Wednesday, June 23, 2010

श्रीगुरुग्रंथ साहिब-अहंकारी की स्थिति जले हुए तिल के पौद्ये के समान

‘नानक गुरु न चेतनी, मनि आपणै सुचेत।
छूटे तिल बूआड़ जिउ, सुंबे अंदरि खेत।
खेतै अंदरि, छुटिआ, कहु नानक सउ नाह।
फलीअहि फुलीअहि बपुड़े, भी तन विचि सुआह।।
हिन्दी में भावार्थ-
भगवान गुरुनानक देव कहते हैं कि जो मनुष्य गुरु के संदेश को जीवन में धारण नहीं करते तथा अहंकार वश अपने आपको चतुर समझते हैं उनकी स्थिति खेत में जले हुए तिल के पौधे के समान होती है जो वहीं पड़ा रहता है। ऐसे पौधे फलते फूलते भी हैं पर इनकी फलियों में तिलों की जगह राख होती है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-देश में इस समय ढेर सारे गुरु हैं। यह गुरु भी अपने गुरुओं की छत्र छाया में आश्रम बना कर रह रहे हैं और परम ज्ञानी होने का दिखावा करते हुए भक्तों की भीड़ जुटाते हैं। यह व्यवसायिक गुरु धार्मिक ग्रंथों में वर्णित कथायें सुनाकर भक्तों का मनोरंजन करते हैं पर उनको ज्ञान नहीं दे पाते। इसका कारण यह भी है कि उन्होंने अपने ही गुरुओं से ज्ञान कहां ग्रहण किया होता है जो दूसरे को धारण कर उसका जीवन सुधार सकें। यही कारण हमारे देश में इतने सारे धार्मिक तथा अध्यात्मिक कार्यक्रम होते ही नैतिक तथा सामाजिक चरित्र गिरावट की तरफ अग्रसर है।
गुरुपूर्णिमा के अवसर पर यह सभी गुरु अपने आसपास जमघट लगाते हैं। उनके यहां एकत्रित भीड़ देखकर ऐसा आभास होता है जैसे कि सतयुग आ रहा हो पर लोग अपने घर लौटे और वही ढाक के तीन पात। सभी अपने प्रपंच में लग जाते हैं। इस तरह के धार्मिक कार्यक्रम तो केवल पिकनिक की तरह मनाये जाते हैं। यह आधुनिक व्यवसायिक गुरु अपने गुरुओं से ज्ञान की बजाय प्रवचन की कला सीख कर अपने आपको चतुर समझते हैं। उनमें धन संचय का मोह होता है और इस कारण उनमें सांसरिक दुर्गुण पूरी मात्रा में होते हैं। अपने अहंकार वश वह किसी अन्य को ज्ञानी नहीं मानते। यही स्थिति उनके चेलों की है। यही कारण है कि सभी जगह राख ही राख दिखाई देती है।
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Tuesday, June 22, 2010

विदुर नीति-स्वयं पर नियंत्रण न हो तो धन किसी काम का नहीं

अर्थानामीश्वरो यः स्यादिन्द्रियाणामनीश्वरः।
इंन्द्रियाणामनैश्वर्यदैश्वर्याद भ्रश्यते हि सः।।
हिन्दी में भावार्थ-
आर्थिक रूप से संपन्न होने पर भी जो अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण नहीं रख पाता वह जल्दी अपने ऐश्वर्य से भ्रष्ट हो जाता है।
क्षुद्राक्षेणेव जालेन झषावपिहितावुरू।
कामश्च राजन् क्रोधश्च ती प्रज्ञानं विलुपयतः।।
हिन्दी में भावार्थ-
जैसे दो मछलियां मिलकर छोटे छिद्र वाले जाल को काट डालती हैं उसी तरह काम क्रोध मिलकर विशिष्ट ज्ञान को नष्ट कर डालते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-धन का मद सर्वाधिक कष्टकारक है। इसके मद में मनुष्य नैतिकता तथा अनैतिकता का अंतर तक नहीं देख पाता। आजकल तो समाज में धन का असमान वितरण इतना विकराल है कि जिनके पास धन अल्प मात्रा में है उनको धनवान लोग पशुओं से भी अधिक बदतर समझते हैं। परिणाम यह है कि समाज में वैमनस्य बढ़ रहा है। देश में अपराध और आतंक का बढ़ना केवल सामाजिक मुद्दों के कारण ही नहीं बल्कि उसके लिये अर्थिक शिखर पुरुषों की उदासीनता भी इसके लिये जिम्मेदार है। पहले जो लोग धनवान होते थे वह समाज में समरसता बनाये रखने का जिम्मा भी लेते थे पर आजकल वही लोग शक्ति प्रदर्शन करते हैं और यह दिखाते हैं कि किस तरह वह धन के बल पर कानून तथा उसके रखवालों को खरीद कर सकते हैं-इतना ही नहीं कुछ लोग तो अपने यहां अपराधियों तथा आतंकियों को भी प्रश्रय देते हैं। यही कारण है कि आजकल धनियों का समाज में कोई सम्मान नहीं रह गया। इसके विपरीत उनकी छबि क्रूर, लालची तथा भ्रष्ट व्यक्ति की बन जाती है। जिस प्रतिष्ठा के लिये वह धन कमाते हैं वह दूर दूर तक नज़र नहीं आती।
इतना ही नहीं अनेक भारतीयों ने विदेश में जाकर धन कमाया है पर उनको सामाजिक सम्मान वहां भी नहीं मिल पाता क्योंकि विदेशी लोग जानते हैं कि यह लोग अपने समाज के काम के नहीं हैं तो हमारे क्या होंगे? ऐसे धनपति भले ही धन के ऐश्वर्य को पा लेते हैं पर सामाजिक सम्मान उनको नहीं मिलता भले ही वह धन खर्च कर उसका प्रचार स्वयं करते हों।
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Sunday, June 20, 2010

चाणक्य नीति-दृष्टिकोण में भिन्नता स्वाभाविक

एक एव पदार्थस्तु त्रिधा भवति वीक्षितः।
कुणपः कामिनी मांसं योगिभिः कामिभिः श्वभिः।।
हिन्दी में भावार्थ-
नीति विशारद चाणक्य कहते हैं कि एक ही वस्तु को तीन अलग अलग दृष्टि से देखा जाता है। स्त्री का शरीर यागियों के लिये शव के समान, कामियों के लिये सौंदर्य का भंडार तथा कुत्तों के लिये मांस का एक पिण्ड है।
धर्म धनं च धान्यं च गुरोर्वचनमौषधम्।
सुगृहीतं च कर्तव्यमन्यथा तु न जीवति।
हिन्दी में भावार्थ-
धर्म का पालन, धन का अर्जन तथा नाना प्रकार के अन्न का संग्रह गुरु के संदेश तथा विविध प्रकार औषधियों का का सेवन विधि विधान से करना चाहिये। ऐसा न करने पर ही कोई भी व्यक्ति ठीक से नहीं रह सकता।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- मनुष्य जीवन में सबसे ज्यादा महत्व उसके दृष्टिकोण का है। सच बात तो यह है कि इस दुनियां में कोई वस्तु अच्छी या बुरी नहीं है। महत्वपूर्ण बात यह है कि हमारे देखने का दृष्टिकोण कैसा है? गोबर की बदबू से आदमी त्रस्त हो जाता है पर वही खाद बनाने के काम आता है। मनुष्य का पेशाब कितना बुरा है पर अनेक लोग अपने स्वास्थ्य के लिये उसे प्रातः पीते हैं। चाणक्य महाराज यहां आदमी को अपने दृष्टिकोण को स्वच्छ रखने के लिये सुझाव दे रहे है।
हमारे विचार से दृष्टिकोण अत्यंत महत्वपूर्ण है। अगर आप किसी व्यक्ति में बुराई देखेंगे तो धीरे धीरे उसके प्रति मन में घृणा भाव पैदा होगा। यह बुरा भाव आंखों में परिलक्षित होगा जिसे दूसरा आदमी देखेगा तो उसके मन में भी बुराई का भाव आयेगा। अगर किसी व्यक्ति के प्रति अच्छा भाव रखें तो उसके मन में भी अच्छी बात आयेगी। सच बात तो यह है कि हम अपने ही दृष्टिकोण से अपना संसार बनाते हैं। अपना दृष्टिकोण स्वच्छ न होने पर जब हमारा जीवन कष्टमय होता है तब दूसरों पर दोषारोपण करते हैं। अगर आत्मंथन करें तो पता लगेगा कि अपना संसार हमने अपने मन के संकल्प और दृष्टिकोण से ही बनाया है।  यह अलग बात है कि अज्ञान के कारण उसे समझ नहीं पाते।
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Sunday, June 6, 2010

सत्य और भ्रम-विशेष रविवारीय लेख (satya aur bhram-special hindi features and article)

भारत का अध्यात्मिक ज्ञान सत्य के निकट क्यों है? सीधी सी बात है कि दुनियां के सबसे अधिक भ्रमित लोग यहीं रहते हैं। जिस तरह कमल कीचड़ में खिलता है गुलाब कांटों में सांस लेते हुए जिंदा रहता है उसी तरह सत्य का प्रकाश वहीं सबसे अधिक वहीं दिखता है यहां भ्रम का अंधेरा है। अपने देश में जाति पाति को लेकर दिनोंदिन बहस बढ़ती जा रही है। जातियों को मिटाना है एक समाज बनाना है-जैसे नारे गूंज रहे हैं। क्या इस देश में जाति पाति है? सवाल यह है कि जाति यानि क्या? जन्म से जाति की बात करें तो वह अस्तित्व में ही नही है क्योंकि सभी का जन्म एक ही तरीके से होता हैं-यह अलग बात है कि लोग विवाह आदि के लिये उनको बनाये रखते हैं। कर्म के आधार पर जाति की बात करें तो वह बनती बिगड़ती है।
कुछ विद्वान तो कहते हैं कि मनुष्य एक ही दिन में चारों वर्ण से गुजरता है। सुबह जब आदमी शौच स्नान करता है तब अपने शरीर की गंदगी की सफाई करता है तब वह क्षुद्र, जब पूजा वगैरह करता है तब ब्राह्म्ण, दोपहर अर्थोपार्जन करता तब वैश्य और जब सायं मनोरंजन करने के साथ जब किसी का भला करने के लिये काम करता है तब क्षत्रिय होता है-वैसे आजकल जो लोग गृहस्थी को सुरक्षित बचाये रखे हुए हैं उन सभी को क्षत्रिय ही मानना चाहिये क्योंकि जीवन बहुत संघर्षमय हो गया हैै।
सवाल यह भी है अपनी जाति से कौन खुश है और कौन कितना मतलब रखता है? मूलतः मनुष्य स्वार्थी है, जिससे काम पड़ता है उसे बाप बना लेता है-लोग तो गधे को बाप बनाने की भी बात करते है। अगर कोई इंसान गरीब और लाचार है तो उसे अपनी जाति में क्या परिवार में ही सम्मान नहीं मिलता समाज में क्या मिलेगा?
आज तक यह कोई बता नहीं पाया कि जिन जातियों को हम मिटाने निकले हैं वह बनी कैसे? अनेक लोग इतिहास सुनाते हैं पर उसमें झूठ के अलावा अब कुछ नहंी दिखता। दूसरी बात यह है कि नस्लीय भिन्नताओं का सही वैज्ञानिक मूल्यांकन नहीं हुआ जिससे पता लगे कि कुछ जातियों के लोग गोरे और कुछ के काले क्यों होते हैं?
श्रीमद्भागवत गीता में कर्म और स्वभाव के आधार पर जाति की संरचना की बात है पर कहीं जन्म के आधार का उल्लेख नहीं है। उसमें भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि ‘जो मुझे भजेगा वही मुझे पायेगा।’
फिर यह जातियों का मामला इतना जटिल है कि समझ में नहीं आता कि आखिर इसको मिटाने या उठाने की शुरुआत कहां से करना चाहिये और सबसे पहले किस जाति को निशाने पर लेना चाहिए। मुख्य बात यह है कि भ्रम पर जिंदा रहने का आदी हो चुका यह समाज है और उसके शिखर पुरुष अंग्रेजी शैली से राज्य कर रहे हैं‘फूट डालो और राज करो’ की तर्ज पर सभी अपनी साामजिक, आर्थिक और धार्मिक साम्राज्य बचा रहे हैं ताकि उनकी पीढ़ियों का भविष्य सुरक्षित रहे और समाज उनको ढोता रहे।
आप देख लीजिये सभी जगह वंशवाद का बोलबाला है। कहते हैं कि फिल्म साहित्य, संगीत, पत्रिकारिता तथा कला जैसे क्षेत्र तो आदमी की योग्यता के आधार पर चलते हैं पर वहां भी वंशवाद बैठ गया। अब आर्थिक क्षेत्र की बात करें तो पुरानी पद्धति के व्यापार तो वंश के आधार पर ही विरासत में मिलते थे और वह स्वीकार्य भी है पर उसमें भी पश्चिम से कंपनी पद्धति आ गयी जिसमें आदमी अपनी योग्यता के आधार पर सर्वोच्च पद पर पहुंचता है पर उसमें भी हमारे भारत के शिखर पुरुषों ने ऐसी व्यवस्था की कि अब उनकी पीढ़ियां ही उस पर सर्वाच्च पद पर विराजमान हों। आम शेयर धारकों का पैसा उनके प्रबंध निदेशकों की जागीर मानकर गिना जाता है। धार्मिक क्षेत्र जो ज्ञान के आधार पर चलता है वहां भी पिता अपने पुत्र को विरासत की तरह सौंपने लगे है। कहने का अभिप्राय यह है कि शिखर पुरुष और उनके प्रायोजित बुद्धिजीवी समाज को आधुनिक बनाने की मुहिम केवल आम लोगों को भरमाने और बांटने के लिये ही चला रहे हैं ताकि यथास्थिति बनी रहे।
देश के आर्थिक,सामाजिक तथा धार्मिक शिखर पुरुषों का साम्राज्य इतना बड़ा है कि उससे लड़ना कथित अमेरिकी साम्राज्य से लड़ना अधिक कठिन है-जो बुद्धिजीवी ऐसा दावा करते हैंे उन्हें अपनी बात पर फिर से विचार करना चाहिए।
अब बात करें मार्क्सवाद की। ‘दुनियां के मजदूरों का एक हो जाआ0े’ का नारा इतना भ्रम पैदा करने वाला है कि उस पर जितना लिखा जाये कम है। जनवादी और प्रगतिशील लेखकों एक बहुत बड़ा समूह इस नारे के तले सपने बुने जा रहा है। मज़दूर एक हो जायें पर उनका नेता होगा ही न! इतना ही नहीं उनके काम को देखने वाला एक निरीक्षक भी होगा। उनको वेतन देने वाला एक अधिकारी भी होगा। जहां वह काम करेंगे वहां भी एक प्रबंधक होगा! यह पद भी जाति पाति जैसे ही है। प्रबंधक कभी नहीं कहेगा कि ‘मैं मज़दूर हू।’ लेखापाल और लिपिक तथा निरीक्षक भी अपने आपको शासित नहीं शासक दिखाने का प्रयास करेंगे। जिस तरह एक उच्च जाति का आदमी अपनी बेटी निम्न जाति में नहीं देना चाहता वैसे ही प्रबंधक भी मज़दूर के बेटे को नहीं देगा।
कार्ल मार्क्स ने बड़े आराम से अपनी ‘पूंजी’ किताब लिखी क्योंकि उसका प्रायोजक एक पूंजीपति एंजिल्स था। मार्क्स ने किताब लिखी और उसने प्रकाशित की क्योंकि दुनियां के मज़दूरों को भ्रम में रख उन पर शासन करने के लिये एक ऐसी किताब का होना जरूरी था। उस पूंजीपति का नाम भी हुआ और कार्ल मार्क्स का भी। मार्क्सवाद को ढोने वाला एक देश सोवियत संघ बिखर गया तो इधर चीन भी अब धीरे धीरे पूंजीवाद की तरफ जा रहा है। दरअसल अनेक बार तो लगता है कि कामरेड लोग पूंजीपतियों के शासन के संवाहक है। उन्होंने अनेक तरह के आंदोलन चलाये पर एक भी ऐसा कोई बता दे जिसने मज़दूर और गरीब के लिये अच्छा परिणाम दिया हो। उल्टे जिन कारखानों के पूंजीपति उसे बंद करना चाहते थे उन्होंने कामरेडों की सहायता लेकर वहां हल्ला मचवाया और बंद करने में सफलता पायी।

हम जिसे जाति पाति कहते हैं उनके निर्धारण में आदमी के व्यवसाय का स्वरूप, अर्थिक स्थिति, वैचारिक स्तर तथा चिंतन क्षमता का बहुत बड़ा योगदान होता है। पश्चिम के काले गोरे का भेद मिटाने की तर्ज पर यहां जाति पाति मिटाने का जो प्रयास करते हैं वह एकदम अप्राकृतिक है। जिस तरह एक गोरे दंपति की संतान गोरी होती है और काले की काली वही स्थिति जातियों की भी है क्योंकि आदमी की दैहिक स्थिति का संबंध जल, वायु तथा प्राकृतिक वातावरण से है। सच बात तो यह है कि किसी भी प्रकार के भेदभाव को मिटाने का प्रयास ही नकारात्मक संदेश देता है। इसके विपरीत लोगों में श्रीमद् भागवत् गीता का समदर्शिता के भाव का प्रचार किया जाना चाहिए। कार्ल मार्क्स के चेले भारतीय अध्यात्म का विरोध करते हैं पर उसके लिखित पुस्तक को मज़दूरों की गीता कहते हैं। यह एकदम हास्यास्पद बात है और भारत के गरीबों के धार्मिक भावना का दोहन कर अपने इर्दगिर्द उनकी भीड़ जुटाने के प्रयास के अलावा अन्य कुछ नहीं है। इससे अच्छा है कि असली श्री गीता को पढ़कर उसके अध्यात्म संदेश का प्रचार करें जो संक्षिप्त हैं पर समाजवाद के नारे कहीं अधिक चिंतन लिये हुए हैं।
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