हम यह तो नहीं कहेंगे कि देश में असहिष्णुता की वजह से अभिव्यक्ति का संकट है पर इतना जरूर मानते हैं कि अन्मयस्कता की वजह से सार्वजनिक विमर्श बाधित जरूरी हुआ है। पहले प्रगतिशील और जनवादी बुद्धिजीवी हाशिये पर आये तो अब राष्ट्रवादी भी अपने आपको ठगा हुआ अनुभव करते हैं। इसका कारण यह है कि इन विचाराधारा के बुद्धिजीवियों ने अपने दृष्टिकोण से राजनीति क्षेत्र में सक्रिय समाजवादी, वामपंथी और हिन्दूवादी दलों के आसरे अपनी वैचारिक यात्रा की। प्रगतिशील और जनवादी तो राज्यप्रबंध में इस तरह घुसे हैं कि आज भी उनको सम्मान मिल जाता है पर राष्ट्रवादियों को जैसे भुला ही दिया गया है। हम अगर मूल भारतीय साहित्य लेखन की बात करें तो वह अब असंगठित क्षेत्र के लेखकों की जिम्मेदारी बन गया है। वैसे हमारा प्राचीन साहित्य और हिन्दी का भक्तिकाल हमारे साहित्य की ऐसी धरोहर है जिसके सहारे हम सदियों तक असंगठित साहित्य के चल सकते हैं। अलबत्ता आपसी विचार विमर्श का जो वातवरण प्रगतिशील व जनवादियों ने जो बनाया था वह प्रदूषित हो गया है। हम दोनों से सहमत नहीं होते पर यह सच हम मानते हैं कि इनकी रचनाओं से हमें अपने अंदर एक अध्यात्मिक लेखक ढूंढने में सहायता मिलती है। हम अध्यात्मिक वादी लेखक हैं इसलिये राष्ट्रवादी विचाराधारा से थोड़ा लगाव है-हालांकि समाज पर राज्य प्रबंध से पूर्ण नियंत्रण की उनकी शैली हमें पसंद नहीं है। हमारा मानना है कि भारतीय समाज एक वैज्ञानिक आधार पर चलता रहा है जिस पर राज्य का अधिक दबाव ठीक नहीं है। इधर राष्ट्रवादी लेखकों में भी निराशा का माहौल दिख रहा है।
प्रगतिशील और जनवादी अनुभवी हैं और उन्हें पता है कि वह जनमानस को विमर्श के माध्यम से व्यस्त रखते हैं और राज्प प्रबंध को अपनी नाकामी के प्रचार से बचने के लिये यह अच्छा लगता है। वह सहविचारक राज्य प्रबंध के अनुयायी होते हैं पर जानते हैं कि वह उनके विचार के सहारे नहीं चलता पर जनमानस को व्यस्त रखने के लिये उन्हें जो मिलता है वही पर्याप्त है। इनके विषय व्यापक हैं इसलिये वह सदैव सक्रिय रहते हैं। इसके विपरीत राष्ट्रवादियों के पास सीमित विषय हैं। उन्हें अब अनुभव होने लगा है कि वह राज्य प्रबंध के लिये उतने ही अवांछनीय है जितने पहले थे। ऐसे में हमें तीनों विचाराधारा के लेखकों से हमदर्दी है। हमारी सलाह है कि सभी विचाराधाराओं के इंटरनेट पर सक्रिय ऐसे लेखक जो असंगठित हैं पर सक्षम हैं आपस में मिलें । कोई समागम करें जिसमें सभी अपने खर्चे पर आयें। दिल्ली में बैठे लोग किसी ऐसे उद्यान या मैदान का चयन करें जहां बैठने की व्यवस्था भर हो। संगठित क्षेत्र के बुद्धिजीवियों की तरह कोई बड़ा आयोजन तो संभव नहीं है पर एक पर्यटननुमा आयोजन किया जा सकता है जिसमें लेखक दिल्ली घूमने भी आयें और लेखक मित्रों से मिलकर कोई योजना बनायें। अभी टीवी चैनल, अखबार और इंटरनेट पर देश की मनमोहक प्रतिमओं के दम पर जनमानस को प्रायोजित रूप से व्यस्त रखा जा रहा है पर आगे एक वैचारिक शून्यता का संकट आने वाला है। सत्तर साल पुरानी राजकीय प्रबंध शैली में जरा भी सुधार न है न भविष्य में होने की संभावना है।
हमसे जो बन पड़ेगा करेंगे। मूल रूप से अध्यात्मिकवादी हैं इसलिये तो एकांतवास में ही रहना चाहिये पर स्वभाव ऐसा है कि कुछ नया करने को ढूंढता है। हमने थोड़ा सोचा है आप ज्यादा सोचो। हम हमेशा ही तैयार हैं।
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