Thursday, October 27, 2011

अथर्ववेद से संदेश-ॐ (ओम) शब्द अनिष्टों को दूर करता है (ॐ -om)- shabd good for life-atharvaved se sandesh

             श्रीमद्भागवत गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है कि अक्षरों में परम अक्षर ओम है। अनेक अध्यात्मिक विद्वान भी यह मानते हैं कि ओम शब्द के जाप से देह के समस्त अंग सक्रिय होने के साथ उत्साहित हो उठते हैं। यही कारण है कि अनेक योग साधक आसन, ध्यान और प्राणायाम के बाद ओम शब्द का जाप करते हैं। यह योग साधना के दौरान देह के विकार रहित होने के साथ ही मन की पवित्रता और विचारों की जो शुद्धि प्राप्त होती है उसे आत्मिक स्थिरता प्रदान करता है। ओम अत्यंत सूक्ष्म शब्द है पर जाप करने पर देह के स्वास्थ्य, मन की पवितत्रता और विचारों की शुद्धता कर उनको व्यापक रूप प्रदान कर यह मनुष्य के व्यक्तित्व को बाह्य रूप से तेजस्वी बनाता है।
अथर्ववेद में कहा गया है कि
-------------------
त्रयः सुवर्णासिवृत यदायत्रेकाक्षरमभि-संभूय शका शका।
प्रत्योहन्मृत्युमृतेन साकसन्तदंधाना दुरितानी विश्वा।।
     ‘‘जब समर्थ तीन स्वर्ण एक अक्षर में तिहरे होकर मिल रहे हें तब वह अमृत के साथ सब अनिष्टों को मिटाकर मृत्यु को दूर करते हैं।’’
            अध्यात्म के साथ स्वास्थ्य के विशेषज्ञों का मानना है कि मौन होकर सुखपूर्वक बैठने के बाद अपनी वाणी ने ॐ (ओम)शब्द का जाप करना अत्यंत श्रेयस्कर है क्योंकि इस दौरान मनुष्य का ध्यान शनैः शनै अपनी नियमित दिनचर्या से हटकर निरंकार परमात्मा में लग जाता है। इससे मनुष्य में मनोविज्ञानिक रूप से दृढ़ता आती है। ओम दो नहीं तीन शब्द हैं-अ उ म। इस तरह प्रत्येक शब्द को एक एक करके वाणी से इस तरह उच्चारित करना चाहिए कि पहले शब्द अ और तीसरे शब्द म में जितना समय लगे उससे आधा दूसरे शब्द उ में लगे। इस तरह ध्यान की शक्ति का संचार होता है जो कि आत्मिक रूप से पुष्ट होने में सहायक होती है। यही कारण है कि भारतीय अध्यात्मिक साधक ओम शब्द के उच्चारण को अत्यंत सावधानी और ध्यान से उच्चारित करते हैं। जितनी गहराई से ओम शब्द उच्चारित किया जाता है उतना ही तेज शनैः शनैः मनुष्य की वाणी, विचार, और व्यवहार में उसका तेज प्रकट होता है।
---------
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका
५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका 
६.अमृत सन्देश  पत्रिका

Sunday, October 23, 2011

पतंजलि योग सूत्र-अहिंसा के भाव के समक्ष सभी प्राणी वैर त्याग देते हैं (patanjali yoga sootra-ahinsa ke bhav ke samne sabhi parani tyag dete hain)

              श्रीमद्भागवत गीता में बताया गया है कि इस संसार के सारे पदार्थ परमात्मा के संकल्प के आधार पर स्थित पर वह उनमें नहीं है। यहां इस बात को स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है कि इस संसार के देहधारी जीव के संकल्प से गहरा संबंध है क्योंकि वह अंततः उसी परमात्मा का अंश हैं। इसलिये जीव भले ही इस संसार और भौतिक पदार्थों को धारण करे वह उसमें अपना भाव लिप्त न करे। हम अगर योग साधना और ध्यान करने के साथ श्रीमद्भावगत गीता का अध्ययन करें तो धीरे धीरे यह बात समझ में आने लगेगी कि यह संसार की प्रकृति और इसमें स्थित समस्त पदार्थ न बुरे हैं न अच्छे, बल्कि वह हमारे संकल्प के अनुसार कभी प्रतिकूल तो कभी अनुकूल होते हैं। इसलिये हम अपने हृदय के अंदर अहिंसा, त्याग, तथा परोपकार के संकल्प धारण करें तो यह सारा संसार और पदार्थ हमारे अनुकूल हो जायेंगे। 
पतंजलि योग साहित्य में कहा गया है कि
--------------------
 
अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः।
           ‘‘हृदय में अहिंसा का भाव जब स्थिर रूप से प्रतिष्ठ हो जाता है तब उस योगी के निकट सब प्राणी वैर का त्याग कर देते हैं।
अस्तेयप्रतिष्ठायां सर्वरत्नोपस्थानम्।
‘‘हृदय जब चोरी के भाव से पूरी तरह रहित हो जाता है तब उस योगी के समक्ष सब प्रकार के रत्न प्रकट हो जाता है।’’
          अधिकतर लोग यह तर्क देते हैं कि यह संसार बिना चालफरेब के चल नहीं सकता। यह लोगों की मानसिक विलासिता और बौद्धिक आलस्य को दर्शाता है। एक तरह से यह मानसिक विकारों से ग्रसित लोगों का अध्यात्मिक दर्शन से परे एक बेहूदा तर्क है। हम यह तो नहीं कहेंगे कि सारा समाज ही मानसिक विकारों से ग्रसित है पर अधिकतर लोग इस मत के अनुयायी हैं कि जैसे दूसरे लोग चल रहे हैं वैसे ही हम भी चलें। कुछ लोग ऐसे जरूर हैं जो इस सत्य को जानते हैं और अपने देह, हृदय तथा मस्तिष्क से विकारों की निकासी कर अपना संकल्प शुद्ध रखते हुए अपना जीवन शंाति से जीते हैं। ऐसे लोगों संख्या में नगण्य होते हैं पर समाज के लिये वही प्रेरणास्त्रोत होते हैं।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका
५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका 
६.अमृत सन्देश  पत्रिका

Sunday, October 16, 2011

ऋग्वेद से संदेश-ज्ञानी लोग मन प्रसन्न रखने वाले ही काम करते हैं (rigved se sandesh-gyani log man ko prasanna rakhne vale kam karte hain)

             सामान्य मनुष्य अनेक बार परिवार, मित्र तथा समाज के दबाव में अनेक बार ऐसे कार्य करते हैं जिससे उनका स्वयं का मन उद्विग्न हो उठता है। इसके विपरीत ज्ञानी हमेशा ही अपने मन को प्रसन्न करने वाले ही कर्म करते हैं। यह बात हम धार्मिक कर्मकांडों अवसर पर देख सकते हैं जब परिवार, समाज तथा मित्रों के दबाव में आदमी उनका निर्वाह करता है यह जानते हुए भी यह ढकोसला है। खासतौर से विवाह, गमी तथा अन्य कार्यक्रमों के समय दिखावे के लिये ऐसे अनेक कर्मकांड रचे गये हैं जिनको केवल दिखावे के लिये ही धर्म का प्रतीक माना जाता है। हमारे अनेक महान विद्वानों ने धार्मिक कर्मकांडों तथा अध्यात्मिक ज्ञान के अंतर को स्पष्ट किया है। यह अलग बात है कि समाज में उनका नाम को सम्मान दिया जाता है पर उनके संदेश कोई नहीं मानता। यही कारण है कि जब किसी के घर में शादी या गमी का अवसर आता है तो वह अपना सुख दुःख भूलकर केवल अपनी जिम्मेदारी निभाने का तनाव झेलता है। उसके मन में यही ख्याल आता है कि ‘अगर मैंने यह नहीं किया तो लोग क्या कहेंगे’।
ऋग्वेद में कहा गया है कि
----------------
श्रिय मनांसि देवासो अक्रन्
‘‘ज्ञानी निज अपने हृदय को प्रसन्न करने वाले कर्म करते हैं।’’
सुवीर्यस्य पतयः स्याम।
‘‘हम उत्तम बल के स्वामी बनें।’’
अगर मनुष्य चाहे तो स्वयं को योगसाधना तथा अध्यात्मिक ग्रंथों के अध्ययन से मानसिक रूप से दृढ़ होने के साथ ही दैहिक रूप से बलवान भी बना सकता है। हमारे हिन्दू धर्म की पहचान उसके कर्मकांडों से नहीं वरन् उसमें वर्णित तत्वज्ञान से है जिसका लोह आज पूरा विश्व मानता है। अगर हम अपने अंदर कर्मकांडों के निर्वहन का तनाव पालेंगे तो कभी शक्तिशाली नहीं बन सकते। जहां धर्म से कुछ पाने का मोह है वहां सिवाय तनाव के कुछ नहीं आता। मन में धर्म के प्रति त्याग का भाव हो तो स्वतः मन स्फूर्त हो जाता है। इस त्याग को भाव को तभी समझा जा सकता है जब हम परोपकार, ज्ञान संग्रह तथा हृदय से भगवान की भक्ति करेंगे।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका
५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका 
६.अमृत सन्देश  पत्रिका

Friday, October 14, 2011

अथर्ववेद से संदेश-ब्रह्मज्ञानी कभी आलस्य नहीं करते (atharvaved se sandesh-brahmagyani ko alsya nahin karna chahiey)

             हमारे देश में धर्मभीरु व्यक्तियों की कमी नहीं है मगर अध्यात्मिक ज्ञान को समझने वालों का टोटा है। अक्सर कुछ लोग ऐसे हैं जो अध्यात्मिक ज्ञान की बात करने वाले से कहते हैं कि ‘तू सन्यासी हो जा‘ या फिर कहते हैं कि ‘तुम्हें तो सब छोड़कर सन्यासी होना चाहिए अगर तुम्हारे पास ज्ञान है तो फिर संसार का काम क्यों करते हो’। इतना ही नहीं अगर कोई मनुष्य शांत भाव से नैतिकता के आधार पर काम करता है तो उससे यह तक कह दिया जाता है कि तुम इस संसार को नहीं जानते जिसमें केवल दुष्टता और चालाकी से ही काम चल सकता है।
कहने का अभिप्राय यह है कि आम लोगों के लिये धर्म का आशय केवल कर्मकांडों तक ही सीमित है। लोग मनोरंजन के लिये सत्संग में जाते हैं और वहां ज्ञान की बात सुंनकर दूसरे लोगों को भी सुनाते हैं पर जब व्यवहार में नैतिकता स्थापित करने की बात आये तो लोग कहते हैं कि सामान्य जीवन में सात्विकता का कोई स्थान नहीं है। शायद यही कारण है कि जिन लोगों को समाज में संत की तरह स्थापित होना है वह गेरुए या सफेद वस्त्र पहनकर शिष्य का समुदाय बनाने लगते हैं। सांसरिक काम को करना वह अपनी व्यवसायिक छवि के विरुद्ध समझते हैं क्योंकि उनको पता है कि अगर वह सामान्य जन की तरह काम करेंगे तो समाज का कोई भी आदमी कभी उनको सिद्ध स्वीकार नहीं करेगा।
अथर्ववेद में कहा गया है कि
------------------
मो षु ब्रह्मोव तन्द्रयुर्भवो।
            ‘‘ब्रह्मज्ञान पा्रप्त करने को बाद ज्ञानी को कभी आलस्य नहीं करना चाहिए।’’
अधा हिन्वान इन्द्रियं ज्यायो महित्वमानशे।
अभिष्टकृद्विर्षणिः।
           ‘तत्वज्ञानी अपनी शक्ति के सदुपयोग से परम लक्ष्य प्राप्त करके सर्वश्रेष्ठ स्थिति में पहुंच जाता है।’’
             यही कारण है कि हमारे देश में पेशेवर संतों की भरमार है। यह अलग बात है कि समय के साथ उनकी चमक खत्म हो जाती है पर जिन लोगों ने सामान्य जीवन बिताते हुए समाज का मार्गदर्शन किया वह अमरत्व प्राप्त कर गये। कविवर रहीम, संत शिरोमणि कबीरदास और रविदास को आज कौन नहीं जानता? दरअसल सच्चा ज्ञानी वह है जो तत्वज्ञान जाने लेने के बाद अपने कर्म के फल से विरक्त होकर काम करता है। भेदरहित होकर सारे समाज को अपना परिवार मानता है। सबसे बड़ी बात यह है कि ज्ञानी संसार से विरक्त होने की बजाय अधिक सक्रिय हो जाते हैं। वह जानते हैं कि यह देह नश्वर है और इससे पहले कि वह साथ छोड़े उससे पूरा काम लेना चाहिए।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका
५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका 
६.अमृत सन्देश  पत्रिका

Saturday, October 8, 2011

चाणक्य नीति-छात्र छात्राओं को अपने पाठ्यक्रंम पर ही ध्यान देना चाहिए (students and disciplen during aducation-chankya neeti in hindi)

                 भारतीय दर्शन में विद्याध्ययन के समय शिष्य के शिक्षा के अलावा अन्य किसी गतिविधि पर ध्यान देने वर्जित माना जाता है। आधुनिक शिक्षा पद्धति में इस बात को भुला दिया गया है। हमने देखा है कि अक्सर आजकल के  शिक्षक अपने छात्रों को शिक्षा के दौरान अन्य गतिविधियों पर ध्यान देने के लिये उकसाते हैं। इतना ही नहीं अनेक शिक्षण संस्थान तो अपने यहां शैक्षणिकोत्तर सुविधायें देने के विज्ञापन तक देते हैं। इतना ही नहीं माता पिता भी यह चाहते हैं कि उनका बालक शिक्षा के दौरान अन्य ऐसी गतिविधियों में भी भाग ले जिससे उसे अगर कहीं नौकरी न मिले तो दूसरा काम ही वह कर सके। नृत्य, खेल, तथा अभिनय का प्रशिक्षण देने के दावे के साथ ही चुनाव संघों के चुनाव के माध्यम से हर छात्र को एक संपूर्ण व्यक्ति बनाने का यह प्रयास भले ही आकर्षक लगता हो पर कालांतर में उसे अन्मयस्क भाव का बना देता है। एक दृढ़ व्यक्त्तिव का स्वामी बनने की बजाय छात्र छात्राऐं मानसिक रूप से डांवाडोल हो जाते हैं। इतना ही नहीं महाविद्यालायों में एक गणवेश का नियम होने पर उसका विरोध किया जाता है जिस कारण छात्र छात्रायें फिल्मों में दिखाये जाने वाले परिधान पहनकर शिक्षा प्राप्त करने जाते हैं। इससे उनका ध्यान शिक्षा की बजाय दैहिक आकर्षण पर केंद्रित हो जाता है।
इस विषय में चाणक्य नीति में कहा गया है कि
------------------
कामं क्रोधं तथा लोभं स्वादं श्रृंगारकौतुके।
अतिनिद्राऽतिसेवे च विद्यार्थी ह्यष्ट वर्जयेत्।।
         ‘‘विद्यार्थी को चाहिए कि वह कामुकता, क्रोध, लोभ, स्वाद, श्रृंगार, कौतुक, चाटुकारिता तथा अतिनिद्रा जैसे इन आठ व्यसनों और दोषों से दूर रहना चाहिए।’’
             हम यहां किसी पर अपने विचार लादना नहीं चाहते। जिसे जो करना है वह करे पर यह जरूर कहना चाहेंगे कि भारतीय अध्यात्मिक दर्शन इस बात को स्पष्ट करता है कि शिक्षा के समय छात्र छात्राओं को अपनी किताबों की विषय सामग्री का ही अध्ययन करना चाहिए। हमने यह भी देखा है कि प्रायः वही छात्र छात्रायें ही अपनी शिक्षा का पूर्ण लाभ उठा पाते हैं जिन्होंने अपनी किताबों का अध्ययन किया है। आज के फैशन, फिल्मों तथा फैस्टीवलों पर फिदा छात्र अंततः शिक्षा समाप्त करने के बाद कहीं के नहंी रह जाते। इसलिये छात्र छात्राओं को जहां तक हो सके अपनी पाठ्यक्रम सामग्री पर ही ध्यान केंद्रित करना चाहिए ताकि उसमें उनको विशेषज्ञता मिल सके।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका
५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका 
६.अमृत सन्देश  पत्रिका

Sunday, October 2, 2011

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-अपने सुख के लिये आमजन को दुःख देने वाला राजा अधम होता है (janta aur sarkar,public and government-kautilya ka arthshastra)

             दैहिक रूप से मनुष्य सभी एक जैसे होते हैं। उनमें भी कोई गेहुए तो कोई काले या कोई गोरे रंग का होता है। इससे उसकी पहचान नहीं होती वरन् उसका आचरण, व्यवहार और विचार ही उसके आंतरिक रूप का प्रमाण होते है। सभी गोरे अच्छे हों यह जरूरी नहीं उसी तरह सभी काले बुरे हों यह समझना भी बेकार है। गेहुए रंग के लोग भी सामान्य स्वभाव के हों यह भी आवश्यक नहीं है। कहने का अभिप्राय यह है कि मनुष्य की जाति, धर्म, क्षेत्र अथवा भाषा के आधार पर उसकी पहचान स्थाई नही होती। मनुष्यों में भी कुछ पशु हैं तो कुछ तामसी प्रवृत्ति के हैं। कुल, पद, धन और बाहुबल के दम पर अनेक लोग आमजन के साथ हिंसा कर अपनी शक्ति को प्रमाणित करते हैं। उन्हें इस बात से संतोष नहीं होता कि वह शक्तिशाली वर्ग के हैं वरन् कमजोर पर अनाचार कर वह संतोष प्राप्त करते हैं। ऐसे लोग नीच होते हैं।
कौटिल्य के अर्थशास्त्र में कहा गया है कि
----------------
नहि स्वसुखमन्विच्छन् पीडयेत् कृपणं नृपः।
कृषणः पीडयमानोहि मन्युना हन्ति पार्थिवम्।।
        ‘‘राज्य प्रमुख अथवा राजा को चाहिए कि वह अपने सुख के लिये कभी प्रजाजन को पीड़ा न दे। पीड़ित हुआ आम जन राजा को भी नष्ट कर सकता है।’’
कोहि नाम कुले जातः सुखलेशेन लोभितः।’’
अल्पसाराणि भूतानि पीडयेदिविचारम्।।
        बलशाली और कुलीन पुरुष कभी भी अपने से अल्प बलवान पुरुष को बिना विचारे कभी पीड़ित नहीं करते। ऐसा करने वाला निश्चय ही अधम होता है।’’
          जिन लोगों के पास राजपद, धन और शक्ति है उनको यह समझना चाहिए कि परमात्मा ने उनको यह वैभव आमजन की सेवा के लिये दिया है। प्राचीन समय में अनेक राजा लोगों ने प्रजाजनों के हित के लिये इसी विचार को ध्यान में रखकर काम किया। जहां तक हो सकता था अनेक महान राजा प्रजाजनों के हित के लिये काम किया और प्रसिद्धि पाई इसलिये भगवान के बाद दूसरा दर्जा दिया गया। इतिहास में अनेक महान राजाओं के नाम दर्ज हैं। मगर अब जिस तरह पूरे विश्व में हालात हैं उसे देखकर तो ऐसा लगता है कि आर्थिक, सामाजिक, राजनीति, तथा धार्मिक क्षेत्रों में तामस प्रवृत्तियों वाले लोग हावी हैं। यही कारण है कि प्रजाजनों का ख्याल कम रखा जाता है। सच बात तो यह है कि राजनीतिक कर्म ऐसा माना गया है जिसे करने के लिये उसके शास्त्र का अध्ययन करना अनिवार्य नहीं है। यही कारण है कि राजपद पाने का लक्ष्य रखकर अनेक लोग राजनीति में आते हैं पर प्रजाजनों के हित की बात सोचते नहीं है। उनको लगता है कि राजपद पाना ही राजनीति शास्त्र का लक्ष्य है तब क्यों उसका अध्ययन किया जाये।
           यही कारण है कि हम आज पूरे विश्व में जनअसंतोष के स्वर उठते देख रहे हैं। अनेक देशों हिंसा हो रही है। आतंकवाद बढ़ रहा है। अपराधियों और पूंजीपतियों का गठजोड राजपद पर बैठे लोगों पर हावी हो गया है। राजपद पर बैठे लोग भले ही प्रजाजनों के हित की सोचें पर कर नहीं सकते क्योंकि उनको राजनीति शास्त्र का ज्ञान नहीं होता जिससे कोई काम नहीं कर पाते। राजपदों पर बैठे लोग और उनके परिवार के सदस्य अपनी सुविधा के लिये प्रजाजनों को आहत करने के किसी भी हद तक चले जाते हैं। बात भले ही धर्म करें पर उनकी गति अधम की ही होती है। अतः वर्तमान युवा पीढ़ी के जो लोग राजनीति में सक्रिय होना चाहते हैं उनको कौटिल्य के अर्थशास्त्र का अध्ययन अवश्य करना चाहिए।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका
५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका 
६.अमृत सन्देश  पत्रिका

समस्त ब्लॉग/पत्रिका का संकलन यहाँ पढ़ें-

पाठकों ने सतत अपनी टिप्पणियों में यह बात लिखी है कि आपके अनेक पत्रिका/ब्लॉग हैं, इसलिए आपका नया पाठ ढूँढने में कठिनाई होती है. उनकी परेशानी को दृष्टिगत रखते हुए इस लेखक द्वारा अपने समस्त ब्लॉग/पत्रिकाओं का एक निजी संग्रहक बनाया गया है हिंद केसरी पत्रिका. अत: नियमित पाठक चाहें तो इस ब्लॉग संग्रहक का पता नोट कर लें. यहाँ नए पाठ वाला ब्लॉग सबसे ऊपर दिखाई देगा. इसके अलावा समस्त ब्लॉग/पत्रिका यहाँ एक साथ दिखाई देंगी.
दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका


इस लेखक की लोकप्रिय पत्रिकायें

आप इस ब्लॉग की कापी नहीं कर सकते

Text selection Lock by Hindi Blog Tips

हिंदी मित्र पत्रिका

यह ब्लाग/पत्रिका हिंदी मित्र पत्रिका अनेक ब्लाग का संकलक/संग्रहक है। जिन पाठकों को एक साथ अनेक विषयों पर पढ़ने की इच्छा है, वह यहां क्लिक करें। इसके अलावा जिन मित्रों को अपने ब्लाग यहां दिखाने हैं वह अपने ब्लाग यहां जोड़ सकते हैं। लेखक संपादक दीपक भारतदीप, ग्वालियर

विशिष्ट पत्रिकायें

Blog Archive

stat counter

Labels