Saturday, February 28, 2009

कबीर के दोहे: समभाव से ही हृदय को शीतलता मिलती है


सीतलता तब जानिये, समता रहै समाय
विघ छोड़ै निरबिस रहै, सक दिन दूखा जाय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि अपने अंदर तभी शीतलता की अनुभूति हो सकती है जब हर स्थिति के लिए हृदय में समान भाव आ जाये। भले ही अपने काम में विघ्न-बाधा आती रहे और सभी दिन दुःख रहे तब भी आदमी के मन में शांति हो-यह तभी संभव है जब वह अपने अंतर्मन में सभी स्थितियों के लिए समान भाव रखता हो।

यही बड़ाई शब्द की, जैसे चुम्बक भाय
बिना शब्द नहिं ऊबरै, केता करै उपाय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते है कि उसी शब्द के प्रभाव की प्रशंसा की जाती है जो सभी लोगों के हृदय में चुंबक की तरह प्रभाव डालता है। जो मधुर वचन नहीं बोलते या रूखा बोलते हैं वह कभी भी अपने जीवन के संकटों से कभी उबर नहीं सकते।

सीखे सुनै विचार ले, ताहि शब्द सुख देय
बिना समझै शब्द गहै, कछु न लोहा लेय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जो व्यक्ति अपने गुरूजनों से शब्द सीखकर उसे अपने हृदय में धारण कर उनका सदुपयोग करता है वही जीवन का आनंद उठा सकता है पर जो केवल उन शब्दों को रटता है उसका कभी उद्धार नहीं हो सकता।

Friday, February 27, 2009

संत कबीर वाणीः दिल की बात जो समझे उसी से कहें

गाहक मिलै तो कुछ कहूं, न तर झगड़ा होय
अन्धों आगे रोइये अपना दीदा खोय

संत कबीरदास जी का कहना है कि कोई ऐसा व्यक्ति मिले जो अपनी बात समझता हो तो उससे कुुछ कहें पर जो बुद्धि से अंधे हैं उनके आगे कुछ कहना बेकार अपने शब्द व्यर्थ करना है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-आजकल हर कोई बस अपनी बात कहने के लिये उतावला हो रहा है। किसी की कोई सुनना नहीं चाहता। दो व्यक्ति आपस में मिलते हैं। एक कहता है कि ‘मेरे लड़के की नौकरी नहीं लगी रही’ तो दूसरा तत्काल कहता है कि ‘मैं भी अपने लड़के लिये लिये दुकान ढूंढ रहा हूं’। एक कहता है कि ‘मेरी लड़की की शादी तय हो गयी है’ तो दूसरा तत्काल कहता है कि ‘मेरी लड़की की शादी पिछले माह हुई थी, वह घर आयी है‘। तात्पर्य यह है कि किसी की बात सुनकर उसमें मुख्य विषय के शीर्षक-जैसे लड़का,लड़की,माता पिता,भाई बहिन और चाचा चाची-एक शब्द पर ही आदमी बोलने लगता है। अनेक बार वार्तालाप में शामिल होकर मौन रहे और देखें कि कौन किसकी कितनी सुना है। तब इस बात की अनुभूति होगी कि सभी अपनी बात कहने के लिये उतावले हो रहे हैं। तब ऐसा लगता है कि उनके बीच में अपने शब्द बोलकर समय और ऊर्जा व्यर्थ करना ही है। कई बार तो ऐसा होता है कि ऐसे वार्तालाप में लोग सकारात्मक शब्द तो भूल जाते हैं पर नकारात्मक भाव के आशय दूसरों को सुनाकर बदनाम भी करते हैं। इसलिये अपनी बात ऐसे लोगोंे से ही कहनी चाहिये जो अच्छी तरह सुनते और समझते हों।
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Wednesday, February 25, 2009

विदुर नीति: नारी पर अनाचार करने वालों का पतन होता है ( vidur niti on mam woman in hindi)

1.प्रतिदिन सींचने से जिस तरह पतली लताएं संख्या में बहुत होने के कारण हवाओं को झौंके बहुत समय तक झेलती है उसी प्रकार सत्य पुरुष दुर्बल होने पर भी अपने गुणों की शक्ति पर बलवान हो जाते हैं।
2.विद्वान और सत्पुरुषों, स्त्रियों, स्वजातीय बंधुओं और गायों पर अपनी शूरता प्रकट करते हैं वे डण्ठल से पके हुए फलों की भांति नीचे गिरते हैं।
3.बीमारी हुए बिना ही उत्पन्न, कड़वा, सिर में दर्द पैदा करने वाला और पाप से जोड़ने वाला, कठोर, तीखा और गरम है तथा सज्जनों द्वारा ग्रहण करने योग्य नहीं है उस क्रोध को पी जाना ही बेहतर है।
4.अपनी उन्नति चाहने वाले को चाहिए कि वह उत्तम पुरुषों की सेवा करे, समय आने पर मध्यम पुरुषों की भी सेवा करे परंतु अधम पुरुषों की सेवा कदापि न करेnari ।
5दुष्ट पुरुष बल से तो अन्य पुरुष निरंतर उद्योग , बुद्धि के प्रयोग तथा पुरुषार्थ से धन भले ही प्राप कर ले परंतु उत्तम कुल का आचरण और सदाचार प्राप्त करना आसान नहीं है।
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Monday, February 23, 2009

आज है महाशिवरात्रि का पावन पर्व-आलेख

आज महाशिवरात्रि का पर्व पूरे देश में हर्षोल्लास से मनाया जा रहा है। भगवान् शिव हमारे आराध्य देवता हैं और हिन्दू आध्यात्म में उनको सत्य स्वरूप माना जाता है। हमारे देश के लोग अनेक देवताओं की पूजा करते हैं और भगवान् शिव सब देवताओं के भी भगवान् हैं। उनको सत्य स्वरूप इसलिए भी माना जाता है क्योंकि उनका चरित्र ही शाश्वत सत्य के निकट दिखाई देता है।

समुद्र मंथन के समय विष पीकर उन्होने पृथ्वी पर जीवन का मार्ग प्रशस्त किया। उसके बाद भागीरथ की तपस्या से प्रभावित होकर श्री गंगा जी को प्रथ्वी पर लाने से पहले अपनी जटाओं में धारण कर उसके वेग से बचाया। अपने भक्तो की संक्षिप्त तपस्या से ही प्रसन्न होने के कारण उन्हें भोलेनाथ भी कहा जाता है। आज उनका लोग स्मरण कर उनसे इसी तरह पृथ्वी पर जीवन की रक्षा की आशा करते हैं।

सत्य के प्रतीक शिव को संहार का देवता भी माना जाता। उनको लेकर तमाम तरह की कथाएँ हैं। सच बात तो यह है कि मनुष्य को अपने लिए नहीं बल्कि पूरे समाज के लिए कार्य करना चाहिए उनसे यही प्रेरणा मिलती है। मनुष्य को न केवल मनुष्य से बल्कि उसे पशु,पक्षियों,तथा वन्य जीवों के प्रति भी मन में प्रेम रखना चाहिए। गंगा को प्रथ्वी पर लाने के लिए उसे अपनी जटाओं में धारण कर प्रकृति के प्रति मनुष्य को सजग रहने के प्रेरणा भी उन्होंने दी।
भगवान् शिव जी को मैं नमन करता हूँ और अपने मित्रों, पाठको और साथियों को शुभकामनाएँ देता हूँ।
दीपक भारतदीप

Saturday, February 21, 2009

कबीर के दोहे: मन में नाम जापिए, बाहर दिखाने से क्या लाभ

बाहर राम क्या दिखराइये, अन्तर जपिए राम
कहा काज संसार से, तुझे घनी से काम


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि दिखावटी रूप से राम का भजन करने से कोई लाभ नहीं होता. राम का स्मरण हृदय से करो. इस संसार में तुम्हारा क्या काम है तुम्हें तो भगवान का स्मरण मन में करना चाहिऐ.

फूटी आँख विवेक की, लखें न संत असतं
जिसके संग दस बीच हैं, ताको नाम महंत


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं जिन लोगों की ज्ञान और विवेक नष्ट हो गये है वह सज्जन और दुर्जन का अन्तर नहीं बता सकता है और सांसरिक मनुष्य जिसके साथ दस-बीस चेले देख लेता है वह उसको ही महंत समझा करता है.
वर्तमान सन्दर्भ में व्याख्या-लोगों की बुद्धि जब कुंद हो जाती है तब उनको सज्जन और दुर्जन व्यक्ति की पहचान नहीं रहती है। सच बात यही की इसी कारण अज्ञानी व्यक्ति संकटों में फंस जाते हैं। झूठी प्रशंसा करने वाले, चिकनी चुपड़ी बातें कर अपना स्वार्थ सिद्ध करने वाले, पहले दूसरों की निंदा करने के लिए प्रेरित कर फ़िर झगडा कराने वाले लोग इस दुनिया में बहुत हैं। ऐसे दुष्ट लोगों की संगत से बचना चाहिए। इसके अलावा ऊंची आवाज़ में भक्ति कर लोगों में अपनी छबि बनाने से भी कोई लाभ नहीं है। इससे इंसान अपने आपको धोखा देता है। जिनके मन में भगवान् के प्रति भक्ति का भाव है वह दिखावा नहीं करते। मौन रहते हुए ध्यान करना ही ईश्वर सबसे सच्ची भक्ति है।
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Wednesday, February 18, 2009

कबीर के दोहे: मन तो देवताओं को भी ठग लेता है

सुर नर मुनि सबको ठगै, मनहिं लिया औतार
जो कोई याते बचै, तीन लोक ते न्यार

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि यह मन तो एक महान ठग है जो देवता, मनुष्य और मुनि सभी को ठग लेता है। यह मन जीव को बार बार अवतार लेने के लिये बाध्य करता है। जो कोई इसके प्रभाव से बच जाये वह तीनों लोकों में न्यारा हो जाता है।

अपने अपने चोर को, सब कोय डारै मार
मेरा चोर मुझको मिलै, सरबस डारूं वार

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि संसार के सब तो अपने अपने चोर को मार डालते हैं, परंतु मेरा चोर तो मन है। वह अगर मुझे मिल जाये तो मैं उस पर सर्वस्व न्यौछावर कर दूंगा।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्य की पहचान तो मन है और वह उसे जैसा नचाता। आदमी उसके कारण स्थिर प्रज्ञ नहीं रह पाता। कभी वह किसी वस्तु का त्याग करने का निर्णय लेता है पर अगले पर ही वह उसे फिर ग्रहण करता है। अर्थात मन हमेशा ही व्यक्ति का अस्थिर किये रहता है। कई बार तो आदमी किसी विषय पर निर्णय एक लेता है पर करता दूसरा काम है। यह अस्थिरता मनुष्य को जीवन पर विचलित किये रहती है और वह इसे नहीं समझ सकता है। यह मन सामान्य मनुष्य क्या देवताओं और मुनियों तक को धोखा देता है। इस पर निंयत्रण जिसने कर लिया समझा लो तीनों को लोकों को जीत लिया।

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Tuesday, February 17, 2009

भर्तृहरि संदेश: ज्ञानियों के बीच बैठकर पता चलता है अपने अज्ञान का

वरं पर्वतदुर्गेषु भ्रान्तं वनचरैः सह
न मूर्खजनसम्पर्कः सुरेन्द्रभवनेष्वपि
हिंदी में अर्थ- बियावान जंगल और पर्वतों के बीच खूंखार जानवरों के साथ रहना अच्छा है किंतु अगर मूर्ख के साथ इंद्र की सभा में भी बैठने का अवसर मिले तो भी उसे स्वीकार नहीं करना चाहिए।
यदा किंचिज्ज्ञोऽहं द्विप इव मदान्धः समभवम्
तदा सर्वज्ञोऽस्मीत्यभवदवलिपतं मम मनः
यदा किञ्चित्किाञ्चिद् बुधजनसकाशादवगतम्
तदा मूर्खोऽस्मीति जवन इव मदो में व्यपगतः

हिंदी में अर्थ-जब मुझे कुछ ज्ञान हुआ तो मैं हाथी की तरह मदांध होकर उस पर गर्व करने लगा और अपने को विद्वान समझने लगा पर जब विद्वानों की संगत में बैठा और यथार्थ का ज्ञान हुआ तो वह अहंकार ज्वर की तरह उतर गया तब अनुभव हुआ कि मेरे समान तो कोई मूर्ख ही नहीं है।
वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-आजकल जिसे देखो उसक पास ही कोई न कोई उपाधि है पर जीवन और अध्यात्म का ज्ञान कितना है यह तो समय आने पर ही पता चलता है। आधुनिक साधनों की वजह से लोगों का जीवन एकाकी हो गया है और सत्संग में कम जाने के कारण उनको पता ही नहीं लगता कि आखिर अध्यात्म ज्ञान होता क्या है? फिर आधुनिक शिक्षा से भौतिक ज्ञान तो इतना प्राप्त हो जाता है कि लोग उसे ही सम्पूर्ण समझने लगते हैं और भक्ति और अध्यात्म विषय उनके लिये पौंगापंथी हैं। जब भौतिकता से ऊब जाते हैं तो फिर ढूंढते हैं धार्मिक लोगों में शांति। ऐसे में धार्मिक ग्रंथ पढ़कर अपने को गुरु कहलाने वाले ढोंगी उनका शोषण करत हैं। होता यह है कि कोई अध्यात्म ज्ञान न होने के कारण लोग उनकी बात को ही सत्य समझने लगते हैं। फिर जब कभी वास्तविक ज्ञानी से भेंट होती है तब पता लगता है कि ज्ञान क्या है? इसलिये ज्ञानियों की संगत करना चाहिये।

कहते हैं कि नादान मित्र से दाना शत्रु भला, यह एकदम सच बात है। मूर्ख के साथ कब कहां फंस जायें पता ही नहींे लगता। मूर्ख का काम होता है बिना सोचे समझे काम करना। कुछ लोग तो ऐसे होते हैं जो दूसरों को पीड़ा देने में अपने को प्रसन्न अनुभव करते हैं। ऐसे मूर्ख लोगों से बचकर रहना चाहिये क्योंकि वह कभी भी हमारे पर प्रहार कर सकते हैं।

Monday, February 16, 2009

रहीम संदेश: मूर्खों को सजा देने पर ही काम चलता है

खीरा सिर तें काटिए, मलियत नमक बनाय

रहिमन करुए मुखन को , चाहिअत इहै सजाय

कविवर रहीम कहते हैं कि जिस तरह खीरे का मुख काटकर उस पर नमक घिसा जाता है तभी वह खाने में स्वाद देता है वैसे ही मूर्खों को अपनी करनी की सजा देना चाहिऐ ताकि वह अनुकूल व्यवहार करें।

नये संदर्भ में व्याख्या-यह सही है कि बडों को छोटों के अपराध क्षमा करना चाहिए, पर कुछ लोग ऐसे होते हैं जो नित्य मूर्खताएं करते रहते हैं। कभी किसी की मजाक उडाएंगेतो कभी किसी को अपमानित करेंगे। कुछ तो ऐसी भी मूर्ख होते हैं जो दूसरे व्यक्ति को शारीरिक, आर्थिक और मानसिक हानि पहुँचने के लिए नित्य तत्पर रहते हैं। ऐसे लोगों को बर्दाश्त करना अपने लिए तनाव मोल लेना है। ऐसे में अपने क्रोध का प्रदर्शन कर उनको दण्डित करना चाहिए। अगर ऐसा नहीं करेंगे तो उनका साहस बढ़ता जायेगा।

व्याख्याकार स्वयं कई बार ऐसा देख चुका है कि कई लोग तो इतने नालायक होते हैं कि उनको प्यार से समझाओ तो और अधिक तंग करने लगते हैं और जब क्रोध का प्रदर्शन कर उन्हें धमकाया जाये तो वह फिर दोबारा वह बदतमीजी करने का साहस नहीं कर पाते। हालांकि इसमें अपनी सीमाओं का ध्यान अवश्य रखना चाहिऐ और क्रोध का बहाव बाहर से बाहर होना चाहिए न कि उसकी पीडा हमारे अन्दर जाये।
कुछ लोगों की आदत होती है कि वह दूसरों की मजाक उड़ाकर यह अभद्र व्यवहार कर उन्हें अपमानित करते हैं। अनेक लोग उनसे यह सोचकर झगड़ा मोल नहीं लेते कि इससे तो मूर्ख और अधिक प्रज्जवलि हो उठेगा पर देखा गया है कि जब ऐसे लोगों को किसी से कड़े शब्दिक प्रतिकार का सामना करना पड़े पर पीछे हट जाते हैं। अगर प्रतिकार नहीं किया जाये तो वह निरंतर अपमानित करते रहते हैं। अगर हमें ऐसा लगता है कि कोई हमारा निरंतर अपमान या अपेक्षा कर अपने को श्रेष्ठ साबित कर हमारे साथ बदतमीजी कर रहा है तो उसका प्रतिकार करने में अधिक सोचना नहीं चाहिये।


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Tuesday, February 10, 2009

चाणक्य संदेश: संसार में दोष रहित कोई व्यक्ति नहीं

1.आज के युग में अर्थ की प्रधानता है और धन संचय प्रमुख आधर है। धन संचय हर मनुष्य के लिये आवश्यक है क्योंकि समय पड़ने पर कब उसकी जरूरत होती है पता ही नहीं पड़ता।
2.संसार में कोैन ऐसा व्यक्ति है जिसके कुल में दोष नहीं है। अगर गौर से देखों तो सभी कुलों में कहीं न कहीं कोई दोष दिखाई देता है। उसी प्रकार इस भूतल पर ऐसा कौनसा प्राणी है जो कभी रोग से पीडि़त नहीं होता या उस पर विपत्ति नहीं आती। इस प्रथ्वी पर ऐसा प्राणीनहीं मिल सकता जिसने हमेशा सुख ही देखा हो
3.किसी भी व्यक्ति के कुल का अनुमान उसके व्यवहार से लग जाता है। उसकी भाषा से उसके प्रदेश का का ज्ञान होता है। उसके शरीर को देखकर उसके खानपान का अनुमान किया जा सकता है। इस तरह किसी भी व्यक्ति से बातचीत में उसके बारे में बहुत कुछ जाना जा सकता है।
4.वह भोजन पवित्र कहलाता है जो विद्वानों के भोजन करने पर शेष रह जाता है। दूसरे का हित करने वाली वृत्ति ही सच्ची सहृदयता है। श्रेष्ठ और बुद्धिमान पुरुष वही होता है जो पापकर्मों में प्रवृत्त नहीं होता। कल्याण क लिये वह धर्म और कर्म श्रेष्ठ है जो अहंकार के बिना किया जाये। छलकपट से दूर रहकर शुद्ध आचरण ही करना धर्म है।

Sunday, February 8, 2009

चाणक्य संदेश: धन की शोभा उसके व्यय करने में हैं

1.मन की शुद्ध भावना से यदि लकड़ी, पत्थर या किसी धातु से बनी मूर्ति की पूजा की जायेगी तो सब में व्याप्त परमात्मा वहां भी भक्त पर प्रसन्न होंगें। अगर भावना है तो जड़ वस्तु में भी भगवान का निवास होता है ।

2.इस क्षण-भंगुर संसार में धन-वैभव का आना-जाना सदैव लगा रहेगा। लक्ष्मी चंचल स्वभाव की है। घर-परिवार भी नश्वर है। बाल्यकाल, युवावस्था और बुढ़ापा भी आते हैं और चले जाते हैं। कोई भी मनुष्य उन्हें सदा ही उन्हें अपने बन्धन में नहीं बाँध सकता। इस अस्थिर संसार में केवल धर्म ही अपना है। धर्म का नियम ही शाश्वत है और उसकी रक्षा करना ही सच्चा कर्तव्य है।

3.सच्ची भावना से कोई भी कल्याणकारी काम किया जाये तो परमात्मा की कृपा से उसमें अवश्य सफलता मिलेगी। मनुष्य की भावना ही प्रतिमा को भगवान बनाती है। भावना का अभाव प्रतिमा को भी जड़ बना देता है।

4.विद्या की शोभा उसकी सिद्धि में है । जिस विद्या से कोई उपलब्धि प्राप्त हो वही काम की है।

5.धन की शोभा उसके उपयोग में है । धन के व्यय में अगर कंजूसी की जाये तो वह किसी मतलब का नहीं रह जाता है, अत: उसे खर्च करते रहना चाहिऐ।
6.तेल में जल नहीं मिल सकता, घी में जल नहीं मिलता. पारा किसी से नहीं मिल सकता। इसी प्रकार विपरीत स्वभाव और संस्कार वाले एक दूसरे से नहीं मिल सकते।

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Thursday, February 5, 2009

विदुर संदेश:भौतिक पदार्थों की असलियत समझने वाला ही विद्वान कहा जाता है ( vidur niti on truth on world)

1.संपूर्ण भौतिक पदार्थों की वास्तविकता का जो ज्ञान रखता है तथा सभी कार्यों को संपन्न करने का ढंग तथा उसका परिणाम जानता है वही विद्वान कहलाता है।
2.जिसकी वाणी में वार्ता करते हुए कभी बाधा नहीं आती तथा जो विचित्र ढंग से बात करता है और अपने तर्क देने में जिसे निपुणता हासिल है वही पंडित कहलाता है।
3.जिनकी बुद्धि विद्वता और ज्ञान से परिपूर्ण है वह दुर्लभ वस्तु को अपने जीवन में प्राप्त करने की कामना नहीं करते। जो वस्तु खो जाये उसका शोक नहीं करते और विपत्ति आने पर घबड़ाते नहीं हैं। ऐसे व्यक्ति को ही पण्डित कहा जाता है।
4.जो पहले पहले निश्चय कर अपना कार्य आरंभ करता है, कार्य को बीच में नहीं रोकता। अपने समय को व्यर्थ नहीं जाने देता और अपने चित्त को वश में रखता है वही पण्डित कहलाता है।
5.विद्वान पुरुष किसी भी विषय के बारे में बहुत देर तक सुनता है और तत्काल ही समझ लेता है। समझने के बाद अपने कार्य से कामना रहित होकर पुरुषार्थ करने के तैयार होता है। बिना पूछे दूसरे के विषय में व्यर्थ बात नहीं करता। इसलिये वह पण्डित कहलाता है।
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Monday, February 2, 2009

कबीर के दोहे: अनेक किताबें पढने पर घमंड आदमी की शांति भंग कर देता है

पढ़त गुनत रोगी भया, बढ़ा बहुत अभिमान
भीतर ताप जू जगत का, घड़ी न पड़ती सान

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते है कि अनेक प्रकार की पुस्तकें पढ़ते हुए लोगी रोगी हो गये क्योंकि उनको अहंकार के भाव ने घेर लिया। अंदर तो इच्छााओं और कामनाओं की पूर्ति के लिये अग्नि लगी होने के कारण उनको पल भर की भी शांति नहीं मिलती।

हरि गुन गावे हरषि के, हिरदय कपट न जाय
आपन तो समुझै नहीं, औरहि ज्ञान सुनाय


कबीरदास जी के अनुसार भक्ति के नाम पर लोग नाचते गाते हैं पर उनक हृदय का कपट नहीं जाता। भगवान को स्वयं तो समझते नहीं पर दूसरे को समझाने लगते हैं।

वर्र्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अब तो धर्म प्रचार एक तरह से व्यवसाय हो गया है। जिस तरह कोई व्यापारी किसी वस्तु को बेचते समय अपनी चीज की प्रशंसा करता है भले ही वह उसने स्वयं दूसरे से खरीदी और और उसके बारे में स्वयं न जानता हो। यही हाल धर्म प्रचारकोें और प्रवचनकर्ताओं का है वह स्वयं तो परमात्मा के बारे में जानते नहीं बस किताबों से रटे ज्ञान को बघार कर अपनी रोजी रोटी चलाते हैं पर प्रदर्शन ऐसा करते हैं कि जैसे बहुत बड़े ज्ञानी हो।

यही हाल आधुनिक शिक्षा प्राप्त लोगों का है। अनेक विषय पढ़ने पर यह भूल जाते हैं कि किस विषय का मूल तत्व क्या है? अनेक विषयों पर निरर्थक बहसें करते हैं। केवल सीमित दायरों में सोचते हैं पर ऐसा दिखने का प्रयास करते हैं जैसे कि कोई बड़े भारी ज्ञानी हैं। आधुनिक शिक्षित लोगों की स्थिति तो बहुत दयनीय है। भारत का प्राचीतनतम अध्यात्म ज्ञान तो उनके लिये व्यर्थ है और जिन किताबों को पढ़कर उनको अहंकार आ जाता है उसकी सीमा तो कहीं नौकरी प्राप्त करने तक ही सीमित है-यानि गुलाम बनकर रहने के अलावा वह कुछ अन्य कर ही नहीं सकते। कहीं वह अपने शरीर से गुलामी करते हैं तो कहीं मानसिक गुलामी में फंस जाते हैं। उनको तो यह मालुम ही नहीं कि आजादी का मतलब क्या होता है? उनसे तो पुराने लोग बेहतर हैं जिनके पास अध्यत्मिक ज्ञान है और वह कभी भक्ति कर अपने मन को शांत कर लेते हैं जबकि आधुनिक शिक्षित व्यक्ति तो हमेशा ही अपने अहंकार के कारण मानसिक रूप से तनाव में रहते हैं।
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