अब हमें यह लग राह है कि लोकतंत्र में चुनावी तथा आंदोलन राजनीति को प्रथक
करते हुए देखना चाहिये। भारत में महात्मा गांधी के बाद उनके ही अनुयायी अन्ना
हजारे ने आंदोलन तो किये पर राजपद नहीं लिया।
हमने देखा है कि चुनावी राजनीति करने वाले अक्सर आंदोलनकारियों को अपने
क्षेत्र में आने की चुनौती देते हैं पर हमें लगता है कि यह अन्याय है। चुनावी राजनीति में सफलता जहां राजपद दिलाती है
वहीं आंदोलन की राजनीति हमेशा संघर्ष करते हुए बीतती है-यह अलग बात है कि हमारे
यहां अनेक लोग आंदोलन के नाम पर ठाठ करते हैें। चुनावी राजनीति करने वाले भी अनेक
आंदोलन करते हैं पर उन पर अपने लक्ष्य की पूर्ति का आरोप लगाकर जनता में अविश्वास
पैदा किया जा सकता है पर जो लोग आंदोलन की राजनीति का मार्ग लेते हैं उनकी छवि एक
शक्तिशाली योद्धा की होने के कारण जनहित के मामलों में सफलता मिल सकती है। मुख्य बात यह कि उन पर स्वार्थी होने का आरोप नहीं लग सकता।
जब कोई आंदोलन के माध्यम से अपनी छवि बनाकर चुनावी राजनीति में उसका दोहन
करता है तो कुछ समय बाद उनकी गतिविधियां वैसी हो जाती हैं जिसके वह आलोचक रहते
हैं। आज भी हमारे देश में अन्ना की छवि एक
योद्धा की है पर उनके गत वर्षों में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में साथ रहते हुए
प्रचार में प्रकाशमान छवि बनाने के बाद
उसके सहारे चुनावी राजनीति के क्षेत्र में आने वाले कुछ पुराने अनुयायी सफलता
प्राप्त कर चुके हैं। हमें उन पर कोई आपत्ति नहंी है पर जब वह अब भी आंदोलन की बात
करते हैं तो वैसी प्रतिक्रिया नहीं होती जैसी आज भी अन्ना की घोषणा पर होती है।
दरअसल चुनावी राजनीति में सफलता के बाद अपना स्तर बनाये रखने की चिंता प्रारंभ
राह पर डाल देती है जिस पर चलकर आंदोंलन की मुखरता लुप्त हो जाती है। अन्ना कल भी लोकतांत्रिक योद्धा थे आज भी है पर
उनके जिन सहयोगियों ने अपनी छवि बनाकर चुनावी राजनीति में उसका नकदीकरण किया वह आज
दावा भी करें तो उन पर यकीन कौन करता है? राजपद मिलने के बाद उसे गंवाने का भय किसे नहीं घेरता। मकान, कार, सुरक्षा की सुविधा मिलने तथा तथा प्रचार में सतत महिमामंडन होने के बाद
आदमी चाहे भी तो योद्धा बना नहीं रह सकता। अलबत्ता अपना स्तर बनाये रखने के लिये संघर्ष करते हुए वह प्रचार में अपनी छवि योद्धा
के रूप में बनाये रखने का निरर्थक प्रयास करता है।
हमने
अन्ना हजारे जी के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को भुलाया नहीं क्योंकि हम उनके
भक्तों के चुनावी राजनीति में सक्रियता का अध्ययन भी करना चाहते थे। अंततः यह निष्कर्ष निकाला कि लोकतंत्र में
राजनीति के दो भाग हैं। एक चुनावी राजनीति जिसकी राह पर चलकर आदमी सुख भोगता है।
दूसरी आंदोलन की राजनीति, जिसमें
सक्रिय व्यक्ति धन भले ही अधिक न पाये प्रचार जगत में उसकी छवि योद्धा की रहती है।
दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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