Saturday, January 25, 2014

भर्तृहरि नीति शतक-मनस्वी पुरुष कभी परेशान नहीं होते (bhartrihari neeti shatak-manswi purush kabhee pareshan nahin hote)



      इस संसार में दो प्रकार के लोग होते हैं-एक भोगी तथा दूसरे योगी। भोगी लोग जीवन में विषयों में लिप्तता को ही सर्वोपरि मानते हैं। भोगी  लोगउपभोग के सामानों का संग्रह ही अपना लक्ष्य मानते हुए अपना जीवन उन्हीं को समर्पित कर देते हैं जबकि योगी लोग भौतिक सामानों का जीवन में आनंद उठाने का साधन मानकर समाज के लिये आदर्श स्थितियों का निर्माण करने में लगे रहते हैं। ज्ञानियों की दृष्टि में बिना सामानों के भी जीवन में उठाया जा सकता है। उल्टे अधिक सामानों का संग्रह चिंता तथा तनाव का कारण होता है। कुछ लोग स्वादिष्ट भोजन के चक्कर में अनेक प्रकार स्वांग रचते हैं जबकि योगी तथा ज्ञानी भोजन को देह पालने की दृष्टि से दवा के रूप में ग्रहण करते हैं। 
भर्तृहरि नीति शतक में कहा गया है कि

-----------------------

क्वचित् पृथ्वीशय्यः क्वचिदपि च पर्वङ्कशयनः क्वच्छिाकाहारः क्वचिदपि च शाल्योदनरुचिः।

क्वचित्कन्धाधारी क्वचिदपि च दिव्याभवरधरोः मनस्वी कार्यार्थी न गपयति दुःखः न च सुखम्।।

     हिन्दी में भावार्थ-कभी प्रथ्वी पर सोना पड़े कभी पलंग पर मखमली बिछोने पर शयन का सौभाग्य मिले, कभी बढ़िया तो कभी सादा खाना मिले, जिनकी रुचि अपने लक्ष्य में रहती है वह कभी इन बातों की परवाह नहीं करते।  मनस्वी पुरुष दुःख सुख की चिंता में न पड़कर कभी सामान्य तो कभी दिव्य वस्त्र पहनकर  अपने जीवन मार्ग पर दृढ़ता पूर्वक बढ़ते हुए दूसरों के सामने अपना आदर्श प्रस्तुत करते हैं।
      सच बात तो यह है कि उपभोग की प्रवृत्ति मनुष्य को कायर बना देती है। वह किसी बड़े सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक अथवा सांस्कृतिक अभियान में लंबे समय तक सक्रिय नहीं रह पाता। इतना ही अधिक उपभोग मानसिक, वैचारिक तथा अध्यात्मिक से कमजोर भी बनाता है। हम इसे अपने देश में अनेक सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक तथा साहित्यक अभियानों का नेतृत्व करने वाले कथित  शीर्ष पुरुषों की क्षीण वैचारिक, मानसिक तथा अध्यात्मिक स्थिति को देखकर समझ सकते है। यह सभी कथित शीर्ष पुरुष बातें बड़ी बड़ी करते हैं पर किसी का अभियान लक्ष्य तक नहीं पहुंच पाता।  इसका कारण यह है कि जिनका जीवन सुविधाओं के साथ व्यतीत होता है वह अपने कथित अभियानों की वजह से लोकप्रियता भले ही प्राप्त कर लें पर उनमें इतनी क्षमता नहीं होती कि वह अपने सिद्धांतों या वादों को धरातल पर उतार सकें।  इसके लिये जिस त्याग भाव की आवश्यकता होती है वह केवल उन्हीं लोगों में हो सकता है जो सुविधायें मिलने की परवाह न करते हुए मनस्वी हो जाते हैं। 

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Saturday, January 18, 2014

संत कबीर दर्शन के आधार पर चिंत्तन लेख-पेशेवर गुरुओं का ज्ञान लोग धारण नहीं कर पाते (peshewar guruon ka gyan log dharan nahin kar pate-hindi thought article on sant kabir darshan)



            हमारे देश में प्रचलित अध्यात्मिक धारा के अनुसार  जिस तरह साकार और निराकार दोनों ही प्रकार की पूजा पद्धतियों को सहज मान्यता प्राप्त है वह विश्व में किसी अन्यत्र विचाराधारा में नहीं है। इसका लाभ यह होता है कि समाज में कभी पूजा पद्धति को लेकर आपस वैमनस्य नहीं फैलता पर इससे हानि यह हुई कि साकार और सकाम भक्ति की आड़ में हमारे यह व्यवसायिक धार्मिक गुरुओं का प्रभाव इस तरह कायम हो गया कि तत्वज्ञान एक अगेय विषय बन गया। इसकी चर्चा सभी करते हैं पर ग्रहण करने का सामार्थ्य बहुत कम लोगों में होता है। 
            सामान्य मनुष्य बहिर्मुखी होता है और इंद्रियों का भी यह स्वभाव होता है कि वह बाहर के विषयों की तरफ आकर्षित होती हैं।  यही कारण है कि आकर्षक आश्रम, मनोरंजन की दृष्टि से कथायें कहने वाले गुरु तथा सांसरिक फल जल्दी दिलाने के लिये प्रसिद्ध धार्मिक स्थान समाज में सदैव लोकप्रिय रहे हैं।  यह कोई आजकल की बात नहीं वरन् कबीर के समय से ही इस तरह का प्रचलन  रहा है इसलिये उन्होंने  व्यास पीठ पर बैठकर कथा करने वालों की तरफ स्पष्ट ऐसा संकेत दिया जिनसे मन में मनोरंजन का भाव तो आ सकता है पर तत्वज्ञान धारण करना कठिन होता है।  यह सभी को पता है कि कथा के सार्वजनिक प्रदर्शन में लगे लोग धन लेते हैं। उनका कथा करना तथा पैसे लेना कोई बुरा काम नहीं  पर उसका अध्यात्मिक ज्ञान की दृष्टि से कितना महत्व है यह भी समझा जाना चाहिये।
संत कबीर दास कहते हैं कि
--------------------
कबीर व्यास कथा कहैं, भीतर भेदे नाहिं।
औरों कूं परमोधर्ता, गये मुहर का माहिं।।
            सामान्य हिन्दी में भावार्थ-व्यास पीठ  पर बैठकर कुछ विद्वान कथा करते हैं पर उनकी बातें श्रोताओं का हृदय भेदकर अंदर नहीं जातीं। ऐसे विद्वान दूसरों का उद्धार क्या करेंगे स्वयं ही पैसे की लालच में आकर यह कथा का व्यवसाय अपनाते हैं।
कबीर कहहिं पीर को, समझावै सब कोय।
संसय पड़ेगा आपकूं, और कहें का होय।।
            सामान्य हिन्दी में भावार्थ-दूसरों की पीड़ा को देखकर उनके हरण का उपाय अनेक समझाते हैं पर स्वयं अपनी समस्याओं के हल को लेकर वह स्वयं ही सशंकित रहते हैं।  जिन्होंने ज्ञान का रटा लगाया है पर धारण नहीं किया वही दूसरों को ज्ञान बांटते हैं।
            इस देश में अनेक लोगों ने धार्मिक प्रवचन करते करते इतना धन कमा लिया है कि अनेक उद्योगपति तथा व्यवसायी भी उन जैसी समृद्धि प्राप्त नहीं कर पाते हैं।  देखा जाये तो भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान के नाम पर जितना व्यवसाय होता है उतना शायद ही किसी अन्य विषय या वस्तु का होता हो।  कुछ विद्वान कहते हैं कि भारतीय अध्यात्मिक दर्शन से संबंधित ग्रंथों में  कि भारतीय वेदों में अस्सी फीसदी सकाम तथा बीस फीसदी वाक्य निष्काम भक्ति से सबंधित है। दूसरी बात यह भी त्यागी को बड़ा माना गया है भोगी को नहीं।  मजे की बात यह है कि जो लोग सकाम भक्ति के मंच पर होते हैं वही निष्काम रहने का उपदेश देते हैं।  निराकार की बात करते करते साकार भक्ति की बात करने लगते हैं।  इतना ही नहीं भोग की सामग्री का संचय करने वाले ही अपने शिष्यों को त्याग कर धर्म निर्वाह करने का संदेश देते हैं।  दान के नाम अपनी कथाओं का दाम लेकर अपने शिष्यों को  धन्य करते हैं।
            इन व्यवसायिक कथाकारों पर किसी प्रकार की दोषदृष्टि रखना व्यर्थ है क्योंकि अपनी समस्याओं से परेशान लोगों के मन को को यह कुछ समय तक उसे संसारिक विषयों से परे रख थोड़ी राहत अवश्य देते हैं। हमारे कहने का अभिप्राय तो यह है कि मन में स्थाई रूप से शांति रहे उसके लिये योग तथा ज्ञान की साधना करते रहना चाहिये।



दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 


Wednesday, January 8, 2014

प्रजा हित केवल स्वस्थ व्यक्ति ही कर सकता है-हिंदी धार्मिक चिन्तन (prajahit kewal swawsth hi kar sakta hai-hindi dharmik chinntan)



                        हमारे दर्शन के अनुसार पूर्णतः स्वस्थ होने पर ही किसी मनुष्य को राजसी कर्म करना चाहिये। ऐसे में जिन लोगों पर राज्य का भार है उनको प्रजा हित के लिये अधिक ही परिश्रम करना होता है इसलिये उनका पूर्णतः स्वस्थ होना आवश्यक है।  आधुनिक लोकतंत्र ने पूरे विश्व में राज्य व्यवस्थाओं में इस नीति का पालन नहीं किया जा रहा है। आज तो सभी देशों में यही देखा जाता है कि चुनाव में कौन जीत सकता है? चुनाव जीतने की योग्यता और क्षमता ही राज्यपद पाने का एक आधार बन गयी है।  ऐसे में अनेक देशों के राज्य प्रमुख शासन में आने के बाद जनता में अपनी लोकप्रियता खो देते हैं। दूसरी बात यह भी है कि पद की अवधि पांच या छह साल होती है उसमें राज्य पद पर प्रतिष्ठित होने पर व्यक्ति की चिंतायें प्रजा हित से अधिक अपने चुनाव के लिये चंदा देने वालों का उधार चुकाने या फिर अगले चुनाव में फिर अपना पद बरबकरार रहने की होती है।  कुछ समय विपक्षियों का सामना करने तो बाकी समय जनता के सामने नये वादे करते रहने में लग जाता है।
                        अनेक देशों के राज्य प्रमुख शारीरिक, मानसिक तथा वैचारिक दृष्टि से अस्वस्थ होने के बावजूद सत्ता रस पीते रहते हैं। राज्य के अधिकारी भी अपनी नौकरी चलाते हुए केवल राज्य प्रमुख की कुर्सी बचाये रखने में अपना हित समझते हैं। विश्व प्रसिद्ध चिंत्तक कार्लमार्क्स ने अपने पूंजी नामक पुस्तक में इन पूंजीपतियों के हाथ लग चुकी व्यवस्थाओं की चर्चा बहुत की है।  यह अलग बात है कि उसके अनुयायियों ने भी अपने शासित राष्ट्रों में शारीरिक, मानसिक तथा वैचारिक दृष्टि से बीमार लोगों को उच्च पदों पर बैठाये रखा और बेबस जनता तानाशाही की वजह से उनको ढोती रही।  वामपंथी व्यवस्था में बौद्धिकों को वैचारिक मध्यस्थ बन कर मजे लूटने की सुविधा मिलती है इसलिये वह जनहित की बातें बहुत करते हैं पर अपने शिखर पुरुषों की शारीरिक, मानसिक तथा वैचारिक अस्वस्थता को निजी विषय बताते हैं।  मजे की बात यही है कि यही वामपंथी बौद्धिक मध्यस्था मनुस्मृति का जमकर विरोध करते हैं।
मनुस्मृति में कहा गया है कि

------------------

अमात्यंमुख्यं धर्मज्ञं प्राज्ञं दान्तं कुलोद्भवम्।

स्थापयेदासने तस्मिन् खिन्नः कार्येक्षणे नृणाम्।।

                        हिन्दी में भावार्थ-जब राज्य प्रमुख अपने खराब स्वास्थ्य की वजह से प्रजाहित के कार्यों का निरीक्षण करने में असमर्थ हो तब उसे अपना कार्यभार किसी बुद्धिमान, जितेन्द्रिय, सभ्य तथा शिष्ट पुरुष को सौंप देना चाहिये।

विक्रोशन्त्यो यस्य राष्ट्राद्धियन्ते दस्युभिः प्रजाः।

सम्पतश्यतः सभृत्यस्य मृतः स न तु जीवति।।

                        हिन्दी में भावार्थ-उस राजा या राज्य प्रमुख को जीवित रहते हुए भी मृत समझना चाहिये जिसके अधिकारियों के सामने ही डाकुओं से लूटी जाती प्रजा हाहाकर मदद मांगती है पर वह उसे बचाते ही नहंी है।
                        सामान्य सिद्धांत तो यही है कि अस्वथ्यता की स्थिति में राज्य प्रमुख किसी गुणी आदमी को अपना पदभार सौप दे पर होता यह है कि वामपंथी विचारक शिखर पर बैठे पुरुष को अपने अनुकूल पाते हैं तो वह उसकी जगह किसी दूसरे को स्वीकार नहंी करते। दूसरी बात यह है कि आजकल के राज्य प्रमुखों में इतनी मानवीय चतुराई तो होती है कि वह अपने बाद के दावेदारों को आपस में लड़ाये रखते है ताकि कोई उसकी जगह कोई दूसरा नहीं ले सके। अनेक जगह तो राज्य प्रमुख इस तरह की व्यवस्था कर देते हैं कि उनके बाद उनके परिवार के सदस्यों को ही जगह मिले। वामपंथियों के सबसे बड़े गढ़ चीन में भी अब शासन में परिवारवाद आ गया है।  वामपंथियों ने शायद इसलिये ही हमेशा मनुस्मृति का विरोध किया है ताकि उसकी सच्चाई से आम लोग अवगत न हों और उनका छद्म समाज सुधार का अभियान चलता रहे।
                        हम आजकल पूरी विश्व अर्थव्यवस्था चरमराने की बात करते हैं। उसका मुख्य कारण यही है कि अनेक महत्वपूर्ण देशों का शासन पुराने राजनीतिक सिद्धांतों की अनदेखी कर चलाया जा रहा है। स्थिति यह है कि तानाशाही व्यवस्था हो या लोकतांत्रिक सत्य कहने का अर्थ अपने लिये शत्रुओं का निर्माण करना होता है। अपनी आलोचना सहन करने के लिये पर्याप्त प्राणशक्ति बहुत कम लोगों में रह गयी है। इसका मुख्य कारण शारीरिक, मानसिक तथा वैचारिक अस्वस्थता ही है।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 


Saturday, January 4, 2014

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-शुभ लक्षणों वाले व्यक्ति से ही संपर्क करें(kautilya ka arthshastra-shubh lakshanon wale vyakti se hi sampark karen)



                        सांसरिक जीवन में उतार चढ़ाव आते ही रहते हैं। हम जब पैदल मार्ग पर चलते हैं तब कहीं सड़क अत्यंत सपाट होती है तो कहीं गड्ढे होते हैं। कहीं घास आती है तो कहंी पत्थर पांव के लिये संकट पैदा करते हैं।  हमारा जीवन भी इस तरह का है। अगर अपने प्राचीन ग्रंथों का हम निरंतर अभ्यास करते रहें तो मानसिक रूप से परिपक्वता आती है। इस संसार में सदैव कोई विषय अपने अनुकूल नहीं होता। इतना अवश्य है कि हम अगर अध्यात्मिक रूप से दृढ़ हैं तो उन विषयों के प्रतिकूल होने पर सहजता से अपने अनुकूल बना सकते हैं या फिर ऐसा होने तक हम अपने प्रयास जारी रख सकते हैं।  दूसरी बात यह भी है कि प्रकृति के अनुसार हर काम के पूरे होने का एक निश्चित समय होता है।  अज्ञानी मनुष्य उतावले रहते हैं और वह अपने काम को अपने अनुकूल समय पर पूरा करने के लिये तंत्र मंत्र तथा अनुष्ठानो के चक्कर पड़ जाते हैं।  यही कारण है कि हमारे देश में धर्म के नाम पर अनेक प्रकार के पाखंडी सिद्ध बन गये हैं। ऐसे कथित सिद्धों की संगत मनुष्य को डरपोक तथा लालची बना देती है जो कथित दैवीय प्रकोप के भय से ग्रसित रहते हैं।  इतना ही नहीं इन तांत्रिकों के चक्कर में आदमी इतना अज्ञानी हो जाता है कि वह तंत्र मंत्र तथा अनुष्ठान को अपना स्वाभाविक कर्म मानकर करता है।  उसके अंदर धर्म और अधर्म की पहचान ही नहीं रहती।
कौटिल्य के अर्थशास्त्र में कहा गया है कि

----------------------

अपां प्रवाहो गांङ्गो वा समुद्रं प्राप्य तद्रसः।

भवत्यपेयस्तद्विद्वान्न्श्रयेदशुभात्कम्।।

                        हिन्दी में भावार्थ-गंगाजल जब समुद्र में मिलता है तो वह पीने योग्य नहीं रह जाता। ज्ञानी को चाहिये कि वह अशुभ लक्षणों वाले लोगों का आश्रय न ले अन्यथा उसकी स्थिति भी समुद्र में मिले गंगाजल की तरह हो जायेगी।

किल्श्यन्नाप हि मेघावी शुद्ध जीवनमाचरेत्।

तेनेह श्लाध्यतामेति लोकेश्चयश्चन हीयते।।

                        हिन्दी में भावार्थ-बुद्धिमान को चाहे क्लेश में भी रहे पर अपना जीवन शुद्ध रखे इससे उसकी प्रशंसा होती है। लोकों में अपयश नहीं होता।
                        हमारे देश में अनेक ज्ञानी अपनी दुकान लगाये बैठे हैं। यह ज्ञानी चुटकुलों और कहानियों के सहारे भीड़ जुटाकर कमाई करते हैं। इतना ही नहीं उस धन से न केवल अपने लिये राजमहलनुमा आश्रम बनाते हैं बल्कि दूसरों को अपने काम स्वयं करने की सलाह देने वाले ये गुरु अपने यहां सारे कामों के लिये कर्मचारी भी रखते हैं।  एक तरह से वह धर्म के नाम पर कपंनियां चलाते हैं यह अलग बात है कि उन्हें धर्म की आड़ में अनेक प्रकार की कर रियायत मिलती है।  मूल बात यह है कि हमें अध्यात्मिक ज्ञान के लिये स्वयं पर ही निर्भर होना चाहिये। दूसरी बात यह भी है कि ज्ञान होना ही पर्याप्त नहीं है बल्कि उसे धारण भी करना चाहिये।  यही बुद्धिमानी की निशानी है। बुद्धिमान व्यक्ति तनाव का समय होने पर भी अपनी मर्यादा नहीं छोड़ता।  यही कारण है कि बुरा समय निकल जाने के बाद वह प्रतिष्ठा प्राप्त करता है।  लोग उसके पराक्रम, प्रयास तथा प्रतिबद्धता देखकर उसकी प्रशंसा करते हैं।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 


समस्त ब्लॉग/पत्रिका का संकलन यहाँ पढ़ें-

पाठकों ने सतत अपनी टिप्पणियों में यह बात लिखी है कि आपके अनेक पत्रिका/ब्लॉग हैं, इसलिए आपका नया पाठ ढूँढने में कठिनाई होती है. उनकी परेशानी को दृष्टिगत रखते हुए इस लेखक द्वारा अपने समस्त ब्लॉग/पत्रिकाओं का एक निजी संग्रहक बनाया गया है हिंद केसरी पत्रिका. अत: नियमित पाठक चाहें तो इस ब्लॉग संग्रहक का पता नोट कर लें. यहाँ नए पाठ वाला ब्लॉग सबसे ऊपर दिखाई देगा. इसके अलावा समस्त ब्लॉग/पत्रिका यहाँ एक साथ दिखाई देंगी.
दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका


इस लेखक की लोकप्रिय पत्रिकायें

आप इस ब्लॉग की कापी नहीं कर सकते

Text selection Lock by Hindi Blog Tips

हिंदी मित्र पत्रिका

यह ब्लाग/पत्रिका हिंदी मित्र पत्रिका अनेक ब्लाग का संकलक/संग्रहक है। जिन पाठकों को एक साथ अनेक विषयों पर पढ़ने की इच्छा है, वह यहां क्लिक करें। इसके अलावा जिन मित्रों को अपने ब्लाग यहां दिखाने हैं वह अपने ब्लाग यहां जोड़ सकते हैं। लेखक संपादक दीपक भारतदीप, ग्वालियर

विशिष्ट पत्रिकायें

Blog Archive

stat counter

Labels