Saturday, March 17, 2012

विदुर नीति-अगर ज्ञान न हो तो बुढ़ापा भी व्यर्थ (vidur neeti-agar gyan na ho to budhapa vyarth)

           हमारे यहां धर्म की लंबी चौड़ी व्याख्यायें कही जाती हैं। इतना ही नहीं राजनीति के आचार्यों ने तो सर्वधर्म समभाव का सिद्धांत प्रतिपादित कर समाज को इस कदर भ्रमित कर दिया है कि वह धर्मनिरपेक्षता के मार्ग पर चल पड़ा है। सच बात तो यह है कि धर्म के प्रति निरपेक्षता तो भ्रष्ट, दुष्ट तथा लोभी लोगों के मन में होती है। वह अपने लाभ के लिये येनकेन प्रकरेण किसी भी व्यक्ति को लक्ष्य कर उसका शिकार करते हैं। इतना ही नहीं ऐसे लोग धर्म के नाम पर अनेक ऐसे कार्य भी करते हैं कि लोगों में उनकी छवि धर्मभीरु की रहे।
        धर्म के आठ मार्ग बताये गयें हैं-‘‘यज्ञ, अध्ययन, दान, तप, सत्य, क्षमा, दया तथा अलोभ। इनमें यज्ञ, अध्ययन, दान तथा तप का उपयोग दूसरों को दिखाने के लिये भी किया जा सकता है। यह आजकल हो भी रहा है। सार्वजनिक रूप से धार्मिक सम्मेलनों में यज्ञ और ज्ञान चर्चाओं के रूप में इसे देखा जा सकता है। दिखाने के लिये दान हो रहा है तो तमाम लोग अपने तपों का झूठा इतिहास सुनाकर अपने आपको महात्मा सिद्ध करते हैं। जबकि सत्य, क्षमा, दया तथा अलोभ ऐसी प्रवृत्तियां हैं जिनके लिये कोई कर्म करना नहीं पड़ता बल्कि व्यवहार में उनको अपनाना पड़ता है। यह एक कठिन कार्य है। जिन कथित सिद्धों पर हमें यकीन हो उनके व्यवहार में इस प्रकार की आठ प्रवृत्तियों की उपस्थिति का प्रमाणीकरण भी अवश्य कर लेना चाहिए। 
विदुर नीति में कहा गया है  कि
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इज्याध्ययनदानादि तपः सत्यं क्षमा घृणा।
अलोभ इति मार्गोऽयं धर्मस्याष्टिविधः समृतः।।
                ‘‘यज्ञ, अध्ययन, दान, तप, सत्य, क्षमा, दया तथा अलोभ यह आठ मार्ग धर्म के बताये गये हैं।’’
न सा सभा या न सन्ति युद्धा न ते वृद्धा ये न वदन्ति धर्मम्।
नासौ धर्मो यत्र न सत्यमस्ति न तत् सत्यं यच्छलेनभ्युपेतम्।।
          ‘जिस सभा में बड़े बूढ़े नहीं वह सभा नहीं कहलाती पर जो धर्म की बात न करें करें वह बूढ़े भी नहीं है। जिसमें सत्य और धर्म नहीं है और कपट से भरा हो वह सत्य नहीं है।’’
           हमारे यहां बूढ़ों के प्रति अत्यंत सद्भाव दिखाने की परंपरा है। यह अच्छी बात है पर सच यह है कि अगर आदमी बूढ़ा हो पर उसमें अगर अध्यात्म का ज्ञान नहीं है या उसका आचरण इस अहंकार से सरोबोर है कि वह बूढ़ा है और सभी उसकी बात मानेंगे तो समझ लेना चाहिए कि वह बूढ़ा नहीं है बल्कि युवावस्था का अहंकार उसमें अब भी भरा हुआ है। सच बात तो यह कि अध्यात्म के प्रति झुकाव अगर बचपन से नहीं हुआ तो बुढ़ापे में आदमी का सठियाना स्वाभाविक है। जो लोग सोचते हैं कि बुढ़ापे में वह अध्यात्म ज्ञान प्राप्त कर लेंगे उनको यह भ्रम त्याग देना चाहिए। अध्यात्मिक ज्ञान के बिना बुढ़ापा अधिक मुश्किल से कटता है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

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