Tuesday, April 28, 2009

संत कबीर वाणी-शब्द में चुंबक जैसा प्रभाव ज्ञान के बिना संभव नहीं

यही बड़ाई शब्द की, जैसे चुंबक भाय।
बिना शब्द नहिं ऊबरै, केता करै उपाय।।

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि उसी शब्द की प्रशंसा होती है जो चुंबक की तरह दूसरे के हृदय को प्रभावित करता है। जब तक शब्द ज्ञान नहीं होगा तब तक कितना भी प्रयास किया जाये आदमी इस संसार रूपी भव सांगर से उबर नहीं सकता।
सीखै सुनै विचार ले, ताहि शब्द सुख देय।
बिना समझै शब्द गहै, कछु न लोहा लेय।।

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जब अच्छी तरह सीखकर सोचते और विचारते हुए शब्द बोला जाता है वही सुख देता है। जब तक शब्द का अर्थ और भाव समझ में नहंी आयेगा तब तक कोई लाभ नहीं होने वाला।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अनेक लोगों ने शिक्षा के क्षेत्र में ढेर सारी उपाधिययों प्राप्त की ली हैं। इतना ही नहीं उन्होंने धर्मग्रंथों से भी अनेक प्रकार के दोहे और श्लोक रट लिये हैं उसका अर्थ भी बढ़िया ढंग से प्रस्तुत करते हैं पर वह उसे धारण नहीं कर पाते। तोते की तरह रटने वाले ऐसे लोगों ने समाज के कल्याण का ठेका भी ले लिया है। समस्या यह है कि शब्द ज्ञान सुनने या पढ़ने के बाद उस पर चिंतन और मनन आवश्यक है वरना वह व्यवहार में नहीं आ पाता। आप देखियें प्रेम, अहिंसा और मधुर वाणी का उपयोग करने के संदेश देने वाले कितने ज्ञानी इस देश में है पर वह उनका व्यवसाय है और कभी वह उस ज्ञान को धारण कर पायें हों -जो उन्होंने पढ़ा है-ऐसा नहीं लगता।
लोग भी उनको सुनते हैं फिर भूल जाते हैं। उनके शब्दों में चुंबक जैसी शक्ति नहीं है जिससे लोग प्रभावित हो सकें। जो व्यक्ति ज्ञान के शब्द पढ़कर उसे धारण करता है उसी की वाणी में ओज आ सकता है वरना नहीं।
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Monday, April 27, 2009

संत कबीर वाणी-विपत्ति में काम आयें ऐसे लोग कम ही होते हैं


सजन सनेही बहुत हैं, सुख में मिले अनेक।
बिपत्ति पड़े दुख बांटिये, सो लाखन में एक।।

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि इस संसार में जब मनुष्य सुख की स्थिति में होता है तब उसके साथ स्नेह करने वाले सज्जन बहुत होते हैं पर दुःख और विपत्ति में साथ निभायें ऐसे लोगों की संख्या नगण्य ही होती है।
प्रेम प्रीति से मिलै, ताको मिलिये धाय।
कपट राखिके जो मिले, तासे मिलै बलाय।।

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जो व्यक्ति सच्चा प्रेम करने वाला हो उससे तो मिलना चाहिये पर जिनके मन में कपट है उनसे दूर रहने में भी भलाई है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जब मनुष्य आत्मनिर्भर और संपन्न होता है तब उसके आसपास लोगों की भीड़ लगी होती है। जो जितना अधिक धनी, उच्च पदारूढ़ और प्रतिष्ठत होता है उसके आसपास उतनी ही भीड़ लगी होती है। अगर हम उनकी तरफ देखें तो लगेगा कि वह तो बड़ा आदमी है। यह केवल सोचने का एक तरीका है और इसका कोई तार्किक आधार नहीं है। जहां शहद फैला होगा वहां चींटियां तो आयेंगी। यही हाल सामान्य मनुष्यों की प्रवृत्ति का भी है। चाहे भले ही धनी, उच्च पदारूढ़ और बाहूबली आदमी से कुछ न मिलता हो पर लोग उसके यहां चक्कर जरूर लगाते हैं कि इस आशा में कि शायद कभी उसकी आवश्यकता पड़ जाये और वह सहायत करे। मगर वह उसके यहां तभी तक जाते हैं जब तक उसके पास शक्ति है और जैसे ही वह उससे विदा हुई वह उससे भी मूंह फेर लेते हैं।

इसलिये अपने उच्च पद, अधिक धन और बाहूबल का अहंकार अपने आसपास लगी भीड़ को देखकर तो नहीं पालना चाहिये क्योंकि जैसे ही वह विदा होगी लोग भी नदारद हो जायेंगे। शक्ति के विदा होते ही जब विपत्तियां आती हैं तब कोई साथ निभाने वाला नहीं होता। कोई कोई होता है जो दुःख में यह सोचकर साथ निभाता है कि अमुक आदमी से अपने अच्छे दिनों में मदद की थी।
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Saturday, April 25, 2009

संत कबीर वाणी-हृदय स्वच्छ हो तभी माला फेरने और जीभ से नाम लेने का लाभ मिलता है


माला फेरै कह भयो, हिंरदा गाठि न खोय।
गुरु चरनन चित राखिये, तो अमरापुर जोय।।

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि हाथ में पकड़कर माला फेरने से कोई लाभ तब तक नहीं होता जब नाम स्मरण हृदय से नहीं किया जाये। यह तभी संभव है जब तब गुरु के चरणों में सिर झुकाकर आदर के साथ उनकी सेवा की जाये तभी अज्ञान और दोष मिट सकते हैं।
माला तो कर में फिरै, जीभ फिरै मुख मांहि।
मनवा तो दहु दिशि फिरै, यह तो सुमिरन मांहि।।

संत शिरोमण कबीरदास जी कहते हैं कि मनुष्य हाथ में माला फेरते हुए जीभ से परमात्मा का नाम लेता है पर उसका मन दसों दिशाओं में भागता है। यह कोई भक्ति नहीं है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-सत्संग में जाना हो या मंदिर में दर्शन करने, जब तक हम परमात्मा का ध्यान हृदय में स्थित नहीं करेंगे तब तक कोई लाभ नहीं होता। देखा जाये तो भक्ति और ज्ञान साधना अपने लौकिक और परलौकिक जीवन को सुखमय करने के लिये करते हैं पर हृदय में केवल भौतिक विषयों का ही ध्यान बना रहता है। भले ही हाथ में माला फेरते हुए परमात्मा का नाम लें या सत्संग में जाकर संतों के प्रवचन सुने पर मन का भटकाव को केवल सांसरिक विषयों में ही बना रहता है। हम वही चिंतायें दुःख और अवसाद हमेशा मस्तिष्क बने रहते हैं जिनसे परेशान होकर हम अध्यात्मिक शांति के लिये उन स्थानों पर जाते हैं जहां सत्संग होता है। इसलिये जब कहीं प्रवचन सुनने जायें या मंदिर में दर्शन करें तब अपने सांसरिक विषयों का विचार मस्तिष्क में नहीं आने देना चाहिये।
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Friday, April 24, 2009

चाणक्य नीतिः गुणों की पहचान न होने पर उपेक्षा होती है

न वेत्ति यो यस्य गुणप्रकर्ष स तं सदा निन्दति नाऽत्र चित्रम्।
यथा किराती करिकुम्भजाता मुक्ताः परित्यज्य विभति गुंजाः।।

हिंदी में भावार्थ- अगर कोई मनुष्य किसी वस्तु या अन्य मनुष्य के गुणों को नहीं पहचानता तो तो उसकी निंदा या उपेक्षा करता है। ठीक उसी तरह जैसे जंगल में रहने वाली कोई स्त्री हाथी के मस्तक से मिलने वाली मोतियों की माला मिलने पर भी उसे त्यागकर कौड़ियों की माला पहनती है।
अकृष्टफलमूलेन वनवासरतः सदा।
कुरुतेऽहरहः श्राद्धमृषिर्विप्रः स उच्यते।।
हिंदी में भावार्थ-
वह विद्वान ऋषि कहलाता है जो जमीन को जोते बिना पैदा हृए फल एवं कंधमूल आदि खाकर हमेशा वन में जीवन व्यतीत करता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-नीति विशारद चाणक्य का कहना है कि अगर किसी व्यक्ति या वस्तु के गुणों का ज्ञान नहीं है तो उसकी उपेक्षा हो ही जाती है। यह स्थिति हम अपने भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान के बारे में आज समाज द्वारा बरती जा रही उपेक्षा के बारे में समझ सकते हैं। हमारे देश के प्राचीन और आधुनिक ऋषियों, मुनियों और तपस्वियों ने बड़े परिश्रम से हमें जीवन और सृष्टि के रहस्यों को जानकर उसका ज्ञान हमारे लिये प्रस्तुत किया पर हमारे देश के विद्वानों ने उसकी उपेक्षा कर दी। यही कारण है कि आज हमारे देश में विदेशी विद्वानों के ज्ञान की चर्चा खूब होती है। देश में पश्चिम खान पान ही सामान्य जीवन की दिनचर्या का भाग बनता तो ठीक था पर वहां से आयातित विचार और चिंतन ने हमारी बौद्धिक क्षमता को लगभग खोखला कर दिया है। यही कारण है कि सामान्य व्यक्ति को शिक्षित करने वाला वर्ग स्वयं भी दिग्भ्रमित है और भारतीय अध्यात्म उसके लिये एक फालतू का ज्ञान है जिससे वर्तमान सभ्यता का कोई लेना देना नहीं है।
जबकि इसके विपरीत पश्चिम में भारतीय अध्यात्म ज्ञान की पुस्तकों पर अब जाकर अनुसंधान और विचार हो रहा है। अनेक महापुरुषों के संदेश वहां दिये जा रहे हैं। हमारी स्थिति भी कुछ वैसी है जैसे किसी घर में हीरों से भरा पात्र हो पर उसे पत्थर समझकर खेत में चिड़ियों को भगाने के लिये कर रहा हो।
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Thursday, April 23, 2009

मनुस्मृतिः अहिंसक व्यक्ति अपना लक्ष्य सहजता से प्राप्त करता है

मनु स्मृति में में कहा गया है कि
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यद्ध्यायति यत्कुरुते धृतिं बध्नाति यत्र च।
तद्वाघ्नोत्ययत्नेन यो हिनस्तिन किंचन।।
     हिंदी में भावार्थ-जो मनुष्य किसी भी प्रकार की हिंसा नहीं करता, वह जिस विषय पर एकाग्रता के साथ विचार और कर्म करता है  अपना लक्ष्य शीघ्र और बिना विशेष प्रयत्न के प्राप्त कर लेता है।

नाऽकृत्वा प्राणिनां हिंसां मांसमुत्यद्यते क्वचित्।
न च प्राणिवधः स्वग्र्यस्तस्मान्मांसं विवर्जयेत्।।
     हिंदी में भावार्थ-किसी भी जीव की हत्या कर ही मांस प्राप्त किया जाता है लेकिन उससे स्वर्ग नहीं मिल सकता इसलिये सुख तथा स्वर्ग को प्राप्त करने की इच्छा करने वालो को मांस के उपभोग का त्याग कर देना चाहिये।
     वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इस संसार में मनुष्य के चलने के दो ही मार्ग हैं-एक सत्य  परमार्थ और दूसरा असत्य हिंसा। यदि मनुष्य का मन लोभ, लालच और अहंकार से ग्रस्त हो गया तो वह नकारात्मक मार्ग पर चलेगा और उसमें सहृदयता का भाव है तो वह सकारात्मक मार्ग पर चलता है। श्रीगीता के संदेशों का सार यह है कि जैसा मनुष्य अन्न जल ग्रहण करता है तो वैसा ही उसका स्वभाव हो जाता है तब वह उसी के अनुसार ही कर्म करता हुआ फल भोगता है।
      वैसे पश्चिम के वैज्ञानिक भी अपने अनुसंधान से यह बात प्रमाणित कर चुके हैं कि शाकाहारी भोजन और मांसाहारी भोजन करने वालों के स्वभाव में अंतर होता है। वह यह भी प्रमाणित कर चुके हैं कि शाकाहारी भोजन करने वालों के विचार और चिंतन में सकारात्मक पक्ष अधिक रहता है जबकि मांसाहारी लोगों का स्वभाव इसके विपरीत होता है। जहा माँसाहारी उग्र होते हैं वहीँ शाकाहारी शांत स्वाभाव के पाए जाते हैं| अतः जितना संभव हो सके भोजन में मांसाहार से परहेज करना चाहिये।
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Tuesday, April 21, 2009

मनुस्मृतिः लोगों को मूर्ख बनाने वालों को पानी तक न पिलायें

यथा प्लवेनौपलेन निमज्जत्युदके तरन्।
तथा निमज्जतोऽधस्तादज्ञौ दातृप्रतीच्छकौ।।

हिंदी में भावार्थ-जैसे को मनुष्य जल में प्रस्तर की नाव बनाकर डूब जाता है उसी तरह दूसरों को मूर्ख मनाकर दान लेने वाला तथा देना वाला दोनों ही नष्ट हो जाते हैं।

न वार्यपि प्रयच्छेत्तु बैडालव्रति के द्विजे।
न बकव्रतिके विप्रे नावेदविदि धर्मवित्।।

हिंदी में भावार्थ-धर्म की जानकारी रखने वाले प्रत्येक व्यक्ति को चाहिये कि वह ऐसे किसी पुरुष को पानी तक नहीं पिलाये जो ऊपर से साधु बनते हैं पर उनका वास्तविक काम दूसरों को अपनी बातों से मूर्ख बनाना होता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या -हमारे देश में दान देने की बहुत पुरानी परंपरा है। चाहे सतयुग हो या कलियुग दान देने का भाव हमारे देश के लोगों में सतत प्रवाहित है। इसी भाव का देाहन करने के लिये दान लेने वालों ने भी एक तरह से अपना धंधा बना लिया है। यह केवल आज ही नहीं वरन् मनु महाराज के समय से चल रहा है इसलिये वह अपने संदेश में सचेत करते हैं कि अपनी वाणी या कर्म से दूसरे को मोहित कर ठगने वाले को पानी भी न पिलायें। ऐसे ठगों को भोजन खिलाने या पानी पिलाने से कोई पुण्य नहीं मिलने वाला। ऐसे ठगों को दान देने से कोई पुण्य लाभ की बजाय पाप होने की आशंका रहती है। वह स्वयं तो नष्ट होते ही हैं बल्कि दान देने वाला भी नष्ट होता है-उसे इस बात का भ्रम होता है कि वह पुण्य कमा रहा है पर ऐसा होता नहीं है और वह निरंतर पाप का भागी बनता चला जाता है। अतः दान देते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि वह सुपात्र है कि नहीं। देखा जाये तो इस तरह के ठग मनुमहाराज के समय में भी सक्रिय रहे हैं तभी तो उन्होंने ऐसा संदेश दिया है।
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Saturday, April 18, 2009

मनुस्मृतिः दुर्गम स्थानों पर जाने का विचार न करें

अधितिष्ठेन केशांस्तु न भस्मास्थिक पालिकाः।
न कार्पासास्थि न तुषादीर्धमायुजिजीविषुः।।

हिंदी में भावार्थ- जिस व्यक्ति के हृदय में लंबी आयु पाने की इच्छा है उसे कभी बालों, भस्म, हड्डी, खप्पर, कपास की गुठली तथा भूसे के ढेर पर नहीं बैठना चाहिये।
अचक्षुविंषयं दुर्ग न प्रपद्येत कहिंचित्।
न विणुमूत्रमुदीक्षेत न बाहुभ्यां नदीं तरेत्।।

हिंदी में भावार्थ-नीति विशारद चाणक्य कहा कहना है कि जो दुर्गम स्थान आंखों से देखने में कठिन हों वहां कतई नहीं जाना चाहिये। अपनी देह से बाहर निकले मलमूत्र को नहीं देखना चाहिये। किसी नदी को अपने बाहुबल से पार करने का प्रयास नहीं करना चाहिये।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अनेक बार पर्यटन के दौरान ऐसे स्थान सामने आते हैं जो बहुत दुर्गम होते हैं। उनको पेड़ पौद्यों ने घेर रखा होता है। वहां की हरियाली का सौंदर्य देखते ही बनता है पर अगर वह दुर्गम और अगम्य हैं तो वहां जाना खतरनाक हो सकता है। पिकनिक और पर्यटन के दौरान ऐसी अनेक दुर्घटनायें होती हैं जो लोगों के दुस्साहस और अज्ञान के कारण होती है। वैसे भी कहा जाता है कि आग, पान, और हवा से कभी नहीं खेलना चाहिये। आदमी कितना भी अच्छा तैराक क्यों न हो उसे नदी के पार जाने के लिये जल वाहनों का प्रयोग करना चाहिये। अनावश्यक दुस्साहस जीवन के लिये कष्टकारक होता है।
इन संदेशों का जीवन के संदर्भ में भी बहुत महत्व है। हमें अपने लक्ष्य और उद्देश्य हमेशा ही ऐसे तय करना चाहिये जिनकी प्राप्ति सहज हो। अपनी शक्ति और साधनों से अधिक महत्वाकांक्षी उद्देश्य और लक्ष्य संकट का कारण हो सकते हैं। इतना ही नहीं ऐसे स्थानों पर निवास करने का विचार भी नहीं करना चाहिये जहां के लोगों की प्रवृत्ति दुर्गम और क्रूर हो। इस विश्व में अनेक संस्कृतियां और समाज हैं। उनके परस्पर इतिहास, भूगोल, संस्कार, शिक्षा और ज्ञान की दृष्टि से ढेर सारे विरोधाभास हैं। यही विरोधाभास लोगों के आपसी संबंध को प्रगाढ़ बनाने में बाधक हैं। अतः जहां अपने समाज से विरोधी संस्कार वाला समाज हो वहां रहने का आशय यही है कि स्वयं ही दुर्गम स्थान पर जाना जो भारी कष्ट का कारण बन जाता है। जो व्यक्ति अपना समाज, शहर या अपना देश छोड़कर दूसरी जगह जाते हैं और वहां उनको सामाजिक और वैचारिक दृष्टि से आपसी मेलमिलाप वाले लोग नहीं मिलते तब उनके लिये जीवन दुरुह हो जाता है।
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Thursday, April 16, 2009

चाणक्य नीतिः गलत संबंध बनाना श्रेष्ठ व्यक्ति के लिये दुःखदायी

दुराचारी च दुर्दृष्टिराऽवासी च दुर्जनः।
यन्मैत्री क्रियते पुम्भिर्नरः शीघ्रं विनश्यति।।

हिन्दी में भावार्थ-दुराचारी, कुदृष्टि रखने और बुरे स्थान पर रहने वाले व्यक्ति से संबंध बनाने पर श्रेष्ठ और सज्जन व्यक्ति शीघ्र नष्ट हो जाता है।
ग्रहीत्वां दक्षिणां विप्रास्त्यजन्ति यजमानकम्।
प्राप्तविद्यां गुरुं शिष्या दग्धाऽरण्यं मृगास्तथा।
हिंदी में भावार्थ-
ब्राह्मण दक्षिणा लेकर यजमान का घर छोड़ देते हैं। गुरु से शिक्षा प्राप्त कर शिष्य उसे दक्षिण देकर आश्रम से चले जाते हैं। उसी तरह जंगल जल जाने पर मृग उसका त्याग कर देते हंै।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-संबंध बनाने में हमेशा सतर्कता बरतना चाहिये। देखा गया है कि आजकल के युवक युवतियां अक्सर संबंध तात्कालिक आकर्षण में फंसकर मित्रता ऐसे लोगों से कर बैठते हैं जिनके स्वभाव और इतिहास का पता उनको नहीं होता। बाद में जब वह उनकी वजह से कहीं फंस जाते हैं तब उनको अपनी गलती की अनुभूति होती है मगर तब देर भी हो जाती है। ऐसी एक नहीं अनेक घटनायें घटित हो चुकी हैं जिसमें किसी भले युवक ने किसी गलत साथी का चुनाव किया और बाद में उसके अपराध के छींटे उस पर भी पड़े। उसी तरह युवतियों ने भी प्रारंम्भिक आकर्षण में आकर ऐसे लड़कों से प्रेम प्रसंग स्थापित किये जिसका परिणाम उनके लिये घातक रहा। कई बार तो वह ऐसे युवकों से विवाह भी कर बैठती हैं जो दिखाने के लिये अपने संस्कर अच्छे दिखाते हैं पर बाद में उनकी असलियत सामने आती है तो युवतियों को पछतावा होता है। अनेक युवतियां पहले अपने घरेलू संस्कारों को भुलाकर ऐसे लड़कों से विवाह कर बैठती हैं जिनके घरेलू संस्कार बिल्कुल विपरीत होते हैं। विवाह से पहले तो उनके घर से लड़कियों का संबंध नहीं होता पर बाद विवाह बाद जब उसके परिवार वाले अपने संस्कार अपनाने को विवश करते हैं तब लड़कियों को बहुत परेशानी आती है और इसी बात पर सबसे अधिक तनाव उनको ही झेलना पड़ता है क्योंकि पुरुष तो घर से बाहर रहता है। कहने का तात्पर्य यह है कि लड़का हो या लड़की उसे अपने संबंध बनाने से पहले सामने वाले व्यक्ति की पूरी जांच करना चाहिये।

नीति विशारद चाणक्य कहते हैं कि जब कहीं से अपना उद्देश्य पूरा हो जाये तो उस स्थान पर अधिक नहीं ठहरना चाहिये। कहने का तात्पर्य यह है कि इस जीवन में अपने कार्य और उद्देश्य पूर्ति के लिये अनेक स्थानों पर जाने के साथ ही लोगों से संपर्क भी बनाने पड़ते हैं। उनमें अपनी लिप्तता उतनी ही रहना चाहिये जितनी अपने हित के लिये आवश्यक हो। अधिक लिप्तता कार्य और उद्देश्य पर बुरा प्रभाव डाल सकती है।
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Monday, April 13, 2009

भर्तृहरि शतकः परमात्मा ने एकांत में मौन रहने का गुण भी दिया है

स्वायत्तेमेकांतगुणं विधात्रा विनिर्मितम् छादनमज्ञतायाः।
विशेषतः सर्वविदां समाजे विभूषणं मौनमपण्डितनाम्।।

हिंदी में भावार्थ-विधाता ने स्वयं को एकांत में मौन रहने का गुण बनाया है उसके लिये किसी के सामने याचना करने की आवश्यकता नहीं है। मनुष्य चाहे जब एकांत में बैठकर मौन रह सकता है। समाज में रहते हुए मौन रहने की शक्ति किन्हीं किन्हीं विद्वानों में होती है और वह समाज का अलंकरण मानत जाते हैं।
वर्तमान संपादकीय व्याख्या-परमात्मा ने वाणी दी है पर सभी लोग उससे अपनी बात कहना चाहते हैं। परमात्मा ने कान दिये हैं पर कोई किसी की सुनना उनसे नहीं चाहता। भगवान ने आंखें दी है और इंसान देखता है पर सोचने समझने के लिये बुद्धि भी दी है वह उससे हर दृश्य का विश्लेषण का करते हुए उसके अच्छे और बुरे का विचार नहीं करता।
समाज में जिसे देखों ज्ञान चर्चा कर रहा है पर उसे धारण कोई नहीं करता। स्थिति यह है कि किसी से कोई बात कही जाये तो उसने सुनी कि नहीं इसका यकीन नहीं होता। अगर सुनी तो उसे समझा कि नहीं इसका आभास भी नहीं होता। कई बार एकांत में बैठकर यह विचार हमारे दिमाग में आता है कि हम क्यों अपने दुःख दर्द दूसरों को सुनाते हैं जबकि सभी उसी में फंसे है।
लोगों ने शोर का प्रत्युतर शोर ही बना लिया है जबकि उसका प्रतिकार मौन से ही किया जा सकता है। दूसरों को अपनी समस्यायें और दुःख दर्द सुनाने की बजाय एकांत में मौन रहकर उन पर विचार करें तो कोई मार्ग बन सकता है। लोगों के बीच अपनी बात कहते हुए अपनी हंसी का पात्र बनने से अच्छा है कि हम एकांत में उस पर योजना बनाये। भगवान ने आदमी को आजाद बनाया है और उसे एकांत में बैठकर मौन रहने का गुण भी दिया है तब उसका उपयोग किया जाय तो क्या बुराई है?
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Sunday, April 12, 2009

चाणक्य नीतिः बड़ी आयु होने पर भी कुसंस्कार नहीं जाते

वयसः परिणामेऽपि यः खलः खलः एव सः।
सुपक्वमपि माधुर्य नोपयातीद्रवारुणाम्।।

हिंदी में भावार्थ-आयु में बड़ा हो जाने पर भी दुष्ट की दुष्टता का भाव नहीं जाता। जैसे किसी फल का स्वाद स्वाभाविक रूप कड़वा होता है और उसे अधिक देर तक इसलिये पकाया जाये कि उसमें मीठे का स्वाद आ जाये तो वह संभव नहीं है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्य में संस्कार और आस्थायें स्थापित होने के लिये दस या बारह वर्ष तक की आयु मानी जाती है। कुछ संस्कार तो अगर पांच वर्ष तक पड़ जायें तो ठीक नहीं तो उनका फिर आना मुश्किल होता है। कहने का तात्पर्य है छोटी आयु में ही बच्चों में संस्कार डालने का प्रयास करना चाहिये। कुछ माता पिता यह सोचकर बच्चों की परवाह नहीं करते कि ‘अभी तो छोटा है बड़ा होकर सीख जायेगा‘। इतना ही नहीं वह अपने बच्चों के सामने ही लड़ाई झ्रगड़ा और अपने रिश्तेदारों की निंदा करते हैं-सोचते हैं कि यह छोटा है भला क्या समझेगा? और समझ भी ले तो क्या? माता पिता के व्यवहार, आचरण और कार्य से बच्चे बहुत कुछ सीखते हैं। कई चीजें उनको बताई नहीं जाती बस देखकर ही सीख जाते हैं।

संस्कार और आस्थायें स्थापित करने की आयु में अगर माता पिता ने उचित प्रयास नहीं किया या लापरवाही दिखाई तो बाद में उसका परिणाम उनको भोगना पड़ता है। आजकल समाज में लोगों का अपराध, व्यसन और समाज के प्रति उपेक्षा का जो भाव दिख रहा है वह उनके ही पूर्वजों की लापरवाही का परिणाम है। एक अन्य बात यह है कि माता पिता अपने बच्चे को बस यही सिखाते हैं कि अधिक से अधिक कमाओ, प्रतिष्ठत पद प्राप्त करो और जिंदगी मं केवल अपने स्वार्थ ही पूरे करो। बाद में जब बच्चे उनकी ही उपेक्षा करने लगते हैं तब अपने बुढ़ापे को कोसते हैं। जो माता पिता अपने बच्चों की उपेक्षा की शिकायत करते हैं अगर उनसे कहा जाये कि ‘आपने ही यह संस्कार दिये होंगे।’ तब वह जवाब नहीं दे पायेंगे। आप अपने बच्चे के सामने अपनी पत्नी को प्रसन्न करने के लिये अपने माता पिता, भाई बहिन तथा अन्य रिश्तेदारों की निंदा कर बड़े होने पर उससे किसी प्रकार की उदारता की आशा नहीं कर सकते।
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Friday, April 10, 2009

चाणक्य नीतिः अधिक धन को घर से वैसे ही निकालें जैसे तालाब से पानी! (chankya niti on tha money and house)

उपार्जितानां वित्तानां त्याग एव हि रक्षणम्।
तडागोदरसंस्थानां परीवाह इवाऽमभासाम् ।।

हिंदी में भावार्थ-अपने द्वारा अर्जित धन का त्याग करना ही उसकी रक्षा करने का प्रयास है। जिस तरह तालाब में अधिक भरे जल को निकालने से उसकी रक्षा होती है वैसे ही अपने धन की रक्षा भी तभी संभव है जब उसमें से कुछ निकाल दिया जाये।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-व्यक्ति के लोभ की कोई सीमा नहीं है और यही कारण है कि वह केवल धन संग्रह में लगा रहता है। हर आदमी यही सोचता है कि उसका धन केवल उसे ही दिख रहा है बाकी लोग तो उसे जानते नहीं है इसलिये वह सुरक्षित है। यह केवल एक वहम है। दरअसल धन का कोई महत्व हो या नहीं पर इतना तो जरूर है कि वह आत्मविश्वास का एक बहुत बड़ा स्त्रोत है। इसलिये जिस आदमी के पास धन आता है उसका अहंकार भी बढ़ता जाता है। कहीं न कहीं आदमी अपने मुख से ही अपने धन की महिमा का बखान करने ही लगता है। इस तरह अन्य लोगों को वैसे भी धन होने का आभास हो जाता है। यह संभव नहीं है कि आदमी के पास बहुत सारा धन हो और यह बात किसी अन्य को पता नहीं चले। ऐसे में अल्प धन वाले लोगों की नजरें उस पर लगी रहती हैं। ऐसे में अपने धन की रक्षा का एक ही उपाय है कि उसे निकाला जाये। निकालने से यह आशय यह नहीं कि उसका अपव्यय किया जाये बल्कि गरीब और मजबूरों की सहायता करने के उद्देश्य से दान किया जाना चाहिये।
यह दान करते हुए अपने मन में कोई अहंकार नहीं पालने की बजाय यह सोचना चाहिये कि हम तो अपने धन के तालाब की रक्षा कर रहे हैं। जिस तरह तालाब में पानी भर जाने पर उसे निकाला न जाये तो वह किनारों को क्षतिग्रस्त और गंदा करते हुए बाहर स्वतः बहने लगता है वैसे ही धन भी पानी की तरह है। अगर अधिक धन का परित्याग नहीं करेंगे तो वह बुरी नजर वालों को आपके घर में आने का आमंत्रण देगा या फिर ऐसी परेशानियां देगा जिसमें आपका धन अनावश्यक व्यय होगा।
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Thursday, April 9, 2009

संत कबीरदास की वाणी-तेरा प्रीतम और बैरी तेरे अंदर ही है (kabir ke dohe-tera pritam aur dushman andar hai)

हरिजन सोई जानिए, जिव्हा कहैं न मार।
आठ पहर चितवन रहै, गुरु का ज्ञान विचार।।

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि भगवान का सच्चा भक्त वही है जो अपनी जीभ से कभी यह नहीं कहता कि ‘इसे या उसे मार’। वह आठों पहर अपने गुरु के ज्ञान का विचार करते हुए अहिंसा भाव से रहता है।
शीतल शब्द उचारिये, अहं आनिये नाहिं।
तेरा प्रीतम तुझहि में, दुसमन भी तुझ माहिं

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि अपने मूंह से हमेशा ही ऐसे शब्दों का उच्चारण करो जो दूसरे को श्ीतलता प्रदान करें। अपने अहंकार में भरकर किसी से कठोर वचन मत कहो। सच बात तो यह है कि अपना दुश्मन या प्रेमी अपने अंदर ही है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जीवन में सारा खेल हमार इंद्रियों का है। इनमें भी सबसे अधिक हमारी जीभ का है। यही जीभ हमें तपती धूप में खड़ा कर सकती है और यही किसी छत के नीचे छाया दिला सकती है। ऐसी अनेक धटनायें होती हैं जिसमें बात बेबात मूंहवाद होने पर कत्लेआम हो जाता है। कहते हैं कि ‘न सूत न कपास, जुलाहों में लट्टम लट्ठा’। इसका संबंध केवल बुनकरों से नहीं है बल्कि यह पूरे समाज पर लागू होता है। लोग अपने अहंकार की तुष्टि के लिये अपनी वाणी का दुरुपयोग करते हैं और फिर होता है झगड़ा। अगर आप आये दिन होने वाले झगड़ों का विश्लेषण करें तो पता लगेगा कि बात तो कोई खास है नहीं है बल्कि झगड़ा करने वाले लोग अपने अहंकार की तुष्टि करने के लिये वाणी की आजादी का दुरुपयोग करना चाहते हैं। वह चाहते हैं कि उनकी कटु बातों का कोई प्रतिकार न करे। वह अपशब्द बोलें तो लोग सहें।
सच बात तो यह है कि जो भक्ति और ज्ञानार्जन में लीन होते हैं वह इस तरह का व्यवाहर नहीं करते। उनकी वाणी हमेशा सार्थक वचनों का प्रवाह करती है। हालांकि ऐसे लोगों की संख्या अब बहुत कम है।
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Wednesday, April 8, 2009

चाणक्य नीतिः भंवरे को कमलिनी के रस का महत्व विदेश में पता चलता है

अलिरय नलिनीदलमध्यगः मलिनीमकरंदमदालसः।
विधिवशात्परदेशमुपागतः कुटजपुष्परसं बहु मन्यते।।


हिन्दी में भावार्थ-भंवरा जब तक कमलिनी के बीचों बीच रहकर उसके रस का सेवन करता तब उसके नशे में आलस्य उसे घेरे रहता है मगर जब समय और भाग्यवश परदेस में जाना पड़ता है तब कुटज के फूल के रस को भी बहुत महत्वपूर्ण मानता है जिसमेें किसी प्रकार की गंध नहीं होती।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- जिन लोगों का जन्म ही सुविधा संपन्न परिवारों में होता है वह अभावों का अर्थ नहीं जानते। तब वह लोग अपनी सुविधाओं के बारे में यह सोचते हैं कि यह तो उनको जन्मजात विरासत में मिली है। इसके अलावा अपने लिये उपलब्ध धन तथा भौतिक उपलब्ध साधनों का महत्व नहीं समझते। ऐसे में जब किसी कारण वश जब उनको उन सुविधाओं से वंचित हो पड़ता है तब पता लगता है कि वास्तव में उनका क्या मोल है?
इस संदेश में भारत में उपलब्ध जल संपदा का उदाहरण ले सकते हैं। विश्व के अनेक वैज्ञानिकों के अनुसार भारत में भू जल स्तर किसी भी अन्य देश से अधिक है। प्रकृत्ति की इस कृपा का महत्व हम कम वर्षा काल में भी नहीं कर पाते क्योंकि भूजल स्तर इतना तो उपलब्ध हो ही जाता है कि हमारा काम चल जाये। जिन देशों में यह उपलब्ध नहीं है वहां एक वर्ष की अल्प वर्षा में ही अकाल का महान प्रकोप उपस्थित हो जाता है। भारत में वह लोग जो पानी का अपव्यय करते हैं और उनका विदेश में-खासतौर से मध्य एशिया में-प्रवास होता है तब उनको वहां पता लगता है कि पानी कितना महत्वपूर्ण है। इतना ही नहीं भारत के ही कुछ रेगिस्तानी भागों में जाने पर भी उनको पता लगता है कि पानी का कितना महत्त है? कहने का तात्पर्य यह है कि जो वस्तु उपलब्ध है उसका महत्व तब पता लगता है जब वह हाथ से निकल जाती है।
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Tuesday, April 7, 2009

भर्तृहरि शतकः तेजस्वी लोग अपना अपमान सहन नहीं करते (hindu dharm and thought)

यद चेतनाऽपिापदैः स्पृष्टः प्रज्वलति सवितुरिनकान्तः।
तत्तेजस्वी पुरुषः परकृत निकृतिं कथं सहते।।

हिंदी में भावार्थ- जब जड़ सूर्यकांतिमणि भी सूर्य की तीव्र किरणों में जल जाती हैं तो तेजस्वी ज्ञानी पुरुष-जो चेतन होता है-भला कैसे किसी के अपमान को सहकर चुप बैठ सकता है?
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-यह अजीब बात है कि जब कहीं किसी मूर्ख और विद्वान में विवाद होता है तो विद्वान जब उसका प्रतिकार क्रोध में करता है तो बीच बचाव करने वाले कहते हैं कि ‘आप तो ज्ञानी हो क्रोध क्यों करते हो?’
अनेक बार ऐसे अवसर हमारे सामने आते हैं जब हम देखते हैं कि तमाम तरह के ज्ञान और अध्यात्म की पूंजी से संपन्न विद्वान अपने ऊपर हुए अपमानजनक शब्दाक्रमण का प्रतिकार करते हैं तब सामान्य लोग उनका उपहास उड़ाते हैं कि ‘देखो कितना ज्ञानी बनता है’। दरअसल यह उनकी अज्ञानता का ही प्रमाण है। सच बात तो यह है कि सामान्य लोग मूर्ख से डरते हैं इसलिये उसे समझाने या धमकाने की बजाय विद्वान, संतों और सहज जीवन व्यतीत करने वाले लोगों का मजाक उड़ाते हैं।
अज्ञानियों, मूर्खों, धनवानों और बाहूबलियों से डरकर उनके आगे सिर झुकाने वाले लोगों के लिये तेजस्वी विद्वान लोगों का मजाक उड़ाना आसान है। लोग यही करते हैं पर भर्तृहरि महाराज कहते हैं कि जब जड़ पदार्थ सूर्य की किरणों से जल जाता है तो तेजस्वी और ज्ञानी आदमी भला कैसे अपना अपमान सह सकता है।
वैसे क्रोध करना अच्छी बात नहीं है पर चाणक्य कहते हैं कि ‘अवसर आये तो सांप की तरह फुफकारो अवश्य’। सभी संाप जहरीले नहीं होते पर अपने ऊपर आक्रमण होने पर फुफकारते हैं। इसलिये अगर तेजस्वी और ज्ञानी व्यक्ति अपने ऊपर आक्रमण होने पर जब उसका क्रोध में प्रतिकार करते हैं तो उस आक्षेप करना अनुचित हैं। यहां यह भी याद रखने वाली बात है कि ज्ञानियों का क्रोध उनको नहीं जलाता क्योंकि वह उसे अपने अंदर अधिक देर ठहरने नहीं देते। इसक अलावा क्रोध करने के बाद वह क्षमा भी प्रदान करते हैं जबकि सामान्य आदमी के लिये यह कठिन होता है। इसलिये तेजस्वी और ज्ञानियों के क्रोध पर उन्हें उनके ज्ञान का वास्ता नहीं दिया जाना चाहिये।
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Monday, April 6, 2009

भर्तृहरि शतकः अपमान झेलने पर भी तृष्णा कहां शांत होती है?

भ्रान्तं देशमनेकदुर्गविषमं प्राप्तं न किंचित्फलं त्यकत्वा जातिकुलाभिमानमुचितं सेवा कृता निष्फला।
भुक्तं मानिववर्जितं परगुहेध्वाशंक्या काकवततृष्णे दुर्गतिपापकर्मनिरते नाद्यापि संतुष्यसि ।।

हिंदी में भावार्थ- राजा भर्तृहरि कहते हैं कि अनेक दुर्गम और कठिन देशों में गया पर वहां कुछ भी न मिला। अपनी जाति और कुल का अभिमान त्याग कर दूसरों की सेवा की पर वह निष्फल गयी। आखिर में कौवे की भांति भयभीत और अपमानित होकर दूसरों के घरों में आश्रय ढूंढता रहा। अपने मन की तृष्णा यह सब झेलने पर भी शांत नहीं हुई।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- मन की तृष्णा आदमी को हर तरह का अपमान और दुर्गति झेलने को विवश करती है। कहते हैं कि जिसने पेट दिया है वह उसके लिये भोजन भी देगा पर आदमी को इस पर विश्वास नहीं है। इसके अलावा वह केवल दैहिक आवश्यकताओं से संतुष्ट नहीं होता। उसके मन में तो भोग विलास और प्रदर्शन के लिये धन पाने की ऐसी तृष्णा भरी रहती है जो उसे अपने से कम ज्ञानी और निम्न कोटि के लोगों की सेवा करने को विवश कर देती है जिनके पास धन है। वह उनकी सेवा में प्राणप्रण से इस आशा जुट जाता है कि वह धनी आदमी उस पर प्रसन्न होकर धन की बरसात कर देगा।
आदमी अपने से भी अल्प ज्ञानी बाहुबली और पदारूढ़ व्यक्ति के इर्दगिर्द घूमने लगता है कि वह उसका प्रतिष्ठा के शिखर पर पहुंचा देगा। किसी भी आदमी की ऐसी तृष्णा शांत नहीं होती। इस दुनियां में हर बड़ा आदमी अपने से छोटे लोगों की सेवा तो लेता है पर अपने जैसा किसी को नहीं बनाता। छोटा आदमी धन और मान सम्मान पाने की इसी तृष्णा की वजह से इधर उधर भटकता है पर कभी उसके हाथ कुछ नहीं आता। मगर फिर भी वह चलता जाता है। उसकी तृष्ण उसे इस अंतहीन सिलसिले से परे तब तक नहीं हटने देती जब तक वह देह धारण किये रहता है।
जीवन के मूल तत्व को जानने वाले ज्ञानी इससे परे होकर विचार करते हैं और इसलिये जो मिल गया उससे संतुष्ट होकर भगवान की भक्ति में लीन हो जाते हैं। वह अपने तृष्णाओं के वशीभूत होकर इधर उधर नहीं भटकते जो कभी शांत ही नहीं होती।
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Sunday, April 5, 2009

चाणक्य नीतिः उच्च कुल में उत्पन्न होने पर भी विद्या रहित होने से क्या लाभ?

किं कुलेन विशालेन विद्याहीनेन देहिनाम्।
दुष्टकुलीनोऽपि विद्वांश्च देवैरपि सुपूज्यते।।

हिंदी में भावार्थ- आचार्य चाणक्य कहते हैं कि प्रतिष्ठित कुल में जन्म लेने के बावजूद ज्ञान और विद्या से रहित होने वाले व्यक्ति से समाज को कोई लाभ नहीं होता। उससे तो निम्म कोटि में उत्पन्न व्यक्ति धन्य है जो विद्वता अजिर्त कर समाज में सम्मान पाते हैं।
विद्वान् प्रशस्यते लोक विद्वान् गच्छति गौरवम्।
विद्ययां लभते सर्व विद्या सर्वत्र पूज्यते।।

हिंदी में भावार्थ-सारे संसार में विद्वान ही प्रशंसा के योग्य होते हैं और उनका अपनी विद्या े कारण गौरव प्राप्त होता है। विद्या का यह गुण है कि उससे प्राप्त करने वाले व्यक्ति का सभी जगह सम्मान हेाता है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-चाहे कोई व्यक्ति कितने भी धनी,प्रतिष्ठत और उच्च कुल में पैदा क्यों न हुआ अगर उसके पास विद्या और ज्ञान नहीं है तो उसका समाज में कोई हृदय से सम्मान नहीं करता। यह अलग बात है कि धनी, बाहूबली और उच्च परिवार का होने के कारण किसी व्यक्ति के समक्ष कोई उसका दोष नहीं कहता और दिखाने के लिये सामने सभी वाह वाह करते हैं पर हृदय से उसका सम्मान नहीं होता। यह सही है कि धन जीवन की जरूरत है पर मान सम्मान से जीन में भी मनुष्य की शान होती है। समाज तभी किसी व्यक्ति का सम्मान करता है जब वह अपने कर्म से जनहित मेें काम करता है। जिसके पास विद्या है वही इस सत्य को जानते हैं इसलिये समाज को भी यही शिक्षा देते हैं। विद्या के बिना मनुष्य पशु की तरह बनकर रह जाता है। चाहे व्यक्ति गरीब हो या अमीर, राजा हो या रंक, और स्त्री हो या पुरुष विद्यावान व्यक्ति का ही सम्मान करते हैं क्योंकि उससे उनको आपातकाल में बौद्धिक सहायता मिलती है।
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Thursday, April 2, 2009

चाणक्य नीतिः अर्थोपासक विद्वान समाज के किसी काम के नहीं होते

अर्थार्थीतांश्चय ये शूद्रन्नभोजिनः।
त द्विजः कि करिष्यन्ति निर्विषा इन पन्नगाः।।


हिंदी में भावार्थ- नीति विशारद चाणक्य कहते हैं कि अर्थोपासक विद्वान समाज के लिये किसी काम के नहीं है। वह विद्वान जो असंस्कारी लोगों के साथ भोजन करते हैं उनको यश नहीं मिल पता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- इस देश का अध्यात्मिक ज्ञान सदेशों के अनमोल खजाने से भरा पड़ा है। उसका कारण यह है कि प्राचीन विद्वान अर्थ के नहीं बल्कि ज्ञान के उपासक थे। उन्होंने अपनी तपस्या से सत्य के तत्व का पता लगाया और इस समाज में प्रचारित किया। आज भी विद्वानों की कमी नहीं है पर प्रचार में उन विद्वानों को ही नाम चमकता है जो कि अर्थोपासक हैं। यही कारण है कि हम कहीं भी जाते हैं तो सतही प्रवचन सुनने को मिलते हैं। कथित साधु संत सकाम भक्ति का प्रचार कर अपने भोले भक्तों को स्वर्ग का मार्ग दिखाते हैं। यह साधु लोग न केवल धन के लिये कार्य करते हैं बल्कि असंस्कारी लोगों से आर्थिक लेनदेने भी करते हैं। कई बार तो देखा गया है कि समाज के असंस्कारी लोग इनके स्वयं दर्शन करते हैं और उनके दर्शन करवाने का भक्तों से ठेका भी लेते हैं। यही कारण है कि हमारे देश में अध्यात्मिक चर्चा तो बहुत होती है पर ज्ञान के मामले में हम सभी पैदल हैं।
समाज के लिये निष्काम भाव से कार्य करते हुए जो विद्वान सात्विक लोगों के उठते बैठते हैं वही ऐसी रचनायें कर पाते हैं जो समाज में बदलाव लाती हैं। असंस्कारी लोगों को ज्ञान दिया जाये तो उनमें अहंकार आ जाता है और वह अपने धन बल के सहारे भीड़ जुटाकर वहां अपनी शेखी बघारते हैं। इसलिये कहा जाता है कि अध्यात्म और ज्ञान चर्चा केवल ऐसे लोगों के बीच की जानी चाहिये जो सात्विक हों पर कथित साधु संत तो सार्वजनिक रूप से ज्ञान चर्चा कर व्यवसाय कर रहे हैं। वह अपने प्रवचनों में ही यह दावा करते नजर आते हैं कि हमने अमुक आदमी को ठीक कर दिया, अमुक को ज्ञानी बना दिया।
अतः हमेशा ही अध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने के लये ऐसे लोगों को गुरु बनाना चाहिये जो एकांत साधना करते हों और अर्थोपासक न हों। उनका उद्देश्य निष्काम भाव से समाज में सामंजस्य स्थापित करना हो।
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Wednesday, April 1, 2009

कबीर के दोहे: राम के भक्त हमेशा मजे में रहते हैं

दुखिया भूखा दुख कीं, सुखिया सुख कौं झूरि
सदा अजंदी राम के, जिनि सुख-दुख गेल्हे दूरि

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि भूख के कष्ट के कारण दुखी आदमी मर रहा है तो ढेर सारे सुख के कारण सुखी भी कष्ट उठा रहा है किंतु राम के भक्त तो हर हाल में में मजे से रहते हैं क्योंकि वह दुःख सुख के भाव से परे हो गये हैं।
हैवर गैवर सघन धन, छन्नपती की नारि
तास पटेतर ना तुलै, हरिजन की पनिहारि

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि भगवान की भक्ति करने वाली गरीब नारी की बराबरी महलों में रहने वाली रानी भी नहीं कर सकती भले ही उसके राजा पति के पास हाथियों और घोड़ो का झुंड और बहुत सारी धन संपदा है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-दुनियां में तीन तरह के लोग होते हैं-दुःखी,सुखी और भक्त। अभाव और निराशा के कारण दुःखी आदमी हमेशा परेशान रहता है तो सुखी आदमी अपने सुख से उकता जाता है और वह हर ‘मन मांगे मोर’ की धारा में बहता रहता है। विश्व के संपन्न राष्ट्रों के देश भारत के अध्यात्मिक ज्ञान की तरफ आकर्षित होते हैं तो भारत के लोग उनकी भौतिक संपन्नता प्रभावित होते हैं। पश्चिम में तनाव है तो पूर्व वाले भी सुखी नहीं। कहने का तात्पर्य यह है कि लोेग इस मायावी संसार में केवल दैहिक सुख सुविधाओं के पीछे भागते हैं। जिसके भौतिक साधन नहीं है वह कर्ज वगैरह लेता है और फिर उसे चुकाते हुए तकलीफ उठाता है और अगर वह चीजें नहीं खरीदे तो परिवार के लोग उसका जीना हराम किये देता है। सुख सुविधा का सामान खरीद लिया तो फिर दैहिक श्रम से स्त्री पुरुष विरक्त हो जाते हैं और इस कारण स्वास्थ बिगड़ने लगता है।

जिन लोगों ने अध्यात्म ज्ञान प्राप्त कर लिया है वह जीवन को दृष्टा की तरह जीते हैं और भौतिकता के प्रति उनका आकर्षण केवल उतना ही रहता है जिससे देह का पालन पोषण सामान्य ढंग से हो सके। वह भौतिकता की चकाचैंध मेंे आकर अपना हृदय मलिन नहीं करते और किसी चीज के अभाव में उसकी चिंता नहीं करते। ऐसे ही लोग वास्तविक राजा है। जीवन का सबसे बड़ा सुख मन की शांति हैं और किसी चीज का अभाव खलता है तो इसका आशय यह है कि हमारे मन में लालच का भाव है और कहीं अपने आलीशान महल में भी बैचेनी होती है तो यह समझ लेना चाहिये कि हमारे अंदर ही खालीपन है। दुःख और सुख से परे आदमी तभी हो सकता है जब वह निष्काम भक्ति करे।
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