दाता स्वयं ही को समझते है। कहीं किसी मूर्ति के सामने मत्था टेक दिया या कोई धार्मिक किताब ऊंची आवाज में पढ़ ली और फिर निकल पड़े इस मायावी संसार में तमाम तरह के छल कपट करने के लिये क्योंकि उनको इस बात का यकीन नहीं है कि सहजता पूर्वक श्रम करने पर स्वतः ही उदर पूर्ति के लिये धन प्राप्त हो जायेगा।

अनेक कथित साधु संत तो अपने भक्तों पर भक्ति की बरसात करते हैं पर अपने आश्रमों के लिये धन मांगना नहीं भूलते। इसे वह दान कहते हैं। इस दान का वह फिर दान करते हैं। इस मायावी संसार में ऐसे कथित संतों और भक्तों को देखकर यह कहा जा सकता है कि उनका परमात्मा में विश्वास नहीं है। कई कथित संत तो भंडारों आदि के लिये दान मांगते हैं और फिर वह दूसरे के भोजन के लिये अपने को निमित बनाने का प्रयास करते हैंं। वह यह दिखाते हैं कि देखो हमने दूसरे को भोजन करवाया। यह उनका ढोंग है। उनको तो केवल भक्ति का ही प्रचार करना चाहिए यह विचार कर कि सबका दाता तो वह परमात्मा है और सभी को भोजन करवाना चाहिए। इसके विपरीत वह दान का भी संग्रह करते और तमाम तरह के कार्यक्रम आयोजित कर अपने को दानी बताते हैं।
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दीपक भारतदीप, संकलक एवं संपादक

1 comment:

Udan Tashtari said...

बहुत आभार.

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